इस विषय पर बहुत दिनों से लिखने का विचार बना रहा था। समय ही नहीं मिल पाता इसलिए लिखा नहीं। आपको साधुवाद! बहुत अच्छी लेखनी है आपकी। मूर्खतापूर्ण और व्यर्थ का प्रलाप बहुत पढ़ लिया। यह कुछ नया ताज़ा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। सोलह आने सही बात है कि आज कल मनुष्य व्यर्थ के लोगों की तसदीक़ (endorsement) के लिए भूखा रहता है, और जो ज़रूरी लोग हैं, उनको नज़रअंदाज़ करता रहता है।
बात न जाने क्यों एकल/संयुक्त परिवार पर आ कर ठहर गई! लेकिन अब आ ही गई है, तो मैं भी अपने एक दो विचार रख देता हूँ। संयुक्त परिवार इसलिए टूटे क्योंकि यह व्यवस्था केवल मुफ़्तख़ोरी को बढ़ावा देती है। परिवार में एकाध कमाने वाला निकल आता, तो पूरा परिवार उसी व्यक्ति का खून चूसने लगता। मज़े की बात यह भी है कि उस व्यक्ति का आदर तभी तक होता, जब तक उस व्यक्ति में धन दान करने का सामर्थ्य होता। जैसे ही सामर्थ्य ख़तम, वैसे ही जै सिया राम।
और स्त्रियों की तो पूछें ही मत। घर की बहुओं के साथ लौंडी जैसा सलूक होता। पहले पसेरी भर खाना पका कर घर के मर्दों को खिलाओ, फिर जो कुछ बच जाए, उसको खुरच के खा लो।
संभवतः यह भी बर्दाश्त हो बहुओं को। लेकिन जब वो यह देखतीं कि जो धन उनकी संतानों के भविष्य पर ख़र्च हो सकता है, वो केवल इस कारण नहीं हो पाता क्योंकि वह संयुक्त परिवार के बाक़ी के सदस्यों पर ख़र्च हो रहा है। वैसे भी स्त्रियों को संपत्ति में अधिकार बस हाल फिलहाल में ही मिला है। उसके पहले उनकी हालत दयनीय ही थी।
यह सब कोई सुनी सुनाई बात नहीं है। खूब देखा है मैंने संयुक्त परिवार का नंगा नाच। पिता जी का आजीवन शोषण और दोहन खूब देखा है मैंने, और माता जी का भी। और इस सब का उनको मिला क्या? बस एक बड़ा सा ठेंगा। मुसीबत के समय एक भी मुफ़्तख़ोर - जिन पर मेरे माता पिता ने अपना सर्वस्वा स्वाहा कर दिया - दिखाई नहीं देता।
ऐसी व्यवस्था को कोसों दूर से प्रणाम।