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सत्य हैमेरा मत ये है कि घर के बड़े यदि स्वार्थ त्याग कर सबके लिये सोचें तो आत्मीयता बनी रह सकती है किन्तु कटु सत्य यह भी है की संयुक्त परिवार मेंसर्वाधिक अरुचि औरतों को है और वे सदैव प्रयासरत रहती हैं कि एकल परिवार ही बनायें।
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सत्य हैमेरा मत ये है कि घर के बड़े यदि स्वार्थ त्याग कर सबके लिये सोचें तो आत्मीयता बनी रह सकती है किन्तु कटु सत्य यह भी है की संयुक्त परिवार मेंसर्वाधिक अरुचि औरतों को है और वे सदैव प्रयासरत रहती हैं कि एकल परिवार ही बनायें।
सर्वप्रथम आपको कोटि-कोटि धन्यवाद
मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया देख कर मुझे यकीन हो रहा है कि इन परिस्थितियों और दृश्यों को आपने भी अपने आसपास में घटित होते हुए देखा होगा और महसूस किया होगा।
निश्चय ही आशावद, निराशावाद पर विजयी रहेगा पर यदि हम अपने स्वार्थ और सामाजिक कर्तव्यों में सामंजस्य और संतुलन नहीं बैठा पाते हैं और यथास्थिति से संतुष्ट होकर इसे यूँ ही छोड़ देते हैं तो यह समाज धीरे-धीरे पाश्चात्य संस्कृति और एकाकी जीवन की तरफ बढ़ता चला जाएगा वह भी संतुलन बनाते हुए ...
सामाजिक बदलाव की यह दशा भारतीय संस्कृति से निश्चय ही अलग हो रही है हमारे दोस्तों और संबंधियों में परस्पर लगाव कम हो रहा है या नहीं यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है पर मेरा मानना यह है इसमें निश्चय ही कमी आई है
मैं समाज को जागृत कर उसमें बदलाव लाने का अतिइच्छुक नहीं हूं पर यदि हम सब इस बारे में सोचें तो निश्चय ही हम उचित दिशा की तरफ चल पड़ेंगे आखिर मानवीय संवेदनाएं हम सब में बराबर है बस उन्हें जागृत करना है या नजरें फेरकर उन्हें सुसुप्तावस्था में ही छोड़ देना है इसका निर्णय हमें ही करना होगा
मंगल कामना सहित।