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रात गहरा चुकी थी। सन्नाटा पसरा हुआ था, जिसे सिर्फ़ दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें तोड़ रही थीं।
रघु, जो शाम को 100 रुपये लेकर गया था, लड़खड़ाते कदमों से वापस आ रहा था। उसने देसी शराब चढ़ा रखी थी, लेकिन आज नशा उसे चढ़ नहीं रहा था, बल्कि एक अजीब सी बेचैनी थी।
वह गेट फांदकर अंदर आया और चबूतरे पर पसरने ही वाला था कि तभी...
"आह्ह्ह... उउउफ्फ्फ... दया करो..."
खिड़की से आती एक दबी हुई, दर्दनाक चीख ने उसके कदम रोक दिए।
खिड़की खुली थी। पर्दा हवा में उड़ रहा था।
रघु ने धड़कते दिल के साथ अंदर झाँका।
अंदर का नज़ारा देखकर उसका नशा हिरन की तरह गायब हो गया।
फर्श पर कामिनी नंगी पड़ी थी। उसकी टांगें फैली हुई थीं। और उसका वहशी पति, जानवर की तरह उसकी टांगों के बीच कुछ कर रहा था।
रघु ने देखा कि रमेश के हाथ में बेल्ट थी।
"हे भगवान..." रघु का कलेजा मुंह को आ गया।
उसे तुरंत समझ आ गया कि यह सब क्यों हो रहा है।
"ये मेरी वजह से पिट रही है... मैंने काम पूरा नहीं किया, इसलिए मालिक इस पर कहर ढा रहा है।"
रघु की आँखों में आंसू आ गए। उसे कामिनी के नंगे, सुडौल जिस्म को देखकर हवस नहीं, बल्कि गहरा दुःख हुआ। उसे अपनी कामचोरी पर इतना गुस्सा आया कि मन किया अंदर घुसकर रमेश का गला घोंट दे।
लेकिन... वह था कौन? एक शराबी मजदूर। और अंदर एक बड़ा साहब।
वह अपनी औकात जानता था। वह मुट्ठी भींचकर, दाँत पीसकर बस खड़ा रहा और अपनी मालकिन को अपनी वजह से लुटते हुए देखता रहा।
कुछ देर बाद, रमेश लुढ़क गया और उसके खर्राटे गूंजने लगे।
कामिनी वहीं फर्श पर अधमरी पड़ी थी।
रघु से रहा नहीं गया।
"मेमसाब..." उसने बहुत धीमी, कांपती हुई आवाज़ दी।
सन्नाटे में वह आवाज़ कामिनी के कानों में बिजली की तरह कौंधी।
कामिनी सकपका गई। उसने अपनी धुंधली आँखों से खिड़की की तरफ देखा। अँधेरे में दो आँखें उसे ही देख रही थीं।
शर्म, डर और अपमान ने उसे घेर लिया। एक पराया मर्द उसे इस हाल में देख रहा था—नंगी, टांगें फैलाए, और अपमानित।
वह हड़बड़ा कर उठने की कोशिश करने लगी।
"उफ्फ्फ..."
जैसे ही उसने उठने के लिए जोर लगाया, उसे अपनी जांघों के बीच एक भयानक दर्द और भारीपन महसूस हुआ।
बेल्ट का बक्कल... वह अभी भी उसकी योनि में फंसा हुआ था।
कामिनी का जिस्म कांप गया।
सामने रघु खड़ा था, अपलक उसे देख रहा था।
और यहाँ... कामिनी को अपनी चूत से वह लोहे का टुकड़ा निकालना था।
लज्जा का एक ऐसा पल आया जिसने कामिनी के दिमाग को सुन्न कर दिया, लेकिन उसके जिस्म को अजीब तरह से जगा दिया।
एक गैर मर्द की मौजूदगी... उसका इस तरह नंगी अवस्था में उसे देखना...
कामिनी के निप्पल (nipples) अपमान के बावजूद तन कर पत्थर हो गए।
न जाने क्यों, रघु की उस "दयालु लेकिन मर्दाना" नज़रों के अहसास से ही उसकी सूखी, छिली हुई चूत ने अचानक पानी छोड़ दिया।
कामिनी ने कांपते हाथों से उस बक्कल को पकड़ा और खींचा।
पुचूक... छलक...
एक गीली, बेशर्म आवाज़ के साथ, जो रघु को भी साफ सुनाई दी, वह बक्कल चिकनाई के साथ फिसलकर बाहर निकल आया।
बक्कल के निकलते ही कामिनी की चूत का मुंह खुला रह गया, जिससे लार जैसा गाढ़ा पानी और खून की एक पतली बूंद रिस कर फर्श पर गिर गई।
कामिनी की जान निकल गई। उसने तुरंत अपनी जांघें सिकोड़ लीं।
रघु ने यह सब देखा। वह आवाज़, वह दृश्य... लेकिन उसने तुरंत अपनी नज़रें फेर लीं। वह कामिनी को और शर्मिंदा नहीं करना चाहता था।
"भूख लगी थी मेमसाब..." रघु ने बात बदलते हुए कहा, आवाज़ में भारीपन था, "रात को कुछ खाने को नहीं मिला।"
उसने यह बात सिर्फ़ इसलिए कही ताकि उस भयानक माहौल को तोड़ा जा सके।
कामिनी को जैसे होश आया। उसने खुद को समेटा।
"जाओ... जाओ यहाँ से... आती हूँ," उसने रोती हुई, क्रोधित आवाज़ में डांटा। वह नहीं चाहती थी कि रघु उसे एक पल भी और इस हाल में देखे।
रघु चुपचाप खिड़की से हट गया और गार्डन में अंधेरे की तरफ चला गया।
कामिनी ने जैसे-तैसे खुद को फर्श से उठाया। दर्द से उसकी चीख निकल रही थी।
ब्रा और पैंटी पहनने की हिम्मत नहीं थी। शरीर पर इतने घाव थे कि तंग कपड़े बर्दाश्त नहीं होते।
उसने बिना बदन पोंछे, उसी हाल में पेटीकोट पहना, ब्लाउज डाला और ऊपर से साड़ी लपेट ली।
वह लड़खड़ाते हुए रसोई में गई।
फर्श पर जो थाली रमेश ने गिराई थी, उसे समेटा। रोटियां झाड़ीं, थोड़ी सब्जी डाली।
उसका अपना पेट खाली था, लेकिन उसे बाहर बैठे उस आदमी की फिक्र थी जो शायद उसकी ही वजह से भूखा था (या वह खुद को तसल्ली दे रही थी)।
वह थाली लेकर पीछे के दरवाजे से बाहर निकली।
गार्डन में जंगली घास बहुत बढ़ी हुई थी—वही घास जिसकी वजह से आज महाभारत हुआ था।
रघु उसी घास के बीच, एक पेड़ के तने से टिककर बैठा था।
चांदनी रात में वह किसी उदास साये जैसा लग रहा था।
कामिनी उसके पास पहुँची और थाली उसकी तरफ बढ़ा दी।
"लो... खा लो," कामिनी की आवाज़ रुंध गयी थी।
रघु ने ऊपर देखा। कामिनी की आँखें सूजी हुई थीं, गाल पर थप्पड़ का निशान था और वह लंगड़ा कर खड़ी थी।
रघु ने थाली ली। उसने एक रोटी का टुकड़ा तोड़ा, सब्जी लगाई।
लेकिन मुंह में डालने से पहले उसका हाथ रुक गया।
उसने देखा कामिनी अभी भी खड़ी है, उसे देख रही है।
"मेमसाब..." रघु ने वह निवाला अपनी तरफ नहीं, बल्कि कामिनी की तरफ बढ़ा दिया।
"आपको भी भूख लगी होगी ना? खा लो..."
रघु की आवाज़ में कोई छल नहीं था, कोई हवस नहीं थी। सिर्फ़ एक इंसान की दूसरे इंसान के लिए फ़िक्र थी।
"खा लो मेमसाब... खाली पेट इंसान को अंदर से तोड़ देता है"
कामिनी सन्न रह गई।
उसकी आँखों से आंसुओं का बांध टूट पड़ा। वह चाहकर भी खुद को रोक नहीं पाई।
उसका दिमाग तुलना करने लगा।
एक तरफ उसका 'देवता' समान पति था, जिसने उसे खाने की टेबल से बाल पकड़कर घसीटा, मारा-पीटा और भूखा रखा।
और दूसरी तरफ... यह 'नीच' जाति का, शराबी, गंदा मजदूर था। जो खुद भूखा था, लेकिन पहला निवाला उसे दे रहा था।
"नहीं..." कामिनी ने सिसकते हुए मुंह फेर लिया, "मुझे नहीं खानी... तुम खाओ।"
वह मुड़कर जाने लगी। उसे लग रहा था कि अगर वह एक पल भी और यहाँ रुकी, तो वह इस आदमी के कदमों में गिरकर रो पड़ेगी। कामिनी लड़खड़ाते कदमो से आगे बढ़ गई, चुत से ज्यादा दिल मे जख्म हो गए थे उसके.
तभी रघु की भारी आवाज़ पीछे से आई।
"खा लो मेमसाब... पेट भरा हो, तो दर्द सहने की ताकत आ जाती है।"
रघु के इन शब्दों ने कामिनी के पैरों को ज़मीन में गाड़ दिया।
यह सिर्फ़ खाने की बात नहीं थी। यह जिंदगी की सच्चाई थी। जिसे वही इंसान समझ सकता है जो कई रातो भूखा सोया हो.
कामिनी मुड़ी, लेकिन उसके पैरो ने जवाब दे दिया, वो अपने जिस्म का बोझ ना संभाल सक्क, और वहीं, उस लम्बी घास के बीच घुटनों के बल धम्म.... से बैठ गई।
उसने कांपते हाथों से रघु के हाथ से वह निवाला लिया और अपने मुंह में रख लिया।
रोटी चबाते हुए उसके आंसू उसकी गालों से होते हुए उसके होंठों तक आ गए। रोटी का स्वाद नमकीन हो गया था।
आज कामिनी ने अपने पति का दिया दर्द, और एक गैर मर्द का दिया निवाला... दोनों एक साथ निगले थे।
चांदनी रात में, उस जंगली घास के बीच, दो टूटे हुए लोग एक ही थाली में अपना-अपना दर्द बांट रहे थे।
और खिड़की से... बंटी की परछाई यह सब देख रही थी।
****************
अगली सुबह सूरज हमेशा की तरह निकला, अपनी पूरी चमक के साथ। लेकिन इस घर की दीवारे कामिनी की चीखो और एक अजीब सन्नाटे से घिरी हुई थी,
सुबह के 9 बज रहे थे।
बंटी स्कूल जा चुका था।
और रमेश?
रमेश डाइनिंग टेबल पर नाश्ता करके खड़ा हुआ। उसने आज एक कड़क इस्त्री की हुई सफ़ेद शर्ट और काली पैंट पहनी थी। चेहरे पर महंगी शेविंग क्रीम की महक थी और गाल एकदम चिकने (Clean Shaven) थे।
उसे देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि यह वही जानवर है जिसने कल रात अपनी पत्नी की अस्मिता को जूतों तले रौंदा था, जिसने 200 रुपये के लिए अपनी बीवी की योनि को लहुलुहान कर दिया था।
आज वह 'मिस्टर रमेश बाबू' था—शहर का एक प्रतिष्ठित सिविल सीनियर इंजीनियर (Civil Senior Engineer)।
रमेश की यह 'शराफत' दरअसल एक मुखौटा थी।
सच्चाई तो यह थी कि रमेश शुरू से ही एक बिगड़ैल, बदतमीज़ और जाहिल इंसान था। पढ़ाई में उसका कभी मन नहीं लगा। यह सरकारी नौकरी और रुतबा उसे अपनी काबिलियत से नहीं, बल्कि अपने बाप के रसूख और मोटी रिश्वत से मिला था।
शादी के बाद, उसके पिता ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसे यह कुर्सी दिलवा दी थी, ताकि बेटा सुधर जाए।
लेकिन कुर्सी मिलने के बाद रमेश सुधरा नहीं, बल्कि और बिगड़ गया।
नौकरी ने उसे 'शरीफों' का चोला दे दिया था, लेकिन अंदर वह वही सड़कछाप मवाली था। उसके असली दोस्त दफ्तर के बाबू नहीं, बल्कि शहर के जुआरी, सट्टेबाज और दलाल थे।
शराब और शबाब (रंडी बाज़ी ) उसका मुख्य शौक था।
जब तक उसके पिता ज़िंदा थे, वह थोड़ा डरता था। लेकिन उनके मरने के बाद तो वह 'खुल्ला सांड' हो गया.
बाहर की औरतों और कोठों की खाक छानते-छानते उसने अपनी जवानी और मर्दानगी दोनों फूँक दी थी। जवानी में जैसे-तैसे बंटी पैदा हो गया था, लेकिन अब...
अब वह सिर्फ नाम का मर्द बचा था। उसकी वह 'मर्दानगी' अब सिर्फ़ शराब के नशे में, औरत को पीटने और बेल्ट जैसी चीज़ों का इस्तेमाल करने में ही दिखती थी।
रमेश ने आईने में अपनी टाई ठीक की, बालों पर कंघी फेरी और अपना लेदर बैग उठाकर बाहर निकला।
गेट पर पहुँचते ही उसकी नज़र रघु पर पड़ी।
रघु सुबह-सुबह आ गया था और गार्डन के कोने में कुदाल चला रहा था।
रमेश को देखते ही रघु ने काम रोका और झुककर सलाम किया। "राम-राम साब।"
रमेश के चेहरे पर एक बनावटी, जेंटलमैन वाली मुस्कान आ गई।
"अरे भाई, आ गया तू? बहुत बढ़िया," रमेश ने अपनी 'साहब' वाली रौबदार लेकिन मीठी आवाज़ में कहा।
"देख भाई, कल तूने काम अधूरा छोड़ दिया था। आज निपटा देना पूरा।"
"जी मालिक, आज चकाचक कर दूंगा," रघु ने सिर झुकाकर कहा।
रमेश ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। उसे रघु में कोई इंसान नहीं, बल्कि एक 'सस्ता मजदूर' दिख रहा था जो चंद रुपयों में उसकी बेगार कर देगा।
"ठीक है, अच्छे से कर देना। अगर काम बढ़िया हुआ, तो और भी काम दूंगा। घर की पुताई-वुताई का भी सोच रहा हूँ," रमेश ने लालच का एक और टुकड़ा फेंका और अपनी स्कूटर स्टार्ट करके 'सभ्य समाज' में शामिल होने के लिए निकल गया।
अब घर में सिर्फ़ दो लोग थे।
कामिनी और रघु।
रमेश के जाते ही घर में एक भारी सन्नाटा पसर गया।
कामिनी अपने बेडरूम की खिड़की के पीछे, पर्दे की आड़ में छिपी खड़ी थी।
उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था।
वह रघु को देख रही थी। रघु ने अपनी बनियान उतार दी थी और नंगे बदन, पसीने में तर-बतर होकर फावड़ा चला रहा था। उसका काला, गठीला बदन धूप में चमक रहा था।
कामिनी की हालत 'सांप-छछूंदर' वाली हो गई थी।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह बाहर कैसे जाए? वह रघु से नज़रें कैसे मिलाए?
उसके दिमाग में कल रात का वो मंजर किसी फिल्म की तरह चल रहा था—
उसका नंगा, बेबस जिस्म... फर्श पर फैली हुई टांगें... और रघु की मौजूदगी में उसकी योनि से फिसलता हुआ वो बेल्ट का बक्कल।
उसने रघु के सामने अपनी 'इज्ज़त' का जनाज़ा निकलते देखा था। रघु ने उसकी खुली हुई, सूजी हुई और अपमानित 'चूत' को देखा था।
"हे भगवान... मैं किस मुंह से उसके सामने जाऊं?" कामिनी ने अपनी हथेलियों से चेहरा ढक लिया। शर्म के मारे उसके गाल तप रहे थे।
लेकिन दुविधा सिर्फ़ शर्म की नहीं थी।
दुविधा यह भी थी कि 'चोर' तो कामिनी के मन में भी था।
अगर रघु ने उसे नंगा देखा था, तो कामिनी ने भी तो रघु का लंड देखा था।
दोपहर को जब वह सो रहा था, तो कामिनी ने ही तो उसकी लुंगी उठाई थी। उसने ही तो उसके उस विशाल, काले 'नाग' को देखा था... और सिर्फ़ देखा नहीं था, छुआ भी था। उसे अपनी मुट्ठी में भरने की कोशिश की थी।
कामिनी को अभी भी अपनी हथेली पर रघु के उस सख्त अंग की गर्माहट महसूस हो रही थी।
एक तरफ 'शर्म' थी, और दूसरी तरफ 'वासना'।
एक तरफ वह मालकिन थी, और दूसरी तरफ एक अतृप्त औरत।
उसने पर्दे से थोड़ा और झाँककर देखा।
रघु पूरी ताकत से ज़मीन खोद रहा था। उसकी पीठ की मांसपेशियां हर वार के साथ तन रही थीं।
कामिनी को याद आया कि रात को इसी आदमी ने उसे रोटी खिलाई थी। उस वक़्त इसकी आँखों में हवस नहीं, दर्द था।
"यह आदमी आखिर है क्या?" कामिनी ने खुद से पूछा। "एक शराबी? एक मजदूर? एक दुखी पति? या..."
उसकी नज़र रघु की कमर से नीचे लुंगी पर गई, जो पसीने से चिपक गई थी।
"...या एक असली मर्द?"
तभी रघु ने माथे से पसीना पोंछने के लिए सर उठाया और उसकी नज़र सीधे उस खिड़की पर गई जहाँ कामिनी खड़ी थी।
कामिनी हड़बड़ा गई। वह पीछे हटना चाहती थी, लेकिन उसके पैर जाम हो गए।
उनकी नज़रें मिलीं।
रघु के चेहरे पर कोई 'नौकर' वाला भाव नहीं था। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी—जैसे वह जानता हो कि पर्दे के पीछे खड़ी औरत सिर्फ़ उसे देख नहीं रही, बल्कि उसे 'महसूस' कर रही है।
उसने कामिनी को देखकर हल्का सा सिर हिलाया, बिना कुछ बोले।
कामिनी का सांस लेना भारी हो गया। उसे लगा कि साड़ी पहने होने के बावजूद, रघु की वो तीखी नज़रें उसके कपड़ों को चीरकर, कल रात वाले जख्मों को कुरेद रही हैं।
आज का दिन बहुत भारी गुजरने वाला था।
(क्रमशः)
रमेश के जाने के बाद कामिनी ने खुद को किसी तरह समेटा।
उसने मशीन से धुले हुए गीले कपड़े बाल्टी में भरे। उसका शरीर टूट रहा था, खासकर कमर के नीचे का हिस्सा, जहाँ कल रात बेल्ट ने कहर ढाया था। हर कदम पर उसकी जांघों के बीच एक तीस उठ रही थी, जिससे वह लंगड़ा कर चल रही थी।
हिम्मत करके वह कपड़े सुखाने के लिए पिछवाड़े में आई, जहाँ गार्डन था।
उसकी नज़रें झुकी हुई थीं। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह रघु से नज़रें मिला सके। उसे लग रहा था कि रघु की आँखें उसके कपड़ों के आर-पार उन जख्मों को देख रही हैं।
जैसे ही रघु ने कामिनी को लंगड़ाते हुए बाहर आते देखा, उसने कुदाल छोड़ दी और तेज़ कदमों से उसके पास आया।
कामिनी के दिल की धड़कन बढ़ गई। उसे लगा शायद रघु उसके दर्द के बारे में पूछेगा, शायद कोई सांत्वना देगा।
रघु उसके करीब आकर रुका।
"मेमसाब..." रघु ने हाथ फैला दिया, "वो... 100 रुपये मिल जाते तो..."
कामिनी सन्न रह गई।
उसे लगा था कि रघु हमदर्दी दिखाने आया है, उसका हालचाल पूछने आया है। लेकिन यह क्या? इसे तो फिर से दारू चाहिए?
कामिनी की सारी उम्मीदें, जो कल रात की रोटी वाली घटना से बंधी थीं, एक पल में कांच की तरह टूट गईं।
'सब मर्द एक जैसे होते हैं,' उसने कड़वाहट से सोचा। 'पति को जिस्म चाहिए, और इसे दारू। मेरे दर्द की किसी को परवाह नहीं।'
कामिनी के चेहरे पर एक "मरे हुए" भाव आ गए। उसने बिना कोई सवाल किए, अपनी साड़ी के पल्लू में खोंसा हुआ 100 का नोट निकाला और रघु के हाथ पर रख दिया।
रघु ने नोट लिया और बिना एक शब्द कहे, वहां से सरपट बाहर भाग गया।
कामिनी उसे जाते हुए देखती रही। उसकी आँखों में आंसू नहीं, बस एक खालीपन था।
"जा... पी ले तू भी," वह बुदबुदाई, "मेरी किस्मत में ऐसे ही ऐसे लोग लिखे हैं।"
वह लंगड़ाते हुए वापस मुड़ी और किचन में जाकर बेमन से काम करने लगी।
मुश्किल से 10 मिनट बीते होंगे।
खिड़की पर फिर से खटखटाहट हुई।
"मेमसाब..."
कामिनी ने चिढ़कर देखा। रघु खड़ा था। उसका चेहरा पसीने से भीगा था, सांस फूली हुई थी।
"क्या है अब?" कामिनी ने रूखेपन से पूछा।
"मेमसाब, मैं दवाई ले आया हूँ," रघु की आँखों में एक चमक थी, "आपका दर्द पल भर में गायब हो जाएगा।"
कामिनी हैरान रह गई।
"दवाई? कैसी दवाई?"
"क्या मै अंदर आ सकता हूँ, यहाँ बाहर कोई देख लेगा," रघु ने इधर-उधर देखते हुए, झिझकते हुए कहाँ, जैसे की उसे अपना छोटपन याद आ गया हो.
वो रानी के चमकते महल को अपने गंदे पैरो से कुचलने की बात कर रहा था.
कामिनी के मन में द्वंद्व था। एक पराये, गंदे मजदूर को अपने बेडरूम में बुलाना?
कैसे बोले आने को, किसी ने देख लिया तो, अब तक वो ही घर के बहार गई थी, लेकिन आज ये बहार का आदमी अंदर आने की परमिशन मांग रहा था.
लेकिन दर्द इतना ज्यादा था कि उसने दिमाग की नहीं सुनी। उसने धीरे से पीछे का दरवाज़ा खोला और रघु को अंदर आने का इशारा किया।
संगमरमर के फर्श वाले उस आलीशान घर के बेडरूम में, आज पहली बार एक काला, मैला-कुचैला शराबी दाखिल हुआ था।
कामिनी बेडरूम के बीच खड़ी थी। उसकी सांसें तेज़ थीं। डर और उत्सुकता दोनों थी।
उसके सामने पहली बार कोई पराया मर्द उसके सामने खड़ा था,
"क्या दवाई लाए हो? दिखाओ," कामिनी ने पूछा।
रघु ने अपनी लुंगी की तह से एक 'देसी दारू का क्वार्टर' (पव्वा) निकाला और कामिनी के सामने लहरा दिया।
कामिनी की आँखें फटी की फटी रह गईं।
रघु ने बड़े गर्व से कहा, "मेमसाब, शराब का दर्द शराब से ही जाता है।"
कामिनी का दिमाग सुन्न हो गया और अगले ही पल गुस्से से फट पड़ा।
"बदतमीज़! नीच आदमी!" कामिनी चिल्लाई, "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? तुमने मुझे अपने जैसा शराबी समझा है? मैं... मैं तुम जैसे आदमी के साथ बैठकर शराब पियूँगी?"
कामिनी का गुस्सा सातवें आसमान पर था।
"निकल जाओ यहाँ से! अभी के अभी! मैंने सोचा था तुम इंसान हो, लेकिन तुम तो जानवर हो... तुम्हें लगता है मैं अपना गम भुलाने के लिए तुम्हारे साथ दारू पियूँगी?"
कामिनी रोंये जा रही थी, चिल्लाए जा रही थी। अपना सारा दर्द, सारा गुस्सा वह रघु पर निकाल रही थी।
रघु चुपचाप खड़ा सुनता रहा। वह कुछ बोलना चाहता था, हाथ उठा रहा था, लेकिन कामिनी उसे बोलने का मौका ही नहीं दे रही थी।
जब कामिनी की सांस फूल गई और वह चुप हुई, तब रघु ने बहुत ही धीमी और शांत आवाज़ में कहा—
"मेमसाब... यह पीने के लिए नहीं, लगाने के लिए है।"
कामिनी एकदम चुप हो गई। कमरे में सन्नाटा छा गया।
उसने ध्यान से रघु को देखा। रघु की आँखें स्थिर थीं। उसके मुंह से शराब की बदबू नहीं आ रही थी।
कामिनी ने महसूस किया कि आज रघु ने पी नहीं है। वह 100 रुपये, जो उसने अभी लिए थे, उनसे वह अपने लिए नहीं, बल्कि कामिनी के लिए यह बोतल लाया था।
कामिनी का गुस्सा झाग की तरह बैठ गया। उसकी जगह अब शर्मिंदगी और हैरानी ने ले ली।
"लगा... लगाने के लिए?" कामिनी हकलायी। उसे कुछ समझ नहीं आया, रघु कह क्या रहा है.
"हाँ मेमसाब," रघु ने बोतल मेज पर रखी।
"यह हमारे गाँव का देसी इलाज है। बड़े-बुज़ुर्ग कहते हैं—दारू पीने से अंदर का जख्म जाता है (गम), और जख्म पर डालने से बाहर का दर्द।"
उसने कामिनी की तरफ देखा, उसकी नज़रें कामिनी की साड़ी के नीचे छुपे जख्मों को टटोल रही थीं।
"वो... जो मालिक ने कल रात किया... बेल्ट से..." रघु थोड़ा हिचकिचाया, "वहाँ... खून जमा होगा, खाल छिली होगी।
यह देसी ठर्रा जब उस जख्म पर पड़ता है ना, तो थोड़ी जलन होती है, लेकिन सारा ज़हर, सारी सूजन खींच लेता है। घाव पकता नहीं है।"
कामिनी को अब समझ आ रहा था कि रघु क्या कहना चाह रहा है। लेकिन उसका अगला वाक्य सुनकर कामिनी की रूह कांप गई।
रघु ने संजीदगी से कहा, "मेमसाब... इसे सीधे... 'वहाँ' डालना पड़ेगा। आपकी... अंदर वाली चोट पर।"
कामिनी का चेहरा सफ़ेद पड़ गया।
"कक्क... ककम....क्या?"
"हाँ मेमसाब," रघु ने बिना पलक झपकाए कहा, "जख्म गहरा है। ऊपर-ऊपर लगाने से कुछ नहीं होगा। आपको लेटकर, टांगें खोलकर... इसे सीधे उस कटी हुई जगह पर डालना होगा।"
उसने चेतावनी दी, "बहुत जलेगा... जान निकल जाएगी... लेकिन उसके बाद जो ठंडक मिलेगी, वो किसी डॉक्टर की दवा में नहीं है।"
इस अजीब और भयानक इलाज को सुनकर कामिनी कांप उठी।
अपनी सबसे निजी, सबसे कोमल जगह पर शराब डालना?
यह सोचकर ही उसकी योनि में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई।
डर और उस अजीब से ख्याली चित्रण (Imagination) ने उसके दिमाग पर ऐसा असर किया कि अनजाने में ही उसकी 'चूत' ने पानी छोड़ दिया।
और जैसे ही वह नमकीन पानी अंदर के छिले हुए जख्मों पर लगा...
"सीईईईई....." कामिनी के मुंह से एक सिसकी निकल गई।
गीला होते ही उसके सूखे जख्म ताज़ा हो गए और उनमें भयानक जलन होने लगी।
वह वहीं अपने घुटनों को भींचकर खड़ी रह गई। दर्द अब बर्दाश्त से बाहर हो रहा था।
सामने मेज पर वह 'दारू की बोतल' रखी थी, और पास ही खड़ा था वह 'वैद्य' जो आज उसका इलाज करने वाला था।
***************
कामिनी बिस्तर के किनारे बैठी कांप रही थी। उसकी जांघों के बीच से रिसते पानी ने जख्मों को गीला कर दिया था, जिससे वहां मिर्च जैसी भयानक जलन हो रही थी।
रघु उसकी हालत समझ रहा था।
"हिम्मत करो मेमसाब," उसने दिलासा दिया, "कल रात जब वो लोहे का बक्कल अंदर गया था... यह दर्द उससे ज्यादा नहीं होगा। बस एक पल की बात है।"
रघु की यह बात सबूत थी कि उसने कल रात सब कुछ देखा था—कामिनी का अपमान, उसकी नग्नता, सब कुछ।
कामिनी का चेहरा शर्म से झुक गया।
लेकिन... एक अनजान मर्द के सामने अपनी टांगें कैसे खोल दे?
उसके दिमाग में एक विचार आया।
"रघु..." कामिनी ने कांपती आवाज़ में कहा, "तुम... तुम दीवार की तरफ मुँह करके खड़े हो जाओ। मैं... मैं खुद कर लूँगी।"
रघु एक पल रुका, फिर सिर हिलाकर दीवार की तरफ मुड़ गया।
कमरे में सन्नाटा था, जिसे सिर्फ़ कामिनी की भारी होती सांसें और दीवार घड़ी की टिक-टिक तोड़ रही थी।
रघु दीवार की तरफ मुंह करके खड़ा हो गया.
कामिनी के हाथ में वो 'देसी दारू' की बोतल थी। उसका दिल पिंजरे में बंद पक्षी की तरह फड़फड़ा रहा था।
वह बिस्तर के बीचों-बीच लेटी हुई थी।
"हे भगवान... मुझे शक्ति देना," वह बुदबुदाई।
उसने अपने कांपते हाथों से बोतल का ढक्कन खोला और उसे साइड टेबल पर रख दिया।
अब बारी थी उस 'पर्दे' को हटाने की जिसने उसकी मर्यादा को अब तक ढक रखा था।
कामिनी ने अपने दोनों हाथों से अपनी सूती साड़ी और उसके नीचे पहने पेटीकोट के घेरे को पकड़ा।
उसकी उंगलियां कपड़े को मुट्ठी में भींच रही थीं।
उसने धीरे-धीरे कपड़ा ऊपर खींचना शुरू किया।
सरसर... सरसर...
साड़ी पहले उसकी एड़ियों से ऊपर उठी, फिर उसकी सुडोल पिंडलियों को नंगा करती हुई घुटनों तक आई।
कामिनी की सांसें अटक रही थीं। एक पराया मर्द, भले ही उसने पीठ कर रखी हो, वो कमरे में मौजूद था, और वह खुद को नंगा कर रही थी।
उसने कमर को हल्का सा उठाया और साड़ी-पेटीकोट को एक ही झटके में अपनी नाभि तक समेट दिया।
अब वह कमर के नीचे पूरी तरह से अनावृत थी, नंगी थी.
उसकी गोरी, भरी हुई, मांसल मलाईदार जांघें बिस्तर की सफ़ेद चादर पर चमक रही थीं।
और उन दोनों जांघों के संगम पर... वह 'निजी त्रिकोण' मौजूद था।
कल दोपहर की 'वीट' ने वहां के काले जंगल को साफ़ कर दिया था। वहां अब एक भी बाल नहीं था, सिर्फ़ चिकनी, गोरी त्वचा थी।
लेकिन कल रात की हैवानियत ने उस खूबसूरती को एक दर्दनाक रूप दे दिया था।
कामिनी ने अपनी गर्दन उठाकर खुद अपनी 'योनि' को देखा।
वह बुरी तरह सूजी हुई थी। उसके दोनों बाहरी होंठ किसी पके हुए टमाटर की तरह लाल और मोटे हो गए थे। सूजन की वजह से योनि का मुँह बंद नहीं हो पा रहा था; वह आधा खुला था, और उसके अंदर का गहरा गुलाबी मांस साफ़ झांक रहा था।
उस खुले हुए मुँह से पारदर्शी काम-रस और हल्का सा खून रिसकर बाहर आ रहा था, जिससे वह हिस्सा गीला और लिसलिसा हो गया था।
वह एक घायल फूल की तरह लग रही थी जिसे किसी ने मसल दिया हो।
कामिनी ने कांपते हाथ से शराब की बोतल उठाई।
बोतल ठंडी थी। कांच पर नमी की बूंदें जमी थीं।
उसने अपनी टांगें घुटनों से मोड़ीं और उन्हें जितना हो सके उतना चौड़ा कर दिया।
हवा का एक झोंका उसकी नंगी, गीली योनि को छूकर गुजरा, जिससे उसके बदन में एक सिहरन दौड़ गई।
उसने बोतल का ठंडा, गोल मुँह अपनी योनि के पास लाया।
उसकी कलाई कांप रही थी।
जैसे ही कांच का वह बर्फीला किनारा (Rim) उसकी सूजी हुई, तपती योनि के बाहरी हिस्से (Labia) से स्पर्श हुआ...
"सीईईईईईई...............आआहहहह.... आउच "
कामिनी के मुंह से एक लम्बी सिसकी निकल गई।
उसकी पूरी त्वचा पर रोंगटे खड़े हो गए।
उसके निप्पल ब्लाउज के अंदर पत्थर की तरह सख्त हो गए।
उस ठंडे कांच और गर्म, सूजी हुई त्वचा का मिलन ऐसा था जैसे बिजली के नंगे तार टकरा गए हों।
एक अजीब सा करंट उसकी रीढ़ की हड्डी में दौड़ गया—आधा दर्द का, और आधा एक अनजानी उत्तेजना का।
उसने हिम्मत करके बोतल के मुँह को अपनी चुत के छेद पर सेट करने की कोशिश की।
लेकिन रास्ता बहुत संकरा था और सूजा हुआ था।
जैसे ही कांच ने जख्म को दबाया, एक तीखी टीस उठी।
"आह्ह्ह...उउउफ्फ्फ्फ़....." कामिनी का हाथ हिल गया।
निशाना चूक गया।
छलक...
बोतल टेढ़ी हो गई और शराब की एक बड़ी धार योनि के अंदर जाने के बजाय, बाहर छलक कर उसकी जांघों और बिस्तर पर गिर गई।
"उफ्फ्फ... नहीं..." कामिनी घबरा गई।
शराब गिरने की आवाज़ और कामिनी की आह सुनकर रघु से रहा नहीं गया।
वह झटके से पीछे पलटा।
और पलटते ही... उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं।
नज़ारा ही ऐसा था।
कामिनी बिस्तर पर टांगें फैलाए, कमर के नीचे पूरी तरह नंगी लेटी थी।
उसकी गोरी जांघों पर शराब बह रही थी। और बीच में... वह लाल, सूजी हुई और गीली 'चूत' किसी ज्वालामुखी के मुँह की तरह रघु को निमंत्रण दे रही थी।
रघु की नज़र गिरती हुई शराब पर गई। शराबी पहले शराब को देखता है उसके बाद शबाब को.
रघु भी वही शराबी था, इतनी खूबसूरत पकी हुई चुत के सामने उसे शराब ही दिखी.
वह चीते की तरह लपका और कामिनी के हाथ से बोतल थाम ली।
"क्या कर रही हो मेमसाब... अमृत गिरा दिया..." रघु की आवाज़ में हवस और चिंता दोनों थी।
कामिनी सकपका गई। उसने जल्दी से अपनी टांगें सिकोड़ने की कोशिश की।
"नहीं... मत देखो... रघु..." वह लज्जा से पानी-पानी हो गई।
लेकिन रघु ने अपना बायां हाथ उसकी जांघ पर रखकर उसे रोक दिया।
"शर्माओ मत मेमसाब... अब क्या पर्दा?" रघु ने अधिकार से कहा, "कल रात सब देख लिया था मैंने। और मेरी सुगना की भी ऐसी ही थी... लाओ मैं करता हूँ।"
रघु के स्पर्श—उस खुरदरे, सख्त हाथ का उसकी मखमली जांघ पर टिकना—ने कामिनी के विरोध को पिघला दिया।
वह निढाल होकर तकिये पर गिर गई। उसने अपनी मुट्ठी में चादर को भींच लिया और आँखें कसकर बंद कर लीं।
उसने अपनी टांगें रघु के हवाले कर दीं।
रघु ने उसकी दोनों जांघों को पकड़कर पूरी तरह फैला दिया। अब कामिनी की गुप्त गुफा का एक-एक कोना रघु की नज़रों के सामने था।
रघु ने बोतल का मुँह ठीक योनि के खुले हुए छेद पर लगाया।
कांच का स्पर्श फिर हुआ। कामिनी का पेट अंदर की तरफ पिचक गया।
और फिर...
ओछः... पच... पच.... फच....
रघु ने बोतल की गर्दन को ज़रा से दबाव के साथ उस सूजी हुई दरार के अंदर घुसा दिया।
"आआईईईईईईईई.......... माअअअअअअ........उउउफ्फ्फ.... आउच.... मर गई... हे भगवान..."
कामिनी की चीख निकल गई। उसकी कमर बिस्तर से ऊपर उठ गई, कामिनी तड़प उठी, उसने लाख कोशिश की अपनी जांघो को समेट ले, लेकिन रघु के मजबूत हाथो ने ऐसा होने नहीं दिया.
शराब सीधे अंदर के कच्चे, छिले हुए जख्मों पर गिरी।
आग लग गई... भयानक आग।
लेकिन अगले ही पल... जैसे ही दारू की वो नशीली गर्माहट अंदर की नसों में समाई, दर्द एक अजीब सी 'ठंडक' और 'मदहोशी' में बदलने लगा।
कामिनी हांफ रही थी। उसका सीना तेज़ी से ऊपर-नीचे हो रहा था।
लेकिन बोतल का मुँह छोटा था और अंदर जगह कम।
ग्लक... छलक...
शराब अंदर जाने के बाद वापस बाहर उफनने लगी। वह कामिनी के कुदरती पानी और जख्म के खून के साथ मिलकर बाहर बह रही थी।
रघु की आँखें उस बहते हुए रस को देखकर चौंधिया गईं।
कीमती देसी शराब... और मालकिन का जवानी का रस... सब बर्बाद हो रहा था।
उससे रहा नहीं गया।
उसका शराबी और हवसी दिमाग एक हो गया।
उसने झुककर अपना मुँह सीधा कामिनी की चूत पर लगा दिया।
स्लर्रर्रप.... सुड़प... सुदाप..लप... लप...
उसने बोतल हटाते ही अपनी जीभ वहां लगा दी और बहती हुई शराब को चाट लिया। या यूँ कहिये चुत से निकलती शराब को पीने लगा,
वह कीमती देसी शराब कामिनी की जांघों पर बर्बाद हो रही थी।
रघु की आँखों में एक अजीब सा पागलपन तैर गया। उसके लिए शराब भगवान थी, और कामिनी की चूत मंदिर। और वह प्रसाद को ज़मीन पर गिरते नहीं देख सकता था।
उसने आव देखा न ताव, अपना पूरा चेहरा कामिनी की दोनों जांघों के बीच घुसा दिया।
उसने अपने होंठों को कामिनी की सूजी हुई योनि के ठीक नीचे, जहाँ से रस बह रहा था, एक प्याले की तरह लगा दिया।
"स्लर्रर्रप........"
एक लंबी, गीली आवाज़ कमरे में गूंज गई।
रघु ने बहती हुई शराब और कामिनी के जिस्म से निकलते द्रवों के उस मिश्रण को एक ही घूंट में अपने मुंह में भर लिया।
और जैसे ही वह घूंट उसके गले से नीचे उतरा... रघु की आँखें चढ़ गईं।
आज यह वो मामूली 'देसी ठर्रा' नहीं था जो वह रोज़ 50 रुपये में खरीदता था। आज इसमें एक जादुई मिलावट थी।
उस कड़वी शराब में कामिनी की कामुक उत्तेजना का नमकीन पानी मिला हुआ था।
उसमें कल रात के और आज सुबह के जमे हुए पेशाब की एक हल्की, तीखी गंध थी।
और सबसे बढ़कर, उसमें कामिनी के कच्चे जख्मों से रिसता हुआ ताज़ा, कसैला खून मिला हुआ था।
यह एक अजीबोगरीब 'कॉकटेल' था—कड़वा, नमकीन, कसैला और खट्टा।
लेकिन रघु के लिए? रघु के लिए यह अमृत था।
"आह्ह्ह..." रघु के मुंह से एक मदहोश आवाज़ निकली।
उसने महसूस किया कि इस शराब में नशा दुगना है। एक नशा अल्कोहल का, और दूसरा नशा एक औरत के काम रस का।
उसे लगा जैसे वह शराब नहीं, बल्कि कामिनी की जवानी पी रहा है।
वही कामिनी को लगा जैसे उसे सांप ने डस लिया हो।
जहाँ जलन थी, वहां अचानक रघु की गीली, खुरदरी और गर्म जीभ रेंगने लगी।
रघु पागलों की तरह चूस रहा था।
उसने अपनी जीभ को नुकीला किया और उस सूजी हुई चूत के छेद में—जहाँ अभी बोतल थी—अंदर डाल दिया।
"उफ्फ्फ्फ.... रघुउउउउ.... आह्ह्ह्ह..." कामिनी का सर दायें-बायें डोलने लगा।
शराब और चूत के रस का वो कॉकटेल रघु को पागल कर रहा था। वह लप-लप करके चाट रहा था, चूस रहा था।
उसकी जीभ कामिनी के 'दाने' (Clitoris) को रगड़ रही थी।
कामिनी के हाथ रघु के बालों में चले गए। उसने रघु का सर अपनी चूत पर कसकर दबा दिया।
"पी लो... सब पी लो... आह्ह्ह... मेरी जान निकल रही है..."
दर्द गायब था। शर्म गायब थी।
सिर्फ़ एक जानवर जैसी हवस थी।
रघु अब किसी शराबी की तरह नहीं, बल्कि एक भूखे शेर की तरह कामिनी की चूत पर टूट पड़ा।
उसने अपनी खुरदरी, मांसल जीभ बाहर निकाली और उसे कामिनी की सूजी हुई योनि की दरार पर फिरा दिया।
लप... लप... लप...
उसकी जीभ किसी मोटे ब्रश की तरह कामिनी के नाजुक अंगों को साफ़ करने लगी।
वह शराब की हर उस बूंद को चाट रहा था जो कामिनी की बालों रहित चुत पर अटकी थी।
उसकी जीभ ने योनि के बाहरी होठों को चाटा, जो सूजन की वजह से मोटे और लाल हो गए थे।
फिर उसने अपनी जीभ की नोक को नुकीला किया और उस आधे खुले हुए छेद के अंदर डाल दिया, जहाँ अभी भी शराब भरी हुई थी।
चप... चप... चप...
वह अंदर के जख्मों को, वहां जमे खून को और वहां भरे हुए मवाद और शराब को अपनी जीभ से खींच-खींच कर पीने लगा।
उसे न खून के स्वाद से घिन आ रही थी, न पेशाब की गंध से। हवस ने उसे अंधा और बहरा कर दिया था। वह बस उस 'गीलेपन' को चूस लेना चाहता था।
इधर बिस्तर पर लेटी कामिनी की दुनिया ही बदल गई थी।
जब रघु की खुरदरी जीभ ने पहली बार उसकी जलती हुई त्वचा को छुआ, तो वह सिहर उठी,
लेकिन अगले ही पल, एक चमत्कार हुआ।
रघु की जीभ की गर्माहट और गीलेपन ने शराब की जलन को दबा दिया।
कामिनी ने अपनी जिंदगी के 38 साल गुज़ार दिए थे।
उसकी शादी को 18 साल हो चुके थे।
लेकिन इन 38 सालों में, रमेश ने एक बार भी... कभी एक बार भी अपना मुंह उसकी जांघों के बीच नहीं ले गया था।
कामिनी के लिए 'सेक्स' का मतलब सिर्फ़ टांगें फैलाना और पति के धक्के सहना था।
उसे पता ही नहीं था कि एक औरत की योनि को 'चाटा' भी जा सकता है। उसे पता ही नहीं था कि जीभ का स्पर्श लंड के धक्कों से भी ज्यादा सुख दे सकता है।
"रघुउउउउ.... उउउउफ्फ्फ्फ.... ये.... ये क्या कर रहे हो.... आह्ह्ह्ह..."
कामिनी अपना सर तकिये पर दायें-बायें पटकने लगी,
उसकी उंगलियां, जो अब तक चादर को नोच रही थीं, अब हवा में कुछ ढूंढने लगीं और अंत में रघु के सिर पर जा टिकीं।
उसने रघु के गंदे, पसीने से भरे और बिखरे हुए बालों को अपनी मुट्ठी में जकड़ लिया।
"हाँ.... वहीँ.... ओह्ह्ह्ह माँ.... मर गई...."
रघु की जीभ अब उसके चुत के 'दाने' (Clitoris) को ढूंढ चुकी थी।
वह छोटा सा मटर का दाना, जो आज तक रमेश की बेरुखी की वजह से सोया हुआ था, रघु की जीभ की रगड़ से जाग उठा था।
रघु उसे पागलों की तरह चूस रहा था, अपनी जीभ से थपथपा रहा था।
कामिनी की पीठ बिस्तर से ऊपर उठ गई, उसका पेल्विस (Pelvis) हवा में उठकर रघु के मुंह से चिपक गया।
वह चाहती थी कि रघु उसे खा जाए। पूरा निगल जाए।
"और अंदर.... रघु.... मेरी जान.... और अंदर..."
कामिनी आज अपनी मर्यादा, अपने संस्कार, अपना ऊँचा कुल... सब भूल चुकी थी।
उसे बस मज़ा आ रहा था। उसे यही चाहिए था, उसकी चुत कौन चूस रहा है अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था,
वह महसूस कर रही थी कि रघु उसकी गंदगी, उसका खून, उसका पेशाब... सब कुछ पी रहा है, और उसे जरा भी घिन नहीं आ रही।
यह 'स्वीकार्यता' कामिनी के लिए सबसे बड़ा नशा थी।
जिस पति ने उसे 'सूखी चूत' कहकर मारा था, आज उसी चूत को एक पराया मर्द 'रबड़ी' समझकर चाट रहा था।
कामिनी की आँखों से आंसू बहने लगे—दर्द के नहीं, उस परम सुख के जो उसे 38 साल बाद नसीब हुआ था।
रघु अब अपनी जीभ के साथ-साथ अपनी उंगलियों का भी इस्तेमाल करने लगा।
वह एक हाथ से कामिनी की जांघों को चौड़ा किये हुए था, और दूसरे हाथ से उसकी चूत के होठों को फैलाकर, अपनी जीभ को और गहराई तक उतार रहा था।
कामिनी का शरीर अकड़ने लगा।
उसकी योनि की मांसपेशियां रघु की जीभ को जकड़ने लगीं।
"मैं गई.... रघु.... मैं गई..... छोड़ना मत.... आह्ह्ह्ह...."
उसके अंदर का ज्वालामुखी फटने के लिए तैयार था। एक ऐसा ऑर्गेज्म जो उसने शायद ही कभी महसूस किया हो।
कामिनी का शरीर झटके लेने लगा। वह चरम सीमा पर थी। उसकी योनि रघु के मुंह में संकुचित होने लगी। खुल के बंद होने लगी.
"रघु... मैं गई... आह्ह्ह..."
लेकिन ठीक उसी पल...
रघु के दिमाग में 'घास' और 'साहब का डर' कौंध गया।
वह झटके से पीछे हटा और खड़ा हो गया।
"नहीं..." कामिनी तड़प उठी। वह एकदम किनारे से वापस गिर गई। जैसे सातवे आसमान पर ले जा कर उसे किसी ने छोड़ दिया हो.
रघु का मुंह गीला था, लाल था। वह हांफ रहा था।
"घास... घास साफ़ करनी है मेमसाब," रघु बड़बड़ाया,
"वरना साहब बेल्ट से मारेंगे... मैं जा रहा हूँ।"
वह अपनी लुंगी में तने हुए लंड को छुपाते हुए, पागलों की तरह कमरे से भाग गया।
कामिनी बिस्तर पर वैसे ही नंगी, टांगें फैलाए पड़ी रह गई।
उसकी चूत गीली थी, लिसलिसी थी और फड़फड़ा रही थी।
रघु ने इलाज तो कर दिया था—दर्द मिट गया था। लेकिन उसने एक नई बीमारी दे दी थी—अधूरी प्यास।
कांच की बोतल की वो ठंडक और रघु की जीभ की वो गर्मी... कामिनी अब इसी याद में तड़पने वाली थी।
*********
कामिनी चरम सुख के उस मुहाने पर खड़ी थी जहाँ से वापसी का कोई रास्ता नहीं होता। उसका शरीर रघु के मुंह पर कसता जा रहा था, उसकी योनि की दीवारें रघु की जीभ को निचोड़ने के लिए तैयार थीं।
"रघु... मैं गई... आह्ह्ह..."
वह बस झड़ने ही वाली थी।
लेकिन तभी...
रघु की जीभ अचानक रुक गई।
उसकी नज़र कामिनी की गोरी जांघों के उस हिस्से पर पड़ी जहाँ कल रात रमेश की बेल्ट ने नीले-काले निशान छोड़ दिए थे।
वो सूजी हुई लाल लकीरें... वो जमा हुआ काला खून।
उन निशानों को देखते ही रघु के दिमाग में एक बिजली सी कौंधी।
हवस का वह घना कोहरा एक ही पल में छंट गया।
उसे याद आ गया कि यह चोट क्यों लगी थी? क्योंकि काम अधूरा था।
उसे याद आ गया कि अगर आज भी काम अधूरा रहा, तो शाम को 'साहब' फिर आएंगे, और फिर वही बेल्ट इन मखमली जांघों को चीर देगी।
रघु कांप गया।
वह झटके से पीछे हटा। उसका मुंह कामिनी के चूत-रस और शराब से गीला था, लेकिन उसकी आँखों में अब हवस नहीं, एक खौफनाक 'डर' था।
"नहीं..." रघु हड़बड़ा कर खड़ा हो गया।
कामिनी, जो आसमान में उड़ रही थी, धड़ाम से हकीकत की सख्त ज़मीन पर आ गिरी।
उसका शरीर अभी भी झटके ले रहा था, उसकी चुत का अंदरूनी हिस्सा अभी भी सिकुड़-फैल रहा था, प्यासा था... लेकिन प्यास बुझाने वाला हट चुका था।
"रघु...?" कामिनी ने मदहोश, तड़पती हुई आँखों से उसे देखा। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह अचानक क्या हुआ।
रघु ने अपनी लुंगी ठीक की, जिसमें उसका खड़ा लंड अभी भी तंबू बनाए हुए था। लेकिन अब उसका दिमाग उस लंड के काबू में नहीं था।
"काम... काम करना है मेमसाब," रघु की आवाज़ फटी हुई थी, "वो निशान... देखिये अपनी जांघों पर... वो फिर मारेंगे। साहब आज फिर जानवर बन जाएंगे।"
उसने अपनी मुट्ठी भींच ली, जैसे किसी अदृश्य दुश्मन का गला घोंट रहा हो।
"मैं... मैं एक और सुगना नहीं बनने दूंगा आपको," रघु बड़बड़ाया। उसकी आँखों में एक अजीब सा पागलपन था।
"अब और खूनखराबा नहीं... नहीं..."
कामिनी अभी भी अपनी हवस और अधूरी उत्तेजना के नशे में थी। उसका दिमाग सुन्न था। उसे रघु के शब्द सुनाई तो दे रहे थे—'सुगना', 'खूनखराबा'—लेकिन उनका मतलब समझ नहीं आ रहा था।
उसका जिस्म चीख रहा था— 'भाड़ में जाए सुगना, भाड़ में जाए काम... मुझे पूरा कर रघु... मुझे शांत कर।
"रघु... मत जाओ... मुझे तुम्हारी ज़रूरत है..." कामिनी ने अपना हाथ बढ़ाया, मन ही मन चिल्लायी, उसका ब्लाउज पसीने से भीगा हुआ था, पेट ऊपर-नीचे हो रहा था।
लेकिन रघु ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
वह किसी भूत से डरकर भागने वाले इंसान की तरह कमरे से निकल गया।
कामिनी बिस्तर पर अकेली रह गई।
टांगें अभी भी फैली थीं। साड़ी कमर पर चढ़ी थी।
उसकी चूत गीली, लिसलिसी और खुली हुई थी। रघु की जीभ की गर्माहट और शराब की ठंडक अभी भी वहां महसूस हो रही थी।
लेकिन अब वहां एक भयानक 'टीस' थी—अधूरी रह जाने की टीस।
यह दर्द कल रात वाले दर्द से भी बदतर था। कल चोट जिस्म पर थी, आज चोट उसकी जागी हुई कामवासना पर थी।
"उफ्फ्फ्फ...." कामिनी ने अपनी चुत को गुस्से मे जोर से भींच लिया,
वह तड़प रही थी, करवटें बदल रही थी। उसका मन कर रहा था कि खुद अपनी उंगलियां अंदर डाल दे, लेकिन रघु ने जो आग लगाई थी, उसे सिर्फ़ रघु ही बुझा सकता था।
कामिनी ने जैसे-तैसे खुद को संभाला। उसने कांपते हाथों से अपनी साड़ी नीचे खींची।
लड़खड़ाते हुए वह खिड़की के पास गई। उसने पर्दा हटाकर बाहर देखा।
गार्डन में...
रघु किसी पागल की तरह फावड़ा चला रहा था।
धप... धप... धप...
वह ज़मीन नहीं खोद रहा था, मानो वह ज़मीन के सीने पर वार कर रहा हो। उसका पूरा शरीर पसीने में नहाया हुआ था। उसकी चाल में, उसके काम में एक जुनूनी रफ़्तार थी।
घास, झाड़ियां, पौधे... सब उसके फावड़े के नीचे कटते जा रहे थे।
कामिनी ने ध्यान से देखा। रघु के होंठ चल रहे थे। वह लगातार कुछ बड़बड़ा रहा था।
हवा के झोंकों के साथ उसकी टूटी-फूटी आवाज़ कामिनी तक पहुँच रही थी।
"नहीं... अब नहीं..." रघु फावड़ा मारते हुए खुद से बातें कर रहा था।
"वो सुगना को खा गया... इसे नहीं खाने दूंगा... अब कोई नहीं मरेगा... कोई बच्चा नहीं मरेगा..."
उसकी आँखों में आंसू थे या पसीना, पता नहीं चल रहा था।
"काम पूरा करूँगा... साहब को खुश करूँगा... मेमसाब को नहीं पिटने दूंगा..."
वह रुकता, अपनी लुंगी से पसीना पोंछता, और फिर पागलों की तरह घास काटने लगता।
कामिनी खिड़की की ग्रिल पकड़े खड़ी थी। उसकी योनि अभी भी फड़फड़ा रही थी, लेकिन अब उसकी आँखों में एक सवाल भी था।
"यह किस तरह का इंसान है?" उसने सोचा।
"अभी कुछ पल पहले यह मेरे जिस्म को ऐसे चाट रहा था जैसे कोई भूखा भेड़िया... और अब?"
"अब यह मेरी मार की फिक्र कर रहा है? यह मुझे बचाने के लिए खुद को थका रहा है?"
कामिनी को रघु की वो बात— "एक और सुगना नहीं बनने दूंगा" —याद आई।
कौन थी सुगना? उसकी बीवी?
और 'खूनखराबा'?
कामिनी का कामुक दिमाग अभी भी धुंधला था, इसलिए वह इन शब्दों की गहराई नहीं समझ पा रही थी। उसे बस इतना समझ आ रहा था कि यह आदमी उसके लिए फिक्रमंद है।
रमेश ने उसे दर्द दिया था, और रघु उसे दर्द से बचा रहा था।
कामिनी की आँखों में रघु के लिए एक अजीब सी इज़्ज़त और चाहत पैदा होने लगी।
वह उसे पसीने में तर-बतर काम करते हुए देखती रही। उसकी मज़बूत काली पीठ, उसके बाज़ू...
उसका जिस्म अभी भी उस 'अधूरी प्यास' में जल रहा था,
Contd......
छत से कपड़े सुखाकर कामिनी नीचे आई।
घर में सन्नाटा था, लेकिन उसके दिमाग में शोर था।
रवि की फरमाइश—गाजर का हलवा—पूरी करनी थी। लेकिन घर में गाजर नहीं थी।
अब समस्या यह थी कि गाजर लाए कौन?
रवि और बंटी स्कूल जा चुके थे। रमेश ऑफिस में था।
बचा सिर्फ़ एक ही शख्स—रघु।
कामिनी की नज़र स्टोर रूम की तरफ गई।
उसका दिल ज़ोर से धड़का। कल रात की उस जंगली घटना के बाद, रघु का सामना करने की उसकी रत्ती भर भी हिम्मत नहीं थी।
'कैसे जाऊं उसके सामने? क्या सोच रहा होगा वो मेरे बारे में? कहीं उसे मेरा वहाँ होने का अहसास तो नहीं हो गया होगा?"
"नहीं... नहीं.... रघु तो नशे में धुत्त था। उसने उसे 'सुगना' बोला था। शायद उसे कुछ याद न हो। शायद उसे सपना लगा होगा"
कामिनी खुद को बचाने की दलील खुद को ही दे रही थी, वो किसी मझे हुए वकील की तरह, खुद का केस लड़ रही थी अपने अंतर्मन मे.
दुविधा मे फसा इंसान दलिले अच्छी देता है.
इस उम्मीद के सहारे कामिनी ने मुट्ठी भींची और स्टोर रूम की तरफ कदम बढ़ा दिए,
स्टोर रूम का दरवाज़ा खुला था।
अंदर रघु काम में लगा हुआ था। वह पुराने बक्से हटा रहा था।
उसका बदन पसीने से भीगा हुआ था। वही सांवला, गठीला शरीर, वही पसीने की गंध... कामिनी के नथुनों में कल रात की याद ताज़ा हो गई।
कामिनी की आहट सुनकर रघु मुड़ा।
सामने अपनी 'मेमसाब' को देखकर उसने तुरंत काम छोड़ा और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
"नमस्ते मेमसाब..."
उसकी आवाज़ में वही पुराना सम्मान और डर था। उसकी आँखों में कोई शरारत या 'मालिक' वाला भाव नहीं था। वह अभी भी भ्रम में था कि कल रात जो हुआ, वह हकीकत थी या शराब का नशा।
रघु का यह रवैया देखकर कामिनी की जान में जान आई।
'शुक्र है... इसे कुछ याद नहीं है। यह सपना ही समझ रहा है,' कामिनी ने राहत की सांस ली।
"वो... वो रघु..." कामिनी ने नज़रें चुराते हुए कहा, "बाज़ार से कुछ सामान लाना था। गाजर लानी थी।"
रघु ने सिर हिलाया। "जी मेमसाब, ले आऊंगा। पैसे दे दीजिये।"
कामिनी ने पल्लू में बंधे नोट निकाले और रघु की तरफ बढ़ाए। हाथ बढ़ाते वक़्त उसकी उंगलियां कांप रही थीं, डर था कि कहीं रघु का हाथ छू न जाए।
औरत भी कमाल होती है, रात मे जिस आदमी का लंड चूसा था, उजाले मे उसी शख्श का हाथ तक ना छू जाये इसकी परवाह थी.
रघु ने पैसे लिए और पूछा, "कितनी लाऊं मेमसाब?"
"दो किलो ले आना... हलवा बनाना है," कामिनी ने कहा।
रघु ने गमछे से अपना पसीना पोंछा और एक व्यावहारिक सलाह दी, जो कामिनी के लिए किसी बम से कम नहीं थी।
"मेमसाब... गाजर एकदम मोटी और लम्बी वाली ही लाऊंगा। पतली वाली में वो बात नहीं होती।"
उसने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा,
"जितनी मोटी और लम्बी गाजर होती है... हलवे में उतना ही मज़ा आता है। अच्छे से घिस जाता है,"
रघु तो सिर्फ़ सब्जी की बात कर रहा था, लेकिन कामिनी का दिमाग कल रात के दृश्य पर चला गया।
मोटी... लम्बी... और मज़ेदार?
उसकी आँखों के सामने रघु का वह विशाल, काला लंड आ गया जो उसने कल रात अपने मुंह में भरा था।
उसकी सरसरी नजर ना जाने क्यों रघु के कमर के निचले हिस्से लार फिसल गई,
वहाँ अभी भी मोटा सा कुछ लटका हुआ था।
कामिनी का चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसके कान गर्म हो गए।
रघु की यह सीधी-सादी बात उसे अश्लील लग रही थी।
"ह... हाँ... देख लेना, अच्छी लाना," कामिनी हड़बड़ा कर बोली।
रघु ने एक और बात जोड़ दी।
"गाजर का हलवा तो मुझे भी बहुत पसंद है मेमसाब... गांव में खूब खाता था। गरम-गरम हलवा, ऊपर से मलाई डाल कर....उफ्फ्फ, क्या स्वाद होता है।"
कामिनी की हालत खराब हो गई।
'गरम हलवा... मलाई...'
उसे याद आया कि कल रात उसने रघु की 'मलाई' (वीर्य) का स्वाद चखा था।
उसे फिर से हल्की सी उबकाई महसूस हुई, लेकिन साथ ही पेट के निचले हिस्से में एक मीठी सी टीस भी उठी।
"ठीक है... जाओ अब जल्दी," कामिनी ने उसे वहां से भगाना ही बेहतर समझा।
रघु सिर झुकाकर वहां से निकल गया।
रघु के हाथ मे पुरे 200 rs थे,
रघु बाज़ार की तरफ पैदल चल दिया,
रास्ते भर वह सोचता रहा।
'कल रात... वो सपना कितना सच लग रहा था। सुगना आई थी... उसने... उसने मेरा चूसा था। आह्ह्ह...'
रघु ने अपनी जांघों के बीच हाथ फेरा। वहां अभी भी हल्का दर्द था जो ज्यादा मुठ मारने या चूसने के बाद होता है।
वह कन्फ्यूज था।
तभी रास्ते मे उसे एक दुकान दिखी, उसकी फेवरेट दुकान...
"देसी शराब का ठेका "
उसने मुट्ठी मे बंद 200के नोट को देखा, फिर ठेके के अंदर कांच की सीसी मे बंद उसकी महबूबा को देखा.
"नहीं... नहीं... पहले गाजर ले लेता हूँ " रघु ने मन मे आते विचारों को एक पल मे झटक दिया.
उसने दो कदम बढ़ाये ही थे की...
"मेमसाब ने पैसे तो ज्यादा दिए हैं... एक 'पव्वा' तो आ ही जाएगा," रघु ने सोचा।
"बस एक ढक्कन मारूँगा... थकान मिटाने के लिए।" " रघु पलटा और मयखाने मे जा बैठा.
शराबी आदमी शराब से कभी जीत ही नहीं सकता, इतिहास गवाह है, बड़े बड़े राजा महराजा सब हार बैठे इस शराब के आगे, रघु क्या चीज हुआ भला.
****************
दोपहर के 2 बज गए थे।
कामिनी बार-बार घड़ी देख रही थी और स्टोर रूम की तरफ झांक रही थी।
रघु का कोई अता-पता नहीं था।
"नालायक कहीं का... पैसे लेकर भाग गया शायद। दारू पीने बैठ गया होगा," कामिनी ने गुस्से में बड़बड़ाया।
छोटे लोगो का यही है, पैसे मिले नहीं की सब काम भूल जाते है " कामिनी गुस्से मे भुंभुना रही थी.
तभी गेट खुलने की आवाज़ आई।
रवि और बंटी स्कूल से वापस आ गए थे।
"मम्मी, भूख लगी है," बंटी ने बैग सोफे पर पटकते हुए कहा।
लेकिन कामिनी की नज़र रवि पर थी।
रवि के हाथ में एक थैला था, जिसमें से ताज़ी, लाल गाजरें झांक रही थीं।
"आंटी..." रवि ने अपनी मनमोहक मुस्कान के साथ कहा, "आते वक़्त दिखा तो ले आया। मुझे याद था कि आज हलवा बनना है।"
कामिनी का गुस्सा पिघल गया।
जहाँ रघु, एक शराबी को उसने काम बोला था, वो नदारद था, वहीं रवि बिना कहे उसकी ज़रूरत पूरी कर रहा था।
"थैंक यू बेटा..." कामिनी ने थैला लिया।
******************
किचन का दृश्य (शाम 4 बजे):
उसी वक़्त रमेश का फोन आया।
"हेलो कामिनी... मैं आज रात घर नहीं आ पाऊंगा।"
"क्यों? क्या हुआ?" कामिनी ने पूछा।
"कुछ अर्जेंट काम है, साइट पर जाना पड़ रहा है... किशनगढ़," रमेश ने जल्दी में कहा और फोन काट दिया।
कामिनी ने फोन रखा और गाजर धोने लगी।
रवि किचन में आ गया। उसने कपड़े बदल लिए थे—एक स्लीवलेस टी-शर्ट और शॉर्ट्स पहने थे। उसका चिकना, गोरा बदन चमक रहा था।
"लाओ आंटी, मैं घिसवा देता हूँ," रवि ने कद्दूकस (Grater) उठा लिया।
वह गाजर घिसने लगा।
घिस... घिस... घिस...
"आंटी, गाजरें काफी अच्छी मिली हैं ना?" रवि ने गाजर को कसकर पकड़ते हुए कहा, "एकदम लंबी और मोटी। ऐसी गाजर घिसने में बड़ा मज़ा आता है, हाथ में ग्रिप (Grip) अच्छी बनती है।"
रवि की बात सीधी थी, लेकिन कामिनी की नज़रों में 'चोर' था।
'मोटी और लम्बी' सुनकर उसे सुबह रघु की बात और रवि का 'गुलाबी लंड' याद आ गया।
वह रवि से नज़रें नहीं मिला पा रही थी। उसका चेहरा लाल हो गया।
"ह... हाँ... अच्छी हैं," वह बस इतना ही बोल पाई।
"और सुबह के लिए sorry आंटी, मुझे दरवाजा अच्छे से बंद करना चाहिए था " रवि ने जैसे कामिनी को कर्रेंट छुवा दिया हो.
"कककम.... कोई बात नहीं,"
उसके चेहरे पे लाल मुस्कान तैर गई. हाथो मे मोटा गाजर लिए घिसे जा रही थी,
हॉल में बैठा बंटी टीवी देख रहा था, लेकिन उसके कान खड़े थे।
जब कामिनी ने बताया कि— "पापा आज नहीं आएंगे, किशनगढ़ गए हैं"—तो बंटी का माथा ठनका।
'किशनगढ़?'
उसने यह नाम पहले भी सुना था। रघु के मुँह से, जब वो पहले दिन घर आया था, तब माँ से बातचीत मे उसने इस कस्बे का जिक्र किया था, और बचपन मे दादा जी के मुँह से भी ये नाम सुना था.
'पापा और रघु का कनेक्शन? रघु भी वहीं का है क्या?'
बंटी चुप रहा, लेकिन उसके दिमाग में शक का कीड़ा रेंगने लगा.
शाम के 6 बजते-बजते मौसम बदल गया।
काले बादल घिर आए और ठंडी हवा चलने लगी। बारिश की बूंदें टप-टप गिरने लगीं।
"अरे! कपड़े भीग जाएंगे," कामिनी हड़बड़ाई। उसे याद आया कि उसकी धुली हुई साड़ी, ब्रा और पैंटी छत पर है।
वह जाने ही वाली थी कि रवि ने उसे रोक दिया।
"आप रहने दो आंटी... आप हलवा देखो, मैं ले आता हूँ," रवि ने कहा और बिजली की रफ़्तार से सीढ़ियाँ चढ़ गया।
कामिनी उसे मना भी नहीं कर पाई।
उसका दिल धक-धक करने लगा। 'हे भगवान... मेरी पैंटी...'
दो मिनट बाद रवि नीचे आया।
वह थोड़ा भीग गया था। उसके हाथ में कपड़ों का एक ढेर था।
उसने सोफे पर साड़ी और ब्लाउज रखा।
लेकिन उसके हाथ में अभी भी दो छोटे कपड़े थे—कामिनी की सफ़ेद ब्रा और वह फिजी (Skin) कलर की पैंटी।
कामिनी का चेहरा शर्म से टमाटर हो गया।
रवि धीरे से कामिनी के पास आया।
उसने बिना किसी हिचकिचाहट के, बड़े आराम से वह पैंटी और ब्रा कामिनी की तरफ बढ़ाई।
कामिनी का हाथ कांप रहा था। उसने झपट्टा मारकर कपड़े लिए और अपनी साड़ी के पल्लू में छुपाने लगी।
वह घबरा रही थी, शर्म से गड़ी जा रही थी।
रवि ने उसकी घबराहट भांप ली।
उसने कामिनी की आँखों में झांकते हुए बहुत ही सामान्य लहजे में कहा—
"अरे, इसमें शर्माने वाली क्या बात है आंटी? अंडरगारमेंट्स ही तो हैं, सब पहनते हैं।"
उसकी आवाज़ में एक अपनापन था, एक तसल्ली थी कि 'यह कोई बड़ी बात नहीं है'।
रवि की इस बात ने कामिनी को थोड़ा सहज कर दिया।
उसे लगा कि यह लड़का कितना मैच्योर (Mature) है।
कामिनी के अंदर की 'शरारती औरत' जाग उठी। उसे सुबह का नज़ारा याद आ गया—रवि का नंगा बदन और वहां बालों का नामो-निशान न होना।
उसने अपनी शर्म को एक किनारे फेंका और रवि की आँखों में देखते हुए, एक हल्की सी मुस्कान के साथ ताना मारा—
"हाँ, सब पहनते हैं... पर तुम भी पहन लिया करो कभी-कभी। दरवाज़ा बंद करना भूल जाते हो।"
यह बोलकर कामिनी वहां रुकी नहीं, वह मुस्कुराती हुई अपने कमरे की तरफ भाग गई।
पीछे रवि खड़ा रह गया—हैरान और खुश।
उसे सिग्नल मिल गया था।
'आंटी ने सुबह सब कुछ देखा था... और उन्हें बुरा नहीं लगा।'
बाहर बारिश तेज़ हो गई थी, और घर के अंदर रोमांस की खिचड़ी पकने लगी थी।
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रात के 8 बज रहे थे।
बाहर आसमान फट पड़ा था, मूसलाधार बारिश हो रही थी। बादलों की गड़गड़ाहट घर की खामोशी को चीर रही थी।
किचन में खाना तैयार था, गाजर के हलवे की मीठी महक हवा में थी।
सामने tv चल रहा था,
लेकिन कामिनी का मन बेचैन था। वह डाइनिंग टेबल पर गुमसुम बैठी थी। उसकी नज़रें बार-बार बंद दरवाजे पर जा रही थीं।
'रघु कहाँ रह गया? इतनी तेज़ बारिश है... पैसे लेकर कहीं शराब पीने तो नहीं बैठ गया? या कोई हादसा तो नहीं हो गया?'
एक अजीब सी चिंता उसे खाए जा रही थी। आखिर रघु ही वो शख्श था, जिसने उसके जिस्म मे सालों बाद ये बेचैनी पैदा की थी,
कामिनी को इस तरह खोया हुआ देख, रवि ने चुप्पी तोड़ी।
"चल ना बंटी... बारिश में नहा के आते हैं, देख कितनी मस्त बारिश हो रही है," रवि ने खिड़की की तरफ इशारा करते हुए कहा।
बंटी कम्बल ओढे सोफे पर दुबका हुआ था। उसने मुंह बनाया।
"नहीं यार... बहुत ठंडा पानी है, मैं बीमार पड़ जाऊंगा। तू जा, मुझे नहीं नहाना।" बंटी ने साफ़ मना कर दिया।
रवि ने हार नहीं मानी। वह कामिनी की तरफ घूमा। उसकी आँखों में एक अलग ही चमक थी।
"आंटी... आप चलो ना। बहुत मज़ा आएगा।"
रवि के इस अचानक ऑफर से कामिनी सकपका गई। वह ख्यालों की दुनिया से धरातल पर लौटी।
"क... ककक... कौन मैं?" कामिनी ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा, "पागल हो गए हो क्या? मैं इस उम्र में बारिश में नहाउंगी?"
"तो और कौन आंटी?" रवि ने ज़िद्द की, "बारिश रोज़ थोड़ी न होती है। और उम्र का क्या है? कभी-कभी अपनी जवानी को जी लेना चाहिए। कब तक घर की चारदीवारी में कैद रहोगी?"
रवि एक ही सांस में बोल गया, लेकिन उसकी बातें कामिनी के दिल पर किसी हथौड़े की तरह लगीं।
यह एक आघात था।
'क्या मैं वाकई जीना भूल गई हूँ? मैंने आखिरी बार कब खुद के लिए कुछ किया था? कब बारिश की बूंदों को अपने चेहरे पर महसूस किया था?'
उसे याद आया, शादी से पहले अपने गांव में वह सावन की बारिश में सहेलियों के साथ घंटों नहाती थी। लेकिन इस घर में आकर, रमेश की मार और रसोड़े के धुएं ने उसकी सारी हसरतें कुचल दी थीं।
तभी बंटी ने भी रवि का साथ दिया।
"जाओ ना मम्मी... जी लो अपनी ज़िंदगी। वैसे भी आज पापा नहीं हैं घर पर, कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है।"
बंटी ने अनजाने में ही कामिनी को सबसे बड़ी आज़ादी दे दी थी। वो अपनी माँ का दुख समझता था, बरसो से चारदीवारी मे कैद थी उसकी माँ.
बंटी का उत्साह देखकर कामिनी की झिझक टूट गई। उसके चेहरे पर एक दबी हुई मुस्कान आ गई।
"ठीक है..."
रवि तो जैसे पागल हो गया।
वह बहुत उत्साही लड़का था। उसने आव देखा न ताव, कामिनी का हाथ पकड़ लिया।
"चलो आंटी... देर मत करो..."
रवि लगभग कामिनी को घसीटता हुआ सीढ़ियों की तरफ ले गया।
कामिनी मुंह से "ना-ना" कर रही थी, लेकिन उसके पैर किसी जवान हिरणी की तरह थिरक रहे थे। वह रवि के पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ गई। आज उसका यौवन लौट आया था।
छत पर पहुंचते ही ठंडे पानी की बौछार ने उनका स्वागत किया।
कामिनी एक पल के लिए ठिठकी, लेकिन रवि उसे खींचकर बीच छत पर ले गया।
छप-छप-छप... आउच.... कामिनी के जिस्म पर ठन्डे पानी की बौछार जैसे ही पड़ी, उसकी शर्म भी उतर गई.
"रवि पानी बहुत ठंडा है "
पानी ने कामिनी को ऊपर से नीचे तक भिगो दिया।
और फिर... एक चमत्कार हुआ।
कामिनी ने अपनी सारी शर्म, सारा दुख, सारी मर्यादा बारिश के पानी में बहा दी। वह गोल-गोल घूमने लगी। उसने अपने दोनों हाथ आकाश की तरफ फैला दिए और बारिश की बूंदों को अपने मुंह पर गिरने दिया।
वह किसी जवान मोरनी की तरह नाचने लगी।
रवि, जो उसके जीवन में किसी फ़रिश्ते की तरह आया था, एक कोने में खड़ा होकर बस उसे निहार रहा था।
कामिनी आज भूल गई थी कि वह 38 साल की एक माँ है। उसे लगा वह फिर से 18 साल की अल्हड़ लड़की बन गई है।
लेकिन रवि की नज़रें सिर्फ़ उसकी खुशी पर नहीं थीं... उसकी नज़रें कामिनी के भीगे हुए, कामुक जिस्म पर जम गई थीं।
बारिश के पानी ने कामिनी की सूती साड़ी को शरीर से बुरी तरह चिपका दिया था। वह कपड़ा अब खाल की तरह उसके बदन पर मढ़ा हुआ था।
ठंडे पानी के स्पर्श से कामिनी के भारी स्तन तन गए थे।
उसका ब्लाउज भीगकर पारदर्शी हो गया था, और उसके अंदर कैद उसके निप्पल एकदम कड़क होकर, ब्लाउज के कपड़े को चीरते हुए बाहर उभर आए थे। वे दो नुकीले पत्थरों की तरह रवि को चुनौती दे रहे थे।
कामिनी जब घूम रही थी, तो उसकी भारी छाती लय में ऊपर-नीचे हो रही थी।
पानी की धार उसकी साड़ी को भारी कर रही थी। साड़ी का कपड़ा उसकी जांघों के बीच फंस गया था।
इससे उसकी टांगों के बीच का वह गुप्त 'वी' (V) आकार—उसकी चूत का तिकोना उभार—साफ़ झलक रहा था। पानी की बूंदें उस उभार से फिसलकर नीचे गिर रही थीं।
पीछे से, उसकी चौड़ी और भारी गांड का आकार पूरी तरह से नुमाया हो रहा था। साड़ी उसके नितम्बों की दरार में धंस गई थी, जिससे उसके जिस्म के हर भूगोल का नक्शा रवि के सामने खुला था।
रवि किसी प्रेमी की तरह बस उस उछलती-खेलती कामिनी को देखे जा रहा था।
उसकी आँखों में हवस थी, लेकिन एक पूजा का भाव भी था।
कामिनी ने अकेले झूमता हुआ महसूस किया, वो अकेले ही उछले जा रही है, उसने सामने देखा रवि एकटक उसे ही देखे जा रहा था.
उसने रवि की टकटकी को महसूस कर लिया।
आम तौर पर वह अपना पल्लू ठीक करती या शर्मा जाती।
लेकिन आज?
आज उसे अच्छा लग रहा था।
उसे अच्छा लग रहा था कि एक 20 साल का जवान, खूबसूरत लड़का उसे ऐसे देख रहा है जैसे वह दुनिया की सबसे सुंदर औरत हो।
"क्या हुआ आओ ना, देख क्या रहे हो?"
उसने जानबूझकर अपनी कमर को और लचकाया, अपनी छाती को थोड़ा और आगे किया ताकि बारिश की बूंदें उसके कड़क निप्पलों पर गिरें।
इस बारिश में कामिनी सिर्फ़ भीग नहीं रही थी... वह जल रही थी।
उसका जिस्म चीख-चीख कर कह रहा था कि वह ज़िंदा है, एक औरत है, कामुक औरत जिसका जिस्म प्यासा है, उसकी भी कुछ इच्छा है, उसका भी एक जीवन है, जो पति की मार से परे है, इसे भी हक़ है ये जीवन जीने का.
उसकी आँखों मे खुशी के आंसू थे, और उसकी आँखों मे धुंधला सा दिखता रवि का जवान जिस्म.
जो उसे ही देख रहा था....
Contd....
सुबह के 8 बज रहे थे।
कमरे की खिड़की से धूप की एक तीखी किरण कामिनी के चेहरे पर पड़ी। वह हड़बड़ा कर उठी।
सिर भारी था, जैसे कोई पत्थर रखा हो।
जैसे ही उसे होश आया, उसे अपने मुंह के अंदर एक अजीब सा कसैला और बासी स्वाद महसूस हुआ।
याददाश्त का एक झोंका आया—कल रात... स्टोर रूम... रघु का वीर्य... और उसका निगलना।
"उबक..."
कामिनी को एक ज़बरदस्त उबकाई आई। उसे लगा वह उल्टी कर देगी। उसे तुरंत अपना मुंह साफ़ करना था, उस 'गंदगी' को खुरच कर बाहर निकालना था।
उसने बाथरूम की तरफ देखा, लेकिन अंदर से पानी गिरने की आवाज़ आ रही थी। रमेश अंदर था।
कामिनी के पास इंतज़ार करने का वक़्त नहीं था। उसका पेट मचल रहा था।
वह बिस्तर से उठी और भागते हुए कमरे से बाहर निकली।
वह सीधे हॉल में बने कॉमन बाथरूम की तरफ दौड़ी।
हड़बड़ाहट और उबकाई के मारे उसने यह चेक भी नहीं किया कि अंदर कोई है या नहीं। उसे लगा बंटी और रवि तो स्कूल चले गये होंगे,
उसने झटके से बाथरूम का दरवाज़ा धकेला।
कुंडी शायद ठीक से नहीं लगी थी या खुली थी, दरवाज़ा एक बार में ही खुल गया।
और सामने का दृश्य देखकर कामिनी के कदम वहीं फ्रीज़ हो गए। उसकी आंखे फटी की फटी रह गई,
सामने शावर के नीचे रवि खड़ा था।
बिल्कुल नंगा।
पानी की बूंदें उसके कसते हुए, गोरे और जवान बदन से फिसल रही थीं।
दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनकर रवि चौंक गया। वह मुड़ा।
उसकी आँखों में हैरानी थी, उसके सामने अप्सरा खड़ी थी मुँह पर हाथ रखे, रवि खुद हक्का बक्का था, उसने कभी ऐसी परिस्थिति की कल्पना भी नहीं की थी.
उसने अपना बदन छुपाने की कोशिश नहीं की।
सामने उसके दोस्त की माँ, कामिनी खड़ी थी—बिखरे बाल, अस्त-व्यस्त साड़ी और चेहरे पर हवाईयां।
कामिनी को तुरंत भाग जाना चाहिए था। उसे चीखना चाहिए था या माफ़ी मांगकर दरवाज़ा बंद कर देना चाहिए था।
लेकिन... उसे सांप सूंघ गया।
उसकी नज़रें रवि के चेहरे से फिसलकर, उसके चौड़े सीने, सपाट पेट से होते हुए सीधे नीचे चली गईं।
और वहां जाकर चिपक गईं।
कामिनी ने अब तक अपने जीवन में सिर्फ़ दो तरह के लंड देखे थे (पति के अलावा)—रघु का और शमशेर का।
दोनों काले थे। भद्दे थे। घने, काले और जंगली बालों से घिरे हुए। उनमें एक 'जानवर' जैसा खुरदरापन था।
लेकिन रवि?
रवि का लंड... खूबसूरती की एक मूरत था।
वह गोरा-चिट्टा था। बिल्कुल साफ़-सुथरा।
रवि ने अपनी जांघों के बीच के बाल पूरी तरह साफ़ कर रखे थे। वहां एक भी बाल नहीं था, सिर्फ़ चिकनी, गोरी चमड़ी थी।
और उस चिकनी जगह के बीचो-बीच... उसका लंड शान से लटक रहा था।
वह इस उम्र (20 साल )में भी काफी बड़ा और मोटा था, लेकिन उसमें एक सुडौलपन था।
उसका रंग बाकी शरीर की तरह ही हल्का सांवला-गोरा था, लेकिन उसका सुपारी, वह बिल्कुल गुलाबी (Pink) था।
ताज़े खिले हुए गुलाब की तरह।
कामिनी की आँखें फटी रह गईं।
उसने कभी सोचा भी नहीं था कि एक मर्द का अंग इतना सुंदर भी हो सकता है।
रघु और शमशेर के लंड 'हथियार' लगते थे, डरावने लगते थे।
लेकिन रवि का लंड एक 'फल' जैसा लग रहा था—रसीला, साफ़ और ताज़ा।
शावर का पानी उस गुलाबी सुपारी पर गिर रहा था और फिसलकर नीचे जा रहा था।
ना जाने क्यों कामिनी के दिमाग में तुलना चलने लगी। जिस्म पर चीटिया सी रेंगने लगी.
'इतना चिकना... इतना गोरा... रघु का तो काला नाग था... और यह? यह तो किसी राजकुमार जैसा है।'
रवि वहीं खड़ा था, पानी में भीगता हुआ।
उसका लंड, जो पहले शांत था, कामिनी की उन भूखी, ताड़ती हुई नज़रों को महसूस करके हल्का सा हिलने लगा।
उसमें हरकत हुई। वह धीरे-धीरे ऊपर उठने लगा, जैसे सलामी दे रहा हो।
उस गुलाबी सुपारी का फूलना कामिनी को साफ़ दिखाई दे रहा था।
कामिनी एक भयंकर दुविधा में फंसी थी।
उसका दिमाग चीख रहा था— 'भाग कामिनी... यह तेरे बेटे का दोस्त है... यह पाप है।'
लेकिन उसका जिस्म?
उसका जिस्म उस 'खूबसूरत नज़ारे' के सम्मोहन में जकड़ गया था।
वह उस चिकनेपन को छूना चाहती थी। वह देखना चाहती थी कि वह 'गुलाबी हिस्सा' कितना नरम होगा।
उसकी चूत, जो सुबह उठते ही शांत थी, इस नज़ारे को देखकर फिर से गीली हो गई।
एक गर्म धारा उसकी पैंटी में रिस गई।
कल रात उसने 'काले और खुरदरे, रघु के लंड का स्वाद चखा था, वो इस हादसे से बहार निकली भी नहीं थी की, आज सुबह सुबह ही उसके सामने खूबसूरत अजूबा था, उसे लुभा रहा था.
कामिनी की सांसें फूलने लगीं। वह दरवाज़े के हैंडल को पकड़े, बस उस गुलाबी लंड को घूरे जा रही थी, जैसे किसी ने उस पर काला जादू कर दिया हो।
***************
कामिनी हक्की-बक्की थी। उसका दिमाग सुन्न हो चुका था।
बाथरूम के दरवाजे पर उसके पैर जैसे फेविकोल से चिपक गए थे। न वह अंदर जा पा रही थी, न बाहर आ पा रही थी। उसकी आँखें रवि के उस 'खूबसूरत' अंग पर टंगी हुई थीं।
तभी...
रवि के उस खड़े लंड ने एक हल्का सा झटका लिया।
वह मांसल गुलाबी सुपारी हवा में फड़फड़ाया।
इस एक मामूली से झटके ने कामिनी को सपनों की दुनिया से खींचकर धरातल पर पटक दिया।
उसे होश आया कि वह क्या कर रही है।
वह घबराकर एक कदम पीछे हटी।
उसने हड़बड़ाहट में बाथरूम का दरवाज़ा अपनी तरफ खींचा और बंद कर दिया।
धप्प...
दरवाज़ा बंद होते ही कामिनी उसी दरवाजे से अपनी पीठ टिकाकर खड़ी हो गई।
उसकी छाती धौंकनी की तरह चल रही थी।
तभी अंदर से शावर के पानी के शोर के बीच रवि की मखमली आवाज़ आई—
"Sorry आंटी... मैं जल्दी में दरवाज़ा बंद करना भूल गया था।"
उसकी आवाज़ में शर्मिंदगी कम और एक अजीब सी 'शरारत' ज्यादा थी।
कामिनी का गला सूख रहा था। उसके मुंह में अभी भी रघु के वीर्य का वह कसैला और बासी स्वाद भरा हुआ था, जिसकी वजह से उसे उबकाई आ रही थी।
लेकिन रवि की आवाज़ और उस 'गुलाबी लंड' की छवि ने उसके दिमाग पर ऐसा असर किया कि उसने अनजाने में ही...
गटक...
उसने अपने मुंह में जमा थूक (और उस कसैले स्वाद) को निगल लिया।
हैरान कर देने वाली बात यह थी कि जैसे ही वह कड़वा घूंट उसके गले से नीचे उतरा... उसकी उबकाई गायब हो गई।
पेट की वह मरोड़, वह उल्टी आने का अहसास... सब उस 'जवान नज़ारे' के नशे में दब गया।
उसने अभी-अभी एक जवान लड़के का साफ़-सुथरा, गुलाबी और खूबसूरत लंड देखा था। उस दृश्य ने उसके दिमाग से 'गंदगी' का ख्याल ही मिटा दिया।
"क... ककक... कोई बात नहीं..." कामिनी ने दरवाजे के बाहर से हकलाते हुए जवाब दिया।
और फिर वह वहां से भागी।
जैसे कोई भूत उसके पीछे लगा हो। नंगे पैर वह हॉल पार करते हुए सीधे अपने बेडरूम में जा पहुंची।
बेडरूम में रमेश तैयार खड़ा था। वह नहा चुका था (कमरे वाले बाथरूम में) और कपड़े पहन रहा था।
कामिनी हांफते हुए अंदर आई।
उसका चेहरा पसीने से भीगा था और हवाइयां उड़ रही थीं।
रमेश ने मुड़कर उसे देखा। उसके चेहरे पर कल रात वाली हैवानियत का नामो-निशान नहीं था।
"अरे, आज कितना देर सोती रही तुम?" रमेश ने बड़े प्यार से, सामान्य लहजे में पूछा।
जैसे उसे कल रात का कुछ याद ही न हो। जैसे उसने कल अपनी बीवी को 'रंडी' नहीं बोला था, जैसे उसने उसे शमशेर के हवाले नहीं किया था।
यह उसका 'ब्लैकआउट' था या नाटक, कहना मुश्किल था।
"वो... वक... वो..." कामिनी कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन शब्द उसके गले में फंस गए। वह क्या बताती? कि वह अभी-अभी उसके दोस्त के बेटे का नंगा लंड देखकर आ रही है? या यह कि उसके मुंह में अभी भी रघु का स्वाद है?
रमेश ने घड़ी देखी।
"अच्छा सुनो, मैं निकल रहा हूँ। बहुत लेट हो रहा है। नाश्ता बाहर ही कर लूँगा।"
रमेश ने अपनी फाइल उठाई और कामिनी के पास से गुज़र गया।
उसने एक बार भी नहीं पूछा कि— तुम कांप क्यों रही हो? पसीने में क्यों हो? तुम्हारी आँखें लाल क्यों हैं?
रमेश चला गया।
कामिनी वहीं खड़ी रह गई—हैरान, पसीने से भीगी और कांपती हुई।
उसके दिमाग में अभी भी वही रील (Reel) चल रही थी—
बाथरूम का वो शावर... वो साफ़-सुथरा बदन... और वो गुलाबी, सुडौल लंड जो उसे सलामी दे रहा था।
उसकी चूत ने उस खूबसूरत नज़ारे को याद करके, एक बार फिर अपनी 'सहमति' की मोहर लगा दी थी।
उसकी जांघों के बीच एक ताज़ा गीलापन रिस आया था।
***********
रमेश के घर से निकलते ही कामिनी ने मुख्य दरवाज़ा बंद किया और सीधे अपने बेडरूम की तरफ भागी।
उसकी चाल में एक अजीब सी हड़बड़ाहट थी। उसकी पैंटी, जो रवि के उस 'गुलाबी नज़ारे' को देखकर गीली हुई थी, अब उसकी जांघों से चिपचिपे पदार्थ की तरह चिपक रही थी। वह गीलापन उसे किसी तेज़ाब की तरह जला रहा था।
वह बाथरूम में घुस गई।
उसने अपने कपड़े उतारने शुरू किए। साड़ी, पेटीकोट, ब्लाउज... उसने सब कुछ ऐसे नोच कर फेंका जैसे वे कपड़े नहीं, बल्कि कांटे हों जो उसके जिस्म को चुभ रहे हों।
जैसे ही आखिरी कपड़ा (गीली पैंटी) उतरा, कामिनी ने राहत की सांस ली।
उसने बाथरूम के बड़े आईने में अपने नंगे जिस्म को देखा।
और देखती ही रह गई।
आज उसका बदन सिर्फ़ नंगा नहीं था, वह बोल रहा था।
उसकी त्वचा पर एक अजीब सी, मादक चमक थी—जैसे किसी ने उसे तेल से नहला दिया हो।
उसके स्तन आज पहले से कहीं ज्यादा भारी और फूले हुए लग रहे थे।
उसके निप्पल, जो अक्सर मुलायम रहते थे, आज एकदम कड़क होकर बाहर निकले हुए थे। उनका रंग गहरा कत्थई हो गया था और वे ऐसे तने हुए थे जैसे किसी के स्पर्श के लिए भीख मांग रहे हों।
कामिनी की नज़र नीचे फिसली।
उसकी नाभि गहरी थी, और उसके नीचे... उसकी चूत।
वह किसी फूली हुई, गरम कचौरी जैसी लग रही थी।
उसके होंठ सूज कर मोटे हो गए थे, बहार को उभर आये थे और हल्के खुले हुए थे।
वहां अब छोटे-छोटे, काले बाल उग आए थे, जो उस गुलाबी दरार को एक जंगली रूप दे रहे थे। वह नज़ारा इतना कामुक था कि कामिनी को खुद अपने ही जिस्म को देखकर नशा होने लगा।
उसका हाथ अनजाने में अपनी जांघों के बीच जाने के लिए उठा।
लेकिन वह बीच हवा में ही रुक गई।
उसे डर लगा।
'नहीं... अगर मैंने अभी खुद को छुआ... तो मैं यहीं गिर जाऊंगी। मैं दम तोड़ दूंगी।" उसकी जाँघे कांप रही थी, वो खुद अपने जिस्म की गर्मी से डर रही थी.
एक बेचैन, कामवासना मे तड़पती औरत भला कर भी क्या सकती है, खुद को छूना भी उसके लिए मुश्किल हो रहा था,
उसने तुरंत शावर का नॉब घुमाया।
छनन्नन्न...
ठंडा पानी उसके तपे हुए बदन पर गिरने लगा। ऐसा लगा हो जैसे ठंडा पानी पड़ने से उसके गर्म जिस्म से भाँप निकल रही हो.
जैसे-जैसे पानी उसके स्तनों और पेट से होकर नीचे बह रहा था, उसके जिस्म की गर्मी तो शांत होने लगी, लेकिन दिमाग का तूफ़ान तेज हो गया।
अचानक, उसे एक ज़बरदस्त आत्मग्लानि (Guilt) महसूस हुई।
कल रात की यादें किसी डरावनी फिल्म की तरह उसके दिमाग में चलने लगीं।
स्टोर रूम का अंधेरा... रघु का पसीने से भीगा लंड... और उसका मुंह में लेना।
"वेककक..."
कामिनी को एक ज़बरदस्त उबकाई आई। उसने अपना मुंह हाथों से ढक लिया।
'छिः कामिनी... तू इतनी गिर गई? तूने एक शराबी, गंदे मजदूर का लंड चूसा?'
उसे अपने मुंह में वही कसैला स्वाद फिर से महसूस होने लगा।
'क्या मैं सच में रंडी बन गई हूँ? रमेश सही कहता था क्या?'
उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कार रही थी। वह एक इज़्ज़तदार घर की बहू थी, एक बेटे की माँ थी। उसने यह सब कैसे किया?
और सबसे बड़ी बात— उसे यह सब आया कैसे?
उसने तो आज तक रमेश का भी ठीक से नहीं चूसा था। फिर कल रात उसने रघु के लंड को इतनी महारत से, इतनी गहराई तक (Deep Throat) कैसे लिया? जैसे वह वर्षों से यही काम करती हो।
वह पानी के नीचे खड़ी रोती रही। आंसू और पानी मिलकर उसके गालों से बहते रहे। वह अपने पापों को धोने की कोशिश कर रही थी, लेकिन वह जानती थी कि यह दाग पानी से नहीं धुलेंगे।
करीब 15 मिनट बाद वह बाहर निकली।
उसने खुद को पोंछा, लेकिन रगड़-रगड़ कर नहीं, बल्कि बहुत धीमे से। उसका जिस्म अभी भी संवेदनशील (Sensitive) था।
उसने एक सूती साड़ी पहनी और गीले बालों पर तौलिया लपेट लिया।
जब वह तैयार होकर आंगन में आई, तो रवि और बंटी स्कूल जाने के लिए तैयार खड़े थे।
कामिनी की नज़रें ज़मीन पर थीं। वह रवि का सामना नहीं करना चाहती थी।
लेकिन रवि की नज़रें उसी पर थीं।
रवि के चेहरे पर एक विजयी और शरारती मुस्कान थी। वह जानता था कि कामिनी ने उसे नंगा देखा है, लेकिन कामिनी का उस से नजर ना मिलाना क्या है?
रवि मन ही मन डर भी रहा था कहीं आंटी उस पर चिल्लाये ना.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ,
कामिनी उसे कनखियों से देख रही थी, लेकिन नज़रें मिला नहीं पा रही थी। उसका दिल 'चोर' की तरह धड़क रहा था।
"माँ..." बंटी ने अपनी माँ का ध्यान खींचा।
"आज प्लीज़ गाजर का हलवा बनाओ ना? रवि को बहुत पसंद है। इसने कल ही बोला था।"
कामिनी ठिठक गई।
गाजर का हलवा?
रवि को गाजर का हलवा बहुत पसंद है?
कामिनी ने धीरे से सिर उठाया और रवि को देखा।
रवि ने अपनी जीभ हल्का सा अपने होंठों पर फेरी, जैसे स्वाद ले रहा हो। यह इशारा हलवे के लिए था या कामिनी के लिए, यह समझना मुश्किल नहीं था।
"ठी... ठीक है... बेटा," कामिनी की आवाज़ लड़खड़ा गई, "बना दूंगी।"
उसने एक बहुत ही फीकी और कमज़ोर मुस्कान दी। वह न तो ना कह सकती थी, न ही इस माहौल से भाग सकती थी।
"चलो भाई, लेट हो रहा है," रवि ने बंटी के कंधे पर हाथ रखा और दोनों निकल गए।
दरवाज़ा बंद होते ही कामिनी ने एक गहरी, लंबी सांस छोड़ी।
"हम्म्म्म्म..."
उसने अपने सीने पर हाथ रखा। धड़कनें अब जाकर काबू में आ रही थीं।
लेकिन घर का सन्नाटा उसे खाने को दौड़ रहा था।
उसे याद आया कि बाथरूम में उसके 'पापों की गठरी' (गीले कपड़े) पड़ी है।
कामिनी ने बाल्टी उठाई। उसमें उसकी वह ब्रा, ब्लाउज और गीली पैंटी थी, जिसमें उसकी उत्तेजना की गंध बसी थी।
वह भारी कदमों से सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।
छत पर कपड़े सुखाने थे।
धूप तेज़ थी, लेकिन कामिनी का मन अंधेरे में था।
(क्रमशः)
छत से कपड़े सुखाकर कामिनी नीचे आई।
घर में सन्नाटा था, लेकिन उसके दिमाग में शोर था।
रवि की फरमाइश—गाजर का हलवा—पूरी करनी थी। लेकिन घर में गाजर नहीं थी।
अब समस्या यह थी कि गाजर लाए कौन?
रवि और बंटी स्कूल जा चुके थे। रमेश ऑफिस में था।
बचा सिर्फ़ एक ही शख्स—रघु।
कामिनी की नज़र स्टोर रूम की तरफ गई।
उसका दिल ज़ोर से धड़का। कल रात की उस जंगली घटना के बाद, रघु का सामना करने की उसकी रत्ती भर भी हिम्मत नहीं थी।
'कैसे जाऊं उसके सामने? क्या सोच रहा होगा वो मेरे बारे में? कहीं उसे मेरा वहाँ होने का अहसास तो नहीं हो गया होगा?"
"नहीं... नहीं.... रघु तो नशे में धुत्त था। उसने उसे 'सुगना' बोला था। शायद उसे कुछ याद न हो। शायद उसे सपना लगा होगा"
कामिनी खुद को बचाने की दलील खुद को ही दे रही थी, वो किसी मझे हुए वकील की तरह, खुद का केस लड़ रही थी अपने अंतर्मन मे.
दुविधा मे फसा इंसान दलिले अच्छी देता है.
इस उम्मीद के सहारे कामिनी ने मुट्ठी भींची और स्टोर रूम की तरफ कदम बढ़ा दिए,
स्टोर रूम का दरवाज़ा खुला था।
अंदर रघु काम में लगा हुआ था। वह पुराने बक्से हटा रहा था।
उसका बदन पसीने से भीगा हुआ था। वही सांवला, गठीला शरीर, वही पसीने की गंध... कामिनी के नथुनों में कल रात की याद ताज़ा हो गई।
कामिनी की आहट सुनकर रघु मुड़ा।
सामने अपनी 'मेमसाब' को देखकर उसने तुरंत काम छोड़ा और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
"नमस्ते मेमसाब..."
उसकी आवाज़ में वही पुराना सम्मान और डर था। उसकी आँखों में कोई शरारत या 'मालिक' वाला भाव नहीं था। वह अभी भी भ्रम में था कि कल रात जो हुआ, वह हकीकत थी या शराब का नशा।
रघु का यह रवैया देखकर कामिनी की जान में जान आई।
'शुक्र है... इसे कुछ याद नहीं है। यह सपना ही समझ रहा है,' कामिनी ने राहत की सांस ली।
"वो... वो रघु..." कामिनी ने नज़रें चुराते हुए कहा, "बाज़ार से कुछ सामान लाना था। गाजर लानी थी।"
रघु ने सिर हिलाया। "जी मेमसाब, ले आऊंगा। पैसे दे दीजिये।"
कामिनी ने पल्लू में बंधे नोट निकाले और रघु की तरफ बढ़ाए। हाथ बढ़ाते वक़्त उसकी उंगलियां कांप रही थीं, डर था कि कहीं रघु का हाथ छू न जाए।
औरत भी कमाल होती है, रात मे जिस आदमी का लंड चूसा था, उजाले मे उसी शख्श का हाथ तक ना छू जाये इसकी परवाह थी.
रघु ने पैसे लिए और पूछा, "कितनी लाऊं मेमसाब?"
"दो किलो ले आना... हलवा बनाना है," कामिनी ने कहा।
रघु ने गमछे से अपना पसीना पोंछा और एक व्यावहारिक सलाह दी, जो कामिनी के लिए किसी बम से कम नहीं थी।
"मेमसाब... गाजर एकदम मोटी और लम्बी वाली ही लाऊंगा। पतली वाली में वो बात नहीं होती।"
उसने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा,
"जितनी मोटी और लम्बी गाजर होती है... हलवे में उतना ही मज़ा आता है। अच्छे से घिस जाता है,"
रघु तो सिर्फ़ सब्जी की बात कर रहा था, लेकिन कामिनी का दिमाग कल रात के दृश्य पर चला गया।
मोटी... लम्बी... और मज़ेदार?
उसकी आँखों के सामने रघु का वह विशाल, काला लंड आ गया जो उसने कल रात अपने मुंह में भरा था।
उसकी सरसरी नजर ना जाने क्यों रघु के कमर के निचले हिस्से लार फिसल गई,
वहाँ अभी भी मोटा सा कुछ लटका हुआ था।
कामिनी का चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसके कान गर्म हो गए।
रघु की यह सीधी-सादी बात उसे अश्लील लग रही थी।
"ह... हाँ... देख लेना, अच्छी लाना," कामिनी हड़बड़ा कर बोली।
रघु ने एक और बात जोड़ दी।
"गाजर का हलवा तो मुझे भी बहुत पसंद है मेमसाब... गांव में खूब खाता था। गरम-गरम हलवा, ऊपर से मलाई डाल कर....उफ्फ्फ, क्या स्वाद होता है।"
कामिनी की हालत खराब हो गई।
'गरम हलवा... मलाई...'
उसे याद आया कि कल रात उसने रघु की 'मलाई' (वीर्य) का स्वाद चखा था।
उसे फिर से हल्की सी उबकाई महसूस हुई, लेकिन साथ ही पेट के निचले हिस्से में एक मीठी सी टीस भी उठी।
"ठीक है... जाओ अब जल्दी," कामिनी ने उसे वहां से भगाना ही बेहतर समझा।
रघु सिर झुकाकर वहां से निकल गया।
रघु के हाथ मे पुरे 200 rs थे,
रघु बाज़ार की तरफ पैदल चल दिया,
रास्ते भर वह सोचता रहा।
'कल रात... वो सपना कितना सच लग रहा था। सुगना आई थी... उसने... उसने मेरा चूसा था। आह्ह्ह...'
रघु ने अपनी जांघों के बीच हाथ फेरा। वहां अभी भी हल्का दर्द था जो ज्यादा मुठ मारने या चूसने के बाद होता है।
वह कन्फ्यूज था।
तभी रास्ते मे उसे एक दुकान दिखी, उसकी फेवरेट दुकान...
"देसी शराब का ठेका "
उसने मुट्ठी मे बंद 200के नोट को देखा, फिर ठेके के अंदर कांच की सीसी मे बंद उसकी महबूबा को देखा.
"नहीं... नहीं... पहले गाजर ले लेता हूँ " रघु ने मन मे आते विचारों को एक पल मे झटक दिया.
उसने दो कदम बढ़ाये ही थे की...
"मेमसाब ने पैसे तो ज्यादा दिए हैं... एक 'पव्वा' तो आ ही जाएगा," रघु ने सोचा।
"बस एक ढक्कन मारूँगा... थकान मिटाने के लिए।" " रघु पलटा और मयखाने मे जा बैठा.
शराबी आदमी शराब से कभी जीत ही नहीं सकता, इतिहास गवाह है, बड़े बड़े राजा महराजा सब हार बैठे इस शराब के आगे, रघु क्या चीज हुआ भला.
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दोपहर के 2 बज गए थे।
कामिनी बार-बार घड़ी देख रही थी और स्टोर रूम की तरफ झांक रही थी।
रघु का कोई अता-पता नहीं था।
"नालायक कहीं का... पैसे लेकर भाग गया शायद। दारू पीने बैठ गया होगा," कामिनी ने गुस्से में बड़बड़ाया।
छोटे लोगो का यही है, पैसे मिले नहीं की सब काम भूल जाते है " कामिनी गुस्से मे भुंभुना रही थी.
तभी गेट खुलने की आवाज़ आई।
रवि और बंटी स्कूल से वापस आ गए थे।
"मम्मी, भूख लगी है," बंटी ने बैग सोफे पर पटकते हुए कहा।
लेकिन कामिनी की नज़र रवि पर थी।
रवि के हाथ में एक थैला था, जिसमें से ताज़ी, लाल गाजरें झांक रही थीं।
"आंटी..." रवि ने अपनी मनमोहक मुस्कान के साथ कहा, "आते वक़्त दिखा तो ले आया। मुझे याद था कि आज हलवा बनना है।"
कामिनी का गुस्सा पिघल गया।
जहाँ रघु, एक शराबी को उसने काम बोला था, वो नदारद था, वहीं रवि बिना कहे उसकी ज़रूरत पूरी कर रहा था।
"थैंक यू बेटा..." कामिनी ने थैला लिया।
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किचन का दृश्य (शाम 4 बजे):
उसी वक़्त रमेश का फोन आया।
"हेलो कामिनी... मैं आज रात घर नहीं आ पाऊंगा।"
"क्यों? क्या हुआ?" कामिनी ने पूछा।
"कुछ अर्जेंट काम है, साइट पर जाना पड़ रहा है... किशनगढ़," रमेश ने जल्दी में कहा और फोन काट दिया।
कामिनी ने फोन रखा और गाजर धोने लगी।
रवि किचन में आ गया। उसने कपड़े बदल लिए थे—एक स्लीवलेस टी-शर्ट और शॉर्ट्स पहने थे। उसका चिकना, गोरा बदन चमक रहा था।
"लाओ आंटी, मैं घिसवा देता हूँ," रवि ने कद्दूकस (Grater) उठा लिया।
वह गाजर घिसने लगा।
घिस... घिस... घिस...
"आंटी, गाजरें काफी अच्छी मिली हैं ना?" रवि ने गाजर को कसकर पकड़ते हुए कहा, "एकदम लंबी और मोटी। ऐसी गाजर घिसने में बड़ा मज़ा आता है, हाथ में ग्रिप (Grip) अच्छी बनती है।"
रवि की बात सीधी थी, लेकिन कामिनी की नज़रों में 'चोर' था।
'मोटी और लम्बी' सुनकर उसे सुबह रघु की बात और रवि का 'गुलाबी लंड' याद आ गया।
वह रवि से नज़रें नहीं मिला पा रही थी। उसका चेहरा लाल हो गया।
"ह... हाँ... अच्छी हैं," वह बस इतना ही बोल पाई।
"और सुबह के लिए sorry आंटी, मुझे दरवाजा अच्छे से बंद करना चाहिए था " रवि ने जैसे कामिनी को कर्रेंट छुवा दिया हो.
"कककम.... कोई बात नहीं,"
उसके चेहरे पे लाल मुस्कान तैर गई. हाथो मे मोटा गाजर लिए घिसे जा रही थी,
हॉल में बैठा बंटी टीवी देख रहा था, लेकिन उसके कान खड़े थे।
जब कामिनी ने बताया कि— "पापा आज नहीं आएंगे, किशनगढ़ गए हैं"—तो बंटी का माथा ठनका।
'किशनगढ़?'
उसने यह नाम पहले भी सुना था। रघु के मुँह से, जब वो पहले दिन घर आया था, तब माँ से बातचीत मे उसने इस कस्बे का जिक्र किया था, और बचपन मे दादा जी के मुँह से भी ये नाम सुना था.
'पापा और रघु का कनेक्शन? रघु भी वहीं का है क्या?'
बंटी चुप रहा, लेकिन उसके दिमाग में शक का कीड़ा रेंगने लगा.
शाम के 6 बजते-बजते मौसम बदल गया।
काले बादल घिर आए और ठंडी हवा चलने लगी। बारिश की बूंदें टप-टप गिरने लगीं।
"अरे! कपड़े भीग जाएंगे," कामिनी हड़बड़ाई। उसे याद आया कि उसकी धुली हुई साड़ी, ब्रा और पैंटी छत पर है।
वह जाने ही वाली थी कि रवि ने उसे रोक दिया।
"आप रहने दो आंटी... आप हलवा देखो, मैं ले आता हूँ," रवि ने कहा और बिजली की रफ़्तार से सीढ़ियाँ चढ़ गया।
कामिनी उसे मना भी नहीं कर पाई।
उसका दिल धक-धक करने लगा। 'हे भगवान... मेरी पैंटी...'
दो मिनट बाद रवि नीचे आया।
वह थोड़ा भीग गया था। उसके हाथ में कपड़ों का एक ढेर था।
उसने सोफे पर साड़ी और ब्लाउज रखा।
लेकिन उसके हाथ में अभी भी दो छोटे कपड़े थे—कामिनी की सफ़ेद ब्रा और वह फिजी (Skin) कलर की पैंटी।
कामिनी का चेहरा शर्म से टमाटर हो गया।
रवि धीरे से कामिनी के पास आया।
उसने बिना किसी हिचकिचाहट के, बड़े आराम से वह पैंटी और ब्रा कामिनी की तरफ बढ़ाई।
कामिनी का हाथ कांप रहा था। उसने झपट्टा मारकर कपड़े लिए और अपनी साड़ी के पल्लू में छुपाने लगी।
वह घबरा रही थी, शर्म से गड़ी जा रही थी।
रवि ने उसकी घबराहट भांप ली।
उसने कामिनी की आँखों में झांकते हुए बहुत ही सामान्य लहजे में कहा—
"अरे, इसमें शर्माने वाली क्या बात है आंटी? अंडरगारमेंट्स ही तो हैं, सब पहनते हैं।"
उसकी आवाज़ में एक अपनापन था, एक तसल्ली थी कि 'यह कोई बड़ी बात नहीं है'।
रवि की इस बात ने कामिनी को थोड़ा सहज कर दिया।
उसे लगा कि यह लड़का कितना मैच्योर (Mature) है।
कामिनी के अंदर की 'शरारती औरत' जाग उठी। उसे सुबह का नज़ारा याद आ गया—रवि का नंगा बदन और वहां बालों का नामो-निशान न होना।
उसने अपनी शर्म को एक किनारे फेंका और रवि की आँखों में देखते हुए, एक हल्की सी मुस्कान के साथ ताना मारा—
"हाँ, सब पहनते हैं... पर तुम भी पहन लिया करो कभी-कभी। दरवाज़ा बंद करना भूल जाते हो।"
यह बोलकर कामिनी वहां रुकी नहीं, वह मुस्कुराती हुई अपने कमरे की तरफ भाग गई।
पीछे रवि खड़ा रह गया—हैरान और खुश।
उसे सिग्नल मिल गया था।
'आंटी ने सुबह सब कुछ देखा था... और उन्हें बुरा नहीं लगा।'
बाहर बारिश तेज़ हो गई थी, और घर के अंदर रोमांस की खिचड़ी पकने लगी थी।
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रात के 8 बज रहे थे।
बाहर आसमान फट पड़ा था, मूसलाधार बारिश हो रही थी। बादलों की गड़गड़ाहट घर की खामोशी को चीर रही थी।
किचन में खाना तैयार था, गाजर के हलवे की मीठी महक हवा में थी।
सामने tv चल रहा था,
लेकिन कामिनी का मन बेचैन था। वह डाइनिंग टेबल पर गुमसुम बैठी थी। उसकी नज़रें बार-बार बंद दरवाजे पर जा रही थीं।
'रघु कहाँ रह गया? इतनी तेज़ बारिश है... पैसे लेकर कहीं शराब पीने तो नहीं बैठ गया? या कोई हादसा तो नहीं हो गया?'
एक अजीब सी चिंता उसे खाए जा रही थी। आखिर रघु ही वो शख्श था, जिसने उसके जिस्म मे सालों बाद ये बेचैनी पैदा की थी,
कामिनी को इस तरह खोया हुआ देख, रवि ने चुप्पी तोड़ी।
"चल ना बंटी... बारिश में नहा के आते हैं, देख कितनी मस्त बारिश हो रही है," रवि ने खिड़की की तरफ इशारा करते हुए कहा।
बंटी कम्बल ओढे सोफे पर दुबका हुआ था। उसने मुंह बनाया।
"नहीं यार... बहुत ठंडा पानी है, मैं बीमार पड़ जाऊंगा। तू जा, मुझे नहीं नहाना।" बंटी ने साफ़ मना कर दिया।
रवि ने हार नहीं मानी। वह कामिनी की तरफ घूमा। उसकी आँखों में एक अलग ही चमक थी।
"आंटी... आप चलो ना। बहुत मज़ा आएगा।"
रवि के इस अचानक ऑफर से कामिनी सकपका गई। वह ख्यालों की दुनिया से धरातल पर लौटी।
"क... ककक... कौन मैं?" कामिनी ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा, "पागल हो गए हो क्या? मैं इस उम्र में बारिश में नहाउंगी?"
"तो और कौन आंटी?" रवि ने ज़िद्द की, "बारिश रोज़ थोड़ी न होती है। और उम्र का क्या है? कभी-कभी अपनी जवानी को जी लेना चाहिए। कब तक घर की चारदीवारी में कैद रहोगी?"
रवि एक ही सांस में बोल गया, लेकिन उसकी बातें कामिनी के दिल पर किसी हथौड़े की तरह लगीं।
यह एक आघात था।
'क्या मैं वाकई जीना भूल गई हूँ? मैंने आखिरी बार कब खुद के लिए कुछ किया था? कब बारिश की बूंदों को अपने चेहरे पर महसूस किया था?'
उसे याद आया, शादी से पहले अपने गांव में वह सावन की बारिश में सहेलियों के साथ घंटों नहाती थी। लेकिन इस घर में आकर, रमेश की मार और रसोड़े के धुएं ने उसकी सारी हसरतें कुचल दी थीं।
तभी बंटी ने भी रवि का साथ दिया।
"जाओ ना मम्मी... जी लो अपनी ज़िंदगी। वैसे भी आज पापा नहीं हैं घर पर, कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है।"
बंटी ने अनजाने में ही कामिनी को सबसे बड़ी आज़ादी दे दी थी। वो अपनी माँ का दुख समझता था, बरसो से चारदीवारी मे कैद थी उसकी माँ.
बंटी का उत्साह देखकर कामिनी की झिझक टूट गई। उसके चेहरे पर एक दबी हुई मुस्कान आ गई।
"ठीक है..."
रवि तो जैसे पागल हो गया।
वह बहुत उत्साही लड़का था। उसने आव देखा न ताव, कामिनी का हाथ पकड़ लिया।
"चलो आंटी... देर मत करो..."
रवि लगभग कामिनी को घसीटता हुआ सीढ़ियों की तरफ ले गया।
कामिनी मुंह से "ना-ना" कर रही थी, लेकिन उसके पैर किसी जवान हिरणी की तरह थिरक रहे थे। वह रवि के पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ गई। आज उसका यौवन लौट आया था।
छत पर पहुंचते ही ठंडे पानी की बौछार ने उनका स्वागत किया।
कामिनी एक पल के लिए ठिठकी, लेकिन रवि उसे खींचकर बीच छत पर ले गया।
छप-छप-छप... आउच.... कामिनी के जिस्म पर ठन्डे पानी की बौछार जैसे ही पड़ी, उसकी शर्म भी उतर गई.
"रवि पानी बहुत ठंडा है "
पानी ने कामिनी को ऊपर से नीचे तक भिगो दिया।
और फिर... एक चमत्कार हुआ।
कामिनी ने अपनी सारी शर्म, सारा दुख, सारी मर्यादा बारिश के पानी में बहा दी। वह गोल-गोल घूमने लगी। उसने अपने दोनों हाथ आकाश की तरफ फैला दिए और बारिश की बूंदों को अपने मुंह पर गिरने दिया।
वह किसी जवान मोरनी की तरह नाचने लगी।
रवि, जो उसके जीवन में किसी फ़रिश्ते की तरह आया था, एक कोने में खड़ा होकर बस उसे निहार रहा था।
कामिनी आज भूल गई थी कि वह 38 साल की एक माँ है। उसे लगा वह फिर से 18 साल की अल्हड़ लड़की बन गई है।
लेकिन रवि की नज़रें सिर्फ़ उसकी खुशी पर नहीं थीं... उसकी नज़रें कामिनी के भीगे हुए, कामुक जिस्म पर जम गई थीं।
बारिश के पानी ने कामिनी की सूती साड़ी को शरीर से बुरी तरह चिपका दिया था। वह कपड़ा अब खाल की तरह उसके बदन पर मढ़ा हुआ था।
ठंडे पानी के स्पर्श से कामिनी के भारी स्तन तन गए थे।
उसका ब्लाउज भीगकर पारदर्शी हो गया था, और उसके अंदर कैद उसके निप्पल एकदम कड़क होकर, ब्लाउज के कपड़े को चीरते हुए बाहर उभर आए थे। वे दो नुकीले पत्थरों की तरह रवि को चुनौती दे रहे थे।
कामिनी जब घूम रही थी, तो उसकी भारी छाती लय में ऊपर-नीचे हो रही थी।
पानी की धार उसकी साड़ी को भारी कर रही थी। साड़ी का कपड़ा उसकी जांघों के बीच फंस गया था।
इससे उसकी टांगों के बीच का वह गुप्त 'वी' (V) आकार—उसकी चूत का तिकोना उभार—साफ़ झलक रहा था। पानी की बूंदें उस उभार से फिसलकर नीचे गिर रही थीं।
पीछे से, उसकी चौड़ी और भारी गांड का आकार पूरी तरह से नुमाया हो रहा था। साड़ी उसके नितम्बों की दरार में धंस गई थी, जिससे उसके जिस्म के हर भूगोल का नक्शा रवि के सामने खुला था।
रवि किसी प्रेमी की तरह बस उस उछलती-खेलती कामिनी को देखे जा रहा था।
उसकी आँखों में हवस थी, लेकिन एक पूजा का भाव भी था।
कामिनी ने अकेले झूमता हुआ महसूस किया, वो अकेले ही उछले जा रही है, उसने सामने देखा रवि एकटक उसे ही देखे जा रहा था.
उसने रवि की टकटकी को महसूस कर लिया।
आम तौर पर वह अपना पल्लू ठीक करती या शर्मा जाती।
लेकिन आज?
आज उसे अच्छा लग रहा था।
उसे अच्छा लग रहा था कि एक 20 साल का जवान, खूबसूरत लड़का उसे ऐसे देख रहा है जैसे वह दुनिया की सबसे सुंदर औरत हो।
"क्या हुआ आओ ना, देख क्या रहे हो?"
उसने जानबूझकर अपनी कमर को और लचकाया, अपनी छाती को थोड़ा और आगे किया ताकि बारिश की बूंदें उसके कड़क निप्पलों पर गिरें।
इस बारिश में कामिनी सिर्फ़ भीग नहीं रही थी... वह जल रही थी।
उसका जिस्म चीख-चीख कर कह रहा था कि वह ज़िंदा है, एक औरत है, कामुक औरत जिसका जिस्म प्यासा है, उसकी भी कुछ इच्छा है, उसका भी एक जीवन है, जो पति की मार से परे है, इसे भी हक़ है ये जीवन जीने का.
उसकी आँखों मे खुशी के आंसू थे, और उसकी आँखों मे धुंधला सा दिखता रवि का जवान जिस्म.
जो उसे ही देख रहा था....
Contd....
छत से कपड़े सुखाकर कामिनी नीचे आई।
घर में सन्नाटा था, लेकिन उसके दिमाग में शोर था।
रवि की फरमाइश—गाजर का हलवा—पूरी करनी थी। लेकिन घर में गाजर नहीं थी।
अब समस्या यह थी कि गाजर लाए कौन?
रवि और बंटी स्कूल जा चुके थे। रमेश ऑफिस में था।
बचा सिर्फ़ एक ही शख्स—रघु।
कामिनी की नज़र स्टोर रूम की तरफ गई।
उसका दिल ज़ोर से धड़का। कल रात की उस जंगली घटना के बाद, रघु का सामना करने की उसकी रत्ती भर भी हिम्मत नहीं थी।
'कैसे जाऊं उसके सामने? क्या सोच रहा होगा वो मेरे बारे में? कहीं उसे मेरा वहाँ होने का अहसास तो नहीं हो गया होगा?"
"नहीं... नहीं.... रघु तो नशे में धुत्त था। उसने उसे 'सुगना' बोला था। शायद उसे कुछ याद न हो। शायद उसे सपना लगा होगा"
कामिनी खुद को बचाने की दलील खुद को ही दे रही थी, वो किसी मझे हुए वकील की तरह, खुद का केस लड़ रही थी अपने अंतर्मन मे.
दुविधा मे फसा इंसान दलिले अच्छी देता है.
इस उम्मीद के सहारे कामिनी ने मुट्ठी भींची और स्टोर रूम की तरफ कदम बढ़ा दिए,
स्टोर रूम का दरवाज़ा खुला था।
अंदर रघु काम में लगा हुआ था। वह पुराने बक्से हटा रहा था।
उसका बदन पसीने से भीगा हुआ था। वही सांवला, गठीला शरीर, वही पसीने की गंध... कामिनी के नथुनों में कल रात की याद ताज़ा हो गई।
कामिनी की आहट सुनकर रघु मुड़ा।
सामने अपनी 'मेमसाब' को देखकर उसने तुरंत काम छोड़ा और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
"नमस्ते मेमसाब..."
उसकी आवाज़ में वही पुराना सम्मान और डर था। उसकी आँखों में कोई शरारत या 'मालिक' वाला भाव नहीं था। वह अभी भी भ्रम में था कि कल रात जो हुआ, वह हकीकत थी या शराब का नशा।
रघु का यह रवैया देखकर कामिनी की जान में जान आई।
'शुक्र है... इसे कुछ याद नहीं है। यह सपना ही समझ रहा है,' कामिनी ने राहत की सांस ली।
"वो... वो रघु..." कामिनी ने नज़रें चुराते हुए कहा, "बाज़ार से कुछ सामान लाना था। गाजर लानी थी।"
रघु ने सिर हिलाया। "जी मेमसाब, ले आऊंगा। पैसे दे दीजिये।"
कामिनी ने पल्लू में बंधे नोट निकाले और रघु की तरफ बढ़ाए। हाथ बढ़ाते वक़्त उसकी उंगलियां कांप रही थीं, डर था कि कहीं रघु का हाथ छू न जाए।
औरत भी कमाल होती है, रात मे जिस आदमी का लंड चूसा था, उजाले मे उसी शख्श का हाथ तक ना छू जाये इसकी परवाह थी.
रघु ने पैसे लिए और पूछा, "कितनी लाऊं मेमसाब?"
"दो किलो ले आना... हलवा बनाना है," कामिनी ने कहा।
रघु ने गमछे से अपना पसीना पोंछा और एक व्यावहारिक सलाह दी, जो कामिनी के लिए किसी बम से कम नहीं थी।
"मेमसाब... गाजर एकदम मोटी और लम्बी वाली ही लाऊंगा। पतली वाली में वो बात नहीं होती।"
उसने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा,
"जितनी मोटी और लम्बी गाजर होती है... हलवे में उतना ही मज़ा आता है। अच्छे से घिस जाता है,"
रघु तो सिर्फ़ सब्जी की बात कर रहा था, लेकिन कामिनी का दिमाग कल रात के दृश्य पर चला गया।
मोटी... लम्बी... और मज़ेदार?
उसकी आँखों के सामने रघु का वह विशाल, काला लंड आ गया जो उसने कल रात अपने मुंह में भरा था।
उसकी सरसरी नजर ना जाने क्यों रघु के कमर के निचले हिस्से लार फिसल गई,
वहाँ अभी भी मोटा सा कुछ लटका हुआ था।
कामिनी का चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसके कान गर्म हो गए।
रघु की यह सीधी-सादी बात उसे अश्लील लग रही थी।
"ह... हाँ... देख लेना, अच्छी लाना," कामिनी हड़बड़ा कर बोली।
रघु ने एक और बात जोड़ दी।
"गाजर का हलवा तो मुझे भी बहुत पसंद है मेमसाब... गांव में खूब खाता था। गरम-गरम हलवा, ऊपर से मलाई डाल कर....उफ्फ्फ, क्या स्वाद होता है।"
कामिनी की हालत खराब हो गई।
'गरम हलवा... मलाई...'
उसे याद आया कि कल रात उसने रघु की 'मलाई' (वीर्य) का स्वाद चखा था।
उसे फिर से हल्की सी उबकाई महसूस हुई, लेकिन साथ ही पेट के निचले हिस्से में एक मीठी सी टीस भी उठी।
"ठीक है... जाओ अब जल्दी," कामिनी ने उसे वहां से भगाना ही बेहतर समझा।
रघु सिर झुकाकर वहां से निकल गया।
रघु के हाथ मे पुरे 200 rs थे,
रघु बाज़ार की तरफ पैदल चल दिया,
रास्ते भर वह सोचता रहा।
'कल रात... वो सपना कितना सच लग रहा था। सुगना आई थी... उसने... उसने मेरा चूसा था। आह्ह्ह...'
रघु ने अपनी जांघों के बीच हाथ फेरा। वहां अभी भी हल्का दर्द था जो ज्यादा मुठ मारने या चूसने के बाद होता है।
वह कन्फ्यूज था।
तभी रास्ते मे उसे एक दुकान दिखी, उसकी फेवरेट दुकान...
"देसी शराब का ठेका "
उसने मुट्ठी मे बंद 200के नोट को देखा, फिर ठेके के अंदर कांच की सीसी मे बंद उसकी महबूबा को देखा.
"नहीं... नहीं... पहले गाजर ले लेता हूँ " रघु ने मन मे आते विचारों को एक पल मे झटक दिया.
उसने दो कदम बढ़ाये ही थे की...
"मेमसाब ने पैसे तो ज्यादा दिए हैं... एक 'पव्वा' तो आ ही जाएगा," रघु ने सोचा।
"बस एक ढक्कन मारूँगा... थकान मिटाने के लिए।" " रघु पलटा और मयखाने मे जा बैठा.
शराबी आदमी शराब से कभी जीत ही नहीं सकता, इतिहास गवाह है, बड़े बड़े राजा महराजा सब हार बैठे इस शराब के आगे, रघु क्या चीज हुआ भला.
****************
दोपहर के 2 बज गए थे।
कामिनी बार-बार घड़ी देख रही थी और स्टोर रूम की तरफ झांक रही थी।
रघु का कोई अता-पता नहीं था।
"नालायक कहीं का... पैसे लेकर भाग गया शायद। दारू पीने बैठ गया होगा," कामिनी ने गुस्से में बड़बड़ाया।
छोटे लोगो का यही है, पैसे मिले नहीं की सब काम भूल जाते है " कामिनी गुस्से मे भुंभुना रही थी.
तभी गेट खुलने की आवाज़ आई।
रवि और बंटी स्कूल से वापस आ गए थे।
"मम्मी, भूख लगी है," बंटी ने बैग सोफे पर पटकते हुए कहा।
लेकिन कामिनी की नज़र रवि पर थी।
रवि के हाथ में एक थैला था, जिसमें से ताज़ी, लाल गाजरें झांक रही थीं।
"आंटी..." रवि ने अपनी मनमोहक मुस्कान के साथ कहा, "आते वक़्त दिखा तो ले आया। मुझे याद था कि आज हलवा बनना है।"
कामिनी का गुस्सा पिघल गया।
जहाँ रघु, एक शराबी को उसने काम बोला था, वो नदारद था, वहीं रवि बिना कहे उसकी ज़रूरत पूरी कर रहा था।
"थैंक यू बेटा..." कामिनी ने थैला लिया।
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किचन का दृश्य (शाम 4 बजे):
उसी वक़्त रमेश का फोन आया।
"हेलो कामिनी... मैं आज रात घर नहीं आ पाऊंगा।"
"क्यों? क्या हुआ?" कामिनी ने पूछा।
"कुछ अर्जेंट काम है, साइट पर जाना पड़ रहा है... किशनगढ़," रमेश ने जल्दी में कहा और फोन काट दिया।
कामिनी ने फोन रखा और गाजर धोने लगी।
रवि किचन में आ गया। उसने कपड़े बदल लिए थे—एक स्लीवलेस टी-शर्ट और शॉर्ट्स पहने थे। उसका चिकना, गोरा बदन चमक रहा था।
"लाओ आंटी, मैं घिसवा देता हूँ," रवि ने कद्दूकस (Grater) उठा लिया।
वह गाजर घिसने लगा।
घिस... घिस... घिस...
"आंटी, गाजरें काफी अच्छी मिली हैं ना?" रवि ने गाजर को कसकर पकड़ते हुए कहा, "एकदम लंबी और मोटी। ऐसी गाजर घिसने में बड़ा मज़ा आता है, हाथ में ग्रिप (Grip) अच्छी बनती है।"
रवि की बात सीधी थी, लेकिन कामिनी की नज़रों में 'चोर' था।
'मोटी और लम्बी' सुनकर उसे सुबह रघु की बात और रवि का 'गुलाबी लंड' याद आ गया।
वह रवि से नज़रें नहीं मिला पा रही थी। उसका चेहरा लाल हो गया।
"ह... हाँ... अच्छी हैं," वह बस इतना ही बोल पाई।
"और सुबह के लिए sorry आंटी, मुझे दरवाजा अच्छे से बंद करना चाहिए था " रवि ने जैसे कामिनी को कर्रेंट छुवा दिया हो.
"कककम.... कोई बात नहीं,"
उसके चेहरे पे लाल मुस्कान तैर गई. हाथो मे मोटा गाजर लिए घिसे जा रही थी,
हॉल में बैठा बंटी टीवी देख रहा था, लेकिन उसके कान खड़े थे।
जब कामिनी ने बताया कि— "पापा आज नहीं आएंगे, किशनगढ़ गए हैं"—तो बंटी का माथा ठनका।
'किशनगढ़?'
उसने यह नाम पहले भी सुना था। रघु के मुँह से, जब वो पहले दिन घर आया था, तब माँ से बातचीत मे उसने इस कस्बे का जिक्र किया था, और बचपन मे दादा जी के मुँह से भी ये नाम सुना था.
'पापा और रघु का कनेक्शन? रघु भी वहीं का है क्या?'
बंटी चुप रहा, लेकिन उसके दिमाग में शक का कीड़ा रेंगने लगा.
शाम के 6 बजते-बजते मौसम बदल गया।
काले बादल घिर आए और ठंडी हवा चलने लगी। बारिश की बूंदें टप-टप गिरने लगीं।
"अरे! कपड़े भीग जाएंगे," कामिनी हड़बड़ाई। उसे याद आया कि उसकी धुली हुई साड़ी, ब्रा और पैंटी छत पर है।
वह जाने ही वाली थी कि रवि ने उसे रोक दिया।
"आप रहने दो आंटी... आप हलवा देखो, मैं ले आता हूँ," रवि ने कहा और बिजली की रफ़्तार से सीढ़ियाँ चढ़ गया।
कामिनी उसे मना भी नहीं कर पाई।
उसका दिल धक-धक करने लगा। 'हे भगवान... मेरी पैंटी...'
दो मिनट बाद रवि नीचे आया।
वह थोड़ा भीग गया था। उसके हाथ में कपड़ों का एक ढेर था।
उसने सोफे पर साड़ी और ब्लाउज रखा।
लेकिन उसके हाथ में अभी भी दो छोटे कपड़े थे—कामिनी की सफ़ेद ब्रा और वह फिजी (Skin) कलर की पैंटी।
कामिनी का चेहरा शर्म से टमाटर हो गया।
रवि धीरे से कामिनी के पास आया।
उसने बिना किसी हिचकिचाहट के, बड़े आराम से वह पैंटी और ब्रा कामिनी की तरफ बढ़ाई।
कामिनी का हाथ कांप रहा था। उसने झपट्टा मारकर कपड़े लिए और अपनी साड़ी के पल्लू में छुपाने लगी।
वह घबरा रही थी, शर्म से गड़ी जा रही थी।
रवि ने उसकी घबराहट भांप ली।
उसने कामिनी की आँखों में झांकते हुए बहुत ही सामान्य लहजे में कहा—
"अरे, इसमें शर्माने वाली क्या बात है आंटी? अंडरगारमेंट्स ही तो हैं, सब पहनते हैं।"
उसकी आवाज़ में एक अपनापन था, एक तसल्ली थी कि 'यह कोई बड़ी बात नहीं है'।
रवि की इस बात ने कामिनी को थोड़ा सहज कर दिया।
उसे लगा कि यह लड़का कितना मैच्योर (Mature) है।
कामिनी के अंदर की 'शरारती औरत' जाग उठी। उसे सुबह का नज़ारा याद आ गया—रवि का नंगा बदन और वहां बालों का नामो-निशान न होना।
उसने अपनी शर्म को एक किनारे फेंका और रवि की आँखों में देखते हुए, एक हल्की सी मुस्कान के साथ ताना मारा—
"हाँ, सब पहनते हैं... पर तुम भी पहन लिया करो कभी-कभी। दरवाज़ा बंद करना भूल जाते हो।"
यह बोलकर कामिनी वहां रुकी नहीं, वह मुस्कुराती हुई अपने कमरे की तरफ भाग गई।
पीछे रवि खड़ा रह गया—हैरान और खुश।
उसे सिग्नल मिल गया था।
'आंटी ने सुबह सब कुछ देखा था... और उन्हें बुरा नहीं लगा।'
बाहर बारिश तेज़ हो गई थी, और घर के अंदर रोमांस की खिचड़ी पकने लगी थी।
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रात के 8 बज रहे थे।
बाहर आसमान फट पड़ा था, मूसलाधार बारिश हो रही थी। बादलों की गड़गड़ाहट घर की खामोशी को चीर रही थी।
किचन में खाना तैयार था, गाजर के हलवे की मीठी महक हवा में थी।
सामने tv चल रहा था,
लेकिन कामिनी का मन बेचैन था। वह डाइनिंग टेबल पर गुमसुम बैठी थी। उसकी नज़रें बार-बार बंद दरवाजे पर जा रही थीं।
'रघु कहाँ रह गया? इतनी तेज़ बारिश है... पैसे लेकर कहीं शराब पीने तो नहीं बैठ गया? या कोई हादसा तो नहीं हो गया?'
एक अजीब सी चिंता उसे खाए जा रही थी। आखिर रघु ही वो शख्श था, जिसने उसके जिस्म मे सालों बाद ये बेचैनी पैदा की थी,
कामिनी को इस तरह खोया हुआ देख, रवि ने चुप्पी तोड़ी।
"चल ना बंटी... बारिश में नहा के आते हैं, देख कितनी मस्त बारिश हो रही है," रवि ने खिड़की की तरफ इशारा करते हुए कहा।
बंटी कम्बल ओढे सोफे पर दुबका हुआ था। उसने मुंह बनाया।
"नहीं यार... बहुत ठंडा पानी है, मैं बीमार पड़ जाऊंगा। तू जा, मुझे नहीं नहाना।" बंटी ने साफ़ मना कर दिया।
रवि ने हार नहीं मानी। वह कामिनी की तरफ घूमा। उसकी आँखों में एक अलग ही चमक थी।
"आंटी... आप चलो ना। बहुत मज़ा आएगा।"
रवि के इस अचानक ऑफर से कामिनी सकपका गई। वह ख्यालों की दुनिया से धरातल पर लौटी।
"क... ककक... कौन मैं?" कामिनी ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा, "पागल हो गए हो क्या? मैं इस उम्र में बारिश में नहाउंगी?"
"तो और कौन आंटी?" रवि ने ज़िद्द की, "बारिश रोज़ थोड़ी न होती है। और उम्र का क्या है? कभी-कभी अपनी जवानी को जी लेना चाहिए। कब तक घर की चारदीवारी में कैद रहोगी?"
रवि एक ही सांस में बोल गया, लेकिन उसकी बातें कामिनी के दिल पर किसी हथौड़े की तरह लगीं।
यह एक आघात था।
'क्या मैं वाकई जीना भूल गई हूँ? मैंने आखिरी बार कब खुद के लिए कुछ किया था? कब बारिश की बूंदों को अपने चेहरे पर महसूस किया था?'
उसे याद आया, शादी से पहले अपने गांव में वह सावन की बारिश में सहेलियों के साथ घंटों नहाती थी। लेकिन इस घर में आकर, रमेश की मार और रसोड़े के धुएं ने उसकी सारी हसरतें कुचल दी थीं।
तभी बंटी ने भी रवि का साथ दिया।
"जाओ ना मम्मी... जी लो अपनी ज़िंदगी। वैसे भी आज पापा नहीं हैं घर पर, कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है।"
बंटी ने अनजाने में ही कामिनी को सबसे बड़ी आज़ादी दे दी थी। वो अपनी माँ का दुख समझता था, बरसो से चारदीवारी मे कैद थी उसकी माँ.
बंटी का उत्साह देखकर कामिनी की झिझक टूट गई। उसके चेहरे पर एक दबी हुई मुस्कान आ गई।
"ठीक है..."
रवि तो जैसे पागल हो गया।
वह बहुत उत्साही लड़का था। उसने आव देखा न ताव, कामिनी का हाथ पकड़ लिया।
"चलो आंटी... देर मत करो..."
रवि लगभग कामिनी को घसीटता हुआ सीढ़ियों की तरफ ले गया।
कामिनी मुंह से "ना-ना" कर रही थी, लेकिन उसके पैर किसी जवान हिरणी की तरह थिरक रहे थे। वह रवि के पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ गई। आज उसका यौवन लौट आया था।
छत पर पहुंचते ही ठंडे पानी की बौछार ने उनका स्वागत किया।
कामिनी एक पल के लिए ठिठकी, लेकिन रवि उसे खींचकर बीच छत पर ले गया।
छप-छप-छप... आउच.... कामिनी के जिस्म पर ठन्डे पानी की बौछार जैसे ही पड़ी, उसकी शर्म भी उतर गई.
"रवि पानी बहुत ठंडा है "
पानी ने कामिनी को ऊपर से नीचे तक भिगो दिया।
और फिर... एक चमत्कार हुआ।
कामिनी ने अपनी सारी शर्म, सारा दुख, सारी मर्यादा बारिश के पानी में बहा दी। वह गोल-गोल घूमने लगी। उसने अपने दोनों हाथ आकाश की तरफ फैला दिए और बारिश की बूंदों को अपने मुंह पर गिरने दिया।
वह किसी जवान मोरनी की तरह नाचने लगी।
रवि, जो उसके जीवन में किसी फ़रिश्ते की तरह आया था, एक कोने में खड़ा होकर बस उसे निहार रहा था।
कामिनी आज भूल गई थी कि वह 38 साल की एक माँ है। उसे लगा वह फिर से 18 साल की अल्हड़ लड़की बन गई है।
लेकिन रवि की नज़रें सिर्फ़ उसकी खुशी पर नहीं थीं... उसकी नज़रें कामिनी के भीगे हुए, कामुक जिस्म पर जम गई थीं।
बारिश के पानी ने कामिनी की सूती साड़ी को शरीर से बुरी तरह चिपका दिया था। वह कपड़ा अब खाल की तरह उसके बदन पर मढ़ा हुआ था।
ठंडे पानी के स्पर्श से कामिनी के भारी स्तन तन गए थे।
उसका ब्लाउज भीगकर पारदर्शी हो गया था, और उसके अंदर कैद उसके निप्पल एकदम कड़क होकर, ब्लाउज के कपड़े को चीरते हुए बाहर उभर आए थे। वे दो नुकीले पत्थरों की तरह रवि को चुनौती दे रहे थे।
कामिनी जब घूम रही थी, तो उसकी भारी छाती लय में ऊपर-नीचे हो रही थी।
पानी की धार उसकी साड़ी को भारी कर रही थी। साड़ी का कपड़ा उसकी जांघों के बीच फंस गया था।
इससे उसकी टांगों के बीच का वह गुप्त 'वी' (V) आकार—उसकी चूत का तिकोना उभार—साफ़ झलक रहा था। पानी की बूंदें उस उभार से फिसलकर नीचे गिर रही थीं।
पीछे से, उसकी चौड़ी और भारी गांड का आकार पूरी तरह से नुमाया हो रहा था। साड़ी उसके नितम्बों की दरार में धंस गई थी, जिससे उसके जिस्म के हर भूगोल का नक्शा रवि के सामने खुला था।
रवि किसी प्रेमी की तरह बस उस उछलती-खेलती कामिनी को देखे जा रहा था।
उसकी आँखों में हवस थी, लेकिन एक पूजा का भाव भी था।
कामिनी ने अकेले झूमता हुआ महसूस किया, वो अकेले ही उछले जा रही है, उसने सामने देखा रवि एकटक उसे ही देखे जा रहा था.
उसने रवि की टकटकी को महसूस कर लिया।
आम तौर पर वह अपना पल्लू ठीक करती या शर्मा जाती।
लेकिन आज?
आज उसे अच्छा लग रहा था।
उसे अच्छा लग रहा था कि एक 20 साल का जवान, खूबसूरत लड़का उसे ऐसे देख रहा है जैसे वह दुनिया की सबसे सुंदर औरत हो।
"क्या हुआ आओ ना, देख क्या रहे हो?"
उसने जानबूझकर अपनी कमर को और लचकाया, अपनी छाती को थोड़ा और आगे किया ताकि बारिश की बूंदें उसके कड़क निप्पलों पर गिरें।
इस बारिश में कामिनी सिर्फ़ भीग नहीं रही थी... वह जल रही थी।
उसका जिस्म चीख-चीख कर कह रहा था कि वह ज़िंदा है, एक औरत है, कामुक औरत जिसका जिस्म प्यासा है, उसकी भी कुछ इच्छा है, उसका भी एक जीवन है, जो पति की मार से परे है, इसे भी हक़ है ये जीवन जीने का.
उसकी आँखों मे खुशी के आंसू थे, और उसकी आँखों मे धुंधला सा दिखता रवि का जवान जिस्म.
जो उसे ही देख रहा था....
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