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Erotica मेरी माँ कामिनी

Lord haram

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अपडेट - 7


रात गहरा चुकी थी। सन्नाटा पसरा हुआ था, जिसे सिर्फ़ दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें तोड़ रही थीं।
रघु, जो शाम को 100 रुपये लेकर गया था, लड़खड़ाते कदमों से वापस आ रहा था। उसने देसी शराब चढ़ा रखी थी, लेकिन आज नशा उसे चढ़ नहीं रहा था, बल्कि एक अजीब सी बेचैनी थी।
वह गेट फांदकर अंदर आया और चबूतरे पर पसरने ही वाला था कि तभी...
"आह्ह्ह... उउउफ्फ्फ... दया करो..."
खिड़की से आती एक दबी हुई, दर्दनाक चीख ने उसके कदम रोक दिए।
खिड़की खुली थी। पर्दा हवा में उड़ रहा था।
रघु ने धड़कते दिल के साथ अंदर झाँका।
अंदर का नज़ारा देखकर उसका नशा हिरन की तरह गायब हो गया।
फर्श पर कामिनी नंगी पड़ी थी। उसकी टांगें फैली हुई थीं। और उसका वहशी पति, जानवर की तरह उसकी टांगों के बीच कुछ कर रहा था।
रघु ने देखा कि रमेश के हाथ में बेल्ट थी।
"हे भगवान..." रघु का कलेजा मुंह को आ गया।
उसे तुरंत समझ आ गया कि यह सब क्यों हो रहा है।
"ये मेरी वजह से पिट रही है... मैंने काम पूरा नहीं किया, इसलिए मालिक इस पर कहर ढा रहा है।"
रघु की आँखों में आंसू आ गए। उसे कामिनी के नंगे, सुडौल जिस्म को देखकर हवस नहीं, बल्कि गहरा दुःख हुआ। उसे अपनी कामचोरी पर इतना गुस्सा आया कि मन किया अंदर घुसकर रमेश का गला घोंट दे।
लेकिन... वह था कौन? एक शराबी मजदूर। और अंदर एक बड़ा साहब।
वह अपनी औकात जानता था। वह मुट्ठी भींचकर, दाँत पीसकर बस खड़ा रहा और अपनी मालकिन को अपनी वजह से लुटते हुए देखता रहा।
कुछ देर बाद, रमेश लुढ़क गया और उसके खर्राटे गूंजने लगे।
कामिनी वहीं फर्श पर अधमरी पड़ी थी।
रघु से रहा नहीं गया।

"मेमसाब..." उसने बहुत धीमी, कांपती हुई आवाज़ दी।
सन्नाटे में वह आवाज़ कामिनी के कानों में बिजली की तरह कौंधी।
कामिनी सकपका गई। उसने अपनी धुंधली आँखों से खिड़की की तरफ देखा। अँधेरे में दो आँखें उसे ही देख रही थीं।
शर्म, डर और अपमान ने उसे घेर लिया। एक पराया मर्द उसे इस हाल में देख रहा था—नंगी, टांगें फैलाए, और अपमानित।
वह हड़बड़ा कर उठने की कोशिश करने लगी।
"उफ्फ्फ..."
जैसे ही उसने उठने के लिए जोर लगाया, उसे अपनी जांघों के बीच एक भयानक दर्द और भारीपन महसूस हुआ।
बेल्ट का बक्कल... वह अभी भी उसकी योनि में फंसा हुआ था।

कामिनी का जिस्म कांप गया।
सामने रघु खड़ा था, अपलक उसे देख रहा था।
और यहाँ... कामिनी को अपनी चूत से वह लोहे का टुकड़ा निकालना था।


लज्जा का एक ऐसा पल आया जिसने कामिनी के दिमाग को सुन्न कर दिया, लेकिन उसके जिस्म को अजीब तरह से जगा दिया।
एक गैर मर्द की मौजूदगी... उसका इस तरह नंगी अवस्था में उसे देखना...
कामिनी के निप्पल (nipples) अपमान के बावजूद तन कर पत्थर हो गए।
न जाने क्यों, रघु की उस "दयालु लेकिन मर्दाना" नज़रों के अहसास से ही उसकी सूखी, छिली हुई चूत ने अचानक पानी छोड़ दिया।
कामिनी ने कांपते हाथों से उस बक्कल को पकड़ा और खींचा।
पुचूक... छलक...
एक गीली, बेशर्म आवाज़ के साथ, जो रघु को भी साफ सुनाई दी, वह बक्कल चिकनाई के साथ फिसलकर बाहर निकल आया।
बक्कल के निकलते ही कामिनी की चूत का मुंह खुला रह गया, जिससे लार जैसा गाढ़ा पानी और खून की एक पतली बूंद रिस कर फर्श पर गिर गई।
कामिनी की जान निकल गई। उसने तुरंत अपनी जांघें सिकोड़ लीं।
रघु ने यह सब देखा। वह आवाज़, वह दृश्य... लेकिन उसने तुरंत अपनी नज़रें फेर लीं। वह कामिनी को और शर्मिंदा नहीं करना चाहता था।
"भूख लगी थी मेमसाब..." रघु ने बात बदलते हुए कहा, आवाज़ में भारीपन था, "रात को कुछ खाने को नहीं मिला।"
उसने यह बात सिर्फ़ इसलिए कही ताकि उस भयानक माहौल को तोड़ा जा सके।
कामिनी को जैसे होश आया। उसने खुद को समेटा।
"जाओ... जाओ यहाँ से... आती हूँ," उसने रोती हुई, क्रोधित आवाज़ में डांटा। वह नहीं चाहती थी कि रघु उसे एक पल भी और इस हाल में देखे।

रघु चुपचाप खिड़की से हट गया और गार्डन में अंधेरे की तरफ चला गया।
कामिनी ने जैसे-तैसे खुद को फर्श से उठाया। दर्द से उसकी चीख निकल रही थी।
ब्रा और पैंटी पहनने की हिम्मत नहीं थी। शरीर पर इतने घाव थे कि तंग कपड़े बर्दाश्त नहीं होते।
उसने बिना बदन पोंछे, उसी हाल में पेटीकोट पहना, ब्लाउज डाला और ऊपर से साड़ी लपेट ली।
वह लड़खड़ाते हुए रसोई में गई।
फर्श पर जो थाली रमेश ने गिराई थी, उसे समेटा। रोटियां झाड़ीं, थोड़ी सब्जी डाली।
उसका अपना पेट खाली था, लेकिन उसे बाहर बैठे उस आदमी की फिक्र थी जो शायद उसकी ही वजह से भूखा था (या वह खुद को तसल्ली दे रही थी)।
वह थाली लेकर पीछे के दरवाजे से बाहर निकली।
गार्डन में जंगली घास बहुत बढ़ी हुई थी—वही घास जिसकी वजह से आज महाभारत हुआ था।
रघु उसी घास के बीच, एक पेड़ के तने से टिककर बैठा था।
चांदनी रात में वह किसी उदास साये जैसा लग रहा था।
कामिनी उसके पास पहुँची और थाली उसकी तरफ बढ़ा दी।
"लो... खा लो," कामिनी की आवाज़ रुंध गयी थी।
रघु ने ऊपर देखा। कामिनी की आँखें सूजी हुई थीं, गाल पर थप्पड़ का निशान था और वह लंगड़ा कर खड़ी थी।
रघु ने थाली ली। उसने एक रोटी का टुकड़ा तोड़ा, सब्जी लगाई।
लेकिन मुंह में डालने से पहले उसका हाथ रुक गया।
उसने देखा कामिनी अभी भी खड़ी है, उसे देख रही है।

"मेमसाब..." रघु ने वह निवाला अपनी तरफ नहीं, बल्कि कामिनी की तरफ बढ़ा दिया।
"आपको भी भूख लगी होगी ना? खा लो..."
रघु की आवाज़ में कोई छल नहीं था, कोई हवस नहीं थी। सिर्फ़ एक इंसान की दूसरे इंसान के लिए फ़िक्र थी।

"खा लो मेमसाब... खाली पेट इंसान को अंदर से तोड़ देता है"
कामिनी सन्न रह गई।
उसकी आँखों से आंसुओं का बांध टूट पड़ा। वह चाहकर भी खुद को रोक नहीं पाई।
उसका दिमाग तुलना करने लगा।
एक तरफ उसका 'देवता' समान पति था, जिसने उसे खाने की टेबल से बाल पकड़कर घसीटा, मारा-पीटा और भूखा रखा।
और दूसरी तरफ... यह 'नीच' जाति का, शराबी, गंदा मजदूर था। जो खुद भूखा था, लेकिन पहला निवाला उसे दे रहा था।
"नहीं..." कामिनी ने सिसकते हुए मुंह फेर लिया, "मुझे नहीं खानी... तुम खाओ।"

वह मुड़कर जाने लगी। उसे लग रहा था कि अगर वह एक पल भी और यहाँ रुकी, तो वह इस आदमी के कदमों में गिरकर रो पड़ेगी। कामिनी लड़खड़ाते कदमो से आगे बढ़ गई, चुत से ज्यादा दिल मे जख्म हो गए थे उसके.
तभी रघु की भारी आवाज़ पीछे से आई।
"खा लो मेमसाब... पेट भरा हो, तो दर्द सहने की ताकत आ जाती है।"
रघु के इन शब्दों ने कामिनी के पैरों को ज़मीन में गाड़ दिया।
यह सिर्फ़ खाने की बात नहीं थी। यह जिंदगी की सच्चाई थी। जिसे वही इंसान समझ सकता है जो कई रातो भूखा सोया हो.

कामिनी मुड़ी, लेकिन उसके पैरो ने जवाब दे दिया, वो अपने जिस्म का बोझ ना संभाल सक्क, और वहीं, उस लम्बी घास के बीच घुटनों के बल धम्म.... से बैठ गई।
उसने कांपते हाथों से रघु के हाथ से वह निवाला लिया और अपने मुंह में रख लिया।

रोटी चबाते हुए उसके आंसू उसकी गालों से होते हुए उसके होंठों तक आ गए। रोटी का स्वाद नमकीन हो गया था।
आज कामिनी ने अपने पति का दिया दर्द, और एक गैर मर्द का दिया निवाला... दोनों एक साथ निगले थे।
चांदनी रात में, उस जंगली घास के बीच, दो टूटे हुए लोग एक ही थाली में अपना-अपना दर्द बांट रहे थे।
और खिड़की से... बंटी की परछाई यह सब देख रही थी।

****************


अगली सुबह सूरज हमेशा की तरह निकला, अपनी पूरी चमक के साथ। लेकिन इस घर की दीवारे कामिनी की चीखो और एक अजीब सन्नाटे से घिरी हुई थी,
सुबह के 9 बज रहे थे।
बंटी स्कूल जा चुका था।
और रमेश?
रमेश डाइनिंग टेबल पर नाश्ता करके खड़ा हुआ। उसने आज एक कड़क इस्त्री की हुई सफ़ेद शर्ट और काली पैंट पहनी थी।
चेहरे पर महंगी शेविंग क्रीम की महक थी और गाल एकदम चिकने (Clean Shaven) थे।


उसे देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि यह वही जानवर है जिसने कल रात अपनी पत्नी की अस्मिता को जूतों तले रौंदा था, जिसने 200 रुपये के लिए अपनी बीवी की योनि को लहुलुहान कर दिया था।
आज वह 'मिस्टर रमेश बाबू' था—शहर का एक प्रतिष्ठित सिविल सीनियर इंजीनियर (Civil Senior Engineer)।

रमेश की यह 'शराफत' दरअसल एक मुखौटा थी।
सच्चाई तो यह थी कि रमेश शुरू से ही एक बिगड़ैल, बदतमीज़ और जाहिल इंसान था। पढ़ाई में उसका कभी मन नहीं लगा। यह सरकारी नौकरी और रुतबा उसे अपनी काबिलियत से नहीं, बल्कि अपने बाप के रसूख और मोटी रिश्वत से मिला था।
शादी के बाद, उसके पिता ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसे यह कुर्सी दिलवा दी थी, ताकि बेटा सुधर जाए।
लेकिन कुर्सी मिलने के बाद रमेश सुधरा नहीं, बल्कि और बिगड़ गया।

नौकरी ने उसे 'शरीफों' का चोला दे दिया था, लेकिन अंदर वह वही सड़कछाप मवाली था। उसके असली दोस्त दफ्तर के बाबू नहीं, बल्कि शहर के जुआरी, सट्टेबाज और दलाल थे।
शराब और शबाब (रंडी बाज़ी ) उसका मुख्य शौक था।
जब तक उसके पिता ज़िंदा थे, वह थोड़ा डरता था। लेकिन उनके मरने के बाद तो वह 'खुल्ला सांड' हो गया.

बाहर की औरतों और कोठों की खाक छानते-छानते उसने अपनी जवानी और मर्दानगी दोनों फूँक दी थी। जवानी में जैसे-तैसे बंटी पैदा हो गया था, लेकिन अब...

अब वह सिर्फ नाम का मर्द बचा था। उसकी वह 'मर्दानगी' अब सिर्फ़ शराब के नशे में, औरत को पीटने और बेल्ट जैसी चीज़ों का इस्तेमाल करने में ही दिखती थी।
रमेश ने आईने में अपनी टाई ठीक की, बालों पर कंघी फेरी और अपना लेदर बैग उठाकर बाहर निकला।
गेट पर पहुँचते ही उसकी नज़र रघु पर पड़ी।
रघु सुबह-सुबह आ गया था और गार्डन के कोने में कुदाल चला रहा था।

रमेश को देखते ही रघु ने काम रोका और झुककर सलाम किया। "राम-राम साब।"
रमेश के चेहरे पर एक बनावटी, जेंटलमैन वाली मुस्कान आ गई।
"अरे भाई, आ गया तू? बहुत बढ़िया," रमेश ने अपनी 'साहब' वाली रौबदार लेकिन मीठी आवाज़ में कहा।

"देख भाई, कल तूने काम अधूरा छोड़ दिया था। आज निपटा देना पूरा।"
"जी मालिक, आज चकाचक कर दूंगा," रघु ने सिर झुकाकर कहा।
रमेश ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। उसे रघु में कोई इंसान नहीं, बल्कि एक 'सस्ता मजदूर' दिख रहा था जो चंद रुपयों में उसकी बेगार कर देगा।

"ठीक है, अच्छे से कर देना। अगर काम बढ़िया हुआ, तो और भी काम दूंगा। घर की पुताई-वुताई का भी सोच रहा हूँ," रमेश ने लालच का एक और टुकड़ा फेंका और अपनी स्कूटर स्टार्ट करके 'सभ्य समाज' में शामिल होने के लिए निकल गया।

अब घर में सिर्फ़ दो लोग थे।
कामिनी और रघु।
रमेश के जाते ही घर में एक भारी सन्नाटा पसर गया।
कामिनी अपने बेडरूम की खिड़की के पीछे, पर्दे की आड़ में छिपी खड़ी थी।
उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था।
वह रघु को देख रही थी। रघु ने अपनी बनियान उतार दी थी और नंगे बदन, पसीने में तर-बतर होकर फावड़ा चला रहा था। उसका काला, गठीला बदन धूप में चमक रहा था।

कामिनी की हालत 'सांप-छछूंदर' वाली हो गई थी।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह बाहर कैसे जाए? वह रघु से नज़रें कैसे मिलाए?
उसके दिमाग में कल रात का वो मंजर किसी फिल्म की तरह चल रहा था—
उसका नंगा, बेबस जिस्म... फर्श पर फैली हुई टांगें... और रघु की मौजूदगी में उसकी योनि से फिसलता हुआ वो बेल्ट का बक्कल।
उसने रघु के सामने अपनी 'इज्ज़त' का जनाज़ा निकलते देखा था। रघु ने उसकी खुली हुई, सूजी हुई और अपमानित 'चूत' को देखा था।

"हे भगवान... मैं किस मुंह से उसके सामने जाऊं?" कामिनी ने अपनी हथेलियों से चेहरा ढक लिया। शर्म के मारे उसके गाल तप रहे थे।
लेकिन दुविधा सिर्फ़ शर्म की नहीं थी।
दुविधा यह भी थी कि 'चोर' तो कामिनी के मन में भी था।
अगर रघु ने उसे नंगा देखा था, तो कामिनी ने भी तो रघु का लंड देखा था।
दोपहर को जब वह सो रहा था, तो कामिनी ने ही तो उसकी लुंगी उठाई थी। उसने ही तो उसके उस विशाल, काले 'नाग' को देखा था... और सिर्फ़ देखा नहीं था, छुआ भी था। उसे अपनी मुट्ठी में भरने की कोशिश की थी।
कामिनी को अभी भी अपनी हथेली पर रघु के उस सख्त अंग की गर्माहट महसूस हो रही थी।
एक तरफ 'शर्म' थी, और दूसरी तरफ 'वासना'।
एक तरफ वह मालकिन थी, और दूसरी तरफ एक अतृप्त औरत।
उसने पर्दे से थोड़ा और झाँककर देखा।
रघु पूरी ताकत से ज़मीन खोद रहा था। उसकी पीठ की मांसपेशियां हर वार के साथ तन रही थीं।

कामिनी को याद आया कि रात को इसी आदमी ने उसे रोटी खिलाई थी। उस वक़्त इसकी आँखों में हवस नहीं, दर्द था।
"यह आदमी आखिर है क्या?" कामिनी ने खुद से पूछा। "एक शराबी? एक मजदूर? एक दुखी पति? या..."
उसकी नज़र रघु की कमर से नीचे लुंगी पर गई, जो पसीने से चिपक गई थी।
"...या एक असली मर्द?"

तभी रघु ने माथे से पसीना पोंछने के लिए सर उठाया और उसकी नज़र सीधे उस खिड़की पर गई जहाँ कामिनी खड़ी थी।
कामिनी हड़बड़ा गई। वह पीछे हटना चाहती थी, लेकिन उसके पैर जाम हो गए।
उनकी नज़रें मिलीं।
रघु के चेहरे पर कोई 'नौकर' वाला भाव नहीं था। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी—जैसे वह जानता हो कि पर्दे के पीछे खड़ी औरत सिर्फ़ उसे देख नहीं रही, बल्कि उसे 'महसूस' कर रही है।

उसने कामिनी को देखकर हल्का सा सिर हिलाया, बिना कुछ बोले।
कामिनी का सांस लेना भारी हो गया। उसे लगा कि साड़ी पहने होने के बावजूद, रघु की वो तीखी नज़रें उसके कपड़ों को चीरकर, कल रात वाले जख्मों को कुरेद रही हैं।
आज का दिन बहुत भारी गुजरने वाला था।
(क्रमशः)

 

Sushil@10

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रात गहरा चुकी थी। सन्नाटा पसरा हुआ था, जिसे सिर्फ़ दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें तोड़ रही थीं।
रघु, जो शाम को 100 रुपये लेकर गया था, लड़खड़ाते कदमों से वापस आ रहा था। उसने देसी शराब चढ़ा रखी थी, लेकिन आज नशा उसे चढ़ नहीं रहा था, बल्कि एक अजीब सी बेचैनी थी।
वह गेट फांदकर अंदर आया और चबूतरे पर पसरने ही वाला था कि तभी...
"आह्ह्ह... उउउफ्फ्फ... दया करो..."
खिड़की से आती एक दबी हुई, दर्दनाक चीख ने उसके कदम रोक दिए।
खिड़की खुली थी। पर्दा हवा में उड़ रहा था।
रघु ने धड़कते दिल के साथ अंदर झाँका।
अंदर का नज़ारा देखकर उसका नशा हिरन की तरह गायब हो गया।
फर्श पर कामिनी नंगी पड़ी थी। उसकी टांगें फैली हुई थीं। और उसका वहशी पति, जानवर की तरह उसकी टांगों के बीच कुछ कर रहा था।
रघु ने देखा कि रमेश के हाथ में बेल्ट थी।
"हे भगवान..." रघु का कलेजा मुंह को आ गया।
उसे तुरंत समझ आ गया कि यह सब क्यों हो रहा है।
"ये मेरी वजह से पिट रही है... मैंने काम पूरा नहीं किया, इसलिए मालिक इस पर कहर ढा रहा है।"
रघु की आँखों में आंसू आ गए। उसे कामिनी के नंगे, सुडौल जिस्म को देखकर हवस नहीं, बल्कि गहरा दुःख हुआ। उसे अपनी कामचोरी पर इतना गुस्सा आया कि मन किया अंदर घुसकर रमेश का गला घोंट दे।
लेकिन... वह था कौन? एक शराबी मजदूर। और अंदर एक बड़ा साहब।
वह अपनी औकात जानता था। वह मुट्ठी भींचकर, दाँत पीसकर बस खड़ा रहा और अपनी मालकिन को अपनी वजह से लुटते हुए देखता रहा।
कुछ देर बाद, रमेश लुढ़क गया और उसके खर्राटे गूंजने लगे।
कामिनी वहीं फर्श पर अधमरी पड़ी थी।
रघु से रहा नहीं गया।

"मेमसाब..." उसने बहुत धीमी, कांपती हुई आवाज़ दी।
सन्नाटे में वह आवाज़ कामिनी के कानों में बिजली की तरह कौंधी।
कामिनी सकपका गई। उसने अपनी धुंधली आँखों से खिड़की की तरफ देखा। अँधेरे में दो आँखें उसे ही देख रही थीं।
शर्म, डर और अपमान ने उसे घेर लिया। एक पराया मर्द उसे इस हाल में देख रहा था—नंगी, टांगें फैलाए, और अपमानित।
वह हड़बड़ा कर उठने की कोशिश करने लगी।
"उफ्फ्फ..."
जैसे ही उसने उठने के लिए जोर लगाया, उसे अपनी जांघों के बीच एक भयानक दर्द और भारीपन महसूस हुआ।
बेल्ट का बक्कल... वह अभी भी उसकी योनि में फंसा हुआ था।

कामिनी का जिस्म कांप गया।
सामने रघु खड़ा था, अपलक उसे देख रहा था।
और यहाँ... कामिनी को अपनी चूत से वह लोहे का टुकड़ा निकालना था।


लज्जा का एक ऐसा पल आया जिसने कामिनी के दिमाग को सुन्न कर दिया, लेकिन उसके जिस्म को अजीब तरह से जगा दिया।
एक गैर मर्द की मौजूदगी... उसका इस तरह नंगी अवस्था में उसे देखना...
कामिनी के निप्पल (nipples) अपमान के बावजूद तन कर पत्थर हो गए।
न जाने क्यों, रघु की उस "दयालु लेकिन मर्दाना" नज़रों के अहसास से ही उसकी सूखी, छिली हुई चूत ने अचानक पानी छोड़ दिया।
कामिनी ने कांपते हाथों से उस बक्कल को पकड़ा और खींचा।
पुचूक... छलक...
एक गीली, बेशर्म आवाज़ के साथ, जो रघु को भी साफ सुनाई दी, वह बक्कल चिकनाई के साथ फिसलकर बाहर निकल आया।
बक्कल के निकलते ही कामिनी की चूत का मुंह खुला रह गया, जिससे लार जैसा गाढ़ा पानी और खून की एक पतली बूंद रिस कर फर्श पर गिर गई।
कामिनी की जान निकल गई। उसने तुरंत अपनी जांघें सिकोड़ लीं।
रघु ने यह सब देखा। वह आवाज़, वह दृश्य... लेकिन उसने तुरंत अपनी नज़रें फेर लीं। वह कामिनी को और शर्मिंदा नहीं करना चाहता था।
"भूख लगी थी मेमसाब..." रघु ने बात बदलते हुए कहा, आवाज़ में भारीपन था, "रात को कुछ खाने को नहीं मिला।"
उसने यह बात सिर्फ़ इसलिए कही ताकि उस भयानक माहौल को तोड़ा जा सके।
कामिनी को जैसे होश आया। उसने खुद को समेटा।
"जाओ... जाओ यहाँ से... आती हूँ," उसने रोती हुई, क्रोधित आवाज़ में डांटा। वह नहीं चाहती थी कि रघु उसे एक पल भी और इस हाल में देखे।

रघु चुपचाप खिड़की से हट गया और गार्डन में अंधेरे की तरफ चला गया।
कामिनी ने जैसे-तैसे खुद को फर्श से उठाया। दर्द से उसकी चीख निकल रही थी।
ब्रा और पैंटी पहनने की हिम्मत नहीं थी। शरीर पर इतने घाव थे कि तंग कपड़े बर्दाश्त नहीं होते।
उसने बिना बदन पोंछे, उसी हाल में पेटीकोट पहना, ब्लाउज डाला और ऊपर से साड़ी लपेट ली।
वह लड़खड़ाते हुए रसोई में गई।
फर्श पर जो थाली रमेश ने गिराई थी, उसे समेटा। रोटियां झाड़ीं, थोड़ी सब्जी डाली।
उसका अपना पेट खाली था, लेकिन उसे बाहर बैठे उस आदमी की फिक्र थी जो शायद उसकी ही वजह से भूखा था (या वह खुद को तसल्ली दे रही थी)।
वह थाली लेकर पीछे के दरवाजे से बाहर निकली।
गार्डन में जंगली घास बहुत बढ़ी हुई थी—वही घास जिसकी वजह से आज महाभारत हुआ था।
रघु उसी घास के बीच, एक पेड़ के तने से टिककर बैठा था।
चांदनी रात में वह किसी उदास साये जैसा लग रहा था।
कामिनी उसके पास पहुँची और थाली उसकी तरफ बढ़ा दी।
"लो... खा लो," कामिनी की आवाज़ रुंध गयी थी।
रघु ने ऊपर देखा। कामिनी की आँखें सूजी हुई थीं, गाल पर थप्पड़ का निशान था और वह लंगड़ा कर खड़ी थी।
रघु ने थाली ली। उसने एक रोटी का टुकड़ा तोड़ा, सब्जी लगाई।
लेकिन मुंह में डालने से पहले उसका हाथ रुक गया।
उसने देखा कामिनी अभी भी खड़ी है, उसे देख रही है।

"मेमसाब..." रघु ने वह निवाला अपनी तरफ नहीं, बल्कि कामिनी की तरफ बढ़ा दिया।
"आपको भी भूख लगी होगी ना? खा लो..."
रघु की आवाज़ में कोई छल नहीं था, कोई हवस नहीं थी। सिर्फ़ एक इंसान की दूसरे इंसान के लिए फ़िक्र थी।

"खा लो मेमसाब... खाली पेट इंसान को अंदर से तोड़ देता है"
कामिनी सन्न रह गई।
उसकी आँखों से आंसुओं का बांध टूट पड़ा। वह चाहकर भी खुद को रोक नहीं पाई।
उसका दिमाग तुलना करने लगा।
एक तरफ उसका 'देवता' समान पति था, जिसने उसे खाने की टेबल से बाल पकड़कर घसीटा, मारा-पीटा और भूखा रखा।
और दूसरी तरफ... यह 'नीच' जाति का, शराबी, गंदा मजदूर था। जो खुद भूखा था, लेकिन पहला निवाला उसे दे रहा था।
"नहीं..." कामिनी ने सिसकते हुए मुंह फेर लिया, "मुझे नहीं खानी... तुम खाओ।"

वह मुड़कर जाने लगी। उसे लग रहा था कि अगर वह एक पल भी और यहाँ रुकी, तो वह इस आदमी के कदमों में गिरकर रो पड़ेगी। कामिनी लड़खड़ाते कदमो से आगे बढ़ गई, चुत से ज्यादा दिल मे जख्म हो गए थे उसके.
तभी रघु की भारी आवाज़ पीछे से आई।
"खा लो मेमसाब... पेट भरा हो, तो दर्द सहने की ताकत आ जाती है।"
रघु के इन शब्दों ने कामिनी के पैरों को ज़मीन में गाड़ दिया।
यह सिर्फ़ खाने की बात नहीं थी। यह जिंदगी की सच्चाई थी। जिसे वही इंसान समझ सकता है जो कई रातो भूखा सोया हो.

कामिनी मुड़ी, लेकिन उसके पैरो ने जवाब दे दिया, वो अपने जिस्म का बोझ ना संभाल सक्क, और वहीं, उस लम्बी घास के बीच घुटनों के बल धम्म.... से बैठ गई।
उसने कांपते हाथों से रघु के हाथ से वह निवाला लिया और अपने मुंह में रख लिया।

रोटी चबाते हुए उसके आंसू उसकी गालों से होते हुए उसके होंठों तक आ गए। रोटी का स्वाद नमकीन हो गया था।
आज कामिनी ने अपने पति का दिया दर्द, और एक गैर मर्द का दिया निवाला... दोनों एक साथ निगले थे।
चांदनी रात में, उस जंगली घास के बीच, दो टूटे हुए लोग एक ही थाली में अपना-अपना दर्द बांट रहे थे।
और खिड़की से... बंटी की परछाई यह सब देख रही थी।

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अगली सुबह सूरज हमेशा की तरह निकला, अपनी पूरी चमक के साथ। लेकिन इस घर की दीवारे कामिनी की चीखो और एक अजीब सन्नाटे से घिरी हुई थी,
सुबह के 9 बज रहे थे।
बंटी स्कूल जा चुका था।
और रमेश?
रमेश डाइनिंग टेबल पर नाश्ता करके खड़ा हुआ। उसने आज एक कड़क इस्त्री की हुई सफ़ेद शर्ट और काली पैंट पहनी थी।

चेहरे पर महंगी शेविंग क्रीम की महक थी और गाल एकदम चिकने (Clean Shaven) थे।


उसे देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि यह वही जानवर है जिसने कल रात अपनी पत्नी की अस्मिता को जूतों तले रौंदा था, जिसने 200 रुपये के लिए अपनी बीवी की योनि को लहुलुहान कर दिया था।
आज वह 'मिस्टर रमेश बाबू' था—शहर का एक प्रतिष्ठित सिविल सीनियर इंजीनियर (Civil Senior Engineer)।

रमेश की यह 'शराफत' दरअसल एक मुखौटा थी।
सच्चाई तो यह थी कि रमेश शुरू से ही एक बिगड़ैल, बदतमीज़ और जाहिल इंसान था। पढ़ाई में उसका कभी मन नहीं लगा। यह सरकारी नौकरी और रुतबा उसे अपनी काबिलियत से नहीं, बल्कि अपने बाप के रसूख और मोटी रिश्वत से मिला था।
शादी के बाद, उसके पिता ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसे यह कुर्सी दिलवा दी थी, ताकि बेटा सुधर जाए।
लेकिन कुर्सी मिलने के बाद रमेश सुधरा नहीं, बल्कि और बिगड़ गया।

नौकरी ने उसे 'शरीफों' का चोला दे दिया था, लेकिन अंदर वह वही सड़कछाप मवाली था। उसके असली दोस्त दफ्तर के बाबू नहीं, बल्कि शहर के जुआरी, सट्टेबाज और दलाल थे।
शराब और शबाब (रंडी बाज़ी ) उसका मुख्य शौक था।
जब तक उसके पिता ज़िंदा थे, वह थोड़ा डरता था। लेकिन उनके मरने के बाद तो वह 'खुल्ला सांड' हो गया.

बाहर की औरतों और कोठों की खाक छानते-छानते उसने अपनी जवानी और मर्दानगी दोनों फूँक दी थी। जवानी में जैसे-तैसे बंटी पैदा हो गया था, लेकिन अब...


अब वह सिर्फ नाम का मर्द बचा था। उसकी वह 'मर्दानगी' अब सिर्फ़ शराब के नशे में, औरत को पीटने और बेल्ट जैसी चीज़ों का इस्तेमाल करने में ही दिखती थी।
रमेश ने आईने में अपनी टाई ठीक की, बालों पर कंघी फेरी और अपना लेदर बैग उठाकर बाहर निकला।
गेट पर पहुँचते ही उसकी नज़र रघु पर पड़ी।
रघु सुबह-सुबह आ गया था और गार्डन के कोने में कुदाल चला रहा था।

रमेश को देखते ही रघु ने काम रोका और झुककर सलाम किया। "राम-राम साब।"
रमेश के चेहरे पर एक बनावटी, जेंटलमैन वाली मुस्कान आ गई।
"अरे भाई, आ गया तू? बहुत बढ़िया," रमेश ने अपनी 'साहब' वाली रौबदार लेकिन मीठी आवाज़ में कहा।

"देख भाई, कल तूने काम अधूरा छोड़ दिया था। आज निपटा देना पूरा।"
"जी मालिक, आज चकाचक कर दूंगा," रघु ने सिर झुकाकर कहा।
रमेश ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। उसे रघु में कोई इंसान नहीं, बल्कि एक 'सस्ता मजदूर' दिख रहा था जो चंद रुपयों में उसकी बेगार कर देगा।

"ठीक है, अच्छे से कर देना। अगर काम बढ़िया हुआ, तो और भी काम दूंगा। घर की पुताई-वुताई का भी सोच रहा हूँ," रमेश ने लालच का एक और टुकड़ा फेंका और अपनी स्कूटर स्टार्ट करके 'सभ्य समाज' में शामिल होने के लिए निकल गया।

अब घर में सिर्फ़ दो लोग थे।
कामिनी और रघु।
रमेश के जाते ही घर में एक भारी सन्नाटा पसर गया।
कामिनी अपने बेडरूम की खिड़की के पीछे, पर्दे की आड़ में छिपी खड़ी थी।
उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था।
वह रघु को देख रही थी। रघु ने अपनी बनियान उतार दी थी और नंगे बदन, पसीने में तर-बतर होकर फावड़ा चला रहा था। उसका काला, गठीला बदन धूप में चमक रहा था।

कामिनी की हालत 'सांप-छछूंदर' वाली हो गई थी।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह बाहर कैसे जाए? वह रघु से नज़रें कैसे मिलाए?
उसके दिमाग में कल रात का वो मंजर किसी फिल्म की तरह चल रहा था—
उसका नंगा, बेबस जिस्म... फर्श पर फैली हुई टांगें... और रघु की मौजूदगी में उसकी योनि से फिसलता हुआ वो बेल्ट का बक्कल।
उसने रघु के सामने अपनी 'इज्ज़त' का जनाज़ा निकलते देखा था। रघु ने उसकी खुली हुई, सूजी हुई और अपमानित 'चूत' को देखा था।

"हे भगवान... मैं किस मुंह से उसके सामने जाऊं?" कामिनी ने अपनी हथेलियों से चेहरा ढक लिया। शर्म के मारे उसके गाल तप रहे थे।
लेकिन दुविधा सिर्फ़ शर्म की नहीं थी।
दुविधा यह भी थी कि 'चोर' तो कामिनी के मन में भी था।
अगर रघु ने उसे नंगा देखा था, तो कामिनी ने भी तो रघु का लंड देखा था।
दोपहर को जब वह सो रहा था, तो कामिनी ने ही तो उसकी लुंगी उठाई थी। उसने ही तो उसके उस विशाल, काले 'नाग' को देखा था... और सिर्फ़ देखा नहीं था, छुआ भी था। उसे अपनी मुट्ठी में भरने की कोशिश की थी।
कामिनी को अभी भी अपनी हथेली पर रघु के उस सख्त अंग की गर्माहट महसूस हो रही थी।
एक तरफ 'शर्म' थी, और दूसरी तरफ 'वासना'।
एक तरफ वह मालकिन थी, और दूसरी तरफ एक अतृप्त औरत।
उसने पर्दे से थोड़ा और झाँककर देखा।
रघु पूरी ताकत से ज़मीन खोद रहा था। उसकी पीठ की मांसपेशियां हर वार के साथ तन रही थीं।

कामिनी को याद आया कि रात को इसी आदमी ने उसे रोटी खिलाई थी। उस वक़्त इसकी आँखों में हवस नहीं, दर्द था।
"यह आदमी आखिर है क्या?" कामिनी ने खुद से पूछा। "एक शराबी? एक मजदूर? एक दुखी पति? या..."
उसकी नज़र रघु की कमर से नीचे लुंगी पर गई, जो पसीने से चिपक गई थी।
"...या एक असली मर्द?"

तभी रघु ने माथे से पसीना पोंछने के लिए सर उठाया और उसकी नज़र सीधे उस खिड़की पर गई जहाँ कामिनी खड़ी थी।
कामिनी हड़बड़ा गई। वह पीछे हटना चाहती थी, लेकिन उसके पैर जाम हो गए।
उनकी नज़रें मिलीं।
रघु के चेहरे पर कोई 'नौकर' वाला भाव नहीं था। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी—जैसे वह जानता हो कि पर्दे के पीछे खड़ी औरत सिर्फ़ उसे देख नहीं रही, बल्कि उसे 'महसूस' कर रही है।

उसने कामिनी को देखकर हल्का सा सिर हिलाया, बिना कुछ बोले।
कामिनी का सांस लेना भारी हो गया। उसे लगा कि साड़ी पहने होने के बावजूद, रघु की वो तीखी नज़रें उसके कपड़ों को चीरकर, कल रात वाले जख्मों को कुरेद रही हैं।
आज का दिन बहुत भारी गुजरने वाला था।
(क्रमशः)
Awesome update and nice story
 

Kodom Ali Mastan

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Stunning and absolutely amazing story. Wonderful and beautiful writing! Marvelous and fabulous themes.
Please let Kamini try to resist herself heart and soul to keep her sanskar, faithfulness and fidelity intact. Don't let her to advance first. Let Raghu to seduce Kamini slowly and steadily and let Kamini not give in so easily.
It will be excellent plot if Ramesh appointe Raghu as a house servant permanently.
Totally agree with you 👍
 
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lonelyjuhi

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Ekdum sahi bat
 
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