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अपडेट - 8, मेरी माँ कामिनी
रमेश के जाने के बाद कामिनी ने खुद को किसी तरह समेटा।
उसने मशीन से धुले हुए गीले कपड़े बाल्टी में भरे। उसका शरीर टूट रहा था, खासकर कमर के नीचे का हिस्सा, जहाँ कल रात बेल्ट ने कहर ढाया था। हर कदम पर उसकी जांघों के बीच एक तीस उठ रही थी, जिससे वह लंगड़ा कर चल रही थी।
हिम्मत करके वह कपड़े सुखाने के लिए पिछवाड़े में आई, जहाँ गार्डन था।
उसकी नज़रें झुकी हुई थीं। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह रघु से नज़रें मिला सके। उसे लग रहा था कि रघु की आँखें उसके कपड़ों के आर-पार उन जख्मों को देख रही हैं।

जैसे ही रघु ने कामिनी को लंगड़ाते हुए बाहर आते देखा, उसने कुदाल छोड़ दी और तेज़ कदमों से उसके पास आया।
कामिनी के दिल की धड़कन बढ़ गई। उसे लगा शायद रघु उसके दर्द के बारे में पूछेगा, शायद कोई सांत्वना देगा।
रघु उसके करीब आकर रुका।
"मेमसाब..." रघु ने हाथ फैला दिया, "वो... 100 रुपये मिल जाते तो..."
कामिनी सन्न रह गई।
उसे लगा था कि रघु हमदर्दी दिखाने आया है, उसका हालचाल पूछने आया है। लेकिन यह क्या? इसे तो फिर से दारू चाहिए?
कामिनी की सारी उम्मीदें, जो कल रात की रोटी वाली घटना से बंधी थीं, एक पल में कांच की तरह टूट गईं।
'सब मर्द एक जैसे होते हैं,' उसने कड़वाहट से सोचा। 'पति को जिस्म चाहिए, और इसे दारू। मेरे दर्द की किसी को परवाह नहीं।'
कामिनी के चेहरे पर एक "मरे हुए" भाव आ गए। उसने बिना कोई सवाल किए, अपनी साड़ी के पल्लू में खोंसा हुआ 100 का नोट निकाला और रघु के हाथ पर रख दिया।
रघु ने नोट लिया और बिना एक शब्द कहे, वहां से सरपट बाहर भाग गया।
कामिनी उसे जाते हुए देखती रही। उसकी आँखों में आंसू नहीं, बस एक खालीपन था।
"जा... पी ले तू भी," वह बुदबुदाई, "मेरी किस्मत में ऐसे ही ऐसे लोग लिखे हैं।"
वह लंगड़ाते हुए वापस मुड़ी और किचन में जाकर बेमन से काम करने लगी।
मुश्किल से 10 मिनट बीते होंगे।
खिड़की पर फिर से खटखटाहट हुई।
"मेमसाब..."
कामिनी ने चिढ़कर देखा। रघु खड़ा था। उसका चेहरा पसीने से भीगा था, सांस फूली हुई थी।
"क्या है अब?" कामिनी ने रूखेपन से पूछा।
"मेमसाब, मैं दवाई ले आया हूँ," रघु की आँखों में एक चमक थी,
"आपका दर्द पल भर में गायब हो जाएगा।"
कामिनी हैरान रह गई।
"दवाई? कैसी दवाई?"
"क्या मै अंदर आ सकता हूँ, यहाँ बाहर कोई देख लेगा," रघु ने इधर-उधर देखते हुए, झिझकते हुए कहाँ, जैसे की उसे अपना छोटपन याद आ गया हो.
वो रानी के चमकते महल को अपने गंदे पैरो से कुचलने की बात कर रहा था.
कामिनी के मन में द्वंद्व था। एक पराये, गंदे मजदूर को अपने बेडरूम में बुलाना?
कैसे बोले आने को, किसी ने देख लिया तो, अब तक वो ही घर के बहार गई थी, लेकिन आज ये बहार का आदमी अंदर आने की परमिशन मांग रहा था.
लेकिन दर्द इतना ज्यादा था कि उसने दिमाग की नहीं सुनी। उसने धीरे से पीछे का दरवाज़ा खोला और रघु को अंदर आने का इशारा किया।
संगमरमर के फर्श वाले उस आलीशान घर के बेडरूम में, आज पहली बार एक काला, मैला-कुचैला शराबी दाखिल हुआ था।
कामिनी बेडरूम के बीच खड़ी थी। उसकी सांसें तेज़ थीं। डर और उत्सुकता दोनों थी।
उसके सामने पहली बार कोई पराया मर्द उसके सामने खड़ा था,

"क्या दवाई लाए हो? दिखाओ," कामिनी ने पूछा।
रघु ने अपनी लुंगी की तह से एक 'देसी दारू का क्वार्टर' (पव्वा) निकाला और कामिनी के सामने लहरा दिया।
कामिनी की आँखें फटी की फटी रह गईं।
रघु ने बड़े गर्व से कहा, "मेमसाब, शराब का दर्द शराब से ही जाता है।"
कामिनी का दिमाग सुन्न हो गया और अगले ही पल गुस्से से फट पड़ा।
"बदतमीज़! नीच आदमी!" कामिनी चिल्लाई, "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? तुमने मुझे अपने जैसा शराबी समझा है? मैं... मैं तुम जैसे आदमी के साथ बैठकर शराब पियूँगी?"
कामिनी का गुस्सा सातवें आसमान पर था।
"निकल जाओ यहाँ से! अभी के अभी! मैंने सोचा था तुम इंसान हो, लेकिन तुम तो जानवर हो... तुम्हें लगता है मैं अपना गम भुलाने के लिए तुम्हारे साथ दारू पियूँगी?"
कामिनी रोंये जा रही थी, चिल्लाए जा रही थी। अपना सारा दर्द, सारा गुस्सा वह रघु पर निकाल रही थी।
रघु चुपचाप खड़ा सुनता रहा। वह कुछ बोलना चाहता था, हाथ उठा रहा था, लेकिन कामिनी उसे बोलने का मौका ही नहीं दे रही थी।
जब कामिनी की सांस फूल गई और वह चुप हुई, तब रघु ने बहुत ही धीमी और शांत आवाज़ में कहा—
"मेमसाब... यह पीने के लिए नहीं, लगाने के लिए है।"
कामिनी एकदम चुप हो गई। कमरे में सन्नाटा छा गया।
उसने ध्यान से रघु को देखा। रघु की आँखें स्थिर थीं। उसके मुंह से शराब की बदबू नहीं आ रही थी।
कामिनी ने महसूस किया कि आज रघु ने पी नहीं है। वह 100 रुपये, जो उसने अभी लिए थे, उनसे वह अपने लिए नहीं, बल्कि कामिनी के लिए यह बोतल लाया था।
कामिनी का गुस्सा झाग की तरह बैठ गया। उसकी जगह अब शर्मिंदगी और हैरानी ने ले ली।

"लगा... लगाने के लिए?" कामिनी हकलायी। उसे कुछ समझ नहीं आया, रघु कह क्या रहा है.
"हाँ मेमसाब," रघु ने बोतल मेज पर रखी।
"यह हमारे गाँव का देसी इलाज है। बड़े-बुज़ुर्ग कहते हैं—दारू पीने से अंदर का जख्म जाता है (गम), और जख्म पर डालने से बाहर का दर्द।"
उसने कामिनी की तरफ देखा, उसकी नज़रें कामिनी की साड़ी के नीचे छुपे जख्मों को टटोल रही थीं।
"वो... जो मालिक ने कल रात किया... बेल्ट से..." रघु थोड़ा हिचकिचाया, "वहाँ... खून जमा होगा, खाल छिली होगी।
यह देसी ठर्रा जब उस जख्म पर पड़ता है ना, तो थोड़ी जलन होती है, लेकिन सारा ज़हर, सारी सूजन खींच लेता है। घाव पकता नहीं है।"
कामिनी को अब समझ आ रहा था कि रघु क्या कहना चाह रहा है। लेकिन उसका अगला वाक्य सुनकर कामिनी की रूह कांप गई।
रघु ने संजीदगी से कहा, "मेमसाब... इसे सीधे... 'वहाँ' डालना पड़ेगा। आपकी... अंदर वाली चोट पर।"
कामिनी का चेहरा सफ़ेद पड़ गया।
"कक्क... ककम....क्या?"
"हाँ मेमसाब," रघु ने बिना पलक झपकाए कहा, "जख्म गहरा है। ऊपर-ऊपर लगाने से कुछ नहीं होगा। आपको लेटकर, टांगें खोलकर... इसे सीधे उस कटी हुई जगह पर डालना होगा।"
उसने चेतावनी दी, "बहुत जलेगा... जान निकल जाएगी... लेकिन उसके बाद जो ठंडक मिलेगी, वो किसी डॉक्टर की दवा में नहीं है।"
इस अजीब और भयानक इलाज को सुनकर कामिनी कांप उठी।
अपनी सबसे निजी, सबसे कोमल जगह पर शराब डालना?
यह सोचकर ही उसकी योनि में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई।
डर और उस अजीब से ख्याली चित्रण (Imagination) ने उसके दिमाग पर ऐसा असर किया कि अनजाने में ही उसकी 'चूत' ने पानी छोड़ दिया।
और जैसे ही वह नमकीन पानी अंदर के छिले हुए जख्मों पर लगा...
"सीईईईई....." कामिनी के मुंह से एक सिसकी निकल गई।
गीला होते ही उसके सूखे जख्म ताज़ा हो गए और उनमें भयानक जलन होने लगी।
वह वहीं अपने घुटनों को भींचकर खड़ी रह गई। दर्द अब बर्दाश्त से बाहर हो रहा था।
सामने मेज पर वह 'दारू की बोतल' रखी थी, और पास ही खड़ा था वह 'वैद्य' जो आज उसका इलाज करने वाला था।
***************
कामिनी बिस्तर के किनारे बैठी कांप रही थी। उसकी जांघों के बीच से रिसते पानी ने जख्मों को गीला कर दिया था, जिससे वहां मिर्च जैसी भयानक जलन हो रही थी।
रघु उसकी हालत समझ रहा था।
"हिम्मत करो मेमसाब," उसने दिलासा दिया, "कल रात जब वो लोहे का बक्कल अंदर गया था... यह दर्द उससे ज्यादा नहीं होगा। बस एक पल की बात है।"
रघु की यह बात सबूत थी कि उसने कल रात सब कुछ देखा था—कामिनी का अपमान, उसकी नग्नता, सब कुछ।
कामिनी का चेहरा शर्म से झुक गया।
लेकिन... एक अनजान मर्द के सामने अपनी टांगें कैसे खोल दे?
उसके दिमाग में एक विचार आया।
"रघु..." कामिनी ने कांपती आवाज़ में कहा, "तुम... तुम दीवार की तरफ मुँह करके खड़े हो जाओ। मैं... मैं खुद कर लूँगी।"
रघु एक पल रुका, फिर सिर हिलाकर दीवार की तरफ मुड़ गया।
कमरे में सन्नाटा था, जिसे सिर्फ़ कामिनी की भारी होती सांसें और दीवार घड़ी की टिक-टिक तोड़ रही थी।
रघु दीवार की तरफ मुंह करके खड़ा हो गया.
कामिनी के हाथ में वो 'देसी दारू' की बोतल थी। उसका दिल पिंजरे में बंद पक्षी की तरह फड़फड़ा रहा था।
वह बिस्तर के बीचों-बीच लेटी हुई थी।
"हे भगवान... मुझे शक्ति देना," वह बुदबुदाई।
उसने अपने कांपते हाथों से बोतल का ढक्कन खोला और उसे साइड टेबल पर रख दिया।
अब बारी थी उस 'पर्दे' को हटाने की जिसने उसकी मर्यादा को अब तक ढक रखा था।
कामिनी ने अपने दोनों हाथों से अपनी सूती साड़ी और उसके नीचे पहने पेटीकोट के घेरे को पकड़ा।
उसकी उंगलियां कपड़े को मुट्ठी में भींच रही थीं।
उसने धीरे-धीरे कपड़ा ऊपर खींचना शुरू किया।
सरसर... सरसर...
साड़ी पहले उसकी एड़ियों से ऊपर उठी, फिर उसकी सुडोल पिंडलियों को नंगा करती हुई घुटनों तक आई।
कामिनी की सांसें अटक रही थीं। एक पराया मर्द, भले ही उसने पीठ कर रखी हो, वो कमरे में मौजूद था, और वह खुद को नंगा कर रही थी।
उसने कमर को हल्का सा उठाया और साड़ी-पेटीकोट को एक ही झटके में अपनी नाभि तक समेट दिया।
अब वह कमर के नीचे पूरी तरह से अनावृत थी, नंगी थी.
उसकी गोरी, भरी हुई, मांसल मलाईदार जांघें बिस्तर की सफ़ेद चादर पर चमक रही थीं।
और उन दोनों जांघों के संगम पर... वह 'निजी त्रिकोण' मौजूद था।
कल दोपहर की 'वीट' ने वहां के काले जंगल को साफ़ कर दिया था। वहां अब एक भी बाल नहीं था, सिर्फ़ चिकनी, गोरी त्वचा थी।
लेकिन कल रात की हैवानियत ने उस खूबसूरती को एक दर्दनाक रूप दे दिया था।
कामिनी ने अपनी गर्दन उठाकर खुद अपनी 'योनि' को देखा।
वह बुरी तरह सूजी हुई थी। उसके दोनों बाहरी होंठ किसी पके हुए टमाटर की तरह लाल और मोटे हो गए थे। सूजन की वजह से योनि का मुँह बंद नहीं हो पा रहा था; वह आधा खुला था, और उसके अंदर का गहरा गुलाबी मांस साफ़ झांक रहा था।
उस खुले हुए मुँह से पारदर्शी काम-रस और हल्का सा खून रिसकर बाहर आ रहा था, जिससे वह हिस्सा गीला और लिसलिसा हो गया था।
वह एक घायल फूल की तरह लग रही थी जिसे किसी ने मसल दिया हो।
कामिनी ने कांपते हाथ से शराब की बोतल उठाई।
बोतल ठंडी थी। कांच पर नमी की बूंदें जमी थीं।
उसने अपनी टांगें घुटनों से मोड़ीं और उन्हें जितना हो सके उतना चौड़ा कर दिया।
हवा का एक झोंका उसकी नंगी, गीली योनि को छूकर गुजरा, जिससे उसके बदन में एक सिहरन दौड़ गई।
उसने बोतल का ठंडा, गोल मुँह अपनी योनि के पास लाया।
उसकी कलाई कांप रही थी।
जैसे ही कांच का वह बर्फीला किनारा (Rim) उसकी सूजी हुई, तपती योनि के बाहरी हिस्से (Labia) से स्पर्श हुआ...
"सीईईईईईई...............आआहहहह.... आउच "
कामिनी के मुंह से एक लम्बी सिसकी निकल गई।
उसकी पूरी त्वचा पर रोंगटे खड़े हो गए।
उसके निप्पल ब्लाउज के अंदर पत्थर की तरह सख्त हो गए।
उस ठंडे कांच और गर्म, सूजी हुई त्वचा का मिलन ऐसा था जैसे बिजली के नंगे तार टकरा गए हों।
एक अजीब सा करंट उसकी रीढ़ की हड्डी में दौड़ गया—आधा दर्द का, और आधा एक अनजानी उत्तेजना का।
उसने हिम्मत करके बोतल के मुँह को अपनी चुत के छेद पर सेट करने की कोशिश की।
लेकिन रास्ता बहुत संकरा था और सूजा हुआ था।
जैसे ही कांच ने जख्म को दबाया, एक तीखी टीस उठी।
"आह्ह्ह...उउउफ्फ्फ्फ़....." कामिनी का हाथ हिल गया।
निशाना चूक गया।
छलक...
बोतल टेढ़ी हो गई और शराब की एक बड़ी धार योनि के अंदर जाने के बजाय, बाहर छलक कर उसकी जांघों और बिस्तर पर गिर गई।
"उफ्फ्फ... नहीं..." कामिनी घबरा गई।
शराब गिरने की आवाज़ और कामिनी की आह सुनकर रघु से रहा नहीं गया।
वह झटके से पीछे पलटा।
और पलटते ही... उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं।
नज़ारा ही ऐसा था।
कामिनी बिस्तर पर टांगें फैलाए, कमर के नीचे पूरी तरह नंगी लेटी थी।
उसकी गोरी जांघों पर शराब बह रही थी। और बीच में... वह लाल, सूजी हुई और गीली 'चूत' किसी ज्वालामुखी के मुँह की तरह रघु को निमंत्रण दे रही थी।
रघु की नज़र गिरती हुई शराब पर गई। शराबी पहले शराब को देखता है उसके बाद शबाब को.
रघु भी वही शराबी था, इतनी खूबसूरत पकी हुई चुत के सामने उसे शराब ही दिखी.
वह चीते की तरह लपका और कामिनी के हाथ से बोतल थाम ली।
"क्या कर रही हो मेमसाब... अमृत गिरा दिया..." रघु की आवाज़ में हवस और चिंता दोनों थी।
कामिनी सकपका गई। उसने जल्दी से अपनी टांगें सिकोड़ने की कोशिश की।
"नहीं... मत देखो... रघु..." वह लज्जा से पानी-पानी हो गई।
लेकिन रघु ने अपना बायां हाथ उसकी जांघ पर रखकर उसे रोक दिया।
"शर्माओ मत मेमसाब... अब क्या पर्दा?" रघु ने अधिकार से कहा, "कल रात सब देख लिया था मैंने। और मेरी सुगना की भी ऐसी ही थी... लाओ मैं करता हूँ।"
रघु के स्पर्श—उस खुरदरे, सख्त हाथ का उसकी मखमली जांघ पर टिकना—ने कामिनी के विरोध को पिघला दिया।
वह निढाल होकर तकिये पर गिर गई। उसने अपनी मुट्ठी में चादर को भींच लिया और आँखें कसकर बंद कर लीं।
उसने अपनी टांगें रघु के हवाले कर दीं।
रघु ने उसकी दोनों जांघों को पकड़कर पूरी तरह फैला दिया। अब कामिनी की गुप्त गुफा का एक-एक कोना रघु की नज़रों के सामने था।
रघु ने बोतल का मुँह ठीक योनि के खुले हुए छेद पर लगाया।
कांच का स्पर्श फिर हुआ। कामिनी का पेट अंदर की तरफ पिचक गया।
और फिर...
ओछः... पच... पच.... फच....
रघु ने बोतल की गर्दन को ज़रा से दबाव के साथ उस सूजी हुई दरार के अंदर घुसा दिया।
"आआईईईईईईईई.......... माअअअअअअ........उउउफ्फ्फ.... आउच.... मर गई... हे भगवान..."
कामिनी की चीख निकल गई। उसकी कमर बिस्तर से ऊपर उठ गई, कामिनी तड़प उठी, उसने लाख कोशिश की अपनी जांघो को समेट ले, लेकिन रघु के मजबूत हाथो ने ऐसा होने नहीं दिया.
शराब सीधे अंदर के कच्चे, छिले हुए जख्मों पर गिरी।
आग लग गई... भयानक आग।
लेकिन अगले ही पल... जैसे ही दारू की वो नशीली गर्माहट अंदर की नसों में समाई, दर्द एक अजीब सी 'ठंडक' और 'मदहोशी' में बदलने लगा।
कामिनी हांफ रही थी। उसका सीना तेज़ी से ऊपर-नीचे हो रहा था।
लेकिन बोतल का मुँह छोटा था और अंदर जगह कम।
ग्लक... छलक...
शराब अंदर जाने के बाद वापस बाहर उफनने लगी। वह कामिनी के कुदरती पानी और जख्म के खून के साथ मिलकर बाहर बह रही थी।
रघु की आँखें उस बहते हुए रस को देखकर चौंधिया गईं।
कीमती देसी शराब... और मालकिन का जवानी का रस... सब बर्बाद हो रहा था।
उससे रहा नहीं गया।
उसका शराबी और हवसी दिमाग एक हो गया।
उसने झुककर अपना मुँह सीधा कामिनी की चूत पर लगा दिया।
स्लर्रर्रप.... सुड़प... सुदाप..लप... लप...
उसने बोतल हटाते ही अपनी जीभ वहां लगा दी और बहती हुई शराब को चाट लिया। या यूँ कहिये चुत से निकलती शराब को पीने लगा,
वह कीमती देसी शराब कामिनी की जांघों पर बर्बाद हो रही थी।
रघु की आँखों में एक अजीब सा पागलपन तैर गया। उसके लिए शराब भगवान थी, और कामिनी की चूत मंदिर। और वह प्रसाद को ज़मीन पर गिरते नहीं देख सकता था।
उसने आव देखा न ताव, अपना पूरा चेहरा कामिनी की दोनों जांघों के बीच घुसा दिया।
उसने अपने होंठों को कामिनी की सूजी हुई योनि के ठीक नीचे, जहाँ से रस बह रहा था, एक प्याले की तरह लगा दिया।
"स्लर्रर्रप........"
एक लंबी, गीली आवाज़ कमरे में गूंज गई।
रघु ने बहती हुई शराब और कामिनी के जिस्म से निकलते द्रवों के उस मिश्रण को एक ही घूंट में अपने मुंह में भर लिया।
और जैसे ही वह घूंट उसके गले से नीचे उतरा... रघु की आँखें चढ़ गईं।
आज यह वो मामूली 'देसी ठर्रा' नहीं था जो वह रोज़ 50 रुपये में खरीदता था। आज इसमें एक जादुई मिलावट थी।
उस कड़वी शराब में कामिनी की कामुक उत्तेजना का नमकीन पानी मिला हुआ था।
उसमें कल रात के और आज सुबह के जमे हुए पेशाब की एक हल्की, तीखी गंध थी।
और सबसे बढ़कर, उसमें कामिनी के कच्चे जख्मों से रिसता हुआ ताज़ा, कसैला खून मिला हुआ था।
यह एक अजीबोगरीब 'कॉकटेल' था—कड़वा, नमकीन, कसैला और खट्टा।
लेकिन रघु के लिए? रघु के लिए यह अमृत था।
"आह्ह्ह..." रघु के मुंह से एक मदहोश आवाज़ निकली।
उसने महसूस किया कि इस शराब में नशा दुगना है। एक नशा अल्कोहल का, और दूसरा नशा एक औरत के काम रस का।
उसे लगा जैसे वह शराब नहीं, बल्कि कामिनी की जवानी पी रहा है।
वही कामिनी को लगा जैसे उसे सांप ने डस लिया हो।
जहाँ जलन थी, वहां अचानक रघु की गीली, खुरदरी और गर्म जीभ रेंगने लगी।
रघु पागलों की तरह चूस रहा था।
उसने अपनी जीभ को नुकीला किया और उस सूजी हुई चूत के छेद में—जहाँ अभी बोतल थी—अंदर डाल दिया।
"उफ्फ्फ्फ.... रघुउउउउ.... आह्ह्ह्ह..." कामिनी का सर दायें-बायें डोलने लगा।
शराब और चूत के रस का वो कॉकटेल रघु को पागल कर रहा था। वह लप-लप करके चाट रहा था, चूस रहा था।
उसकी जीभ कामिनी के 'दाने' (Clitoris) को रगड़ रही थी।
कामिनी के हाथ रघु के बालों में चले गए। उसने रघु का सर अपनी चूत पर कसकर दबा दिया।
"पी लो... सब पी लो... आह्ह्ह... मेरी जान निकल रही है..."
दर्द गायब था। शर्म गायब थी।
सिर्फ़ एक जानवर जैसी हवस थी।
रघु अब किसी शराबी की तरह नहीं, बल्कि एक भूखे शेर की तरह कामिनी की चूत पर टूट पड़ा।
उसने अपनी खुरदरी, मांसल जीभ बाहर निकाली और उसे कामिनी की सूजी हुई योनि की दरार पर फिरा दिया।
लप... लप... लप...
उसकी जीभ किसी मोटे ब्रश की तरह कामिनी के नाजुक अंगों को साफ़ करने लगी।
वह शराब की हर उस बूंद को चाट रहा था जो कामिनी की बालों रहित चुत पर अटकी थी।
उसकी जीभ ने योनि के बाहरी होठों को चाटा, जो सूजन की वजह से मोटे और लाल हो गए थे।
फिर उसने अपनी जीभ की नोक को नुकीला किया और उस आधे खुले हुए छेद के अंदर डाल दिया, जहाँ अभी भी शराब भरी हुई थी।
चप... चप... चप...
वह अंदर के जख्मों को, वहां जमे खून को और वहां भरे हुए मवाद और शराब को अपनी जीभ से खींच-खींच कर पीने लगा।
उसे न खून के स्वाद से घिन आ रही थी, न पेशाब की गंध से। हवस ने उसे अंधा और बहरा कर दिया था। वह बस उस 'गीलेपन' को चूस लेना चाहता था।
इधर बिस्तर पर लेटी कामिनी की दुनिया ही बदल गई थी।
जब रघु की खुरदरी जीभ ने पहली बार उसकी जलती हुई त्वचा को छुआ, तो वह सिहर उठी,
लेकिन अगले ही पल, एक चमत्कार हुआ।
रघु की जीभ की गर्माहट और गीलेपन ने शराब की जलन को दबा दिया।
कामिनी ने अपनी जिंदगी के 38 साल गुज़ार दिए थे।
उसकी शादी को 18 साल हो चुके थे।
लेकिन इन 38 सालों में, रमेश ने एक बार भी... कभी एक बार भी अपना मुंह उसकी जांघों के बीच नहीं ले गया था।
कामिनी के लिए 'सेक्स' का मतलब सिर्फ़ टांगें फैलाना और पति के धक्के सहना था।
उसे पता ही नहीं था कि एक औरत की योनि को 'चाटा' भी जा सकता है। उसे पता ही नहीं था कि जीभ का स्पर्श लंड के धक्कों से भी ज्यादा सुख दे सकता है।
"रघुउउउउ.... उउउउफ्फ्फ्फ.... ये.... ये क्या कर रहे हो.... आह्ह्ह्ह..."
कामिनी अपना सर तकिये पर दायें-बायें पटकने लगी,
उसकी उंगलियां, जो अब तक चादर को नोच रही थीं, अब हवा में कुछ ढूंढने लगीं और अंत में रघु के सिर पर जा टिकीं।
उसने रघु के गंदे, पसीने से भरे और बिखरे हुए बालों को अपनी मुट्ठी में जकड़ लिया।
"हाँ.... वहीँ.... ओह्ह्ह्ह माँ.... मर गई...."
रघु की जीभ अब उसके चुत के 'दाने' (Clitoris) को ढूंढ चुकी थी।
वह छोटा सा मटर का दाना, जो आज तक रमेश की बेरुखी की वजह से सोया हुआ था, रघु की जीभ की रगड़ से जाग उठा था।
रघु उसे पागलों की तरह चूस रहा था, अपनी जीभ से थपथपा रहा था।
कामिनी की पीठ बिस्तर से ऊपर उठ गई, उसका पेल्विस (Pelvis) हवा में उठकर रघु के मुंह से चिपक गया।
वह चाहती थी कि रघु उसे खा जाए। पूरा निगल जाए।
"और अंदर.... रघु.... मेरी जान.... और अंदर..."
कामिनी आज अपनी मर्यादा, अपने संस्कार, अपना ऊँचा कुल... सब भूल चुकी थी।
उसे बस मज़ा आ रहा था। उसे यही चाहिए था, उसकी चुत कौन चूस रहा है अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था,
वह महसूस कर रही थी कि रघु उसकी गंदगी, उसका खून, उसका पेशाब... सब कुछ पी रहा है, और उसे जरा भी घिन नहीं आ रही।
यह 'स्वीकार्यता' कामिनी के लिए सबसे बड़ा नशा थी।
जिस पति ने उसे 'सूखी चूत' कहकर मारा था, आज उसी चूत को एक पराया मर्द 'रबड़ी' समझकर चाट रहा था।
कामिनी की आँखों से आंसू बहने लगे—दर्द के नहीं, उस परम सुख के जो उसे 38 साल बाद नसीब हुआ था।
रघु अब अपनी जीभ के साथ-साथ अपनी उंगलियों का भी इस्तेमाल करने लगा।
वह एक हाथ से कामिनी की जांघों को चौड़ा किये हुए था, और दूसरे हाथ से उसकी चूत के होठों को फैलाकर, अपनी जीभ को और गहराई तक उतार रहा था।
कामिनी का शरीर अकड़ने लगा।
उसकी योनि की मांसपेशियां रघु की जीभ को जकड़ने लगीं।
"मैं गई.... रघु.... मैं गई..... छोड़ना मत.... आह्ह्ह्ह...."
उसके अंदर का ज्वालामुखी फटने के लिए तैयार था। एक ऐसा ऑर्गेज्म जो उसने शायद ही कभी महसूस किया हो।
कामिनी का शरीर झटके लेने लगा। वह चरम सीमा पर थी। उसकी योनि रघु के मुंह में संकुचित होने लगी। खुल के बंद होने लगी.
"रघु... मैं गई... आह्ह्ह..."
लेकिन ठीक उसी पल...
रघु के दिमाग में 'घास' और 'साहब का डर' कौंध गया।
वह झटके से पीछे हटा और खड़ा हो गया।
"नहीं..." कामिनी तड़प उठी। वह एकदम किनारे से वापस गिर गई। जैसे सातवे आसमान पर ले जा कर उसे किसी ने छोड़ दिया हो.
रघु का मुंह गीला था, लाल था। वह हांफ रहा था।
"घास... घास साफ़ करनी है मेमसाब," रघु बड़बड़ाया,
"वरना साहब बेल्ट से मारेंगे... मैं जा रहा हूँ।"
वह अपनी लुंगी में तने हुए लंड को छुपाते हुए, पागलों की तरह कमरे से भाग गया।
कामिनी बिस्तर पर वैसे ही नंगी, टांगें फैलाए पड़ी रह गई।
उसकी चूत गीली थी, लिसलिसी थी और फड़फड़ा रही थी।
रघु ने इलाज तो कर दिया था—दर्द मिट गया था। लेकिन उसने एक नई बीमारी दे दी थी—अधूरी प्यास।
कांच की बोतल की वो ठंडक और रघु की जीभ की वो गर्मी... कामिनी अब इसी याद में तड़पने वाली थी।
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कामिनी चरम सुख के उस मुहाने पर खड़ी थी जहाँ से वापसी का कोई रास्ता नहीं होता। उसका शरीर रघु के मुंह पर कसता जा रहा था, उसकी योनि की दीवारें रघु की जीभ को निचोड़ने के लिए तैयार थीं।
"रघु... मैं गई... आह्ह्ह..."
वह बस झड़ने ही वाली थी।
लेकिन तभी...
रघु की जीभ अचानक रुक गई।
उसकी नज़र कामिनी की गोरी जांघों के उस हिस्से पर पड़ी जहाँ कल रात रमेश की बेल्ट ने नीले-काले निशान छोड़ दिए थे।
वो सूजी हुई लाल लकीरें... वो जमा हुआ काला खून।
उन निशानों को देखते ही रघु के दिमाग में एक बिजली सी कौंधी।
हवस का वह घना कोहरा एक ही पल में छंट गया।
उसे याद आ गया कि यह चोट क्यों लगी थी? क्योंकि काम अधूरा था।
उसे याद आ गया कि अगर आज भी काम अधूरा रहा, तो शाम को 'साहब' फिर आएंगे, और फिर वही बेल्ट इन मखमली जांघों को चीर देगी।
रघु कांप गया।
वह झटके से पीछे हटा। उसका मुंह कामिनी के चूत-रस और शराब से गीला था, लेकिन उसकी आँखों में अब हवस नहीं, एक खौफनाक 'डर' था।
"नहीं..." रघु हड़बड़ा कर खड़ा हो गया।
कामिनी, जो आसमान में उड़ रही थी, धड़ाम से हकीकत की सख्त ज़मीन पर आ गिरी।
उसका शरीर अभी भी झटके ले रहा था, उसकी चुत का अंदरूनी हिस्सा अभी भी सिकुड़-फैल रहा था, प्यासा था... लेकिन प्यास बुझाने वाला हट चुका था।
"रघु...?" कामिनी ने मदहोश, तड़पती हुई आँखों से उसे देखा। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह अचानक क्या हुआ।
रघु ने अपनी लुंगी ठीक की, जिसमें उसका खड़ा लंड अभी भी तंबू बनाए हुए था। लेकिन अब उसका दिमाग उस लंड के काबू में नहीं था।
"काम... काम करना है मेमसाब," रघु की आवाज़ फटी हुई थी,
"वो निशान... देखिये अपनी जांघों पर... वो फिर मारेंगे। साहब आज फिर जानवर बन जाएंगे।"
उसने अपनी मुट्ठी भींच ली, जैसे किसी अदृश्य दुश्मन का गला घोंट रहा हो।
"मैं... मैं एक और सुगना नहीं बनने दूंगा आपको," रघु बड़बड़ाया। उसकी आँखों में एक अजीब सा पागलपन था।
"अब और खूनखराबा नहीं... नहीं..."
कामिनी अभी भी अपनी हवस और अधूरी उत्तेजना के नशे में थी। उसका दिमाग सुन्न था। उसे रघु के शब्द सुनाई तो दे रहे थे—'सुगना', 'खूनखराबा'—लेकिन उनका मतलब समझ नहीं आ रहा था।
उसका जिस्म चीख रहा था— 'भाड़ में जाए सुगना, भाड़ में जाए काम... मुझे पूरा कर रघु... मुझे शांत कर।

"रघु... मत जाओ... मुझे तुम्हारी ज़रूरत है..." कामिनी ने अपना हाथ बढ़ाया, मन ही मन चिल्लायी, उसका ब्लाउज पसीने से भीगा हुआ था, पेट ऊपर-नीचे हो रहा था।
लेकिन रघु ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
वह किसी भूत से डरकर भागने वाले इंसान की तरह कमरे से निकल गया।
कामिनी बिस्तर पर अकेली रह गई।
टांगें अभी भी फैली थीं। साड़ी कमर पर चढ़ी थी।
उसकी चूत गीली, लिसलिसी और खुली हुई थी। रघु की जीभ की गर्माहट और शराब की ठंडक अभी भी वहां महसूस हो रही थी।
लेकिन अब वहां एक भयानक 'टीस' थी—अधूरी रह जाने की टीस।
यह दर्द कल रात वाले दर्द से भी बदतर था। कल चोट जिस्म पर थी, आज चोट उसकी जागी हुई कामवासना पर थी।
"उफ्फ्फ्फ...." कामिनी ने अपनी चुत को गुस्से मे जोर से भींच लिया,
वह तड़प रही थी, करवटें बदल रही थी। उसका मन कर रहा था कि खुद अपनी उंगलियां अंदर डाल दे, लेकिन रघु ने जो आग लगाई थी, उसे सिर्फ़ रघु ही बुझा सकता था।
कामिनी ने जैसे-तैसे खुद को संभाला। उसने कांपते हाथों से अपनी साड़ी नीचे खींची।
लड़खड़ाते हुए वह खिड़की के पास गई। उसने पर्दा हटाकर बाहर देखा।
गार्डन में...
रघु किसी पागल की तरह फावड़ा चला रहा था।
धप... धप... धप...
वह ज़मीन नहीं खोद रहा था, मानो वह ज़मीन के सीने पर वार कर रहा हो। उसका पूरा शरीर पसीने में नहाया हुआ था। उसकी चाल में, उसके काम में एक जुनूनी रफ़्तार थी।
घास, झाड़ियां, पौधे... सब उसके फावड़े के नीचे कटते जा रहे थे।
कामिनी ने ध्यान से देखा। रघु के होंठ चल रहे थे। वह लगातार कुछ बड़बड़ा रहा था।
हवा के झोंकों के साथ उसकी टूटी-फूटी आवाज़ कामिनी तक पहुँच रही थी।
"नहीं... अब नहीं..." रघु फावड़ा मारते हुए खुद से बातें कर रहा था।
"वो सुगना को खा गया... इसे नहीं खाने दूंगा... अब कोई नहीं मरेगा... कोई बच्चा नहीं मरेगा..."
उसकी आँखों में आंसू थे या पसीना, पता नहीं चल रहा था।
"काम पूरा करूँगा... साहब को खुश करूँगा... मेमसाब को नहीं पिटने दूंगा..."
वह रुकता, अपनी लुंगी से पसीना पोंछता, और फिर पागलों की तरह घास काटने लगता।
कामिनी खिड़की की ग्रिल पकड़े खड़ी थी। उसकी योनि अभी भी फड़फड़ा रही थी, लेकिन अब उसकी आँखों में एक सवाल भी था।
"यह किस तरह का इंसान है?" उसने सोचा।
"अभी कुछ पल पहले यह मेरे जिस्म को ऐसे चाट रहा था जैसे कोई भूखा भेड़िया... और अब?"
"अब यह मेरी मार की फिक्र कर रहा है? यह मुझे बचाने के लिए खुद को थका रहा है?"
कामिनी को रघु की वो बात— "एक और सुगना नहीं बनने दूंगा" —याद आई।
कौन थी सुगना? उसकी बीवी?
और 'खूनखराबा'?
कामिनी का कामुक दिमाग अभी भी धुंधला था, इसलिए वह इन शब्दों की गहराई नहीं समझ पा रही थी। उसे बस इतना समझ आ रहा था कि यह आदमी उसके लिए फिक्रमंद है।
रमेश ने उसे दर्द दिया था, और रघु उसे दर्द से बचा रहा था।
कामिनी की आँखों में रघु के लिए एक अजीब सी इज़्ज़त और चाहत पैदा होने लगी।
वह उसे पसीने में तर-बतर काम करते हुए देखती रही। उसकी मज़बूत काली पीठ, उसके बाज़ू...
उसका जिस्म अभी भी उस 'अधूरी प्यास' में जल रहा था,
Contd......
रमेश के जाने के बाद कामिनी ने खुद को किसी तरह समेटा।
उसने मशीन से धुले हुए गीले कपड़े बाल्टी में भरे। उसका शरीर टूट रहा था, खासकर कमर के नीचे का हिस्सा, जहाँ कल रात बेल्ट ने कहर ढाया था। हर कदम पर उसकी जांघों के बीच एक तीस उठ रही थी, जिससे वह लंगड़ा कर चल रही थी।
हिम्मत करके वह कपड़े सुखाने के लिए पिछवाड़े में आई, जहाँ गार्डन था।
उसकी नज़रें झुकी हुई थीं। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह रघु से नज़रें मिला सके। उसे लग रहा था कि रघु की आँखें उसके कपड़ों के आर-पार उन जख्मों को देख रही हैं।
जैसे ही रघु ने कामिनी को लंगड़ाते हुए बाहर आते देखा, उसने कुदाल छोड़ दी और तेज़ कदमों से उसके पास आया।
कामिनी के दिल की धड़कन बढ़ गई। उसे लगा शायद रघु उसके दर्द के बारे में पूछेगा, शायद कोई सांत्वना देगा।
रघु उसके करीब आकर रुका।
"मेमसाब..." रघु ने हाथ फैला दिया, "वो... 100 रुपये मिल जाते तो..."
कामिनी सन्न रह गई।
उसे लगा था कि रघु हमदर्दी दिखाने आया है, उसका हालचाल पूछने आया है। लेकिन यह क्या? इसे तो फिर से दारू चाहिए?
कामिनी की सारी उम्मीदें, जो कल रात की रोटी वाली घटना से बंधी थीं, एक पल में कांच की तरह टूट गईं।
'सब मर्द एक जैसे होते हैं,' उसने कड़वाहट से सोचा। 'पति को जिस्म चाहिए, और इसे दारू। मेरे दर्द की किसी को परवाह नहीं।'
कामिनी के चेहरे पर एक "मरे हुए" भाव आ गए। उसने बिना कोई सवाल किए, अपनी साड़ी के पल्लू में खोंसा हुआ 100 का नोट निकाला और रघु के हाथ पर रख दिया।
रघु ने नोट लिया और बिना एक शब्द कहे, वहां से सरपट बाहर भाग गया।
कामिनी उसे जाते हुए देखती रही। उसकी आँखों में आंसू नहीं, बस एक खालीपन था।
"जा... पी ले तू भी," वह बुदबुदाई, "मेरी किस्मत में ऐसे ही ऐसे लोग लिखे हैं।"
वह लंगड़ाते हुए वापस मुड़ी और किचन में जाकर बेमन से काम करने लगी।
मुश्किल से 10 मिनट बीते होंगे।
खिड़की पर फिर से खटखटाहट हुई।
"मेमसाब..."
कामिनी ने चिढ़कर देखा। रघु खड़ा था। उसका चेहरा पसीने से भीगा था, सांस फूली हुई थी।
"क्या है अब?" कामिनी ने रूखेपन से पूछा।
"मेमसाब, मैं दवाई ले आया हूँ," रघु की आँखों में एक चमक थी,
"आपका दर्द पल भर में गायब हो जाएगा।"
कामिनी हैरान रह गई।
"दवाई? कैसी दवाई?"
"क्या मै अंदर आ सकता हूँ, यहाँ बाहर कोई देख लेगा," रघु ने इधर-उधर देखते हुए, झिझकते हुए कहाँ, जैसे की उसे अपना छोटपन याद आ गया हो.
वो रानी के चमकते महल को अपने गंदे पैरो से कुचलने की बात कर रहा था.
कामिनी के मन में द्वंद्व था। एक पराये, गंदे मजदूर को अपने बेडरूम में बुलाना?
कैसे बोले आने को, किसी ने देख लिया तो, अब तक वो ही घर के बहार गई थी, लेकिन आज ये बहार का आदमी अंदर आने की परमिशन मांग रहा था.
लेकिन दर्द इतना ज्यादा था कि उसने दिमाग की नहीं सुनी। उसने धीरे से पीछे का दरवाज़ा खोला और रघु को अंदर आने का इशारा किया।
संगमरमर के फर्श वाले उस आलीशान घर के बेडरूम में, आज पहली बार एक काला, मैला-कुचैला शराबी दाखिल हुआ था।
कामिनी बेडरूम के बीच खड़ी थी। उसकी सांसें तेज़ थीं। डर और उत्सुकता दोनों थी।
उसके सामने पहली बार कोई पराया मर्द उसके सामने खड़ा था,
"क्या दवाई लाए हो? दिखाओ," कामिनी ने पूछा।
रघु ने अपनी लुंगी की तह से एक 'देसी दारू का क्वार्टर' (पव्वा) निकाला और कामिनी के सामने लहरा दिया।
कामिनी की आँखें फटी की फटी रह गईं।
रघु ने बड़े गर्व से कहा, "मेमसाब, शराब का दर्द शराब से ही जाता है।"
कामिनी का दिमाग सुन्न हो गया और अगले ही पल गुस्से से फट पड़ा।
"बदतमीज़! नीच आदमी!" कामिनी चिल्लाई, "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? तुमने मुझे अपने जैसा शराबी समझा है? मैं... मैं तुम जैसे आदमी के साथ बैठकर शराब पियूँगी?"
कामिनी का गुस्सा सातवें आसमान पर था।
"निकल जाओ यहाँ से! अभी के अभी! मैंने सोचा था तुम इंसान हो, लेकिन तुम तो जानवर हो... तुम्हें लगता है मैं अपना गम भुलाने के लिए तुम्हारे साथ दारू पियूँगी?"
कामिनी रोंये जा रही थी, चिल्लाए जा रही थी। अपना सारा दर्द, सारा गुस्सा वह रघु पर निकाल रही थी।
रघु चुपचाप खड़ा सुनता रहा। वह कुछ बोलना चाहता था, हाथ उठा रहा था, लेकिन कामिनी उसे बोलने का मौका ही नहीं दे रही थी।
जब कामिनी की सांस फूल गई और वह चुप हुई, तब रघु ने बहुत ही धीमी और शांत आवाज़ में कहा—
"मेमसाब... यह पीने के लिए नहीं, लगाने के लिए है।"
कामिनी एकदम चुप हो गई। कमरे में सन्नाटा छा गया।
उसने ध्यान से रघु को देखा। रघु की आँखें स्थिर थीं। उसके मुंह से शराब की बदबू नहीं आ रही थी।
कामिनी ने महसूस किया कि आज रघु ने पी नहीं है। वह 100 रुपये, जो उसने अभी लिए थे, उनसे वह अपने लिए नहीं, बल्कि कामिनी के लिए यह बोतल लाया था।
कामिनी का गुस्सा झाग की तरह बैठ गया। उसकी जगह अब शर्मिंदगी और हैरानी ने ले ली।
"लगा... लगाने के लिए?" कामिनी हकलायी। उसे कुछ समझ नहीं आया, रघु कह क्या रहा है.
"हाँ मेमसाब," रघु ने बोतल मेज पर रखी।
"यह हमारे गाँव का देसी इलाज है। बड़े-बुज़ुर्ग कहते हैं—दारू पीने से अंदर का जख्म जाता है (गम), और जख्म पर डालने से बाहर का दर्द।"
उसने कामिनी की तरफ देखा, उसकी नज़रें कामिनी की साड़ी के नीचे छुपे जख्मों को टटोल रही थीं।
"वो... जो मालिक ने कल रात किया... बेल्ट से..." रघु थोड़ा हिचकिचाया, "वहाँ... खून जमा होगा, खाल छिली होगी।
यह देसी ठर्रा जब उस जख्म पर पड़ता है ना, तो थोड़ी जलन होती है, लेकिन सारा ज़हर, सारी सूजन खींच लेता है। घाव पकता नहीं है।"
कामिनी को अब समझ आ रहा था कि रघु क्या कहना चाह रहा है। लेकिन उसका अगला वाक्य सुनकर कामिनी की रूह कांप गई।
रघु ने संजीदगी से कहा, "मेमसाब... इसे सीधे... 'वहाँ' डालना पड़ेगा। आपकी... अंदर वाली चोट पर।"
कामिनी का चेहरा सफ़ेद पड़ गया।
"कक्क... ककम....क्या?"
"हाँ मेमसाब," रघु ने बिना पलक झपकाए कहा, "जख्म गहरा है। ऊपर-ऊपर लगाने से कुछ नहीं होगा। आपको लेटकर, टांगें खोलकर... इसे सीधे उस कटी हुई जगह पर डालना होगा।"
उसने चेतावनी दी, "बहुत जलेगा... जान निकल जाएगी... लेकिन उसके बाद जो ठंडक मिलेगी, वो किसी डॉक्टर की दवा में नहीं है।"
इस अजीब और भयानक इलाज को सुनकर कामिनी कांप उठी।
अपनी सबसे निजी, सबसे कोमल जगह पर शराब डालना?
यह सोचकर ही उसकी योनि में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई।
डर और उस अजीब से ख्याली चित्रण (Imagination) ने उसके दिमाग पर ऐसा असर किया कि अनजाने में ही उसकी 'चूत' ने पानी छोड़ दिया।
और जैसे ही वह नमकीन पानी अंदर के छिले हुए जख्मों पर लगा...
"सीईईईई....." कामिनी के मुंह से एक सिसकी निकल गई।
गीला होते ही उसके सूखे जख्म ताज़ा हो गए और उनमें भयानक जलन होने लगी।
वह वहीं अपने घुटनों को भींचकर खड़ी रह गई। दर्द अब बर्दाश्त से बाहर हो रहा था।
सामने मेज पर वह 'दारू की बोतल' रखी थी, और पास ही खड़ा था वह 'वैद्य' जो आज उसका इलाज करने वाला था।
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कामिनी बिस्तर के किनारे बैठी कांप रही थी। उसकी जांघों के बीच से रिसते पानी ने जख्मों को गीला कर दिया था, जिससे वहां मिर्च जैसी भयानक जलन हो रही थी।
रघु उसकी हालत समझ रहा था।
"हिम्मत करो मेमसाब," उसने दिलासा दिया, "कल रात जब वो लोहे का बक्कल अंदर गया था... यह दर्द उससे ज्यादा नहीं होगा। बस एक पल की बात है।"
रघु की यह बात सबूत थी कि उसने कल रात सब कुछ देखा था—कामिनी का अपमान, उसकी नग्नता, सब कुछ।
कामिनी का चेहरा शर्म से झुक गया।
लेकिन... एक अनजान मर्द के सामने अपनी टांगें कैसे खोल दे?
उसके दिमाग में एक विचार आया।
"रघु..." कामिनी ने कांपती आवाज़ में कहा, "तुम... तुम दीवार की तरफ मुँह करके खड़े हो जाओ। मैं... मैं खुद कर लूँगी।"
रघु एक पल रुका, फिर सिर हिलाकर दीवार की तरफ मुड़ गया।
कमरे में सन्नाटा था, जिसे सिर्फ़ कामिनी की भारी होती सांसें और दीवार घड़ी की टिक-टिक तोड़ रही थी।
रघु दीवार की तरफ मुंह करके खड़ा हो गया.
कामिनी के हाथ में वो 'देसी दारू' की बोतल थी। उसका दिल पिंजरे में बंद पक्षी की तरह फड़फड़ा रहा था।
वह बिस्तर के बीचों-बीच लेटी हुई थी।
"हे भगवान... मुझे शक्ति देना," वह बुदबुदाई।
उसने अपने कांपते हाथों से बोतल का ढक्कन खोला और उसे साइड टेबल पर रख दिया।
अब बारी थी उस 'पर्दे' को हटाने की जिसने उसकी मर्यादा को अब तक ढक रखा था।
कामिनी ने अपने दोनों हाथों से अपनी सूती साड़ी और उसके नीचे पहने पेटीकोट के घेरे को पकड़ा।
उसकी उंगलियां कपड़े को मुट्ठी में भींच रही थीं।
उसने धीरे-धीरे कपड़ा ऊपर खींचना शुरू किया।
सरसर... सरसर...
साड़ी पहले उसकी एड़ियों से ऊपर उठी, फिर उसकी सुडोल पिंडलियों को नंगा करती हुई घुटनों तक आई।
कामिनी की सांसें अटक रही थीं। एक पराया मर्द, भले ही उसने पीठ कर रखी हो, वो कमरे में मौजूद था, और वह खुद को नंगा कर रही थी।
उसने कमर को हल्का सा उठाया और साड़ी-पेटीकोट को एक ही झटके में अपनी नाभि तक समेट दिया।
अब वह कमर के नीचे पूरी तरह से अनावृत थी, नंगी थी.
उसकी गोरी, भरी हुई, मांसल मलाईदार जांघें बिस्तर की सफ़ेद चादर पर चमक रही थीं।
और उन दोनों जांघों के संगम पर... वह 'निजी त्रिकोण' मौजूद था।
कल दोपहर की 'वीट' ने वहां के काले जंगल को साफ़ कर दिया था। वहां अब एक भी बाल नहीं था, सिर्फ़ चिकनी, गोरी त्वचा थी।

लेकिन कल रात की हैवानियत ने उस खूबसूरती को एक दर्दनाक रूप दे दिया था।
कामिनी ने अपनी गर्दन उठाकर खुद अपनी 'योनि' को देखा।
वह बुरी तरह सूजी हुई थी। उसके दोनों बाहरी होंठ किसी पके हुए टमाटर की तरह लाल और मोटे हो गए थे। सूजन की वजह से योनि का मुँह बंद नहीं हो पा रहा था; वह आधा खुला था, और उसके अंदर का गहरा गुलाबी मांस साफ़ झांक रहा था।
उस खुले हुए मुँह से पारदर्शी काम-रस और हल्का सा खून रिसकर बाहर आ रहा था, जिससे वह हिस्सा गीला और लिसलिसा हो गया था।
वह एक घायल फूल की तरह लग रही थी जिसे किसी ने मसल दिया हो।
कामिनी ने कांपते हाथ से शराब की बोतल उठाई।
बोतल ठंडी थी। कांच पर नमी की बूंदें जमी थीं।
उसने अपनी टांगें घुटनों से मोड़ीं और उन्हें जितना हो सके उतना चौड़ा कर दिया।
हवा का एक झोंका उसकी नंगी, गीली योनि को छूकर गुजरा, जिससे उसके बदन में एक सिहरन दौड़ गई।
उसने बोतल का ठंडा, गोल मुँह अपनी योनि के पास लाया।
उसकी कलाई कांप रही थी।
जैसे ही कांच का वह बर्फीला किनारा (Rim) उसकी सूजी हुई, तपती योनि के बाहरी हिस्से (Labia) से स्पर्श हुआ...

"सीईईईईईई...............आआहहहह.... आउच "
कामिनी के मुंह से एक लम्बी सिसकी निकल गई।
उसकी पूरी त्वचा पर रोंगटे खड़े हो गए।
उसके निप्पल ब्लाउज के अंदर पत्थर की तरह सख्त हो गए।

उस ठंडे कांच और गर्म, सूजी हुई त्वचा का मिलन ऐसा था जैसे बिजली के नंगे तार टकरा गए हों।
एक अजीब सा करंट उसकी रीढ़ की हड्डी में दौड़ गया—आधा दर्द का, और आधा एक अनजानी उत्तेजना का।
उसने हिम्मत करके बोतल के मुँह को अपनी चुत के छेद पर सेट करने की कोशिश की।
लेकिन रास्ता बहुत संकरा था और सूजा हुआ था।
जैसे ही कांच ने जख्म को दबाया, एक तीखी टीस उठी।
"आह्ह्ह...उउउफ्फ्फ्फ़....." कामिनी का हाथ हिल गया।
निशाना चूक गया।
छलक...
बोतल टेढ़ी हो गई और शराब की एक बड़ी धार योनि के अंदर जाने के बजाय, बाहर छलक कर उसकी जांघों और बिस्तर पर गिर गई।
"उफ्फ्फ... नहीं..." कामिनी घबरा गई।
शराब गिरने की आवाज़ और कामिनी की आह सुनकर रघु से रहा नहीं गया।
वह झटके से पीछे पलटा।
और पलटते ही... उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं।
नज़ारा ही ऐसा था।
कामिनी बिस्तर पर टांगें फैलाए, कमर के नीचे पूरी तरह नंगी लेटी थी।
उसकी गोरी जांघों पर शराब बह रही थी। और बीच में... वह लाल, सूजी हुई और गीली 'चूत' किसी ज्वालामुखी के मुँह की तरह रघु को निमंत्रण दे रही थी।
रघु की नज़र गिरती हुई शराब पर गई। शराबी पहले शराब को देखता है उसके बाद शबाब को.
रघु भी वही शराबी था, इतनी खूबसूरत पकी हुई चुत के सामने उसे शराब ही दिखी.
वह चीते की तरह लपका और कामिनी के हाथ से बोतल थाम ली।
"क्या कर रही हो मेमसाब... अमृत गिरा दिया..." रघु की आवाज़ में हवस और चिंता दोनों थी।
कामिनी सकपका गई। उसने जल्दी से अपनी टांगें सिकोड़ने की कोशिश की।
"नहीं... मत देखो... रघु..." वह लज्जा से पानी-पानी हो गई।
लेकिन रघु ने अपना बायां हाथ उसकी जांघ पर रखकर उसे रोक दिया।
"शर्माओ मत मेमसाब... अब क्या पर्दा?" रघु ने अधिकार से कहा, "कल रात सब देख लिया था मैंने। और मेरी सुगना की भी ऐसी ही थी... लाओ मैं करता हूँ।"
रघु के स्पर्श—उस खुरदरे, सख्त हाथ का उसकी मखमली जांघ पर टिकना—ने कामिनी के विरोध को पिघला दिया।
वह निढाल होकर तकिये पर गिर गई। उसने अपनी मुट्ठी में चादर को भींच लिया और आँखें कसकर बंद कर लीं।
उसने अपनी टांगें रघु के हवाले कर दीं।
रघु ने उसकी दोनों जांघों को पकड़कर पूरी तरह फैला दिया। अब कामिनी की गुप्त गुफा का एक-एक कोना रघु की नज़रों के सामने था।
रघु ने बोतल का मुँह ठीक योनि के खुले हुए छेद पर लगाया।
कांच का स्पर्श फिर हुआ। कामिनी का पेट अंदर की तरफ पिचक गया।
और फिर...
ओछः... पच... पच.... फच....
रघु ने बोतल की गर्दन को ज़रा से दबाव के साथ उस सूजी हुई दरार के अंदर घुसा दिया।
"आआईईईईईईईई.......... माअअअअअअ........उउउफ्फ्फ.... आउच.... मर गई... हे भगवान..."
कामिनी की चीख निकल गई। उसकी कमर बिस्तर से ऊपर उठ गई, कामिनी तड़प उठी, उसने लाख कोशिश की अपनी जांघो को समेट ले, लेकिन रघु के मजबूत हाथो ने ऐसा होने नहीं दिया.
शराब सीधे अंदर के कच्चे, छिले हुए जख्मों पर गिरी।
आग लग गई... भयानक आग।
लेकिन अगले ही पल... जैसे ही दारू की वो नशीली गर्माहट अंदर की नसों में समाई, दर्द एक अजीब सी 'ठंडक' और 'मदहोशी' में बदलने लगा।
कामिनी हांफ रही थी। उसका सीना तेज़ी से ऊपर-नीचे हो रहा था।
लेकिन बोतल का मुँह छोटा था और अंदर जगह कम।
ग्लक... छलक...
शराब अंदर जाने के बाद वापस बाहर उफनने लगी। वह कामिनी के कुदरती पानी और जख्म के खून के साथ मिलकर बाहर बह रही थी।
रघु की आँखें उस बहते हुए रस को देखकर चौंधिया गईं।
कीमती देसी शराब... और मालकिन का जवानी का रस... सब बर्बाद हो रहा था।
उससे रहा नहीं गया।
उसका शराबी और हवसी दिमाग एक हो गया।
उसने झुककर अपना मुँह सीधा कामिनी की चूत पर लगा दिया।
स्लर्रर्रप.... सुड़प... सुदाप..लप... लप...
उसने बोतल हटाते ही अपनी जीभ वहां लगा दी और बहती हुई शराब को चाट लिया। या यूँ कहिये चुत से निकलती शराब को पीने लगा,
वह कीमती देसी शराब कामिनी की जांघों पर बर्बाद हो रही थी।
रघु की आँखों में एक अजीब सा पागलपन तैर गया। उसके लिए शराब भगवान थी, और कामिनी की चूत मंदिर। और वह प्रसाद को ज़मीन पर गिरते नहीं देख सकता था।
उसने आव देखा न ताव, अपना पूरा चेहरा कामिनी की दोनों जांघों के बीच घुसा दिया।
उसने अपने होंठों को कामिनी की सूजी हुई योनि के ठीक नीचे, जहाँ से रस बह रहा था, एक प्याले की तरह लगा दिया।
"स्लर्रर्रप........"
एक लंबी, गीली आवाज़ कमरे में गूंज गई।
रघु ने बहती हुई शराब और कामिनी के जिस्म से निकलते द्रवों के उस मिश्रण को एक ही घूंट में अपने मुंह में भर लिया।
और जैसे ही वह घूंट उसके गले से नीचे उतरा... रघु की आँखें चढ़ गईं।
आज यह वो मामूली 'देसी ठर्रा' नहीं था जो वह रोज़ 50 रुपये में खरीदता था। आज इसमें एक जादुई मिलावट थी।
उस कड़वी शराब में कामिनी की कामुक उत्तेजना का नमकीन पानी मिला हुआ था।
उसमें कल रात के और आज सुबह के जमे हुए पेशाब की एक हल्की, तीखी गंध थी।
और सबसे बढ़कर, उसमें कामिनी के कच्चे जख्मों से रिसता हुआ ताज़ा, कसैला खून मिला हुआ था।
यह एक अजीबोगरीब 'कॉकटेल' था—कड़वा, नमकीन, कसैला और खट्टा।
लेकिन रघु के लिए? रघु के लिए यह अमृत था।
"आह्ह्ह..." रघु के मुंह से एक मदहोश आवाज़ निकली।
उसने महसूस किया कि इस शराब में नशा दुगना है। एक नशा अल्कोहल का, और दूसरा नशा एक औरत के काम रस का।
उसे लगा जैसे वह शराब नहीं, बल्कि कामिनी की जवानी पी रहा है।

वही कामिनी को लगा जैसे उसे सांप ने डस लिया हो।
जहाँ जलन थी, वहां अचानक रघु की गीली, खुरदरी और गर्म जीभ रेंगने लगी।
रघु पागलों की तरह चूस रहा था।
उसने अपनी जीभ को नुकीला किया और उस सूजी हुई चूत के छेद में—जहाँ अभी बोतल थी—अंदर डाल दिया।
"उफ्फ्फ्फ.... रघुउउउउ.... आह्ह्ह्ह..." कामिनी का सर दायें-बायें डोलने लगा।
शराब और चूत के रस का वो कॉकटेल रघु को पागल कर रहा था। वह लप-लप करके चाट रहा था, चूस रहा था।
उसकी जीभ कामिनी के 'दाने' (Clitoris) को रगड़ रही थी।
कामिनी के हाथ रघु के बालों में चले गए। उसने रघु का सर अपनी चूत पर कसकर दबा दिया।
"पी लो... सब पी लो... आह्ह्ह... मेरी जान निकल रही है..."
दर्द गायब था। शर्म गायब थी।
सिर्फ़ एक जानवर जैसी हवस थी।
रघु अब किसी शराबी की तरह नहीं, बल्कि एक भूखे शेर की तरह कामिनी की चूत पर टूट पड़ा।
उसने अपनी खुरदरी, मांसल जीभ बाहर निकाली और उसे कामिनी की सूजी हुई योनि की दरार पर फिरा दिया।
लप... लप... लप...
उसकी जीभ किसी मोटे ब्रश की तरह कामिनी के नाजुक अंगों को साफ़ करने लगी।
वह शराब की हर उस बूंद को चाट रहा था जो कामिनी की बालों रहित चुत पर अटकी थी।
उसकी जीभ ने योनि के बाहरी होठों को चाटा, जो सूजन की वजह से मोटे और लाल हो गए थे।
फिर उसने अपनी जीभ की नोक को नुकीला किया और उस आधे खुले हुए छेद के अंदर डाल दिया, जहाँ अभी भी शराब भरी हुई थी।
चप... चप... चप...
वह अंदर के जख्मों को, वहां जमे खून को और वहां भरे हुए मवाद और शराब को अपनी जीभ से खींच-खींच कर पीने लगा।
उसे न खून के स्वाद से घिन आ रही थी, न पेशाब की गंध से। हवस ने उसे अंधा और बहरा कर दिया था। वह बस उस 'गीलेपन' को चूस लेना चाहता था।
इधर बिस्तर पर लेटी कामिनी की दुनिया ही बदल गई थी।
जब रघु की खुरदरी जीभ ने पहली बार उसकी जलती हुई त्वचा को छुआ, तो वह सिहर उठी,
लेकिन अगले ही पल, एक चमत्कार हुआ।
रघु की जीभ की गर्माहट और गीलेपन ने शराब की जलन को दबा दिया।
कामिनी ने अपनी जिंदगी के 38 साल गुज़ार दिए थे।
उसकी शादी को 18 साल हो चुके थे।
लेकिन इन 38 सालों में, रमेश ने एक बार भी... कभी एक बार भी अपना मुंह उसकी जांघों के बीच नहीं ले गया था।
कामिनी के लिए 'सेक्स' का मतलब सिर्फ़ टांगें फैलाना और पति के धक्के सहना था।
उसे पता ही नहीं था कि एक औरत की योनि को 'चाटा' भी जा सकता है। उसे पता ही नहीं था कि जीभ का स्पर्श लंड के धक्कों से भी ज्यादा सुख दे सकता है।
"रघुउउउउ.... उउउउफ्फ्फ्फ.... ये.... ये क्या कर रहे हो.... आह्ह्ह्ह..."
कामिनी अपना सर तकिये पर दायें-बायें पटकने लगी,
उसकी उंगलियां, जो अब तक चादर को नोच रही थीं, अब हवा में कुछ ढूंढने लगीं और अंत में रघु के सिर पर जा टिकीं।
उसने रघु के गंदे, पसीने से भरे और बिखरे हुए बालों को अपनी मुट्ठी में जकड़ लिया।
"हाँ.... वहीँ.... ओह्ह्ह्ह माँ.... मर गई...."
रघु की जीभ अब उसके चुत के 'दाने' (Clitoris) को ढूंढ चुकी थी।
वह छोटा सा मटर का दाना, जो आज तक रमेश की बेरुखी की वजह से सोया हुआ था, रघु की जीभ की रगड़ से जाग उठा था।
रघु उसे पागलों की तरह चूस रहा था, अपनी जीभ से थपथपा रहा था।
कामिनी की पीठ बिस्तर से ऊपर उठ गई, उसका पेल्विस (Pelvis) हवा में उठकर रघु के मुंह से चिपक गया।
वह चाहती थी कि रघु उसे खा जाए। पूरा निगल जाए।
"और अंदर.... रघु.... मेरी जान.... और अंदर..."
कामिनी आज अपनी मर्यादा, अपने संस्कार, अपना ऊँचा कुल... सब भूल चुकी थी।
उसे बस मज़ा आ रहा था। उसे यही चाहिए था, उसकी चुत कौन चूस रहा है अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था,
वह महसूस कर रही थी कि रघु उसकी गंदगी, उसका खून, उसका पेशाब... सब कुछ पी रहा है, और उसे जरा भी घिन नहीं आ रही।
यह 'स्वीकार्यता' कामिनी के लिए सबसे बड़ा नशा थी।
जिस पति ने उसे 'सूखी चूत' कहकर मारा था, आज उसी चूत को एक पराया मर्द 'रबड़ी' समझकर चाट रहा था।
कामिनी की आँखों से आंसू बहने लगे—दर्द के नहीं, उस परम सुख के जो उसे 38 साल बाद नसीब हुआ था।
रघु अब अपनी जीभ के साथ-साथ अपनी उंगलियों का भी इस्तेमाल करने लगा।
वह एक हाथ से कामिनी की जांघों को चौड़ा किये हुए था, और दूसरे हाथ से उसकी चूत के होठों को फैलाकर, अपनी जीभ को और गहराई तक उतार रहा था।
कामिनी का शरीर अकड़ने लगा।
उसकी योनि की मांसपेशियां रघु की जीभ को जकड़ने लगीं।
"मैं गई.... रघु.... मैं गई..... छोड़ना मत.... आह्ह्ह्ह...."
उसके अंदर का ज्वालामुखी फटने के लिए तैयार था। एक ऐसा ऑर्गेज्म जो उसने शायद ही कभी महसूस किया हो।
कामिनी का शरीर झटके लेने लगा। वह चरम सीमा पर थी। उसकी योनि रघु के मुंह में संकुचित होने लगी। खुल के बंद होने लगी.
"रघु... मैं गई... आह्ह्ह..."
लेकिन ठीक उसी पल...
रघु के दिमाग में 'घास' और 'साहब का डर' कौंध गया।
वह झटके से पीछे हटा और खड़ा हो गया।
"नहीं..." कामिनी तड़प उठी। वह एकदम किनारे से वापस गिर गई। जैसे सातवे आसमान पर ले जा कर उसे किसी ने छोड़ दिया हो.
रघु का मुंह गीला था, लाल था। वह हांफ रहा था।
"घास... घास साफ़ करनी है मेमसाब," रघु बड़बड़ाया,
"वरना साहब बेल्ट से मारेंगे... मैं जा रहा हूँ।"
वह अपनी लुंगी में तने हुए लंड को छुपाते हुए, पागलों की तरह कमरे से भाग गया।
कामिनी बिस्तर पर वैसे ही नंगी, टांगें फैलाए पड़ी रह गई।
उसकी चूत गीली थी, लिसलिसी थी और फड़फड़ा रही थी।
रघु ने इलाज तो कर दिया था—दर्द मिट गया था। लेकिन उसने एक नई बीमारी दे दी थी—अधूरी प्यास।
कांच की बोतल की वो ठंडक और रघु की जीभ की वो गर्मी... कामिनी अब इसी याद में तड़पने वाली थी।
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कामिनी चरम सुख के उस मुहाने पर खड़ी थी जहाँ से वापसी का कोई रास्ता नहीं होता। उसका शरीर रघु के मुंह पर कसता जा रहा था, उसकी योनि की दीवारें रघु की जीभ को निचोड़ने के लिए तैयार थीं।
"रघु... मैं गई... आह्ह्ह..."
वह बस झड़ने ही वाली थी।
लेकिन तभी...
रघु की जीभ अचानक रुक गई।
उसकी नज़र कामिनी की गोरी जांघों के उस हिस्से पर पड़ी जहाँ कल रात रमेश की बेल्ट ने नीले-काले निशान छोड़ दिए थे।
वो सूजी हुई लाल लकीरें... वो जमा हुआ काला खून।
उन निशानों को देखते ही रघु के दिमाग में एक बिजली सी कौंधी।
हवस का वह घना कोहरा एक ही पल में छंट गया।
उसे याद आ गया कि यह चोट क्यों लगी थी? क्योंकि काम अधूरा था।
उसे याद आ गया कि अगर आज भी काम अधूरा रहा, तो शाम को 'साहब' फिर आएंगे, और फिर वही बेल्ट इन मखमली जांघों को चीर देगी।
रघु कांप गया।
वह झटके से पीछे हटा। उसका मुंह कामिनी के चूत-रस और शराब से गीला था, लेकिन उसकी आँखों में अब हवस नहीं, एक खौफनाक 'डर' था।
"नहीं..." रघु हड़बड़ा कर खड़ा हो गया।
कामिनी, जो आसमान में उड़ रही थी, धड़ाम से हकीकत की सख्त ज़मीन पर आ गिरी।
उसका शरीर अभी भी झटके ले रहा था, उसकी चुत का अंदरूनी हिस्सा अभी भी सिकुड़-फैल रहा था, प्यासा था... लेकिन प्यास बुझाने वाला हट चुका था।
"रघु...?" कामिनी ने मदहोश, तड़पती हुई आँखों से उसे देखा। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह अचानक क्या हुआ।
रघु ने अपनी लुंगी ठीक की, जिसमें उसका खड़ा लंड अभी भी तंबू बनाए हुए था। लेकिन अब उसका दिमाग उस लंड के काबू में नहीं था।
"काम... काम करना है मेमसाब," रघु की आवाज़ फटी हुई थी,
"वो निशान... देखिये अपनी जांघों पर... वो फिर मारेंगे। साहब आज फिर जानवर बन जाएंगे।"
उसने अपनी मुट्ठी भींच ली, जैसे किसी अदृश्य दुश्मन का गला घोंट रहा हो।
"मैं... मैं एक और सुगना नहीं बनने दूंगा आपको," रघु बड़बड़ाया। उसकी आँखों में एक अजीब सा पागलपन था।
"अब और खूनखराबा नहीं... नहीं..."
कामिनी अभी भी अपनी हवस और अधूरी उत्तेजना के नशे में थी। उसका दिमाग सुन्न था। उसे रघु के शब्द सुनाई तो दे रहे थे—'सुगना', 'खूनखराबा'—लेकिन उनका मतलब समझ नहीं आ रहा था।
उसका जिस्म चीख रहा था— 'भाड़ में जाए सुगना, भाड़ में जाए काम... मुझे पूरा कर रघु... मुझे शांत कर।
"रघु... मत जाओ... मुझे तुम्हारी ज़रूरत है..." कामिनी ने अपना हाथ बढ़ाया, मन ही मन चिल्लायी, उसका ब्लाउज पसीने से भीगा हुआ था, पेट ऊपर-नीचे हो रहा था।
लेकिन रघु ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
वह किसी भूत से डरकर भागने वाले इंसान की तरह कमरे से निकल गया।
कामिनी बिस्तर पर अकेली रह गई।
टांगें अभी भी फैली थीं। साड़ी कमर पर चढ़ी थी।
उसकी चूत गीली, लिसलिसी और खुली हुई थी। रघु की जीभ की गर्माहट और शराब की ठंडक अभी भी वहां महसूस हो रही थी।
लेकिन अब वहां एक भयानक 'टीस' थी—अधूरी रह जाने की टीस।
यह दर्द कल रात वाले दर्द से भी बदतर था। कल चोट जिस्म पर थी, आज चोट उसकी जागी हुई कामवासना पर थी।
"उफ्फ्फ्फ...." कामिनी ने अपनी चुत को गुस्से मे जोर से भींच लिया,
वह तड़प रही थी, करवटें बदल रही थी। उसका मन कर रहा था कि खुद अपनी उंगलियां अंदर डाल दे, लेकिन रघु ने जो आग लगाई थी, उसे सिर्फ़ रघु ही बुझा सकता था।
कामिनी ने जैसे-तैसे खुद को संभाला। उसने कांपते हाथों से अपनी साड़ी नीचे खींची।
लड़खड़ाते हुए वह खिड़की के पास गई। उसने पर्दा हटाकर बाहर देखा।
गार्डन में...
रघु किसी पागल की तरह फावड़ा चला रहा था।
धप... धप... धप...
वह ज़मीन नहीं खोद रहा था, मानो वह ज़मीन के सीने पर वार कर रहा हो। उसका पूरा शरीर पसीने में नहाया हुआ था। उसकी चाल में, उसके काम में एक जुनूनी रफ़्तार थी।
घास, झाड़ियां, पौधे... सब उसके फावड़े के नीचे कटते जा रहे थे।
कामिनी ने ध्यान से देखा। रघु के होंठ चल रहे थे। वह लगातार कुछ बड़बड़ा रहा था।
हवा के झोंकों के साथ उसकी टूटी-फूटी आवाज़ कामिनी तक पहुँच रही थी।
"नहीं... अब नहीं..." रघु फावड़ा मारते हुए खुद से बातें कर रहा था।
"वो सुगना को खा गया... इसे नहीं खाने दूंगा... अब कोई नहीं मरेगा... कोई बच्चा नहीं मरेगा..."
उसकी आँखों में आंसू थे या पसीना, पता नहीं चल रहा था।
"काम पूरा करूँगा... साहब को खुश करूँगा... मेमसाब को नहीं पिटने दूंगा..."
वह रुकता, अपनी लुंगी से पसीना पोंछता, और फिर पागलों की तरह घास काटने लगता।
कामिनी खिड़की की ग्रिल पकड़े खड़ी थी। उसकी योनि अभी भी फड़फड़ा रही थी, लेकिन अब उसकी आँखों में एक सवाल भी था।
"यह किस तरह का इंसान है?" उसने सोचा।
"अभी कुछ पल पहले यह मेरे जिस्म को ऐसे चाट रहा था जैसे कोई भूखा भेड़िया... और अब?"
"अब यह मेरी मार की फिक्र कर रहा है? यह मुझे बचाने के लिए खुद को थका रहा है?"
कामिनी को रघु की वो बात— "एक और सुगना नहीं बनने दूंगा" —याद आई।
कौन थी सुगना? उसकी बीवी?
और 'खूनखराबा'?
कामिनी का कामुक दिमाग अभी भी धुंधला था, इसलिए वह इन शब्दों की गहराई नहीं समझ पा रही थी। उसे बस इतना समझ आ रहा था कि यह आदमी उसके लिए फिक्रमंद है।
रमेश ने उसे दर्द दिया था, और रघु उसे दर्द से बचा रहा था।
कामिनी की आँखों में रघु के लिए एक अजीब सी इज़्ज़त और चाहत पैदा होने लगी।
वह उसे पसीने में तर-बतर काम करते हुए देखती रही। उसकी मज़बूत काली पीठ, उसके बाज़ू...
उसका जिस्म अभी भी उस 'अधूरी प्यास' में जल रहा था,
Contd......