एपिसोड 1 - पार्ट १
संध्या अब शांत थी। बाल बिखरे थे, पर चेहरे पर तनाव की एक रेखा तक नहीं थी। इतनी तनाव रहित वो शायद पहली बार हुई थी। एक शीतलता सा था। शायद एसी की ठंडक में पसीने की बूंद के कारण या शायद इसलिए कि अब उसे कोई फ़िक्र नहीं थी।
संध्या के बिस्तर की सफेद चादर अस्त व्यस्त थी मानो जैसे बिस्तर पर कुश्ती का अखाड़ा चला हो। बिस्तर पर कचरे के समान नोट बिछे थे। कुछ दो हजार के, कुछ पांच सौ के, मुड़े, कुचले, मेले। बगल में एक पांच सौ की एक गड्डी थी। कम से कम तीस-पैंतीस हजार रुपए तो होंगे ही।
फर्श पर दारू की कई बोतल और शीशे के कुछ गिलास पड़े थे, कुछ सीधे तो कुछ लुढ़के हुए। कई प्लेट बिखरे हुए थे। किसी में बचे हुए नान के टुकड़े थे, किसी में मुर्गे को हड्डियां, किसी में पनीर - कुछ सूख कर काला पड़ चुका था। वहीं बोतल के पास संध्या का ब्रा था, कुछ दूर उसकी पैंटी, थोड़ी और दूरी पर कांच के टेबल पर एक पैर ऊपर तो दूसरा नीचे झूलता हुआ संध्या का सलवार, और सोफे पर संध्या की कुर्ती। ओढ़नी शायद सोफे के पीछे होगी।
फाइव स्टार होटल की जगमगाती टाइल वाली राजशाही होटल के उस कमरे में महक की प्रचूरता थी। उस प्रचूरता में संध्या के बदन की मादक महक जो कभी अनमोल थी, आज फीकी पड़ रही थी। टेबल के नीचे लुढ़के हुए गुलदस्ते के पास गिरे फूल पर छिड़के हुए इत्र का सुगंध, दारू की महक, कुछ अधजले तो कुछ पूरे जले हुए सिगरेट की महक, दो दिन पहले के सूखे हुए मसले की महक, कुछ देर पहले ही संध्या के बदन से तृप्त मर्दों के वीर्य की महक, और एक तीव्र बदबू, शायद किसी के पेशाब की। इन सारे महक के तीव्रता के आगे संध्या के शरीर की महक अपना घुटना टेक चुकी थी।