"पुनर्मिलन" एक सीधी सी कहानी है जो आपकी आत्मा के कोने में जाकर बैठ जाती है। ये उस भारत की कहानी है जो अब फेसबुक पोस्ट्स में नहीं मिलता, पर अब भी कई दिलों में जिंदा है।
ये कोई ‘फैब इंडिया’ टाइप की चमकती दमकती लव स्टोरी नहीं है। ये वही पुरानी चारपाई पर बैठकर सुनाई जाने वाली दादी की कहानी है, जिसमें इमोशन की खिचड़ी उबाल खा रही हो... पर स्वाद ऐसा कि ज़ुबान पर टिक जाए।
राजू, हमारा नायक... सीधा, सहज, और दुर्लभ किस्म का आदमी है जो आज के टाइम में सिर्फ कहानियों में ही मिलता है। न ऊँची डिग्री, न पैसे का घमंड, न शक की बीमारी। बस एक ही रोग है उसे... इंसानियत का..!!
अनु... पढ़ी-लिखी, समझदार, लेकिन कहीं ना कहीं प्रेक्टिकलिटी के नाम पर वो आम गलती कर बैठती है जो आजकल की सेल्फ-मैड बेटियाँ अक्सर कर जाती हैं... माँ की कही बातों को अटल सत्य मान लेना, और रिश्तों को एक्सेल शीट में कूल्हा मार देना।
किन्तु यहीं से कथा की दिशा परिवर्तित होती है। सतरंगी मुनिया जी ने किसी प्रकार का निर्णय या पक्ष नहीं लिया, उन्होंने पात्रों को उनके परिस्थिति-सापेक्ष स्वाभाव में ही रहने दिया और पाठकों को विचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की। यही इस कथा की वास्तविक शक्ति है।
कथा के मध्य भागों में, जहाँ अनु का स्वभाव धीरे-धीरे परिवर्तित होता है, वहाँ लेखिका ने किसी प्रकार के भारी-भरकम संवादों या नारीवादी/प्रति-नारीवादी विमर्श का आश्रय नहीं लिया। अपितु, उन्होंने केवल सूक्ष्म व्यवहारों के माध्यम से अनु के चरित्र-गठन को रेखांकित किया... यही सूक्ष्मता उत्तम लेखनी का प्रमाण है।
अब क्लाइमैक्स की बात करें... ओफ्फ.. राजू की वो चाय की दुकान, अनु का घूँघट और “चीनी तो दो चमच ही पीती होगी".. इस एक लाइन में जितना प्रेम है, उतना तो कई रोमांटिक फिल्मों की पूरी स्क्रिप्ट में नहीं मिलता। और सबसे खास बात.. यहाँ ‘पुनर्मिलन’, दो लोगों के साथ साथ, संस्कारों और संवेदनाओं का भी है।
और वह अंत में ट्विस्ट... नौकरी पक्की हो गई, सैलरी भी डबल... लेकिन अनु अब बदली हुई है। अब वो “कमाने वाली” नहीं, बल्कि “क़द्र करने वाली” स्त्री बन चुकी है।
कहानी में ग्रामीण परिवेश की मिट्टी महकती है। संवाद सहज हैं, संवादों में ही किरदार बसते हैं। उपदेश नहीं, अनुभव है। थोड़ी संपादन की ज़रूरत थी, कुछ जगह वाक्य दोहराए गए हैं, पर इससे कथा का असर कम नहीं होता।