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Lucifer

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Unfortunately We are facing a server issue which limits most users from posting long posts which is very necessary for USC entries as all of them are above 5-7K words ,we are fixing this issue as I post this but it'll take few days so keeping this in mind the last date of entry thread is increased once again,Entry thread will be closed on 7th May 11:59 PM. And you can still post reviews for best reader's award till 13th May 11:59 PM. Sorry for the inconvenience caused.

You can PM your story to any mod and they'll post it for you.

Note to writers :- Don't try to post long updates instead post it in 2 Or more posts. Thanks. Regards :- Luci
 
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Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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Story: "Tujh par shuru, Tujh par khatm"
Writer: Aakash.

Story line: रोमांस कैटेगरी की ये कहानी एक अपूर्ण प्रेम के पूर्ण होने की ओर अग्रसर घटनाओं पर आधारित है। हालांकि लोगों को शायद कहानी का अंत अधूरा लगे पर वो है नहीं।

Treatment: लेखक में बहुत संभावनाएं हैं और लेखक अपनी इस प्रस्तुति द्वारा इसे बहुत अच्छे से बता भी रहे हैं। लेकिन कई ऐसी बातें है जो ध्यान में रख कर कहानी को और बेहतर बनाया जा सकता था।

Positive points: भाषा शैली हिन्दी और उर्दू की सम्मिलित है, और अच्छे से लिखी हुई है। वर्तमान और भूतकाल की घटनाओं का बदलाव अच्छा है और इसको महसूस करने में ही आधी कहानी निकल जाती है, जो मुझे अच्छा लगा। कहानी टाइटल को अर्थपूर्ण बनाती है। कई दृश्य बढ़िया बन पड़े हैं, जैसे सबसे अच्छा मुझे ये हिस्सा लगा

Mere paas ab jaada kehne ko nahi hai thode hi shabdon mein samjhna. Maine socha tha ki main use apni dulhan ke roop mein dekhoonga, dekhoonga ki kaise laal rang uska gore rang par phabta hai lekin aaj jab main use dekh raha hoon toh wo safed rang mein bahut hi khubsurat lag rahi hai. Pahle uske chehre par raunk thi, aaj sirf shanti hai. Maine socha tha ki main uske gale mein haar daalunga, aaj main uski laash par phool daal raha hoon. Main jiska haath thaam kar tamaam jo sapne sajaye the humne use pura karna wala tha aaj wo khud maut ka haath thaame na jaane kaha chali gayi hai. Aisa lagta hai ki pal bhar mein hi meri duniya tabaah ho gayi hai. Mann mein ek ajeeb si shanti hai jise main samajh nahi pa raha hoon main khada sochta hi reh gaya tabhi pandit Ji ne lakdi dete hue kaha, "Beta, lo cheeta ko aag do."
Negative Points: भाषा पर पकड़ जहां इसे अच्छा बनाती है, वहीं को जगह पर यही भाषा भारी पड़ रही है, जिससे वो दृश्य से पाठक शायद संबंध न बना पाए। और सबसे बड़ी खामी है रोमांस जनर में रोमांस का न होना। दो सीन है, लेकिन हीरो का हीरोइन को देखने के बाद कहानी थोड़ी तेजी में सीधे अंतरंग पलों में चली गई। और शुरुआत का सीन मुझे थोड़ा डिसकनेक्टेड लगा।


Suggestion: पिछली बार की ही तरह, भाषा अच्छी रखिए क्लिष्ट नहीं।

नॉन कंटेस्टिंग स्टोरी होने के बावजूद, बहुत ही उम्दा शुरुआत है इस सीजन की :claps:
 
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Anatole

⏳CLOCKWORK HEART
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"Tujhse Shuru Tujhpar Khatm"

Ek bhavnao se bhari adhuri dastan.

Positives: puri kahani poetic andaj me likhi hui hai. Is kahani ko ek trasadi yaa phir tragedy ke tarah likha hai, Hero ka pyar kitna sapna tha aur kitna sach tha is se jyada Lekhak hame 'pyar tha' ye dikhana chahte the jo ki sabse achhi baat hai. Kahani ki koi chij jo sabse achhe se kaam karti hai vo hai structure.

Negative: jaisa ki kaha ye adhuri dastan hai, to vo har tarah se is kahani ko lagengi. Spelling mistake ek do jagah najar aayegi. Adhura pyar aur adhuri kahani, Isme bahut si chije thi jo nahi hoti to kahani ko farak nahi padta, kyuki vo ek tarah se adhuri thi. Hero ke alawa kisi aur ko jaanane ka jyada mauka nahi mila. Jisase bahut si jagah interest kho jaata hai.

Baaki kahani ke baare me mere overall positive hi mat hai.
 
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Black

From India
Prime
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Writer... Aakash. :beee:
Story..."Tujhse Shuru Tujhpar Khatm"

Shuru kahan hua khatam kahan hua
Ek romance ya tragedy story likhne ki koshish ki hai tamne samjha nahi
Itna emotions laaye kahan se..kahin ju ka breakup toh nahi ho gaya
Aisa thodi na hota hai..pichhli baar horror likha na gaya is baar tragedy hi likh daale besharm aisa karta hai koi.
Control
Positive points.. emotions achche se dikhaye hain aapne.. screenplay bhi badhiya hai.. character's ke beech baat cheet bhi sahi dikhayi hai..aur jo shayrana andaz mein likha hai ju ne..hamko toh jhatka laga ju kabse poet ho gaye


Negative points.. kuchh negative nahi tha
Bas jo words lafz shabd ismein confused ho gaye aap..thoda aur dhyan dete, likhte waqt toh sahi rehta
Aur agar aapka man tha romantic story likhne ka toh aapko dono ke beech kuchh sweet moments dikhane chahiye the
Ab yeh toh clear hi na hua ki love marriage ho rahi thi ya arrange..
Baaki agar kuchh bura laga ho toh maaf kar dena aasmanwa..
I lobe you re,


As a friend:D
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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Story: Kalank
Writer: Aakash.

Story line: सोशल जेनर पर आधारित ये कहानी बदले की आग में अंधे हुए एक व्यक्ति के कारनामों द्वारा एक हंसते खेलते परिवार के तबाह होने की कहानी है।

Treatment: बहुत ही शानदार तरीके से लिखी गई है ये कहानी। आजकल के कॉरपोरेट वर्ल्ड में एक गांव के व्यक्ति का न सिर्फ एडजस्ट होना बल्कि शहर के लोगों द्वारा उसे बहकाने की कोशिश को भी अच्छे से दर्शाया है।

Positive points: शुरुवात से के कर अंत तक भाषा पर अच्छी पकड़, फ्लो को बनाए रखा है आपने। कहानी पाठकों को बांध कर रखती है।

Negative Points: अंत थोड़ा निराश करता है, या कहें तो आपने टेक्नोलॉजी के बुरे इफेक्ट्स को दिखाया, लेकिन अंत में विलेन का हश्र भी दिखा कर कहानी को और बेहतरीन बना सकते थे। खैर ये मेरा PoV है कि कर्मफल जरूर लिखना चाहिए कहानी में।

Suggestion: इतनी बढ़िया तरीके से लिखी कहानी पर हम जैसा अदना सा पाठक बस सीख ही सकता है 🙏🏼

नॉन कंटेस्टिंग है, वरना ये कहानी पक्का कोई न कोई अवार्ड की हकदार है।
 
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Ajju Landwalia

Well-Known Member
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घोर पाप - एक वर्जित प्रेम कथा
चेतावनी: यह कहानी पारिवारिक व्यभिचार के विषय पर आधारित है, जिसमें माता और पुत्र के यौन-संबंधों का विस्तृत विवरण है। जो पाठक, ऐसी सामग्री से असहज हैं, वह कृपया इसे न पढ़ें। यह कहानी, पूरी तरह से काल्पनिक है और इसमें लिखी गई किसी भी घटना, व्यक्ति, स्थिति या विधि का वास्तविक जीवन से, कोई संबंध नहीं है। किसी भी समानता का होना केवल संयोग है।

सन १०२६ की बात है.. जब पूरा प्रदेश कई छोटी छोटी रियासतों में विभाजित था।

यह कथा, ऐसी ही एक वैतालनगर नामक छोटी सी रियासत की है। सामान्य सी रियासत थी। सीमित क्षेत्र, साधारण किसान प्रजा और छोटी सी सेना वाली इस रियासत के अवशेषों में जो सब से अनोखा था, वह था पिशाचिनी का प्रासाद। कोई नहीं जानता था की यह प्रासाद अस्तित्व में कब और कैसे आया.. हाँ, अपने पुरखों से इस विषय में, अनगिनत किस्से व दंतकथाएं अवश्य सुनी थी।

पिशाचिनी के इस प्रासाद में, किसी भी प्रकार की कोई प्रतिमा या बुत नहीं था, ना ही कोई प्रतीक या प्रतिरूप। थे तो केवल पुरुषों और स्त्रीओं के अति-आकर्षक संभोगरत शिल्प, जिन्हें बलुआ पत्थर से अति सुंदरतापूर्वक तराशा गया था। जिस प्रकार स्त्रीओं के लचकदार सुवक्र देहों को, पेड़ और लताओं से लिपटे हुए, चंचल मुद्रा में दिखाया गया था, वह अत्यंत मनोहर था। यह प्रासाद, कला और स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण था। स्त्री-रूप की मादक कामुकता को कलाकार के निपुण कौशल्य ने अभिवृद्धित किया था। स्त्री के नग्न कामुक सौन्दर्य और संभोगक्रिया को एक उत्सव के स्वरूप में स्थापित करता यह प्रासाद, एक रहस्यमयी और कौतुहलपूर्ण स्थान था।

चूँकि उस युग के अधिकांश अभिलेख और साहित्य लुप्त हो चुके थे, इसलिए उसके वास्तविक इतिहास का यथार्थ में पता लगाना अत्यंत कठिन था। हालाँकि, कुछ पांडुलिपियाँ अभी भी प्राप्त थी, जो उस युग को समझने में सहायक बन रही थी। उनमें से अधिकांश को, सामान्य प्रजा के लिए, प्रतिबंधित घोषित कर दिया गया था क्योंकि उन लिपियों की सामग्री, उनकी मान्यताओं और संस्कृति को ठेस पहुंचा सकती थी, उन्हें आंदोलित कर सकती थी। इस अभिलेख में लिखित एक प्रसंग था, जो संभवतः पिशाचिनी प्रासाद के पीछे की कहानी हो सकता था। मूल कथा, पद्य स्वरूप में और अति-प्राचीन लिपि में थी। इसे पढ़ते समय, यह ज्ञात रहें कि उस काल में नग्नता वर्जित नहीं थी, संभोग को एक उत्सव की तरह मनाया जाता था। यथार्थ में कहें तो उस काल में, कुछ भी वर्जित नहीं था।

उस लिपि का सम्पूर्ण अनुवाद बड़ा कठिन है, पर अर्थ का निष्कर्ष कुछ इस प्रकार है

॥पांडुलिपि की पहली गाथा का अनुवाद॥

जन्मदात्री के उन्नत मादक मनोहारी स्तन

कामांग में असीम वासना, जैसे धधकता ज्वालामुखी

चुंबन करे पुत्र, उस माता की मांग के सिंदूर को

जननी को कर वस्त्र-विहीन, शयन-आसन पर करता प्रस्थापित

नाम है उसका, कालाग्नि और वो है एक पिशाचिनी

यह है उसका आख्यान, एक अनाचार की कथा, व्यभिचार की कथा

पृथ्वी सभी की माता है। वह प्रकाश संग संभोग कर जीवन की रचना करती है। वह कभी किसी की वास्तविक माता का रूप धारण कर या फिर किसी अन्य स्वरूप में, हर जीव को असीम प्रेम देती है। यह शुद्ध प्रेम बढ़ते हुए अपनी पूर्णता को तब प्राप्त करता है, जब वह संभोग में परिवर्तित होता है। हर प्रेम को अपनी पूर्णता प्राप्त करने का अधिकार है, अन्यथा उस जीव की आत्मा, बिना पानी के पौधों की तरह अतृप्त रह जाती है।

यह जीवदायी शक्ति, किसी स्वजन या आत्मीय संबंधी का रूप भी ले सकती है या वह किसी की बेटी, माँ, बहन, मौसी, दादी.. यहाँ तक कि प्रेमिका या पत्नी के रूप में भी प्रकट हो सकती है। स्त्री का, किसी भी प्रकार का स्वरूप, पुरुष के जीवन के शून्यवकाश को भरने के लिए, स्त्री स्वरूप को किसी न किसी रूप में अवतरित होना ही पड़ता है, ताकि वह विभिन्न रूप में, प्रेम का आदान-प्रदान कर सके। यह स्वरूप माता या बहन के प्रेम के रूप में भी हो सकता है; और यह प्रेम यौनसंबंधों का स्वरूप भी धारण कर सकता है। किंवदंती के अनुसार ऐसी ही एक स्त्री का जन्म, शाकिनी के रूप में हुआ था, जो वैतालनगर रियासत के राजकुमार कामशस्त्र की मां थी।

राजकुमार कामशस्त्र वैतालनगर के राजा रतिदंड का पुत्र था। पतला गौरवर्ण शरीर और चमकदार चेहरे पर बालक जैसी निर्दोषता लिप्त थी और साथ ही, एक अनोखी दिव्यता की झलक भी थी। उसके पिता रतिदंड ने उसे राजपुरोहित के पद पर नियुक्त किया था और उसे यह विशेषाधिकार प्रदान किया गया था की हर महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले, कामशस्त्र से परामर्श अनिवार्य रूप से किया जाएँ। राजकुमार कामशस्त्र का स्थान, राजा के सिंहासन के बगल में था और शासन के हर निर्णय में वह अपने प्रभाव का पूर्ण उपयोग भी करता था।

सायंकाल का अधिकतर समय वह उस पिशाचिनी प्रासाद में, साधना करते हुए व्यतीत करता था। कामशस्त्र के दो रूप थे, एक राजा के दरबार में कर्तव्यनिष्ठ राजपुरोहित का तो दूसरा अपने महल में, एक पुत्र के स्वरूप में। उसकी अति आकर्षक देहसृष्टि वाली माँ शाकिनी, उसे स्नेह से राजा कहकर पुकारती थी।

जब उसकी आयु इक्कीस वर्ष की थी, तब उसके पिता, महाराजा रतिदंड की मृत्यु हो गई और उसका राज्याभिषेक किया गया। अब राजपुरोहित के पद के साथ, उसे राजा होने का कर्तव्य भी निभाना था। कामशस्त्र ने ज्यादातर प्रसंगों को अच्छी तरह से संभाला किन्तु अपनी अनुभवहीनता के चलते उसने कुछ गलतियां भी कीं। चूंकि वह आयु में छोटा था और अल्प-अनुभवी भी, इसलिए वह अपनी विधवा माता से, विभिन्न विषयों पर चर्चा करता था। कई मुद्दों पर वह दोनों एक-दूसरे से परामर्श करते रहते और अक्सर वे नैतिकता के विषय पर विस्तृत चर्चा करते। अधिकतर उनकी बातों का विषय यह होता था की प्रजाजनों के लिए नैतिक संहिता कैसी होनी चाहिए। दरबार में भी इस मुद्दे पर सामाजिक मर्यादा और नैतिकता पर प्रश्न होते रहते।

राजा तब हैरान रह जाता था, जब एक ही परिवार के सभ्यों के आपस में विवाह के मामले सामने आते थे। यह किस्से उसे चकित कर देते थे और चौंकाने वाली बात तो यह थी की ऐसे मामले पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ चुके थे। ऐसे उदाहरण भी थे, जब पुत्रों ने अपनी माताओं से विवाह किया था या फिर भाइयों ने धन और संपत्ति के संरक्षण के लिए, अपनी बहनों से शादी की थी।

दरबारी जीवन के अलावा, कामशस्त्र एक असामान्य सा जीवन जीता था। दरबार से जब वह अपने महल लौटता तब उसकी सुंदर लचकदार शरीर की साम्राज्ञी माँ शाकिनी, कुमकुम, पुष्प तथा इत्र से भरी थाली लेकर उसके स्वागत के लिए तैयार रहती। शाकिनी उसका पुष्पों से व इत्र छिड़ककर स्वागत करती और राजा उसके पैर छूता। राजपरिवार का पहले से चला आया अनकहा रिवाज था, इस तरह पुत्र प्रवेश के लिए अनुमति माँगता और माता उसे अंदर आने की आज्ञा देती थी। उसके पश्चात, महल के सभी दासियों को कमरे से बाहर जाने का आदेश दिया जाता।

युवान राजा फिर कुछ समय के लिए विराम करता और उसकी माता शाकिनी, अपने कामुक शरीर पर, सुंदर से रेशमी वस्त्र और गहने धारण कर, राजा को अपने कक्ष में आमंत्रित करती। उस काल में विधवाएँ सामान्य जीवन जी सकती थी। उन्हें रंगबिरंगी वस्त्र पहनने की और साज-सजावट करने की पूर्ण स्वतंत्रता भी थी।

शाकिनी का कमरा पुष्पों से सजा हुआ था। फर्श पर लाल रेशम की चादरें बिछी हुई थी। कक्ष में पूरी तरह से सन्नाटा छाया हुआ था और मेहंदी के पुष्पों की मनोहक सुगंध, वातावरण को मादकता से भर रही थी। राजा एक सामान्य सी धोती और कुर्ता पहनकर कमरे में प्रवेश करें, उससे पहले, शाकिनी कुछ सुगंधित मोमबत्तियाँ प्रज्वलित करती थी। राजा के कक्ष-प्रवेश के पश्चात, वह उसे उसका कुर्ता उतारने और केवल धोती में ही बैठने का निर्देश करती है। कामशस्त्र के पास, शाही वस्त्रों को उतारकर, केवल धोती पहनने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। उसे लज्जा इसलिए आती थी क्योंकि उसने धोती के नीचे कुछ भी नहीं पहना होता था।

पूरा दिन अपने राजसी कर्तव्य को निष्ठा से निभाने के बाद, वे दोनों साधना करने एक साथ बैठते थे। कामशस्त्र के पिता, महाराजा रतिदंड एक तांत्रिक थे। उन्होंने किसी शक्ति की उपासना प्रारंभ की थी और उसी दौरान उनकी मृत्यु हो गई थी। मृत्यु से पूर्व महाराजा ने अपनी पत्नी शाकिनी को उनकी साधना पूर्ण करने का निर्देश दिया था। एक ऐसी शक्ति की साधना, जिसे वह पहले ही जागृत कर चुके थे। यदि उस साधना को पूरा न किया जाएँ, तो वह शक्ति, शाही परिवार को ऐसा श्राप दे सकती थी, जो सभी सभ्यों की बुद्धि और विचार करने की क्षमता को कुंठित कर सकती थी, उनके मन में विकार व कुविचार को जन्म दे सकती थी, उन्हें विनाश के मार्ग पर भेज सकती थी। इसलिए शाकिनी अपने पति की मृत्यु के बाद, उस आज्ञा का पालन कर रही थी। माँ और बेटा दोनों मिलकर, उस सुगंधित कक्ष में एक साथ बैठकर घंटों तक साधना करते रहते थे।

हालाँकि पिछले कुछ वर्षों से, उनके साधना करने के प्रणाली में काफी परिवर्तन आ गया था। प्रारम्भिक समय में, वह दोनों अपने शरीर को पूर्ण कपड़ों से ढँककर बैठते थे, पर दीर्घ प्रहरों की साधना में इससे कठिनाई होती थी। कुछ विशेष विधियों के लिए शाकिनी अति-अल्प वस्त्र धारण करती थी। कई मौकों पर, उभारदार स्तनों वाली माता और पुत्र के बीच, एक पतली सी सफेद पारदर्शी चादर ही रहती थी, जिसके आरपार वह अपने पुत्र को साधना करते हुए देखती थी।

समय बीतता गया और दिन-प्रतिदिन वस्त्रों की संख्या घटती गई क्योंकि समय गर्मियों का था और साधना करने से ऊर्जावान हो उठे शरीर, और भी अधिक गर्म हो जाते थे। कभी-कभी शाकिनी, बेटे के सामने ही अपनी उदार कामुकता को प्रकट करते हुए, उत्तुंग विराट स्तनों को ढँक रही चोली उतारकर, केवल कमर के नीचे का वस्त्र धारण कर बैठती थी। इस प्रथा का वह दोनों अब सालों से अनुसरण कर रहे थे। प्रायः दोनों को एक दूसरे की अर्ध-नग्नता से, न कोई संकोच था और ना ही किसी प्रकार की जुगुप्सा।

॥पांडुलिपि में लिखी गाथा का अनुवाद॥

स्पष्टवक्ता व सौन्दर्यवती

स्पर्श जनमावे सिहरन

थिरकें नितंब हो प्रफुल्ल

उभरे उरोज का द्रश्य सुहाना

आंगन में वह जब धोएं स्तन

देखें लिंग हो कठोर निरंतर

एक दिन की बात है। शाकिनी ने अपने पुत्र कामशस्त्र का हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठने के लिए कहा। राजा ने पहले ही अपने शरीर के ऊपरी वस्त्र उतार दिए थे और नीचे धारण की हुई धोती के पतले वस्त्र से, उसके लिंग की कठोरता द्रश्यमान हो रही थी। शाकिनी ने अपना पल्लू झटकाकर गिरा दिया और कमर पर लपेटी हुई साड़ी को उतारना शुरू कर दिया। जैसे जैसे माता शाकिनी के वस्त्र उतरते गए, उनके गौर अंगों को देखकर राजा का सिर चकराने लगा। उसकी माँ के उन्नत स्तनों के बीच नजर आ रही लंबी दरार को देखकर उसकी सांसें फूलने लगी। साड़ी पूर्णतः उतर जाने पर अंदर पहना एक रेशम-जालीदार परिधान उजागर हुआ, जो शरीर के अंगों को छुपाता कम और दिखाता ज्यादा था। शाकिनी के चेहरे पर न कोई लज्जा थी और ना ही किसी प्रकार की हिचकिचाहट। बड़े ही उत्साह से वह अपनी चोली खोलने लगी।

अपनी माता को इस अवस्था में देखना, राजा के लिए किसी सदमे से कम नहीं था। किन्तु उसे इस बात की जिज्ञासा अवश्य थी की माता का आखिर प्रयोजन क्या था..!! राजा की सांसें बीच में तब अटक गईं, जब उसने अपनी माँ की गोरी फुर्तीली उंगलियों को बटन-दर-बटन, चोली खोलते हुए देखा। हर बटन के साथ उसकी सुंदर मां के स्तन का, और अधिक हिस्सा, उसकी नज़रों के सामने खुलता जा रहा था। बटनों को खोलते हुए माता शाकिनी, बड़ी ही मादकता से, अपने स्तनों के बीच की दरार पर अपनी उंगलियां फेर रही थी। जब वह अंतिम बटन पर पहुंची तब उसने अपने पुत्र को, उन मातृत्व के शाश्वत खजाने को, अनिमेष आँखों से तांकते हुए देखा - राजा जब शिशु-अवस्था में था, तब यही तो उसका भोजन स्थल हुआ करता था..!!

शाकिनी ने एक नजर अपने पुत्र की ओर देखा और मुस्कुराने लगी। राजा ने अपनी माँ की आँखों में आँखें डालकर देखा, यह आश्वासन देने के लिए, की वह अब भी, एक पुत्र की दृष्टि से ही देख रहा है..!! उस युवा पुत्र की पवित्र माँ ने, अपनी चोली को पूरी तरह से उतार दिया और उसे फर्श पर बिछी लाल मखमली चादर पर फेंक दिया। अपनी दोनों हथेली से, उन विराट चरबीदार स्तनों को दबाते हुए, स्तनाग्रों (निप्पलों) को मसल लिया। अब उसने अपने स्तनों को थोड़ा उभार दिया और कंधों को चौड़ा कर, उन उत्तुंग शिखरों को अपनी मर्जी से झूलने के लिए छोड़ दिया, ताकि उसका पुत्र, स्तनों के सौन्दर्य का अच्छी तरह रसपान कर सकें।

इस द्रश्य को देखकर राजा पागल सा हो रहा था और उसका मजबूत लिंग, नींद से जागे हुए असुर की तरह अंगड़ाई लेकर, धोती में उभार बना रहा था। उसकी विचार करने की क्षमता क्षीण हो रही थी। पूरा शरीर विशिष्ट प्रकार की गर्मी से झुलस रहा था। हर पल उसकी सांसें और अधिक तेज व भारी होती जा रही थी। वह अपनी माता की नग्नता को भोंचक्का होकर देख रहा था। हालांकि इससे पहले भी वह दोनों अल्प वस्त्रों में अर्धनग्न होकर एक दूसरे के सामने साधना कर चुके थे, पर आज उसका पौरुषत्व, सामाजिक मर्यादाओं पर हावी होता प्रतीत हो रहा था।

अपने नग्न स्तनों का वैभव दिखाते हुए, शाकिनी ने राजा कामशस्त्र को अपनी आँखें बंद कर, साधना में लीन होने के लिए कहा। दोनों के बीच एक पतला अर्ध-पारदर्शी पर्दा भी डाल दिया जिसमें एक छेद था, जहाँ से माँ और पुत्र, एक दूसरे को देख सकते थे। जल्द ही, दोनों साधना में ध्यानमग्न हो गए। उन्होंने एक साथ कुछ गाथाओं का पठन किया। हालाँकि, कर्तव्यनिष्ठ पुत्र उन गाथाओं का मन से पाठ कर रहा था, फिर भी वह अपनी माँ के अनावृत्त स्तनों से अपना ध्यान हटा नही पा रहा था। प्राकृतिक इच्छाओं और सामाजिक मर्यादाओं के बीच भीषण युद्ध चल रहा था उसके दिमाग में। उन दोनों मांसल उरोज की कल्पना उसे बंद आँखों में भी उत्तेजित कर रही थी। साधना के दौरान उसका मन, अपनी माँ के पूर्ण नग्न शरीर की कल्पना करने लगा और बेकाबू मन की इस क्रिया से, वह काफी अस्वस्थता का अनुभव कर रहा था। उसने अपनी माता के स्तनों को इतना गौर से देख लिया था की उन गोलों का परिघ, रंग, तने हुए स्तनाग्र, सब कुछ उसके मस्तिष्क में छप चुका था। अब जब भी वो अपनी आँखें बंद करता तब उसे अपनी माँ के वे बड़े-बड़े सुंदर सफेद टीले ही नजर आते थे।

कई पूर्णिमाओ की साधना के दौरान, उसने घंटों तक उन स्तनों को देखा था। निप्पलों के स्तन चक्रों को उसने इतने स्पष्ट रूप से देखा था कि कागज पर, बिना किसी त्रुटि के, बिल्कुल वैसा ही चक्र बना सकता था। उनकी स्तनाग्र (निप्पलें) तो अब उसे स्वप्न में भी नजर आने लगी थी। दोनों स्तन, मातृ-प्रेम के दो ऐसे मिनारे, जिनके पौष्टिक फव्वारों का लाभ उसने बचपन में भरपूर उठाया था। भूरे रंग के निप्पल, दो छोटे लिंगों की तरह सीधे खड़े थे। चूँकि माता शाकिनी, अक्सर अपनी चोली उतारने के बाद स्तनों और निप्पलों को एक साथ रगड़ती थीं, उसकी निप्पल अक्सर तंग और नुकीली हो जाती थी। दोनों के बीच, पतली चादर का पर्दा डालने से पहले, उसे अपनी माता के उन पुष्ट पयोधरों के दर्शन का लाभ मिलता।

उसके पश्चात, वे दोनों घंटों साधना करते थे। माता शाकिनी शायद वास्तव में साधना कर रही थी परंतु बेटा अपनी माँ के सुंदर स्तनों के अलावा किसी और वस्तु पर अपना ध्यान केंद्रित ही नहीं कर पा रहा था। दोनों स्तन ऐसे चुंबक बन गए थे जिस पर राजा कामशस्त्र का ध्यान और मन, चिपके ही रहते थे। साधना के बाद, वे अपना रात्रिभोजन भी उसी अवस्था में करते थे। चूंकि उन दिनों नग्नता वर्जित नहीं थी, इस कारण से शाकिनी को इसमें कुछ भी असहज या आपत्तिजनक प्रतीत नहीं होता था।

नग्नता भले ही सहज थी किन्तु अब माता-पुत्र के बीच जो चल रहा था वह पारिवारिक स्नेह से कुछ अधिक ही था। जब राजा अपनी माता से करीब होता था तब वह अपनी प्राकृतिक इच्छाओं को खुद पर हावी होने से रोक नहीं पाता था। एक बार शाकिनी रानीमहल के आँगन में नग्न होकर स्नान कर रही थी तब उसे देखकर राजा अपने वस्त्र में लगभग स्खलित ही हो गया।!! इतनी उम्र में भी शाकिनी का शरीर, तंग और कसा हुआ था। झुर्रियों रहित गोरा शरीर बेहद आकर्षक था। गोल घुमावदार गोरे कूल्हें, ऐसे लग रहे थे जैसे हस्तीदंत से बने हुए हो। और स्वर्ग की अप्सरा जैसे उन्मुक्त स्तन। गोरे तन पर पानी ऐसे बह रहा था जैसे वह चाँदनी से नहा रही हो। ऐसा नहीं था की केवल राजा ही ऐसा महसूस कर रहा था। शाकिनी के मन में भी यौन इच्छाएं जागृत हो रही थी।!!

जब युवा शाकिनी ने कामशस्त्र को जन्म दिया ,तब वह छोटे स्तनों वाली, पतली सी लड़की थी। प्रसव के पश्चात उसके स्तन, दूध से भरकर इतने उभर गए की फिर कभी पुराने कद पर लौट ही नहीं पाए और दिन-ब-दिन विकसित होते गए। वासना टपकाते, वह दो मांसल गोलों की सुंदरता को छिपाने के लिए उसकी तंग चोली कुछ अधिक कर भी नहीं पा रही थी। पूरी रियासत के सब से सुंदर स्तन थे वह..!! बड़ी गेंद जैसा उनका आकार और स्तन-चक्र पर स्थापित तनी हुई निप्पल। स्तनों के आकार के विपरीत, कमर पतली और सुगठित, सूडोल जांघें जैसे केले के तने। और नितंब ऐसे भरे भरे की देखते ही आरोहण करने का मन करें..!!

विधवा शाकिनी का जिस्म, कामवासना से झुलस रहा था। चूंकि वह एक रानी थी इसलिए वह किसी सामान्य नर से संभोग नहीं कर सकती थी। उसके संभोग साथी का शाही घराने से होना अनिवार्य था। वह अपने शरीर की कामाग्नि से अवगत थी और मन ही मन कई बार अपने पुत्र के पुष्ट लिंग को अपनी योनि में भरकर, पूरी रात संभोग करने के स्वप्न देख चुकी थी। हर गुजरते दिन के साथ यह इच्छा और भी अधिक तीव्र होती जा रही थी। पर वह एक पवित्र स्त्री थी और फिलहाल अपने पति की साधना को आगे बढ़ाना, उसकी प्राथमिकता थी।

शाकिनी को इसी साधना प्रक्रिया ने एक उपाय सुझाया। यदि वह साधना को संभोग से जोड़कर, उसे एक विधि के रूप में प्रस्तुत करें, तो क्या उसका पुत्र उसे करने के लिए राजी होगा?? इस प्रयोग के लिए वह अधीरता से शाम होने का प्रतीक्षा करने लगी

॥ पांडुलिपि की अगली गाथा का अनुवाद ॥

शाम ढलें, नभ रक्त प्रकाशें

योनि मदमस्त होकर मचलें

निशा देखें राह तिमिर की

कब आवै सजन जो भोगें

खनके चूड़ी, मटके जोबन

स्वयं को परोसे थाल में बैठी

हररोज की तरह राजा शाम को आया तब उसकी माता शाकिनी साड़ी का लाल जोड़ा पहने हुई थी। उसकी बाहें स्वर्ण आभूषणों से लदी हुई थी और कस्तूरी-युक्त पान चबाने से, उसके होंठ सुर्ख-लाल हो गए थे। ललाट पर कुमकुम और चेहरे पर खुमार - ऐसा खुमार, जो माताओं के चेहरों पर तब होता है, जब वह अपनी योनि, अपने पुत्र को अर्पण करने जा रही हो..! नवविवाहित दुल्हन जैसी चमक थी चेहरे पर। रेशमी साड़ी के नीचे जालीदार चोली, जिसपर कलात्मक कढ़ाई की गई थी। चोली के महीन कपड़ों से, शाकिनी की अंगूर जैसी निप्पलें, तनकर आकार बनाते नजर आ रही थी। राजा ने देखा की कई पुरुष सेवकों की नजर, उसकी माता के उन्नत शिखरों पर चिपकी हुई थी। इससे पहले की राजा अपनी जन्मदात्री के पैर छूता, दासियाँ ने दोनों पर फूलों की वर्षा कर दी।

यह देख शाकिनी मुस्कुराई और उसने कामशस्त्र को गले लगाते हुए अपने विशाल स्तन-युग्मों से दबा दिया। उनका आलिंगन नौकरों-दासियों के लिए, कक्ष छोड़कर चले जाने का संकेत था। वह आलिंगन काफी समय तक चला और उस दौरान राजा का लिंग, उसके वस्त्रों में उपद्रव करने लग गया था। आलिंगन से मुक्त होते ही, शाकिनी अपनी साड़ी और चोली उतारने लगी। राजा चकित होकर देखता रहा क्योंकि अब तक वह दोनों साधना के लिए बैठे भी नहीं थे और माता ने वस्त्र उतारने शुरू कर दिए थे..!!

"क्षमा चाहता हूँ माँ, पर आप इतनी जल्दी वस्त्र क्यों त्याग रही हो? साधना में बैठने से पहले, मुझे कुछ क्षण विराम तो करने दीजिए" राजा ने कहा

"मेरे राजा, आज विशेष अनुष्ठान करना है इसलिए जल्दी ही अपनी धोती पहन कर, साधना कक्ष की ओर प्रस्थान करो" कुटिल मुस्कान के साथ विराट स्तनधारी शाकिनी साधना कक्ष की ओर चल दी। वो पहले से ही कमर के ऊपर नग्न हो चुकी थी। हर कदम के साथ उसके मांसल स्तन यहाँ वहाँ झूलते हुए, राजा का वशीकरण कर रहे थे।

यंत्रवत राजा पीछे पीछे गया। उसे अपनी माँ की दृष्ट योजना का कोई अंदेशा नहीं था। जब उसने कक्ष में प्रवेश किया तो अंदर का द्रश्य चौंकाने वाला था.! कक्ष के बीचोंबीच एक बड़ा बिस्तर पड़ा था, जिसे ऐसा सजाया गया था, जैसे प्रथम रात्री को नवविवाहित जोड़ें के लिए सजाया जाता है। साथ ही, ऐसे वस्त्र थे, जो दूल्हा और दुल्हन विवाह के समय पहनते है। राजा ने विस्मय से अपनी माता के सामने देखा, जो कमर पर लपेटी साड़ी उतारकर, केवल साया पहने खड़ी थी। कठोर तने हुए स्तनों की निप्पल, राजा की आँखों में देख रही थी। शाकिनी के शरीर का एक भी उभार ऐसा नहीं था, जो द्रश्यमान न हो।!!

शाकिनी ने कामशस्त्र का हाथ पकड़ लिया और नयन से नयन मिलाते हुए कहा..

"प्यारे पुत्र, इस ब्रह्मांड में ऐसा कोई भी नहीं है, जो तुझसे मुझ जैसा स्नेह करता हो। इतने वर्षों से, तुम मेरे प्रमुख आधार बने रहें, खासकर तुम्हारे पिता के निधन के बाद, तुमने मेरी ऐसे देखभाल की है, जैसी कोई पुरुष अपनी स्त्री की करता है, और इस प्रक्रिया में, तूने अपनी युवावस्था के स्वर्णिम काल का भी व्यय कर दिया। काश, तुम्हारी यह बूढ़ी लाचार माँ, इस विषय में कुछ कर पाती..!! परंतु तुम्हें कुछ देने के बजाय मैं आज, तुमसे कुछ मांगने वाली हूँ। अपने लिए नहीं, तुम्हारे मृत पिता की आत्मा के लिए..! क्या तुम उनकी दिवंगत आत्मा की शांति हेतु मेरा साथ दोगे? बताओ पुत्र।!!!" शाकिनी बड़ी ही सावधानी और होशियारी से अपनी चाल चल रही थी

"हाँ माँ, निश्चित रूप से आपकी सहायता करूंगा, ऐसा करना तो हर बेटे का कर्तव्य है। और यह तो मेरा सौभाग्य होगा। आप जो कहेंगे, मैं वही करूँगा। पर वह क्या बात है जिसके बारे में मुझे ज्ञान नहीं है? कृपया बताने का कष्ट कीजिए"

"ठीक है पुत्र। यदि तुम सज्ज और तत्पर हो, तो मैं तुम्हें इस बारे में बताती हूँ। दरअसल, तुम्हारे पिता, एक उच्च कोटि के तांत्रिक थे। अपनी मृत्यु से पहले वह एक पिशाचिनी की साधना कर रहे थे। पिशाचिनी का आह्वान तो हो गया था, परंतु उसे तृप्त नहीं किया जा सका क्योंकि तुम्हारे पिता की असमय मृत्यु हो गई और अनुष्ठान अधूरा रह गया। अब हमें पिशाचिनी को तृप्त कर, उस अनुष्ठान को पूरा करना होगा, ताकि तुम्हारे पिता की आत्मा को मुक्ति मिलें" वासना में अंध हो चुकी शाकिनी ने बताया

विस्मित राजा ने पूछा "परंतु माँ, मुझे उस पिशाचिनी को तृप्त करने के लिए क्या करना होगा??"

शाकिनी को बस इसी पल का तो इंतज़ार था।!!

"पुत्र, मैं उसका आह्वान करूंगी और वह मेरे माध्यम से तुमसे बात करेगी। परंतु एक बात का ध्यान रहें, तुम्हें उसे पूर्णतः संतुष्ट करना होगा और वह जो चाहे उसे करने देना होगा। साधना के माध्यम से, मैंने जाना है, कि वह मेरे शरीर में प्रवेश करना चाहती है। आह्वान होते ही, वह मेरे अंदर प्रविष्ट हो जाएगी, फिर शब्द उसके होंगे और जुबान मेरी होगी। उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने का विचार भी मत करना, अन्यथा तुम्हारे पिता की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी। जो भी करना बड़ी सावधानी से करना। मेरी शुभेच्छा तुम्हारे साथ है " शाकिनी ने आखिर अपना जाल बिछा ही दिया, जिसमे उसका पुत्र फँसता जा रहा था। जैसा वह चाहती थी, वैसा ही हो रहा था। नतमस्तक होकर पुत्र अपनी माता की बात सुनता रहा।

अब दोनों जमीन पर बैठ गए और साधना करने लगे। शाकिनी ने एक दिए को छोड़कर, अन्य सारे दिये और मोमबत्तियाँ बुझा दी। सन्नाटे भरे अंधेरे से कक्ष का वातावरण काफी गंभीर और डरावना सा प्रतीत हो रहा था। कुछ देर बाद, शाकिनी जोर-जोर से रोने लगी, चीखने चिल्लाने लगी और फर्श पर गिर गई। यह केवल एक दिखावा था, अपने पुत्र को जताने के लिए, की पिशाचिनी उसके शरीर में प्रवेश कर चुकी थी।

"माँ, क्या हुआ??" चिंतित कामशस्त्र अपनी माँ के करीब जा बैठा और तब शाकिनी सीधी होकर बैठी और जोर से हंसने लगी। उसने टूटी कर्कश आवाज़ में कहा, "मैं तेरी माँ नहीं हूँ, मूर्ख, मैं एक पिशाचिनी हूँ, जिसका आह्वान तेरे पिता ने किया था।" फिर वह खिलखिलाकर डरावनी हंसी हंसने लगी। अपनी माँ को पिशाचिनी समझकर, कामशस्त्र नमन करते हुए झुक गया।

"हे पिशाचिनी, मैं आपके लिए कर सकता हूं? आप आदेश करें, मैं वहीं करूंगा किन्तु मेरे पिता की आत्मा को मुक्त कीजिए" राजा ने कहा,

शाकिनी मन ही मन प्रसन्न हो रही थी क्योंकि उसे प्रतीत हो गया था की उसके पुत्र को इस नाटक पर विश्वास हो चुका था।

शाकिनी उत्कृष्ट अभिनय कर रही थी और अपने बेटे को मूर्ख बना रही थी। अब वह पिशाचिनी के रूप में, अपनी वासना की आग बुझा सकती थी। लालसा और प्रत्याशा से उसका योनिमार्ग सिकुड़ने-खुलने लगा। वह क्षण आ पहुंची थी की वह अपने पुत्र के साथ संभोग कर सके।

शाकिनी ने गुर्राते हुए कहा "मूर्ख राजा, मेरी बात ध्यान से सुन, तुझे मेरे साथ मैथुन कर मुझे तृप्त करना होगा। यदि तू मुझे प्रभावशाली संभोग से संतुष्ट करने में सफल रहा, तभी मैं तेरे पिता की आत्मा को मुक्त करूंगी..! अन्यथा यदि तू मेरी वासना की भूख की अवज्ञा करेगा या फिर सक्षमता से संभोग कर, मेरी योनि द्रवित नहीं कर पाएगा, तो मैं तेरे पूरे परिवार को नष्ट कर दूँगी। साथ ही तेरी प्रजा को भी"

राजा यह सुनकर स्तब्ध रह गया..!! कंठ से कोई शब्द निकल ही नहीं रहा था। यह पिशाचिनी की बातें उसे भयभीत कर गई। फिर उसने अपने मनोबल को जागृत किया। पिशाचिनी के प्रस्ताव को आदेश मानकर, अचानक उसकी नसों में रक्त, तेजी से बहने लगा..!! परंतु उसका मन अब भी दुविधा में था। आखिर वह शरीर तो उसकी माँ का ही था। कैसे वह अपने जन्म-स्थान में लिंग-प्रवेश कर सकता है?? क्या वह यह घोर पाप कर पाएगा?? राज-दरबार में ऐसे कई प्रसंग आए थे, जब उसने माताओं को अपने पुत्रों से विवाह और संभोग करने की अनुमति दी थी। पर उसने अपनी ही माता के बारे में ऐसी कल्पना, स्वप्न में भी नहीं की थी..!!

अपने पुत्र के मस्तिष्क में चल रहे इस विचार-युद्ध को शाकिनी ने भांप लिया।

उसने कहा "तुझे दूल्हा बनकर और मुझे दुल्हन बनाकर, पवित्र अग्नि के सात फेरे लेने होंगे। मेरी मांग में सिंदूर भरना होगा। उसके पश्चात तुझे मेरे साथ तब तक संभोग करना होगा, जब तक मेरी राक्षसी योनि स्खलित न हो जाए। तभी मैं तेरी माँ का शरीर छोड़ूँगी और तेरे पिता की आत्मा को मुक्त करूंगी" इतना सुनते ही कामशस्त्र की बचीकूची झिझक भी गायब हो गई। अपने माता के शरीर, पिता की आत्मा और प्रजा की कुशलता के लिए, अब उसे आगे बढ़ना ही था।

उसने शाकिनी के शरीर को अपनी मजबूत बाहों में उठाया और उसे बिस्तर पर ले गया। फिर उसके शरीर को सहलाते हुए, उसे दुल्हन के वस्त्रों में सजाया। चोली पहनाते समय जब उसके विराट स्तन दब गए तब शाकिनी सिहर उठी। कितने वर्षों के बाद किसी पुरुष ने उसके स्तनों को दबाया था..!! अपने बेटे की मर्दाना पकड़ से वह चकित हो उठी। उसकी विशाल हथेलियाँ, उन असाधारण भारी स्तनों को पकड़ने के लिए उपयुक्त थे। अपनी माता के स्तनों को हथेलियों से सहारा देते हुए कामशस्त्र पर, उसने मदहोश अदा से लंबे बालों को गिराया। शाकिनी की कमर धनुष की प्रत्यंचा की तरह मूड गई।

कामशस्त्र ने अपनी माता के शरीर को, वस्त्र और आभूषण का उपयोग कर, दुल्हन की तरह सजा दिया। वास्तव में वह अप्सरा जैसी सौंदर्यवती प्रतीत हो रही थी और अपने पुत्र से संभोग करने के लिए व्याकुल हो रही थी।

कामशस्त्र ने दूल्हे के वस्त्र धारण किए और शाकिनी को बिस्तर पर लेटा दिया। बिस्तर पर रेशम की चादर फैली हुई थी और ढेर सारे पुष्प भी थे। कुछ पुष्प तो शाकिनी के स्तनों जितने बड़े थे। फिर पिशाचिनी के रूप में शाकिनी ने अपने पुत्र को बाहों में खींच लिया और जोर से चिल्लाई

"हे जड़बुद्धि, किस बात की प्रतीक्षा कर रहा है? तत्काल मेरे शरीर को ग्रहण कर मूर्ख..!! वासना की आग मुझे जला रही है।" अपनी माता के मुख से ऐसे अश्लील उच्चारण सुनकर कामशस्त्र स्तब्ध हो गया।!! उसने अपनी माँ को कदापि ऐसे शब्द का उपयोग करते नहीं सुना था किन्तु वो समझ रहा था की यह शब्द उसकी माता नहीं, परंतु उसके शरीर में प्रविष्ट पिशाचिनी बोल रही है। अपने पुत्र की इस भ्रांति का दुरुपयोग कर, शाकिनी बोलने की इस निर्बाध स्वतंत्रता का आनंद लेते हुए, नीच से नीच शब्द-प्रयोग करती जा रही थी

"हाँ, मैं वह सब करूँगा जो आप चाहती हैं। कृपया पथ प्रदर्शित करें और बताइए की मुझे आगे क्या करना है " राजा ने डरते हुए पूछा

अब पिशाचिनी ने बेतहाशा अपना सिर दायें-बाएं घुमाया और अपने वस्त्र फाड़ दिए और अपने सुव्यवस्थित बालों को नोचने लगी..!! शाकिनी यह सारी क्रियाएं इसलिए कर रही थी, ताकि उसके पुत्र के मन में एक असली पिशाचिनी की छाप पैदा कर सकें। उसने जानबूझकर अपनी निप्पल वाली जगह से चोली फाड़ दी और साड़ी को कमर तक इस तरह उठा दिया, ताकि उसकी जांघें और योनि के बाल उजागर हो जाएँ।

इस अत्यंत उत्तेजित कर देने वाले नज़ारे को देखते ही, राजा का लिंग कांप उठा। अपनी माँ का शरीर शांत करने के लिए वह नजदीक गया। शाकिनी अभी भी पागलपन करते हुए कांप रही थी..!! शाकिनी के उन्माद को शांत करने के लिए, वह उसके पीछे गया और अपने दोनों हाथों से उसकी नंगी कमर को जकड़ लिया।

अपनी नग्न गोरी त्वचा पर अपने पुत्र के हाथों का यह कामुक स्पर्श, शाकिनी को अत्यंत प्रसन्न कर गया। उसके शरीर में जैसे बिजली सी कौंध गई। शांत होने के बजाय वह ओर तीव्रता से कांपते हुए शरीर हिलाने लगी ताकि उसके पुत्र के स्पर्श का अधिक से अधिक अनुभव कर सकें। वह कामशस्त्र की हथेली को, अपनी पीठ से लेकर पेट तक रगड़ने लगी।

अपनी माँ को शांत करने के लिए उसने अपनी बाहों को, उसके कंधों से लपेट दिया। ऐसा करने से उसकी हथेली और शाकिनी की निप्पलों के बीच की दूरी कम होती गई और जैसे ही उसकी उंगलियों का स्पर्श निप्पलों पर हुआ, शाकिनी अनियंत्रित जुनून से थरथराने लगी। कामशस्त्र ने निःसंकोच होकर दोनों निप्पलों को रगड़ दिया। शाकिनी ने चोली इस तरह फाड़ी थी की उसके दोनों स्तन-चक्र (ऐरोला) उजागर हो गए थे। चोली के उन छेदों से, राजा ने स्तनों की नंगी त्वचा को सहलाना शुरू कर दिया, और उसकी माँ पिशाचिनी होने का ढोंग किए जा रही थी। शाकिनी की हवस और उत्तेजना अब शिखर पर थी।

अचानक वह कर्कश आवाज में चिल्लाई, "यह व्यर्थ क्रियाएं क्यों कर रहा है।!! तूने अपने लिंग को मेरी योनि में अब तक डाला क्यों नहीं? क्या यह करने भी तेरा कोई सेवक आएगा।!!! मूर्ख राजा" चिल्लाते हुए वह उठ खड़ी हुई और अपने सारे वस्त्र उतार फेंकें। साथ ही उसने हिंसक रूप से अपने पुत्र के वस्त्र भी फाड़ दिए। पिशाचिनी के रूप में, सम्पूर्ण नग्न होकर वह अपने पुत्र के चेहरे पर बैठ गईं।

बिस्तर पर लेटे हुए राजा के मुख पर मंडरा रही अपनी माता के जंघा मूल और उसके मध्य में योनि की दरार को देखकर उसे घृणा होने लगी। किन्तु उसे तुरंत ही अपने कर्तव्य की याद आई। अपनी माँ और प्रजा को बचाने और पिता की आत्मा की मुक्ति के लिए उसे यह करना ही होगा..!!

शाकिनी अपनी योनि को राजा की नाक पर रगड़ते हुए उसके मुँह की ओर ले गई। कामशस्त्र को अपनी माँ की योनि से तेज़ मूत्र की गंध आ रही थी (उस काल में गुप्तांगों की स्वच्छता को इतना प्राधान्य नहीं दिया जाता था) उसकी माँ ने कभी गुप्तांग के बालों को नहीं काटा था, इसलिए उनकी लंबाई चार इंच से अधिक हो गई थी।

राजा के चेहरे पर उसकी माँ के योनि के बाल चुभ रहे थे। न चाहते हुए भी, उसे अपना मुख योनिद्वार के करीब ले जाना पड़ा। प्रारंभ में घृणास्पद लगने वाला कार्य, तब सुखद लगने लगा, जब शाकिनी ने अपनी योनि के होंठों को राजा के होंठों पर रख दिया और उसका लंड तुरंत क्रियाशील होकर कठोर हो गया। उसके होंठ यंत्रवत खुल गए और उसकी जीभ शाकिनी की गहरी सुरंग में घुस गई। वही स्थान में, जहां से वह इस दुनिया में आया था। वही स्थान, जिसमे उसके पिता ने संभोग कर, पर्याप्त मात्रा में वीर्य स्खलित कर, उसका सर्जन किया था।

शुरू में योनि का स्वाद उसे नमकीन लगा था किन्तु योनिस्त्राव का रिसाव होते ही, उसे अनोखा स्वाद आने लगा। उसकी जीभ गहरी.. और गहरी घुसती गई। शाकिनी अपने पुत्र द्वारा हो रहे इस मुख-मैथुन का आनंद लेते हुए, खुशी से पागल हो रही थी। इसी परमानंद में, उसने राजा के चेहरे पर अपने कूल्हों को घुमाना शुरू कर दिया और उसके गुदाद्वार का कुछ हिस्सा राजा की जीभ पर रगड़ गया। शाकिनी की कामुकता और प्रबल हो रही थी।

अब तक धीरजपूर्वक सारी क्रियाएं कर रहे राजा के लिए, यह सब असहनीय होता जा रहा था। मन ही मन वह सोच रहा था की यह पिशाचिनी तो वाकई में बेहद गंदी और कुटिल है। इसे तो हिंसक संभोग कर, पाठ पढ़ाना ही चाहिए..!!

धीरे से उसने माँ की चूत से अपना चेहरा हटाया और मातृत्व के प्रतीक जैसे दोनों विराट स्तनों के सामने आ गया। आह्ह।!! कितना अद्भुत द्रश्य था..!! साधना के उन सभी वर्षों में, जब से शाकिनी अपने स्तन खोलकर बैठती थी, तब से राजा की निंद्रा अनियमित हो गई थी। स्वप्न में भी, उसे वह स्तन नजर आते थे। इससे पहले की वह अपने गीले अधरों से, उन उन्मुक्त निप्पलों का पान कर पाता, उसकी हथेलियों ने उन विराट स्तनों को पकड़ लिया। स्तनों पर पुत्र के हाथ पड़ते ही, शाकिनी शांत हो गई। उसे यह स्पर्श बड़ा ही आनंददायी और अनोखा प्रतीत हो रहा था।

राजा ने शाकिनी को अपनी ओर खींचा और उन शानदार स्तनों की निप्पलों को चूसना शुरू कर दिया, शाकिनी अपने पुत्र के बालों में बड़े ही स्नेह से उँगलियाँ फेर रही थी। यह द्रश्य देखने में तो सहज लग सकता था। माता की गोद में लेटा पुत्र स्तनपान कर रहा था। अंतर केवल इतना था की अमूमन बालक स्तनपान कर सो जाता है, पर यहाँ तो माता और उसका बालिग पुत्र, इस क्रिया को, होने वाले संभोग की पूर्वक्रीडा के रूप में देख रहे थे।

शाकिनी अपने पुत्र कामशस्त्र को, अपने अति-आकर्षक अंगों से, लुभा रही थी ताकि वह उसका कामदंड उसकी यौनगुफा में प्रवेश करने के लिए आतुर हो जाएँ..!! राजा कामशस्त्र उन निप्पलों को बारी बारी से, इतने चाव से चूस रहा था की दोनों निप्पलें लार से सन कर चमक रही थी। इतने चूसे-चबाए जाने पर भी, वह निप्पलें तनकर खड़ी थी, जैसे और अधिक प्रहारों के लिए अब भी उत्सुक हो..!! उत्तेजित राजा ने निप्पलों को उंगली और अंगूठे के बीच दबाकर मरोड़ दिया। अब वह धीरे धीरे नीचे की ओर अपना सिर लेकर गया। माता की योनि की तरफ नहीं, पर उसके सुंदर गोरे चरबीदार पेट की ओर। मांसल चर्बी की एक परत चढ़ा हुआ पेट और उसके बीच गहरे कुएं जैसी गोल नाभि, योनि की तरह ही प्रतीत हो रही थी। इतनी आकर्षक, की देखने वाले को अपना लिंग उसमें प्रविष्ट करने के लिए उकसा दें..!!

माता शाकिनी ने भांप लिया की खेल को अंतिम चरण तक ले जाने का समय आ चुका है। हवस और वासना अपने प्रखरता पर थी। दोनों के शरीर कामज्वर से तप रहे थे। वह उठी और बिस्तर पर अपने पैर पसारकर ऐसे बैठ गई, की उसकी बालों से आच्छादित योनि, खुलकर उजागर हो जाएँ। पहले तो उसने योनि के बालों को दोनों तरफ कर मार्ग को खोल दिया और फिर अपने पुत्र को ऊपर लेकर उसके लिंग का दिशानिर्देश करते हुए योनि-प्रवेश करवा दिया। राजा को विश्वास नहीं हो रहा था की उसका लिंग अपनी माता की यौन-गुफा से स्पर्श कर रहा है..!! योनि के होंठों ने, बड़ी ही आसानी से राजा के लिंग को मार्ग दिया और उसने अपनी कमर को हल्का सा धक्का दिया। यह वही स्थान था जहां उसका गर्भकाल व्यतीत हुआ था..!! इसी स्थान ने फैलकर, उसे इस सृष्टि में जन्म दिया था..!! और अब उसका पौरुषसभर लिंग, उत्तेजना और आनंद की तलाश में उसे छेद रहा था। उसका लिंग-मुंड(सुपाड़ा), योनि मार्ग की इतनी गहराई तक पहुँच चुका था, उसका एहसास तब हुआ, जब उसकी माता के मुख से दर्द और आनंद मिश्रित सिसकारी निकल गई..!! किन्तु जब उसने अपनी माँ के चेहरे की ओर देखा, तब उसे अब भी पिशाचिनी की वही हिंसक अश्लीलता नजर आ रही थी। शाकिनी अत्यंत कुशलता से उत्तेजित पिशाचिनी की आड़ में अपनी कामाग्नि तृप्त कर रही थी।

राजा अपनी कमर को आगे पीछे करते हुए संभोग में प्रवृत्त हो रहा था। इस बात की अवज्ञा करते हुए की जिस योनि को उसका लिंग छेद रहा था, वह उसकी माता की थी।!! शाकिनी की यौनगुफा को वर्षों के बाद कोई लिंग नसीब हुआ था। खाली पड़े इस गृह में, नए मेहमान के स्वागत के लिए, योनि की दीवारों ने रसों का स्त्राव शुरू किया और आगंतुक को उस शहद की बारिश से भिगोने लगी। उस अतिथि को, जो आज रात, लंबी अवधि तक यही रहने वाला था..!! राजा के धक्कों का अनुकूल जवाब देने के लिए, शाकिनी भी अपनी जांघों और कमर से, लयबद्ध धक्के लगाने लगी। दोनों के बीच ऐसा ताल-मेल बैठ गया था जैसे किसी संगीत-संध्या में सितारवादक और तबलची के बीच जुगलबंदी चल रही हो।!!

अब शाकिनी ने राजा की दोनों हथेलियों को पकड़कर, दोनों स्तनों पर रख दिया ताकि संभोग के धक्के लगाते वक्त उसे आधार मिलें। अपनी माता के स्तनों को मींजते हुए और योनि में दमदार धक्के लगाते हुए, राजा को अजीब सी घबराहट और हल्की सी हिचकिचाहट अनुभवित हो रही थी। बालों वाली उस खाई के अंदर-बाहर हो रहे लिंग को, स्वर्गीय अनुभूति हो रही थी। पूरा कक्ष, योनि और लिंग के मिलन तथा दोनों की जंघाओं की थपकियों की सुखद ध्वनि से गूंज रहा था। वातावरण में यौन रसों की मादक गंध भी फैल रही थी।

पुत्र द्वारा माता की योनि का कर्तव्यनिष्ठ संभोग, शाकिनी को आनंद के महासागर में गोते खिला रहा था। कामशस्त्र का लिंग-मुंड, योनि के अंदर, काफी विस्तृत होकर फुल चुका था। राजा ने अपनी माता की आँखों में देखा, किन्तु वह लिंग के अंदर बाहर होने की प्रक्रिया से परमानन्द को अनुभवित करते हुए, आँखें बंद कर लेटी हुई थी। एक पल के लिए, शाकिनी यह भूल गई, कि उसे पिशाचिनी के रूप में ही अभिनय करना था और आनंद की उस प्रखरता में, वह बोल पड़ी..

"अत्यंत आनंद आ रहा है मुझे, पुत्र..!! इस विषय में तुम्हें इतना ज्ञान कैसे है..!! तुम्हारी यह काम क्रीड़ाएं, मुझे उन्मत्त कर रही है..!! आह्ह!! और अधिक तीव्रता से जोर लगाओ.. तुम्हारे शक्तिशाली लिंग से आज मेरी आग बुझा दो..!! मेरी योनि की तड़प अब असहनीय हो रही है.. पर मुझे अत्याधिक प्रसन्नता भी हो रही है। ओह्ह..!!" शाकिनी यह भूल गई थी की ऐसा बोलने से, यह साफ प्रतीत हो रहा था की यह पिशाचिनी नहीं, पर राजा की माता, शाकिनी बोल रही थी..!! पर राजा इस समय कामलीला में इतना मग्न था, की उसे इस बात का एहसास तक नहीं हुआ।

राजा अपनी पूरी ऊर्जा लगाकर, योनि में धक्के लगाए जा रहा था। हर धक्के के साथ, उसकी तीव्रता और जोर भी बढ़ रहा था। जब राजा ने माता शाकिनी के दोनों विराट स्तनों को बड़े जोर से भींचते हुए शानदार धक्के लगाए, तब शाकिनी विचार करने की शक्ति खो बैठी और जोर से चिल्लाई "ओह मेरे प्रिय पुत्र! मेरे राजा..!! बस इसी तरह धक्के लगाते हुए मुझे स्वर्ग की अनुभूति करा। मेरी योनि को चीर दे। निचोड़ दे इसे। अपनी भूखी माता को संतुष्ट करने का कर्तव्य निभा.. आह्ह..!!"

शाकिनी की कराहें जब चीखो में परिवर्तित हुई तब राजा को तत्काल ज्ञान हुआ..!! यह शब्द तो उसकी माता के है..!! पिशाचिनी के बोलने का ढंग तो भिन्न था।!! संभवतः वह पिशाचिनी, उसकी माता के शरीर का त्याग कर चुकी थी। तो क्या वास्तव में उसकी माता ही आनंद की किलकारियाँ लगा रही थी???

शाकिनी परमानन्द की पराकाष्ठा पर पहुंचकर स्खलित हो रही थी और साथ ही साथ पिशाचिनी का अभिनय करने का व्यर्थ प्रयत्न भी कर रही थी पर अब यह दोनों के लिए स्पष्ट हो चुका था की उसका अभिनय अब राजा के मन को प्रभावित नहीं कर रहा था।

स्खलित होते हुए उत्तेजना से थरथराती शाकिनी की योनि से पुत्र कामशस्त्र ने अपना विशाल लिंग बाहर खींच लिया। पूरा लिंग उसकी माता के कामरस से लिप्त होकर चमक रहा था। उसने शाकिनी से पूछा "माँ, क्या आप कुशल है? मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है की पिशाचिनी आपका देह त्याग चुकी है। आप मुझे पुत्र कहकर संबोधित कर रही थी जब की वह पिशाचिनी तो मुझे अनुचित नामों से ही बुलाती थी..!! जब आपने मुझे पुत्र कहकर संबोधित किया, तभी मैं समझ गया और अपना लिंग बाहर निकाल लिया..!!" यह कहते हुए राजा ने देखा की उसका लिंग-मुंड, जो माता शाकिनी के योनिस्त्राव से लेपित था, वह अब भी योनिमुख के निकट था। जबरदस्त संभोग के कारण, शाकिनी का योनिमार्ग अब भी खुला हुआ था और थरथरा रहा था..!!

शाकिनी को यह प्रतीत हुआ की अब सत्य को अधिक समय तक अपने पुत्र से छुपाने का अर्थ नहीं है..!! उत्तेजना की चरमसीमा पर, उससे अभिनय करने में चूक हो गई और अब वह अपने पुत्र को और भ्रमित करने की स्थिति में नहीं थी। शाकिनी ने उलटी दिशा में एक करवट ली और बोली "हाँ मेरे पुत्र। पिशाचिनी मेरे देह को त्याग चुकी है। पर जाते जाते, वह मेरे शरीर में, प्रचुर मात्रा में कामवासना छोड़ गई है। तुम से विनती है, की इस सत्य की अवज्ञा कर तुम अपना कार्य जारी रखो, अन्यथा यह असंतोष की भावना, मेरे प्राण हर लेगी।!! मुझे यह ज्ञात है, की जो मैं तुमसे मांग रही हूँ वह उचित नहीं है, किन्तु अपनी विधवा वृद्ध माता के सुख के लिए, क्या तुम इतना नहीं कर सकते? मैं अंतिम निर्णय तुम पर छोड़ती हूँ। इस आशा के साथ की तुम मेरी यह इच्छा पूर्ण करोगे। यदि तुम्हें अब भी मेरा देह सुंदर और आकर्षक लगता हो तो।!!"

इतना कहकर, शाकिनी शांत हो गई और अपने पुत्र के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी।!! शाकिनी करवट लेकर कामशस्त्र की विरुद्ध दिशा में लेटी हुई थी ताकि सत्य उजागर करते समय, पुत्र की नज़रों का सामना न करना पड़े।

अपने पुत्र से की वह प्रार्थना आखिर सफल हुई। यह उसे तब प्रतीत हुआ जब उसकी योनि की मांसपेशियाँ फिर से विस्तृत हुई और एक जीवंत मांस का टुकड़ा, अंदर प्रवेश करते हुए योनि की दीवारों को चौड़ी करने लगा..!! इस अनुभूति से शाकिनी आनंद से कराह उठी..!! चूंकि वह कामशस्त्र की विरुद्ध दिशा में करवट लेकर लेटी थी इसलिए उसे यह पता ही न चला की कब उसके पुत्र ने, माता के दोनों नितंबों को हथेलियों से चौड़ा कर, योनिमार्ग को ढूंढकर अपना लिंग अंदर प्रवेश कर दिया..!!

लिंग को तीव्रता से आगे पीछे करते हुए वह अपने हाथ आगे की दिशा में ले गया और माता के स्तनों को दोनों हथेलियों से जकड़ लिया..!! यह स्थिति उसे और अधिक बल से धक्के लगाने में सहायक थी..!! शाकिनी के आनंद की कोई सीमा न रही..!!

"मेरे प्रिय राजा। आज मैं स्वयं को, ब्रह्मांड की सबसे भाग्यशाली स्त्री और माता समझती हूँ..!!" शाकिनी ने गर्व से कहा

राजा ने प्रत्युतर में कहा "हे माता, मैं आपसे इतना स्नेह करता हूँ की आज के पश्चात मैं आपको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करता हूँ"

यह सुन, शाकिनी ने चिंतित स्वर में कहा "परंतु हमारा समाज और प्रजाजन, प्रायः इस संबंध को स्वीकार नहीं करेंगे। मेरे सुझाव है की हम अपना यह संबंध गुप्त रखें। यहाँ महल की चार दीवारों की सुरक्षा के बीच हम पति-पत्नी बने रह सकते है"

"समाज और प्रजाजनों की प्रतिक्रिया की चिंता मुझे नहीं है। मैं एक राजा हूँ, मेरे वचन ही नियम है। मेरी इच्छाएं कानून का पर्याय है। मैं यह घोषणा करता हूँ, की माता और पुत्र के वैवाहिक और शारीरिक संबंधों को वैद्य माना जाए और ऐसे संबंध स्थापित करने के लिए किसी की भी अनुमति की आवश्यकता न हो"

अपने पुत्र के इस निर्णय से प्रभावित होते हुए शाकिनी ने कहा "अब से मैं तुम्हारी पत्नी हूँ। मैं तुम्हारे वीर्य से गर्भधारण करना चाहती हूँ। तुम्हारी संतान को अपने गर्भ में जनना चाहती हूँ"

अति-उल्लास पूर्वक राजा ने कहा "हे माता। मेरी भार्या.. यह तो अति-सुंदर विचार है। पति और पत्नी के रूप में, हमारे प्रेम के प्रतीक रूप, मैं अपना पुष्ट वीर्य तुम्हारे गर्भाशय में प्रस्थापित करने के लिए उत्सुक हूँ..!!" राजा के मन में, उभरे हुए उदर वाली शाकिनी की छवि मंडराने लगी.. जो उनके संतान को, अपने गर्भ में पोषित कर रही हो.. इस कल्पना मात्र से ही वह रोमांचित हो उठा, की आने वाले समय में, उसकी माता गर्भवती होगी और उस दौरान वह उसके संग भरपूर संभोग कर पाएगा..!! माता-पुत्र से पति-पत्नी तक परिवर्तन की इस स्थिति पर उसे गर्व की अनुभूति हो रही थी।

शाकिनी भी उस विचार से अत्यंत रोमांचित थी की उसका पुत्र अपना बीज उसके गर्भाशय में स्थापित करने के लिए तत्पर था। एक शिशु, जिसका सर्जन, ऐसे माता और पुत्र मिलकर करेंगे, जो अब पति और पत्नी के अप्रतिबंधित संबंध से जुड़ गए थे। वह मन ही मन, उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगी, जब उसकी योनि फैलकर, उनकी संतान को जन्म देगी। उसके स्तन, गाढ़े दूध से भर जाएंगे.. और फिर उसी दूध से, वह उस शिशु तथा अपने स्वामी रूपी पुत्र का, एक साथ पोषण करेगी।

अब राजा ऐसे पथ पर पहुँच चुका था जहां से पीछे मुड़ने का कोई मार्ग न था। उसके अंडकोश में वीर्य घौल रहा था और वह जानता था की अब अपनी माता के गर्भ में उस वीर्य को पर्याप्त मात्रा में स्खलित करने का समय आ गया था। उसने शाकिनी की योनि में गहराई तक धक्का लगाया.. और उसके लिंग से, जैसे वीर्य का विस्फोट हुआ..!! उपजाऊ वीर्य की अनगिनत चिपचिपी बौछारों ने शाकिनी के गर्भ को पूर्णतः भर दिया। उसी वीर्य का कोई एक शुक्राणु, शाकिनी के अँड से मिलन कर, नए जीव की उत्पत्ति करने वाला था।

शाकिनी अपने योनि मार्ग की गहराई में, पुत्र के गर्म वीर्य को महसूस करते हुए चीख पड़ी "ओह मेरे राजा..!! तुमने मुझे आज पूर्णता का अनुभव दिया है। वचन देती हूँ, की मैं एक आदर्श पत्नी बनकर तुम्हें खुश और संतुष्ट रखूंगी तथा अपने इस संतान का निर्वाह करूंगी, जिसका हमने अभी अभी निर्माण किया है"

उस पूरी रात्री, दोनों के बीच घमासान संभोग होता रहा।

दूसरे दिन, राजा कामशस्त्र ने राजदरबार में यह ऐलान किया की वह अपनी माता को पत्नी के रूप में स्वीकार करता है क्योंकि उनके उपयुक्त कोई भी पुरुष अस्तित्व में नहीं था। शाकिनी से विवाह के पश्चात, राजा कामशस्त्र ने यह कानून का निर्माण किया, जिसके तहत, हर पुत्र का, अपनी माता के शरीर पर अधिकार होगा। पुत्र की अनुमति के बगैर, माता अपने स्वामी से भी संभोग नहीं कर पाएगी।

इस नए कानून के परिणाम स्वरूप, वैतालनगर की उस रियासत में, ऐसे असंख्य बालकों ने जन्म लिया, जो कौटुंबिक व्यभिचार से उत्पन्न हुए। राजा कामशस्त्र और शाकिनी के शारीरिक संबंधों ने भी, एक पुत्री को जन्म दिया, जिसे नाम दिया गया योनिप्रभा।

कामशस्त्र और शाकिनी के निधन के पश्चात, योनिप्रभा की पीढ़ी दर पीढ़ी से उत्पन्न होती संतानें, आज भी प्रदेश के कई प्रांतों में, अस्तित्व में होगी।

योनिप्रभा उस बात का प्रमाण थी की एक पुत्र ने अपनी माता के गर्भ में, अपना बीज स्थापित कर, उसका निर्माण किया था। एक ऐसे घोर पाप के परिणाम से, जो क्षमायोग्य ही नहीं है।!!

॥ पांडुलिपि की अंतिम गाथा का अनुवाद ॥

दोष रहे दोष ही, इच्छा जो कहो

पतन के दोष जो छिपे न छुपते

जल-स्नान किए न पातक मिटते

सहज बनाने की कोशिश व्यर्थ

कुंठित बुद्धि जो करें अनर्थ

प्रिय पाठक गण, कथा पढ़ने के पश्चात, आप लोगों का क्या प्रतीत हुआ? क्या यह पिशाचिनी के श्राप का परिणाम था, जिसने माता और पुत्र के विचारों को दूषित कर, उन्हें इस पापी मार्ग पर धकेल दिया?? या वह दोनों स्वयं ही, अपनी शारीरिक इच्छाओं को समर्पित हो गए थे?? अपने प्रतिभाव व विचार अवश्य प्रकट करें..


॥ समाप्त ॥

Bahut hi shandar kahani he vakharia Bhai,

Khair abhi bhi incest relations samaj me nishedh hi he...........

Maje ke liye kiya gaya ye kaam........aage chalkar gambir parinam deta he...........

Keep rocking Bro
 

Ajju Landwalia

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विधिलिखित


महल की ऊँची दीवारों पर सूरज की अंतिम किरणें ठहरी हुई थीं, संध्या आरती की घंटियों की गूंज हवाओं में घुल रही थीं, लेकिन महल के भीतर एक अजीब सा सन्नाटा था, जैसे कोई अनकहा शब्द होंठों पर ठहरसा गया हो...

ऐसे मे गौरी के कदम संगमरमर की सीढ़ियों पर पड़े, तो हल्की सी प्रतिध्वनि गूंज उठी, उसकी कलाईयों में बंधी चूड़ियों की खनक और पैंजनों की लय हर बार उसे इस नए संसार की याद दिला देती, जो उसका था और फिर भी नहीं था देवगढ़ के चौड़े आंगनों और खुले गलियारों से निकलकर वह इस राजस्थानी महल के दायरों में आ बसी थी, एक ऐसी जगह, जहाँ हर दीवार के पीछे कोई नियम, कोई परंपरा उसकी राह देख रही थी...

आसमान के अंतिम उजाले में महल का आंगन सुनहरा दिख रहा था, यहाँ हर चीज़ राजसी थी, हर चीज़ विशाल थी, लेकिन फिर भी कुछ कमी थी... एक अधूरापन, जो किसी और को शायद न दिखे, पर उसे हर क्षण महसूस होता था

विचारों की कड़ियाँ अब भी उलझी ही थीं कि तभी दासी की आवाज़ ने उसे वर्तमान में खींच लिया..

"राणीसा, राणासा ने आपको बुलाया है!"

यह सुनते ही उसने शीशे में एक नजर खुद पर डाली, फिर तुरंत घूँघट खींच लिया, भारी लहंगा, घूँघट, गहनों का बोझ.. इन सबसे चलते-चलते उसका दम घुटने लगता था, मगर राणा साहब का बुलावा आया है, यह सोचकर वह जितनी तेज़ी से हो सका, आगे बढ़ गई और चलते ही उसके कंगनों और पायल की झंकार महल के गलियारों में गूँज उठी

"प्रणाम, राणासा!"

"पधारिए, राणीसा," राणा ने मुस्कराते हुए कहा और उसे धीरे से मंचक पर बैठा दिया

वह घूँघट की ओट से राणा को देखने का प्रयास कर रही थी… विवाह को तो अभी कुछ ही दिन हुए थे, और वह इस महल में नयी नवेली रानी बनकर आई थी अजनबी प्रदेश, अलग भाषा, अलग पहनावा, और अनजानी परंपराएँ… सबकुछ नया था उसके लिए और इन दिनों वो खुद को इस माहौल में ढालने की कोशिशों में ही उलझी रही थी, यहाँ तक कि राणा साहब से अभी तक उसकी ठीक से भेंट नहीं हुई थी

"आप चाहें तो ये घूँघट हटाकर हमें देख सकती हैं," राणा ने हँसी के साथ कहा

उसकी चोरी पकड़ी गई थी! राणा ने आगे बढ़कर खुद ही उसका घूँघट हल्का-सा ऊपर किया और उसकी आँखें शर्म से झुक गईं

कुछ देर राणा से बातें करने के बाद, उसका मन थोड़ा हल्का हुआ था और महल लौटते समय उसके कदम धीमे हो गए थे, उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई… हर चीज़ को ध्यान से देखने लगी

"प्रतापगढ़!"

देवगढ़ के किले के मुकाबले यह काफ़ी भव्य था, लेकिन मराठा दुर्गों की तरह ऊँचा नहीं था, बल्कि ये पहाड़ियों के बीच कुछ इस तरह समाया हुआ था कि बाहर से देखने पर यह किसी को नज़र भी नहीं आता। हर महल, हर दालान अपने आप में अनूठा था, खंभों पर महीन नक्काशी थी, संगमरमर की सीढ़ियाँ चमकती थीं, और दालानों में ऊँचे झरोखे बने थे, मगर दरवाज़े छोटे थे, शायद सुरक्षा की दृष्टि से

"पर देवगढ़... वह तो बिल्कुल अलग था!"

देवगढ़ का किला! गौरी का माईका, जहा का महोल ही अलग था, वहाँ किसी पर कोई रोक-टोक नहीं थी, हर दालान तक पहुँचने की पूरी स्वतंत्रता थी पर यहाँ? यहाँ हर गलियारे में दासियाँ पीछे-पीछे चलतीं, हर द्वार पर निगाहबान खड़े रहते, और घूँघट... यहाँ तक कि महल में भी घूँघट के बिना चलना संभव न था

यहाँ की तो धरती भी देवगढ़ जितनी हरी-भरी नहीं थी

"यहाँ कुछ भी तो वैसा नहीं है, जैसा देवगढ़ में था..."

यह सोचते ही उसका मन भारी हो गया था

गौरी, देवगढ़ के पराक्रमी मराठा सरदारों की सुपुत्री, जो अब प्रतापगढ़ के महलों में ‘राणीसा’ के रूप में राजस्थान की धरती पर आ बसी थी

राणा विक्रमसिंह जब दक्षिण से एक युद्ध अभियान पूरा कर लौट रहे थे, तब देवगढ़ में कुछ दिनों के लिए ठहरे थे और वहीं उन्होंने पहली बार गौरी को देखा था नाम के अनुरूप, चंद्रमा की आभा जैसी शीतल सुंदरता लिए हुए

गोरा मुख, तीखे नयन, लंबा कद, उसकी छवि ने राणा को पहली ही दृष्टि में मोह लिया था और उनके पड़ाव के दिन बढ़ते चले गए, और जब वे प्रतापगढ़ लौटे, तब अकेले नहीं, बल्कि गौरी को अपनी अर्धांगिनी बनाकर साथ ले गए

नऊवारी साड़ी पहनने वाली, खुले आंगनों में निर्भीक घूमने वाली मराठा सरदार की बेटी अब घूँघट में लिपटी, एक परायी भूमि की राजरानी बन चुकी थी

लेकिन इस परिवर्तन में बस एक राहत की बात थी.. उसकी विद्या, वह इस परदेस की भाषा भले न बोल पाती, लेकिन उसे समझने में कठिनाई नहीं थी समय बदल रहा था, अंग्रेज़ी सत्ता धीरे-धीरे भारत पर पाँव पसार रही थी मराठा साम्राज्य में अब दूसरे छत्रपति की सत्ता थी और अब, सरदारों के साथ उनकी पुत्रियों को भी शिक्षित किया जाने लगा था, सैन्य कला, राजनीति और कूटनीति की शिक्षा भी दी जा रही थी

गौरी ने भी यही सीखा था, और अब यह शिक्षा ही उसकी सबसे बड़ी पूँजी थी

महल में प्रवेश करते ही उसकी तंद्रा टूटी भवानी मंडप में संध्या आरती शुरू हो चुकी थी महल की ऊँची खिड़कियों से भवानी मंडप साफ़ दिखाई देता था गौरी वहीं खड़ी होकर आरती के मंत्रों को सुनने लगी लेकिन उसका मन भवानी मंडप में नहीं था...

उसका मन तो देवगढ़ के उस शिवालय में पहुँच चुका था जहा उसने बरसों पूजा की थी

वह दिन उसे आज भी याद था… श्रावण मास का पहला सोमवार! उस दिन पहली बार, आचार्य की जगह उनका पुत्र विद्याधर पूजा कराने आया था

जब वह मंत्र पढ़ता, तो गौरी मंत्रों को दोहराती, उसकी गहरी, गंभीर आवाज़ जैसे मंत्रों को और भी प्रभावशाली बना रही थी जिसे गौरी निस्तब्ध सुन रही थी, विद्याधर के मुख पर वैराग्य था तथा नेत्रों में बस भक्ति की गहराई जैसे वह पुरुष नहीं, कोई साधक था

गौरी को ऐसा सात्विक तेजस्वी स्वरूप पहले कभी किसी में नहीं दिखा था पहली ही पूजा में, उसने अपने लिए ‘वर’ चुन लिया था… विद्याधर!

इसके बाद कई दिन तक वह नियमित रूप से शिवालय आता रहा, और हर दिन गौरी का मन उस पर और अधिक टिकने लगता वह सारा पूजन-सामान स्वयं उसके लिए लेकर जाती और जब वह वेद मंत्र पढ़ता, तो पूरा मंदिर उसकी गूँज से भर जाता और जब यह गूँज शांत होती, तब भी गौरी के हृदय में विद्याधर के नाम का जाप होता रहता

लेकिन वह... उसने कभी उसकी ओर देखा तक नहीं था!

वह मराठा सरदार की पुत्री थी, और वह कर्नाटक के एक कर्मठ ब्राह्मण परिवार का लड़का उसकी जाति, उसके संस्कार उसे यह स्वीकार करने ही नहीं देते कि वह किसी क्षत्राणी को देखे!

किन्तु...

कई बार, जब गौरी शिवालय में प्रवेश करती, विद्याधर की दृष्टि अनायास उसके नन्हें पैरों पर अटक जाती, वह चाहता था कि एक बार उसे देखे, बस एक बार लेकिन अगले ही क्षण, उसके हृदय की तपस्या जाग जाती, और वह मन ही मन ‘महेश्वर’ का नाम लेकर अपनी भावनाओं को वश में कर लेता

विद्याधर की यह घबराहट गौरी की दृष्टि से कभी छुप नहीं सकी

जब भी वह मंत्र पढ़ता, उसकी आवाज़ की लय बदल जाती, शब्द तेज़ हो जाते, स्वर स्थिरता खो देता, और गौरी यह सब महसूस कर सकती थी साथ ही, उसके भीतर भी एक अजीब उथल-पुथल थी

कई बार उसके मन में आया कि खुद जाकर पूछे, क्या तुम्हारे मन में भी वही है, जो मेरे मन में है?

लेकिन वह जाधव सरदार की पुत्री थी इस तरह का साहस दिखाना उसके कुल को शोभा नहीं देता और यदि उसने यह प्रश्न कर भी लिया, तो परिणाम क्या होंगे? क्या उसका उत्तर वही होगा जो वह चाहती थी?

पर एक बात तो निश्चित थी...

उसका मन विद्याधर का हो चुका था!

मन और बुद्धि का यह द्वंद्व कभी समाप्त नहीं होता था

और जब भी यह संघर्ष उसकी सोच पर हावी हो जाता, तब उसकी तलवार बेधड़क चलती!
घोड़ा तूफ़ान की तरह दौड़ता, और उसके वार हवा को चीरते चले जाते थे

समय के साथ गौरी के मन में विद्याधर की छवि और भी गहरी होती गई लेकिन उसके मन के भाव, जो गौरी के लिए स्वाभाविक थे, विद्याधर के लिए वैसे थे ही नहीं.. उसने कभी प्रेम-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा तक नहीं था

फिर भी, हर दिन वह महेश्वर के समक्ष सिर झुकाकर बस एक ही प्रार्थना करती कि उसे विद्याधर मिले

और शायद महेश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली थी

उस दिन, जब गौरी तेज़ी से घोड़ा दौड़ाते हुए जंगल की ओर बढ़ी, तो अनजाने में ही वह रास्ता भटक गई

जंगल उसके लिए नया नहीं था, लेकिन आज उसे यह अजनबी सा लग रहा था उसके चारों ओर घने पेड़ थे, और कहीं दूर नदी की मद्धम ध्वनि सुनाई दे रही थी

वह घोड़े से उतरी आँखें बंद कीं और उसने अपनी साँसों को शांत किया

"शांत मन से ही रास्ता मिलेगा..." उसने मन ही मन सोचा

धीरे-धीरे कानों में कोई हल्की ध्वनि गूँजने लगी... मंत्रों की ध्वनि!

गौरी का हृदय धड़क उठा और उसके कदम अनायास उसी ओर बढ़ चले और कुछ ही पलों में, वह नदी के किनारे पहुँच चुकी थी

विद्याधर वहाँ खड़ा था, नदी के शीतल जल में, संध्या कर रहा था उसकी गहरी, गंभीर आवाज़ मंत्रों का जाप कर रही थी, सफेद वस्त्र पहने, उसका तेजस्वी स्वरूप और भी स्पष्ट दिख रहा था

एक राजसी काया, लेकिन मन में संतों जैसी शांति!

गौरी ठिठक गई, उसकी आँखें बस उसे देखती रहीं

चंदन का तिलक, मुख पर अद्भुत तेज़, और ध्यानस्थ मुद्रा… यह वही विद्याधर था, जिसे उसने हमेशा अपने हृदय में संजोकर रखा था

लेकिन आज…

आज वह पहले से भी अधिक आकर्षक लग रहा था!

संध्या समाप्त होते ही विद्याधर ने आँखें खोलीं तो जैसे ही उसकी दृष्टि सामने खड़ी गौरी पर पड़ी, वह क्षणभर के लिए चौंक गया

उसकी आँखें गौरी की मुखाकृति पर ठहर गईं थी लेकिन अगले ही क्षण, वह अपने भावों को वश में करता हुआ नज़र झुकाकर बोला

"आप यहा? क्या आपको रास्ता नहीं मिल रहा?"

गौरी कुछ क्षण उसे देखती रही, वह असमंजस मे थी के विद्याधर कैसे इस बात को जान गया और फिर धीमे स्वर में बोली

"हाँ… हम भटक गए हैं"

“हमारे पीछे आइए” विद्याधर बिना ज्यादा कुछ बोले आगे बढ़ने लगा उसके कदम तेज़ थे, मानो वह इस बातचीत को टाल देना चाहता हो

लेकिन गौरी वहीं खड़ी रही उसने आगे बढ़कर उसका रास्ता रोक लिया

"देर हो रही है, महल में आपकी खोज शुरू हो चुकी होगी हमें तुरंत लौटना चाहिए," विद्याधर ने संयमित स्वर में गौरी को समझाया जिसपर

गौरी ने सिर हिला दिया "नहीं, मैं यहाँ से तब तक नहीं जाऊँगी, जब तक आपसे बात न कर लूँ"

विद्याधर की भवें तन गईं "आपको जो भी कहना हो, कल महल में कहिएगा अभी हमें यहाँ से निकलना चाहिए मैं आपसे विनती करता हूँ, गौरी "

पर गौरी ने उसकी बात अनसुनी कर दी "मुझे आपसे विवाह करना है, विद्याधर" गौरी की आवाज़ में अडिग विश्वास था

विद्याधर तो अपनी जगह जम गया था, और फिर उसने गहरी साँस ली और गौरी की आँखों में सीधे देखते हुए कठोर स्वर में कहा

"यह असंभव है, गौरी आप एक सरदार कन्या है और यह व्यवहार आपके कुल की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं और यह धर्म विरुद्ध भी है"

गौरी एक कदम आगे बढ़ी "धर्म के विरुद्ध क्यों? और इसमें कुल की मर्यादा कहाँ आती है? मैंने महेश्वर के समक्ष आपको पति रूप में चुन लिया है और मुझे पता है, आपभी मुझसे उतना ही प्रेम करते हो!"

"नहीं!" विद्याधर का स्वर पहले से अधिक कठोर था "मैं आपसे प्रेम नहीं करता और आप यह कभी मत भूलना कि मैं केवल एक पुरोहित का पुत्र हूँ हमारे बीच कोई संबंध संभव नहीं अब कृपया, महल लौट चले यहाँ अधिक देर तक ठहरना उचित नहीं"

गौरी ने उसकी आँखों में देखा "तो यही सब मेरी आँखों में आँखें डालकर कहिए, विद्याधर!"

विद्याधर वहीं ठिठक गया और वहा कुछ क्षणों तक मौन पसरा रहा। फिर, उसने एक गहरी साँस ली और बोला

"गौरी, यह हठ छोड़ दीजिए इस प्रेम का कोई भविष्य नहीं है"

"तो आपके मन में भी प्रेम है?" गौरी ने तुरंत प्रतिप्रश्न किया

विद्याधर ने नज़रें झुका लीं "कुछ प्रश्न अनुत्तरित ही रहे तो अच्छा होता है... इससे अनर्थ टलता है"

"कोई अनर्थ नहीं होगा बल्कि, अब तो इस रिश्ते को एक अर्थ मिलेगा मैं सही समय पर अपने पिता से बात करूँगी!" गौरी का स्वर आत्मविश्वास से भरा था, उसकी आँखों में विवाह की कल्पना कौंध रही थी पर विद्याधर को अब भय सताने लगा था गौरी के इस दृढ़ निश्चय ने उसे मानो चेतावनी दे दी थी, अगर उसने कुछ नहीं किया, तो यह बात कृष्णाजी तक पहुँच जाएगी, उसे कुछ करना होगा... इससे पहले कि बहुत देर हो जाए!

वही गौरी तो जैसे आनंद से बावरी होने को थी, पर उसने अपने भीतर उठते उल्लास को जब्त कर लिया था, यह सही समय नहीं था, यह बात वह भली-भाँति जानती थी

जैसे ही वह महल में पहुँची, सवालों की बौछार शुरू हो गई "इतनी देर तक कहाँ थी?" जैसे सवाल आने लगे पर असली झटका उसे तब लगा जब यह निर्णय सुना दिया गया की "कल से घुड़सवारी बंद!" लेकिन गौरी को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा, उसके मन का अश्व तो पहले ही कल्पनाओं के अनंत विस्तार में दौड़ चुका था

अगले दिन जब विद्याधर पूजा के लिए आया, तब पहली बार उनके बीच कोई वास्तविक संवाद हुआ, पूजा समाप्त होते ही विद्याधर ने एक लाल वस्त्र में लिपटा हुआ ग्रंथ गौरी की ओर बढ़ाया और गंभीर स्वर में बोला

"जब भी जीवन में कमजोरी महसूस हो, जब कोई शून्यता लगे, या कभी ऐसा लगे कि मुझे तुम्हारे पास होना चाहिए… तो यह ग्रंथ खोलकर पढ़ लेना यह तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर देगा और तुम्हें बल प्रदान करेगा"

गौरी मुस्कराई, उसकी आँखों में अलग ही उत्साह था

"अब हमें इसकी कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी कलही मैं आबासाहब से बात करने वाली हूँ उसके बाद आप सदा हमारे साथ रहोगे फिर इस ग्रंथ की क्या ज़रूरत?" उसने सहजता से ग्रंथ उसकी ओर बढ़ाया

विद्याधर ने ठहरकर उसे देखा, फिर उसी शांति से ग्रंथ पुनः उसकी हथेलियों में रख दिया

"इसे रख लो, गौरी भाग्य में जो लिखा है, उसे बदला नहीं जा सकता… पर सहन करने की शक्ति ज़रूर पाई जा सकती है"

इतना कहकर वह मुड़ कर चला गया बिना यह देखे कि उसकी बातों का गौरी पर क्या असर हुआ

वही गौरी ठगी-सी वही खडी रह गई, खुद से सवाल करते हुए की "आख़िर यह क्या चाहता है?" "न तो मेरे प्रेम की स्वीकारोक्ति करता है, न इसे ठुकराता है! यह 'भाग्य' की बातें क्यों कर रहा है?"

"पर कोई भाग्य नहीं! मैं कल ही आबासाहब से बात करूँगी, और इस दूरी को हमेशा के लिए मिटा दूँगी!"

गौरी ने उस ग्रंथ को यूँ ही एक संदूक के नीचे डाल दिया और मन में अपनी बात दोहराने लगी की "आबासाहब से बात कैसे शुरू करूँ?"

अब तक उसके हर हठ को मान लिया गया था पर विवाह की बात साधारण नहीं थी। फिर भी, उसे विश्वास था.. आबा मना नहीं करेंगे

उसने निश्चिंत होकर सुबह का इंतज़ार किया...

अगली सुबह, गौरी ने अपने संजोए हुए वस्त्रों में से अपनी प्रिय पीली साड़ी, जिसकी किनारी गहरी हरी थी, निकाल ली और बार-बार दर्पण में खुद को देखती, कभी बालों का जूड़ा ठीक करती

आज उसके हर स्पर्श में एक अलग सी उमंग थी, मोगरा, केवड़ा… सभी सुगंधित फूलों को उसने पूजा के लिए चुना था और जब ये सब उसकी माँ चंद्रप्रभाबाई ने देखा तो पूछा, "आज कुछ विशेष अवसर है क्या?"

गौरी बस हल्का सा मुस्कराई और सिर हिला दिया "नहीं, कुछ नहीं!"

पर शिवालय पहुँचते ही उसकी यह मुस्कान मुरझा गई, आज पूजा कराने के लिए विद्याधर नहीं, बल्कि आचार्य आए थे

सिर झुकाकर उसने उन्हें प्रणाम किया और पूजा में बैठ गई, लेकिन उसका मन कहीं और भटक रहा था

"विद्याधर क्यों नहीं आए?"

"क्या हुआ उन्हे?"

"क्या मैं आचार्य से पूछ सकती हूँ?"

लेकिन कैसे?

आज उसकी आँखों से अश्रु स्वतः ही बह निकले थे... पूजा समाप्त होने तक, उसने खुद को किसी तरह संभाल लिया… लेकिन भीतर कुछ टूटने सा लग रहा था

गौरी ने खुद को संयत किया और गहरी साँस लेते हुए आचार्य से पूछा

"आज विद्याधर नहीं आए?"

आचार्य चौंक गए "अरे, उसने आपको नहीं बताया? मुझे लगा, उसने स्वयं ही कह दिया होगा!"

गौरी के भीतर कुछ काँपा "आप किस बारे में बात कर रहे हैं?" उसने अपनी सिहरन को दबाते हुए पूछा

आचार्य ने सहज स्वर में कहा

"वह तो कल सुबह ही काशी के लिए रवाना हो गया है, वहा के दर्शन के बाद उसने आगे ऋषिकेश जाने का निश्चय किया है वहाँ नारायण स्वामी के सान्निध्य में शिष्यत्व ग्रहण करेगा, कृष्णाजी से अनुमति और आशीर्वाद लेने के बाद ही वह निकला था"

ये सुनते ही गौरी के पैरों तले की ज़मीन खिसक गई, उसने अब समझा कि कल विद्याधर ने उसे ग्रंथ क्यों दिया था, वह सिर्फ़ एक पुस्तक नहीं थी… वह उसका अंतिम संदेश था

उसने यह भी समझ लिया कि जैसे ही उसने अपने पिता से बात करने का निश्चय किया था, विद्याधर ने देवगढ़ छोड़ने का निश्चय कर लिया था

वह विदा लेने तक नहीं आया था

आचार्य को प्रणाम कर गौरी मंदिर से बाहर निकल आई थी लेकिन उसका दुख, उसकी पीड़ा वह खुलेआम नहीं दिखा सकती थी

उस दिन, उसने खुद को महल के अपने कक्ष में बंद कर लिया और बिना रुके रोती रही और फिर… उसने मंदिर जाना ही छोड़ दिया, जैसे वह महेश्वर से रूठ गई थी!

गौरी के चंचल स्वभाव के चलते कीसी ने भी इस बारे मे उससे कोई सवाल नहीं किया था के उसने अचानक पूजा करना क्यों बंद कर दिया

हाँ, माँ चंद्रप्रभाबाई ने दो-तीन बार सवाल किया, पर उसने किसी तरह बात को टाल दिया था पर जब भी शिवालय की घंटी बजती, जब भी आचार्य के मंत्रोच्चार महल तक पहुँचते… विद्याधर की स्मृतियाँ उसके हृदय पर हथौड़े की तरह गिरतीं और तब, वह अपने कक्ष में पांडुलिपियों का अध्ययन करती, संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण करती, या फिर तलवार उठा लेती

और जब उसके हृदय की बेचैनी तलवार भी शांत न कर पाती, तब वह अपने अश्व पर सवार होकर सीधे उसी नदी के तट पर जा पहुँचती, जहाँ पहली बार उसने विद्याधर को संध्या करते हुए देखा था

वहाँ पहुँचकर उसे अक्सर ढलते सूरज की लालिमा में कोई छवि दिखती… पृथ्वी से परे, एक दिव्य आभा में लिपटी हुई…

संध्या कर रहा विद्याधर… उसका विद्याधर!

पर यह तो बस एक मृगमरीचिका थी

ऐसे ही एक दिन, महल के प्रांगण में तलवार चलाती गौरी राणा विक्रमसिंह की दृष्टि में आ गई, गहरी अंजिरी रंग की नऊवारी साड़ी में, गहनों से मुक्त, सिर्फ़ अपनी तलवार के साथ…

वह दृश्य राणा के हृदय में उतर गया था पर गौरी को इसका आभास तक नहीं था, उसे तो पता ही नहीं था कि उसका भविष्य किस मोड़ पर मुड़ने वाला है… वह तो बस विद्याधर की स्मृतियों के संग तलवार चलाए जा रही थी… एक अनसुने, अनकहे प्रेम की विरासत पर!

राणा विक्रमसिंह जब देवगढ़ में ठहरे, तब उन्होंने कृष्णाजी के समक्ष गौरी से विवाह का प्रस्ताव रखा

नकार की कोई संभावना ही नहीं थी

आख़िर, हर किसी को रानी बनने का सौभाग्य नहीं मिलता और फिर गौरी तो वैसे भी जाधव सरदारों की इकलौती पुत्री थी, लाड़-प्यार में पली, नाज़ों से सजी ऐसे में उसका विवाह किसी सामान्य परिवार में कैसे कर दिया जाता?

समय बीतता गया, लेकिन उसके लिए कोई योग्य वर नहीं मिल रहा था ऐसे में, जब राणा विक्रमसिंह ने अपना प्रस्ताव रखा तो कृष्णाजी ने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया

राजदरबार में खलिते (राजकीय पत्र) भेजे गए, विवाह की तैयारियाँ शुरू हुईं, मंडप खड़ा हुआ… और देवगढ़ की सरदार कन्या गौरी देखते ही देखते प्रतापगढ़ की राणीसा बन गई

यह वह युग था, जब कन्या की पसंद-नापसंद कोई मायने नहीं रखती थी इसलिए, गौरी से किसी ने कुछ नहीं पूछा

उसने तो अब तक राणा को देखा तक नहीं था, और अब उसे उन्हे मन से स्वीकार करना था… जबकि उसका मन तो पहले ही विद्याधर के नाम अंकित हो चुका था और यह विचार ही उसे भीतर से तोड़ रहा था

उस पर, यह नया स्थान, अलग रीति-रिवाज, अलग वेशभूषा, अलग लोग, फिर भी उसने खुद को हर परिस्थिति के लिए तैयार कर लिया था अपने चेहरे पर हँसी का मुखौटा पहन लिया था पर कभी-कभी, घूँघट में उसे दम घुटता सा लगता

जब कोई भारी हार पहनाया जाता, तो उसे अपने देवगढ़ के छोटे-से बकुलहार और पोहेहार की याद आ जाती, यहाँ के भारी गहनों की जगह, उसे अपनी सरल बोरमाल ही प्रिय थी

पर अब उसे इन सब चीज़ों में सामंजस्य बैठाना था

देवगढ़ के किले में हर दिन उसके वेद पाठ की गूँज सुनाई देती थी

पर प्रतापगढ़ में?

यहाँ तो सिर्फ उसके पैंजनों और कंगनों की झंकार गूँजती थी!

उसने तय कर लिया था, अब इसे ही अपना जीवन मानना होगा!

वह स्वयं को यह दिलासा देने लगी कि राणा विक्रमसिंह एक योग्य, समझदार, और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति हैं और शायद, उनसे संवाद करने के बाद जीवन आसान हो जाएगा

वह अब खुद को इस नए बदलाव के लिए तैयार कर चुकी थी… राणा को स्वीकार करने के लिए तैयार थी

उस दिन जब भवानी मंडप में संध्या आरती समाप्त हुई उसके साथ ही, गौरी का महेश्वर से रूठना भी समाप्त हो गया था

अगले ही दिन, उसने राणा से अनुरोध किया कि महल में एक शिवालय बनवाया जाए और राणा ने उसकी इच्छा को सहर्ष स्वीकार किया

धीरे-धीरे, वह इस नए जीवन को अपनाने लगी थी, महल के नियम, भोजन की परंपराएँ, प्रतापगढ़ का माहौल… और राणा विक्रमसिंह

अब वह मारवाड़ी भाषा भी बोलने लगी थी लेकिन…

एक बात उसे हमेशा खटकती थी

राणा की मासा!

वह शायद ही कभी अपने महल से बाहर आतीं थी

राजपरिवार के अन्य सदस्यों से भी गौरी की कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी और एक दिन, उसने राणा से यह बात कह दी

"आप परदेस से आई हैं, इसलिए राजपरिवार थोड़ा असंतुष्ट है," राणा ने शांत स्वर में उत्तर दिया "धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाएगा आप बस शिवालय के निर्माण कार्य पर ध्यान दें, बाकी की चिंता न करें"

राणा के इन शब्दों के बाद, गौरी ने स्वयं को शिवालय के निर्माण में पूरी तरह झोंक दिया था, अब उसका सारा दिन इसी में बीतने लगा था…

शिवालय का निर्माण पूरे वैभव और भव्यता के साथ आगे बढ़ रहा था, विशाल संगमरमर के पत्थरों पर जटिल नक्काशी उकेरी जा रही थी प्रत्येक खंभे पर अलग-अलग आकृतियाँ, पुराण कथाओं से उत्कीर्ण प्रतिमाएँ उकेरी जा रही थी, गौरी की आँखों के सामने शिल्पकला के अप्रतिम चमत्कार आकार ले रहे थे

लेकिन…

जैसे-जैसे मंदिर पूर्णता की ओर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे उसके हृदय के किसी गहरे कोने में कुछ हलचल मच रही थी, भवानी मंडप में अखंड धूनी के सामने हाथ जोड़ते ही, उसकी आँखों के आगे एक अतीत बार-बार चमक उठता

मन अशांत होने लगा था

उस दिन वह भवानी मंडप से बिना घूँघट लिए ही महल की ओर चल पड़ी, दासियाँ पीछे से आवाज़ लगाती रहीं, लेकिन उसने किसी की नहीं सुनी

महल में जिसने भी उसे देखा, स्तब्ध रह गया

एक स्वर्णिम आभा में लिपटी, तेजस्वी, अनिंद्य सौंदर्य की प्रतिमा जैसी…

मानो कोई दैवी शक्ति स्वयं धरती पर उतर आई हो, पर उसका यह व्यवहार प्रतापगढ़ की प्रतिष्ठा और नियमों के विरुद्ध था और गौरी को इसका आभास तक नहीं था

वह खुद से ही जूझ रही थी

यह कैसी बेचैनी थी? यह कैसी रिक्तता थी? आखिर यह कैसी कमजोरी थी, जो उसे भीतर तक हिला रही थी?

जब यह समाचार राणा विक्रमसिंह तक पहुँचा, तो वे तुरंत गौरी के महल में पहुँचे और वहाँ जो दृश्य उन्होंने देखा, वह उन्हें विचलित कर गया

गौरी, मंचक से नीचे, अस्त-व्यस्त, बिखरे केशों में, लाल आँखों के साथ भूमि पर बैठी थी, उन्हें समझ ही नहीं आया कि आखिर हुआ क्या है

उन्होंने आगे बढ़कर उसे सहारा दिया, मंचक पर बैठाया और जल का पात्र उसके हाथ में थमाया, जल की कुछ घूँट पीने के बाद वह थोड़ा संयत हुई

"गौरी, क्या हुआ?" राणा ने धीमे लेकिन गहरे स्वर में पूछा

"आप जानती हैं कि इस महल में बिना घूँघट बाहर जाना उचित नहीं, फिर भी आज आपसे यह भूल कैसे हुई?"

राणा के शब्द कठोर नहीं थे, बल्कि उनमें एक अजीब सी कोमलता थी

गौरी ने कुछ नहीं कहा, वह बस राणा के सीने से लगकर फूट-फूटकर रो पड़ी और सिसकियों के बीच, वह बस इतना ही कह पाई

"मुझे देवगढ़ की याद आती है…"

राणा हल्का सा मुस्कराए "बस इतनी सी बात पर राणीसा ने यह हाल बना लिया?"

उन्होंने कोमलता से उसकी आँखों के आँसू पोंछे और कहा

"हम आज ही संदेश भेज देते हैं, ताकि कोई आपके घर से मिलने आ सके पर आगे से ऐसी भूल न हो"

गौरी जानती थी कि उसकी गलती बहुत बड़ी थी पर राणा ने उसे डाँटा नहीं, बल्कि समझा था, उन्होंने पहले ही दिन गौरी की आँखों में कोमलता के साथ एक ज्वाला भी देखी थी शायद इसलिए, आज की यह घटना उन्होंने अपने मन में रख ली, उसे कोई बड़ा विषय नहीं बनाया

पर गौरी उलझ गई थी, आखिर आज ऐसा क्या हुआ, जिससे विद्याधर की याद इतनी तीव्र हो उठी?

इतने वर्षों में उसका अतीत धुँधला पड़ चुका था

फिर आज, भवानी मंडप से शिवालय की ओर देखते हुए अचानक उसे क्या हो गया?

शिवालय का निर्माण अपने अंतिम चरण में था, शिवरात्रि के दिन भव्य यज्ञ के साथ वहा ईश्वर की स्थापना की जानी थी और इसके लिए काशी, हरिद्वार और केदारनाथ से ऋषि-मुनियों का आगमन होने वाला था, प्रतापगढ़ में बरसों बाद इतना बड़ा आयोजन हो रहा था

परंतु…

जब सब कुछ अपने श्रेष्ठतम रूप में था, ठीक उसी समय गौरी का मन टूट रहा था, इतनी श्रद्धा और परिश्रम से महेश्वर का मंदिर बन रहा था… फिर भी वह भीतर से इतनी व्याकुल क्यों थी?

महाशिवरात्रि अब बस कुछ ही दिनों की दूरी पर थी, गढ़ में संत-महात्माओं का आना-जाना शुरू हो चुका था, सभी ओर तैयारियाँ तेज़ हो गई थीं

मंडप सज रहे थे, मधुर वाद्यों की ध्वनि गूँज रही थी, द्वारों पर तोरण बंध गए थे, आँगनों में रंगोलियाँ बिखर रही थीं, पूरा प्रतापगढ़ मंगलमय वातावरण से भर उठा था…

लेकिन…

गौरी का हृदय शून्य था

वह किसी और ही संसार में खोई हुई थी

और फिर…

उस रात, एक स्वप्न ने उसे झकझोर कर रख दिया, देवगढ़ का वह शिवालय उसकी आँखों के सामने चमक उठा…

वही क्षण… जब विद्याधर ने उसे वह ग्रंथ दिया था

वह चौंककर जाग उठी

जलती हुई दीपशिखा को थोड़ा ऊँचा किया और आगे बढ़ी उसने संदूक का ढक्कन उठाया और उसमे नीचे दबे लाल वस्त्र को हटाया… और वहाँ वही ग्रंथ रखा था

"स्नेहित" विद्याधर का हस्तलिखित ग्रंथ!

उसने दो पल उसे सीने से लगाया और फिर काँपते हाथों से पन्ने पलटने लगी…

"प्रिय गौरी,

"हाँ, आप बिल्कुल सही पढ़ रही हैं, आप हमें प्रिय हैं… और शायद आपको पता भी नहीं कि कितने समय से प्रिय हैं, आपने तो हमें पहली बार श्रावण के सोमवार की पूजा में देखा था… पर हमने आपको उससे पहले ही देख लिया था… महारुद्र यज्ञ में… तभी से आप हमारे हृदय में बस गईं

हाँ, गौरी … हम आपके प्रेम में हैं!"

“सोमवार के दिन, जब आपने वह अंजिरी रंग की साड़ी पहनी थी… उस क्षण, कोई भी आपको देखकर मोहित हो जाता, आपके कोमल हाथों में खनकती लाल चूड़ियों की आवाज़… आज भी हमारे कानों में गूँजती है

आपके शरीर से उठती चंदन और केवड़े की भीनी सुगंध… हमारे श्वासों में रची-बसी है..

जब आप घोड़े पर सवार होकर हवा से बातें करतीं… तब हमें लगता, काश, हम भी वायु बनकर आपकी संगति कर पाते!

जब आप स्नान के बाद खुले केशों में मंदिर आतीं… तब हमें लगता कि मंदिर में बादल घिर आए हैं…

आपकी अरुणिमा से दमकती मुखाकृति… वह गहरी अनुरागी आँखें… आपको देखकर यह हृदय हर क्षण आपका व्रत करता था!

परंतु, गौरी…

हम ब्राह्मण पुत्र हैं आप क्षत्रिय सरदार की सुपुत्री, इस प्रेम को न तो आपके कुल में स्थान मिलेगा, न हमारे कुल में...

इसीलिए, हमने कभी आपको अपने भावों से अवगत नहीं कराया…

लेकिन, आप तो आप है...

आज, आपने यह सत्य हमारे मुख से कहलवा ही लिया, और अब, आपके आबा से विवाह की बात करने के संकल्प के बाद… हमें भी एक निर्णय लेना पड़ा है…"


गौरी के हाथ काँपने लगे

"निर्णय?"

उसने पन्ने तेजी से पलटने शुरू किए…

"इससे पहले कि आप कृष्णाजी से बात करें, हम देवगढ़ छोड़ चुके होंगे, हमें पता है कि आप इतनी आसानी से कमजोर नहीं पड़ेंगी… लेकिन एक दिन, यह हस्तलिखित आपको अवश्य पढ़ना होगा..

इसमें आपके लिए लिखी गई कुछ कविताएँ हैं, संकट के समय सहारा देने वाले चारों वेदों के श्लोक हैं, शिवमहिमा का वर्णन है… और हमारी वर्षों की साधना और पुण्याई समर्पित है

उचित समय पर इसका पाठ करें, महेश्वर आपको मार्ग दिखाएँगे

हम स्वयं आकर आपको इस पीड़ा से बाहर नहीं निकाल सकते, लेकिन…

महेश्वर अवश्य निकालेंगे"

अब आपको यह प्रश्न अवश्य होगा..कौन सी पीड़ा? कैसा संकट? और महेश्वर किस मार्ग की ओर ले जाएँगे?

गौरी, हर जन्म का एक उद्देश्य होता है, आपका जन्म भी केवल व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं हुआ है, आपका जन्म महेश्वर की सेवा और मातृभूमि की रक्षा के लिए हुआ है...

इसलिए, अपने आराध्य से जो रूठकर बैठी हैं, वह रूठना शीघ्र समाप्त करें... अंजिरी रंग की साड़ी पहनकर बाहर जाएँ, तो सतर्क रहें, दूर देश से आया एक यात्री आपको अपने साथ ले जाएगा… यह विधिलिखित है, और हम इसे टाल नहीं सकते क्योंकि वहीं आपका वास्तविक कर्म होने वाला है"


गौरी हड़बड़ा गई

"अंजिरी साड़ी?"

उसे याद आया

राणा विक्रमसिंह ने उसे पहली बार इसी रंग की साड़ी में देखा था! और यह बात स्वयं राणा ने ही उसे बताई थी!

"महेश्वर की सेवा तो हो रही है, लेकिन मातृभूमि की सेवा?" "क्या यह कोई संकेत है?"

उसने आगे पढ़ना जारी रखा

"जब कभी तुम्हारी धैर्य-शक्ति डगमगाए, तो केवल अपने आराध्य का नामस्मरण करना

आने वाली शिवरात्रि पर तुम्हें एक बड़ा कार्य पूरा करना होगा, परदेस में हो, तो भागने के मार्ग कम होंगे, ऐसे में, माँ भवानी को स्मरण करना… और अग्नि की शरण जाना.."


गौरी के हाथ काँपने लगे थे

"विद्याधर को यह सब कैसे पता?"

उसने आगे पढ़ा

"यह सब हमें कैसे ज्ञात हुआ यही सोच रही है ना, यह भी महेश्वर की कृपा है भविष्य के संकेत हमें थोड़े-बहुत ज्ञात होते हैं और इसलिए, हम नहीं चाहते कि हमारी भावनाएँ आपके मार्ग में कोई बाधा बनें इसीलिए, हमने यह निर्णय लिया...

गौरी, तुम्हारा प्रेम हमारे हृदय में सदा रहेगा, यही प्रेम हमें जीवन की ऊर्जा देता रहेगा लेकिन तुम्हें कभी अपने क्षत्रिय धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए शस्त्र केवल संहार के लिए नहीं, बल्कि रक्षा के लिए भी होता है… इसे सदा अपने साथ रखना

अब हम विदा लेते हैं

सदैव तुम्हारा,
विद्याधर"


गौरी की आँखों से अश्रु गिरने लगे थे

"तो यही विधिलिखित था?" "राणा विक्रमसिंह से विवाह?" "परदेस में एक नए कर्म की शुरुआत?"



विद्याधर चला गया था… लेकिन उसका यह पत्र, यह आखिरी शब्द… उसका प्रेम सदैव जीवित रहेगा!

गौरी असमंजस में पड़ गई, सैकड़ों प्रश्न उसके भीतर उमड़ने लगे थे, आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे "आखिर यह कैसी परीक्षा थी?"

उसने हस्तलिखित का अगला पृष्ठ पलटा

“तूने निभाई, मैंने भी न तोड़ी,
सखी, ये मर्यादाओं की डोरी।
बदले मौसम कितने ही,
खत्म हुए प्रेम के पर्व सभी,
पर न टूटी कभी
ये मर्यादाओं की डोरी...


यह पढ़ते ही वह टूट गई थी

"जिसकी साँसों में मेरे अस्तित्व की सुगंध है… जिसकी हर धड़कन में मेरा नाम बसा है… उसी की संगति तक न मिले? क्या यही विधिलिखित था?"

रात ढलते-ढलते उसने पूरा हस्तलिखित पढ़ डाला

शास्त्रों के श्लोक, स्तोत्रों के मार्गदर्शन… विद्याधर ने जाते-जाते भी उसे अकेला नहीं छोड़ा था

अब तक, जो गौरी केवल गढ़ की किलाबंदी पर ध्यान देती थी… अब उसने यहाँ के हर व्यक्ति को ध्यान से देखना शुरू किया था

स्वराज्य संकट में था… छत्रपति के विरुद्ध षड्यंत्र रचा जा रहा था… और प्रतापगढ़ के राणा का जीवन भी खतरे में था

गौरी ने संदूक खोला, अपनी छोटी कटार निकाली और कमर में कस ली

महाशिवरात्रि आने में केवल सात दिन शेष थे पर उससे पहले, उसे गढ़ के भीतर छिपे शत्रु को बेनकाब करना था

इस षड्यंत्र की जड़ें खोदनी थीं

आज, पहली बार… उसने केवल महेश्वर ही नहीं, बल्कि विद्याधर को भी मन ही मन स्मरण किया

"तुम नहीं हो, फिर भी मुझे मार्ग दिखाओगे, यह मैं जानती हूँ!"

गौरी, बिना किसी पूर्व सूचना के, सीधे राणा विक्रमसिंह के महल में पहुँची, रास्ते में आते हुए, वह हर सैनिक के उच्चारण को ध्यान से सुन रही थी, भाषा की लय में परिवर्तन… स्वर में कोई असामान्यता… कुछ न कुछ… कहीं न कहीं… गड़बड़ थी!

और तभी…

एक स्वर उसके मन में गूँजा

"ऐसा ही कोई लहजा मैंने पहले भी सुना था… लेकिन कहाँ?"

इसी सोच में डूबी वह महल में प्रवेश कर गई और जैसे ही वह भीतर पहुँची, राणा विक्रमसिंह और मंत्री हरीप्रसाद चौंक गए, परंतु राणा विक्रमसिंह तुरंत ही संभल गए

उन्होंने मंत्री हरीप्रसाद को महल से विदा होने का संकेत दिया और फिर गौरी का स्वागत किया

"पधारिए, राणीसा! आज बिना किसी संदेस के ही महल में पधार गईं?"

गौरी ने हल्के से भौंहें उठाईं और मुस्कराते हुए कहा

"अच्छा… तो अब हमें राणाजी से मिलने के लिए अनुमति लेनी पड़ेगी?"

राणा हँस पड़े

"ना, ना, राणीसा! आप कभी भी आ सकती हैं बैठिए…" फिर उन्होंने सहजता से बात आगे बढ़ाई

"वैसे, देवगढ़ से कृष्णाजी और परिवार के अन्य लोग भी आ रहे हैं"

"जी, संदेसा तो हमें भी प्राप्त हुआ है," गौरी ने बिना किसी विशेष प्रतिक्रिया के उत्तर दिया

"आपके मामासाहब जी भी आ रहे हैं, ना?"

"जी हाँ"

गौरी ने तुरंत राणा विक्रमसिंह की आँखों में एक क्षणिक चमक देखी

उसका हृदय हल्के से काँपा

"यह क्या था?"

वह राणा पर भरोसा करती थी… लेकिन कुछ था जो ठीक नहीं लग रहा था परंतु, बिना किसी भाव-परिवर्तन के, उसने वार्तालाप को सहज बनाए रखा

लेकिन तभी…

"यही वह लहजा है!"

"यही स्वर, यही उच्चारण…!"

उसका मन दौड़ने लगा

"क्या यह सच में राणा विक्रमसिंह हैं?"

"या फिर मेरे ही सुनने में कोई भूल हो रही है?"

तभी…

उसके स्मरण में एक पंक्ति कौंधी

"हर पल नया रूप दिखाए,
झूठ को सच बनाकर जतलाए।
सिरत उसकी खोटी, सुरत जरा भोली,
तुम कान लगाकर सुनना उसकी बोली”

"विद्याधर के ग्रंथ में लिखी यह पंक्तियाँ… क्या यह वही संकेत था?"

गौरी ने बिना किसी घबराहट के साधारण चर्चा जारी रखी फिर, पूर्ण शांति से महल से बाहर निकली

परंतु अब, उसका लक्ष्य स्पष्ट था

देवगढ़ से आने वाले परिवारजन और सरसेनापती मामा को सतर्क करना!

कोई खुला संदेश भेजना असंभव था, यह जोखिम भरा होता, पर गौरी अबोध नहीं थी, उसने एक युक्ति सोची और उसने संदेश भिजवाया

"चंद्रमौली का आशीष मिले, विश्वनाथ हर संकट हरे।
अब प्रतीक्षा और न हो पाए, जल्दी आओ, मन घबराए।"

अब उसे सिर्फ इंतज़ार करना था… क्योंकि… विद्याधर की भविष्यवाणी धीरे-धीरे सत्य हो रही थी!

गौरी ने बस यही कुछ पंक्तियाँ लिखवाकर संदेश भिजवा दिया था

उसे पूरा विश्वास था कि मामा राघोजीराव जैसे ही दीपक के प्रकाश में इस खलिते को पढ़ेंगे, सबकुछ समझ जाएँगे

अब, जब तक उत्तर नहीं आता, उसे खुद यह सुनिश्चित करना था कि आखिर राणा विक्रमसिंह के नाम पर कौन चाल चल रहा है, उसकी गतिविधियाँ तेज़ हो गईं थी,

गढ़ पर आए साधु-संतों से आशीर्वाद लेने का बहाना बनाकर, वह महल से बाहर जाने लगी थी और धीरे-धीरे, उसे पूरी स्थिति समझ आने लगी

गढ़ नजरकैद में था!

चारों ओर वेश बदलकर मुग़ल बादशाह के गुप्तचर घूम रहे थे, गढ़ में एक अदृश्य भय फैला हुआ था लेकिन एक पहेली अब भी हल नहीं हुई थी

"राणा विक्रमसिंह के रूप में आखिर कौन है?"

हर रात, वह "स्नेहित" पढ़ती, हर पंक्ति में छुपे संकेतों को समझने की कोशिश करती इसी बीच, प्रत्याशित उत्तर आ गया था राघोजीराव किसी अभियान के कारण स्वराज्य लौट गए थे अब केवल देवगढ़ से परिवार के अन्य लोग आ रहे थे गौरी ने जैसे ही खलिता पढ़ा, वह तुरंत सतर्क हो गई

"राणा" के हावभाव अचानक बदल गए थे और अब उसे पूरा यक़ीन हो चुका था

"यही शत्रु है!"

लेकिन यह था कौन?

"क्या यह कोई मुग़ल सरदार है? या फिर कोई और?"

इसे जानना ज़रूरी था और उसके पास सिर्फ़ तीन दिन थे

देवगढ़ का काफिला सुबह तक प्रतापगढ़ पहुँचने वाला था, इससे पहले, उसे हर हाल में यह षड्यंत्र उजागर करना था अपने मन में निश्चय कर, गौरी ने राजमाता के महल में संदेश भिजवाया, महल में आने के बाद से, वह सिर्फ़ एक बार राजमाता से मिली थी उसे शुरू से ही, यह कहकर टाल दिया गया था कि

"वह परदेस से आई हैं, इसलिए राजमाता उनसे नाराज़ हैं और स्वास्थ्य कारणों से वह किसी से अधिक नहीं मिलतीं"

उस समय, यह तर्क उसे कुछ अजीब तो लगा था… लेकिन शिवालय के कार्यों में व्यस्त रहते हुए उसने इस पर अधिक विचार नहीं किया था और अब, यही राजमाता उसे इस संकट से उबार सकती थीं! कम से कम, वह उसे कोई मार्गदर्शन अवश्य दे सकती थीं

गौरी , राजमाता के महल में पहुँची

"प्रणाम, माँसा!"

"आईये, गौरीबाईसा!"

"आपसे एक आवश्यक प्रश्न करना था, माँसा…"

"जानु हूँ, घने अंधेरे में राणीसा के सवाल लेकर आई हैं… राणासां की हकीकत… बस, आपने यह पूछने में बहुत देर कर दी"

गौरी एक पल को ठिठक गई

"मतलब?"

राजमाता की आँखों में एक ठहरी हुई गंभीरता थी

"किला नजरकैद में है, और हमारे राणासां भी… और वक्त बहुत कम है"

गौरी ने एक गहरी साँस ली

"आप साफ़-साफ़ बताइए, माँसा! यह सब कौन है? और राणा विक्रमसिंह कहाँ हैं?"

राजमाता ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया

"विक्रमसिंह कैद में हैं… तहख़ाने में"

ये सुनते ही गौरी के पैरों तले ज़मीन खिसक गई

"तो फिर, उनकी जगह यह कौन है?"

"यह…"

"यह मुग़ल बादशाह का बेटा जफरउद्दीन है! वह राणा का वेश धरकर यहाँ आया है!"

राजमाता ने आगे जो बताया, वह गौरी के लिए एक भयानक सत्य था, दक्षिण से लौटते समय, अपने ही कुछ विश्वासघाती सरदारों के कारण राणा विक्रमसिंह को पकड़ लिया गया था और उनकी जगह जफरउद्दीन प्रतापगढ़ पहुँचा और… चूँकि राणा और जफरउद्दीन की आकृति काफ़ी हद तक मिलती-जुलती थी, इसलिए किसी को संदेह नहीं हुआ साथ ही, वह कई भाषाओं में निपुण था, संस्कृत, मराठी, राजस्थानी, और दख्खनी हिंदुस्तानी इसलिए, गढ़ के भीतर किसी को भी उसकी भाषा में कोई अंतर महसूस नहीं हुआ, वह पूरी तरह से विक्रमसिंह का स्वरूप धारण कर चुका था

और अब…

प्रतापगढ़ पूरी तरह से उसकी मुट्ठी में था! मंत्रिमंडल और स्वयं राजमाता नजरकैद में थे!

अब गौरी को समझ आया कि देवगढ़ में पड़ाव डालना और उससे विवाह का प्रस्ताव रखना… यह जफरउद्दीन की पहली चाल थी! प्रतापगढ़, जो अपनी भौगोलिक संरचना के कारण किसी की नज़र में नहीं आता था, वह जफरउद्दीन के लिए एक महत्त्वपूर्ण जीत थी परंतु, इससे भी अधिक…

उसका असली उद्देश्य था… मराठा छत्रपति को नामोहरम करना!

गौरी की माँ, चंद्रप्रभाबाई, मराठा सेनापति राघोजीराव देशमुख की मानिहुई बहन थीं इस कारण, जाधव और देशमुख परिवारों के संबंध अत्यंत निकट थे साथ ही, राघोजीराव को गौरी से विशेष स्नेह था

यही जफरउद्दीन की चाल थी!

वह जानता था कि यदि राघोजीराव को प्रतापगढ़ आने का निमंत्रण दिया जाए, तो वह इसे अस्वीकार नहीं करेंगे इसीलिए, जब वह सोच रहा था कि गढ़ में कौन सा उत्सव आयोजित किया जाए, जिससे उसे अपनी योजना सफल करने का अवसर मिले… और ऐसे मे गौरी ने स्वयं ही शिवालय बनवाने की बात छेड़ दी!

यह उसके लिए एक सुनहरा अवसर था! यदि राघोजीराव को कैद कर लिया जाए, तो छत्रपती तक पहुँचना सरल हो जाएगा क्योंकि… छत्रपति स्वराज्य के सेनापति को छुड़ाने अवश्य आएँगे… और तभी उन पर घातक आघात किया जा सकता था!

असल में, जफरउद्दीन ने पहले ही देवगढ़ में हमला करने की योजना बनाई थी लेकिन… उसी समय राघोजीराव विवाह में नहीं पहुँच पाए, और उसकी योजना विफल हो गई थी...

अब… उसने राजमाता के समक्ष एक संधि का प्रस्ताव रखा किन्तु… यह संधि नहीं, बल्कि एक और छल था! विक्रमसिंह की कैद के बाद, राजमाता ने उनकी रिहाई के लिए संधि करने की सहमति जताई तो जफरउद्दीन ने स्पष्ट कहा था कि यदि राजमाता ने इस योजना में सहयोग किया, तो वह राणा को मुक्त कर देगा

परंतु…

राजमाता को यह स्वीकार नहीं था लेकिन… जब जफरउद्दीन ने यह धमकी दी कि यदि उन्होंने विरोध किया, तो विक्रमसिंह को मृत्यु दंड दिया जाएगा, तो अंततः उनका मनोबल भी झुक गया

"राजपूतानी संस्कारों पर प्राण न्योछावर करने वाली माँ… आज अपने पुत्र के लिए झुक गई थी!"

जब यह सब घटित हो रहा था, तब गौरी गढ़ में ही थी… पर उसे इसकी भनक तक नहीं लगी! अब, जब यह सत्य उसके सामने था, तो सभी संदर्भ स्पष्ट होते गए

अचानक राणा का देवगढ़ आना… उससे विवाह का प्रस्ताव रखना … राजपरिवार द्वारा उससे दूरी बनाए रखना…

सब कुछ केवल एक योजना थी!

गौरी को अब एक और महत्वपूर्ण शिक्षा मिली रणनीति सीखना और उसे वास्तविक युद्ध में लागू करना, दोनों में आकाश-पाताल का अंतर होता है!"

उसने राघोजीराव पर आने वाले संकट को तो टाल दिया था, पर अब विक्रमसिंह को छुड़ाने की जिम्मेदारी भी उसके कंधों पर आ गई थी

परंतु…

क्या यह कार्य वह अकेले कर पाएगी? गौरी ने गहरी साँस ली और राजमाता की ओर देखा

"माँसा, आप चिंता मत कीजिए, हम आपके राणासां को कैद से बाहर लेकर ही आएँगे! अब हमें चलना चाहिए… आप अपना ध्यान रखिए, प्रणाम!"

राजमाता ने उसे आशिर्वाद दिया

अब, उनके मन में भी थोड़ी-सी आशा जागी थी, देवगढ़ से सभी लोग प्रतापगढ़ पहुँच गए थे, राणा से भेंट करने के बाद, सभी सीधे गौरी के महल में पहुँचे जहा गौरी ने संक्षेप में आबासाहेब (कृष्णाजी) को पूरी सच्चाई बता दी

वही कृष्णाजी पहले से ही तैयारी के साथ आए थे!

साधु-संतों के भेष में कुछ मराठा सैनिक पहले ही गढ़ में प्रवेश कर चुके थे और स्वयं राघोजीराव, वेश बदले हुए सैनिकों की टुकड़ी लेकर आने वाले थे

अब, गौरी ने ‘स्नेहित’ का पाठ शुरू किया

"शत्रु को पहचानना कठिन था, पर उससे विजय पाना और भी कठिन था!"

शाम ढलते ही, गढ़ में यह सूचना पहुँची कि ऋषिकेश से नारायण स्वामी अपने शिष्यगणों के साथ प्रतापगढ़ पधारे हैं

गौरी ने यह समाचार सुना तो उसका हृदय प्रसन्नता से भर उठा!

अंततः, जो कार्य विद्याधर के वियोग से आरंभ हुआ था… वह उसी की उपस्थिति से सिद्ध होने वाला था!

गौरी तुरंत स्वामी नारायण के दर्शन के लिए पहुँची

"प्रणाम, स्वामीजी!"

स्वामी ने आशिर्वाद देते हुए कहा

"शुभं भवतु! शुभं भवतु!"

स्वामी जी के साथ महाशिवरात्रि के आयोजन की योजना बनाते हुए भी, गौरी की आँखें किसी और को ही तलाश रही थीं… और अंततः उसे वह दिख ही गया!

विद्याधर! उसे देखते ही गौरी ने उसने चरणों मे झुकते हुए उसे प्रणाम किया और विद्याधर ने शांत भाव से उसका अभिवादन स्वीकार करते हुए कहा "कल्याणमस्तु!"

गौरी ने एक गहरी साँस ली और कहा "सिर्फ़ दो दिन शेष हैं… लेकिन अब तक कोई मार्ग स्पष्ट नहीं!"

विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा "चिंता न करें नारायण स्वामी इसके लिए ही आए हैं बस, महेश्वर पर विश्वास रखें"

गौरी अभी भी असमंजस में थी

"लेकिन…"

"अब मन में कोई किंतु न रखें, धरती के गर्भ में छुपा रहस्य शीघ्र ही प्रकट होगा, आप निश्चिंत रहें!"

गौरी ने उसकी ओर देखा, विद्याधर की आँखों में अडिग विश्वास झलक रहा था, उसने सिर झुका लिया

"ठीक है, यदि आप कह रहे हैं, तो मैं कोई संशय नहीं रखूँगी"

योजना यह थी कि पूजा के समय केवल जफरउद्दीन, गौरी , नारायण स्वामी और भक्तगण ही मंदिर के गर्भगृह में रहेंगे इनके अलावा वहा और कोई नहीं होने वाला था पूजा की तैयारियाँ आरंभ हो गईं थी और गौरी ने नारायण स्वामी और उनके अनुयायियों को पुनः प्रणाम किया, फिर महल की ओर चल पड़ी

दूसरी ओर…

जफरउद्दीन, राघोजीराव के न आने से बौखला गया था, उसके भीतर अब क्रोध की ज्वाला धधक रही थी!

"पूजा समाप्त होते ही, गौरी और देवगढ़ से आए सभी लोगों को कैद कर लेना है!" उसने अपने विश्वासपात्र हरीप्रसाद को आदेश दिया

"हमें किसी भी कीमत पर राघोजीराव और छत्रपती को यहाँ बुलाना होगा! और विक्रमसिंह… उसे खत्म कर दो साथ ही उसकी अम्मी को भी!”

जफरउद्दीन की बात सुन शिवप्रसाद ने सिर झुकाकर कहा

"लेकिन, जहाँपनाह… यह कार्य हमें पूजा के दौरान ही करना होगा, इससे पहले हमला करना उचित नहीं होगा, जब तक महल में बाहरी लोग आते-जाते रहेंगे, तब तक यह संभव नहीं, लेकिन जैसे ही पूजा प्रारंभ होगी, सभी लोग बेखबर होंगे… और तब… कार्य को अंजाम देना आसान होगा!"

हरिप्रसाद की बात सुन जफरउद्दीन के होठों पर एक क्रूर मुस्कान उभर आई

"तो ठीक है… सब सैनिकों को सतर्क कर दो अब नजरकैद नहीं होगी… अब असली कैद होगी!"

"जी, जहाँपनाह!" जफरउद्दीन को सलाम कर, हरीप्रसाद महल से बाहर निकल गया

उधर…

गौरी को भली-भाँति ज्ञात था कि जफरउद्दीन किसी को इतनी आसानी से मुक्त नहीं करेगा, अब उसके विचारों की गति और तीव्र हो गई थी जफरउद्दीन को समाप्त करने की योजना उसके मन में आकार लेने लगी थी

लेकिन… पहले विक्रमसिंह को मुक्त कराना आवश्यक था!

कृष्णाजी पहले से ही योजना तैयार कर चुके थे मराठा सैनिकों को विशेष निर्देश गुप्त रूप से भेजे जा चुके थे, गढ़ में पहले से मौजूद वेश बदलकर आए मराठा सैनिक अब पूर्ण रूप से इस मिशन में सक्रिय हो चुके थे

अब… विक्रमसिंह को कैद से छुड़ाने के मार्ग तैयार किए जाने लगे थे!

साधु के वेश में आए योद्धा धीरे-धीरे प्रतापगढ़ के सैनिकों की तरह महल में विचरण करने लगे थे और इससे तहखाने तक पहुँचने का रास्ता सहज बन गया था

इधर, गौरी के महल से वैदिक मंत्रों का स्वर गूँजने लगा था, यज्ञ की कुछ विशेष विधियाँ केवल नारायण स्वामी, उनके शिष्यों, राणा और राणीसा की उपस्थिति में संपन्न होनी थी ऐसा संदेश महल में भेजा गया

अब गौरी को पूर्ण विश्वास हो गया था की "अब कार्य सिद्ध होगा!"

रात के अंधकार में, गुप्त योजना साकार होने लगी थी… इसी बीच विक्रमसिंह को कैद से मुक्त कर दिया गया था और उनकी जगह एक सैनिक को उनके वेश में बंदी बनाकर रखा गया था गनिमी कावा (छल-युद्ध) का पूरा उपयोग किया जा रहा था!

शत्रु के पहरेदारों को मोहित किया गया, छला गया, और आवश्यकता पड़ने पर… नष्ट कर दिया गया

शिवरात्रि का सूर्योदय होने से पहले ही… शत्रु को कोई सूचना भी नहीं मिल पाई थी और मराठाओ ने अपनी योजना पूरी तरह सफल कर दी थी!

इसका संदेश गौरी , नारायण स्वामी और विद्याधर तक पहुँचा दिया गया था वही इस सबसे अनभिज्ञ… जफरउद्दीन अपने महल में गहरी निद्रा में था

लेकिन… अब… उसके लिए यह निद्रा ही अंतिम सिद्ध होने वाली थी!

ब्राह्ममुहूर्त का वक्त हो चला था…

शिवालय में जफरउद्दीन को समाप्त करने की अंतिम योजना साकार हो रही थी! गौरी , जफरउद्दीन के साथ शिवालय पहुँची तो आज वह लाल जरी की भारी पोशाक में थी… सोने और हीरों के आभूषणों से सजी हुई… एक नववधू के समान....

परंतु…

उसकी आँखें केवल महेश्वर के समक्ष एक ही प्रार्थना कर रही थीं "अब केवल बल दो… इस अंतिम युद्ध को लड़ने का!"

उधर, जफरउद्दीन ने भी शिवालय में ही गौरी को कैद करने का निश्चय कर लिया था और… वह पूरी तैयारी के साथ, शस्त्र धारण कर शिवालय में पहुँचा था!

अब… अंतिम युद्ध आरंभ होने ही वाला था!

यज्ञ का शुभारंभ हुआ… महेश्वर की प्राणप्रतिष्ठा संपन्न हुई… पंचनदियों के पवित्र जल से, दुग्ध से अभिषेक किया गया… धूप और दीपों की सुगंध से वातावरण गूंज उठा

नारायण स्वामी गंभीर स्वर में रुद्राष्टक का पाठ कर रहे थे और प्रत्येक आहुति के पश्चात… विद्याधर, जफरउद्दीन को अभिमंत्रित जल आचमन के लिए दे रहा था, जल का प्रभाव धीरे-धीरे जफरउद्दीन पर स्पष्ट होने लगा था तभी नारायण स्वामी ने विद्याधर को कुछ संकेत दिया और बोले

"राणा और राणीसा के साथ भवानी मंडप जाएँ… और अखंड धूनी से अग्नि ले आएँ"

दूसरी ओर… भवानी मंडप में, पुरोहितों के वेश में स्वयं राघोजीराव और राणा विक्रमसिंह बैठे थे!

जैसे ही जफरउद्दीन ने भवानी मंडप में प्रवेश किया, विद्याधर ने द्वार बंद करते हुए सैनिकों को बाहर ठहरने का आदेश दिया वही जफरउद्दीन को देखते ही राणा ने आगे बढ़कर व्यंग्य भरे स्वर में कहा

"पधारिए, राणासा… नहीं-नहीं… शहजादे जफरउद्दीन!"

जफरउद्दीन, जो अभी तक अर्धचेतन अवस्था में था, अचानक चौंककर बड़बड़ाने लगा

"कौन? कौन?"

"हमें पहचाना नहीं, शहजादे? हम राणा विक्रमसिंह! और यह रहे सरसेनापती राघोजीराव, जिन्हें आप कैद करना चाहते थे!"

जैसे ही जफरउद्दीन ने राघोजीराव का नाम सुना, उसने अपने अंगरखे से तलवार खींची और अर्धमूर्छित अवस्था में भी त्वरित उन पर झपट पड़ा!

किन्तु…

गौरी पहले ही सावधान थी वह बिजली की गति से आगे बढ़ी… और उसने अपनी कटार जफरउद्दीन के सीने में उतार दी!

सटीक, गहरा वार!

जफरउद्दीन लड़खड़ाया

उसकी आँखों में एक क्षणिक भय और विस्मय का भाव आया

"एक स्त्री के हाथों… पराजय?"

यह विचार आते ही… उसने अंतिम साँस ली… और भवानी मंडप की अखंड धूनी के पास भूमि पर गिर पड़ा! उसे संभलने तक का अवसर नहीं मिला था... और जैसे ही जफरउद्दीन जमीन पर गिरा राघोजीराव ने संकेतस्वरूप घंटानाद किया… जिसके साथ ही विक्रमसिंह की सेना और माराठाओ ने जफरउद्दीन के आदमियों को चारों ओर से घेर लिया!

प्रतिकार करने से पहले ही, गद्दारों के सिर धड़ से अलग हो चुके थे!

विद्याधर ने भवानी मंडप के द्वार खोल दिए थे और… हाथ में रक्तरंजित कटार लिए, गौरी भवानी मंडप से बाहर निकली

उसका घूँघट तो कब का हट चुका था, क्रोध से लाल आँखें हाथ में रक्त से सना शस्त्र... आज… वह साक्षात रणचंडी का अवतार लग रही थी!

स्वराज्य और महेश्वर के प्रति उसकी साधना पूर्ण हुई थी! राणा विक्रमसिंह ने जफरउद्दीन की सेना के साथ-साथ गढ़ के गद्दारों को भी कारागृह में डालने का आदेश दे दिया था!

जब पूरी घटना प्रजा को ज्ञात हुई, तो गढ़ गूँज उठा

"राणीसा की जय हो!"

"गौरी बाईसा की जय हो!"

गौरी ने संतोष से विद्याधर की ओर देखा और फिर… प्रजा को नमन कर, वह शिवालय की ओर बढ़ गई

शिवालय में…

नारायण स्वामी ने प्राणप्रतिष्ठा कर, यज्ञ को पूर्ण कर दिया था परंतु… जब गौरी गाभार में पहुँची, उसके आँसू अनवरत बहने लगे, संघर्ष समाप्त हो चुका था… लेकिन आगे की राह और कठिन थी!

वह राणीसा बनकर तो आई थी… परंतु… विवाह जफरउद्दीन से हुआ था! इसलिए… प्रतापगढ़ में राणा विक्रमसिंह की पत्नी बनकर रहना संभव नहीं था और… विद्याधर के साथ जाना भी समाज की परंपराओं के विरुद्ध था

"क्या मुझे देवगढ़ लौट जाना चाहिए?" यह विचार आया… परंतु उसी क्षण, मन ने तीव्रता से इनकार कर दिया!

असंख्य प्रश्नों ने उसके मन में उथल-पुथल मचा दी थी रणभूमि में अदम्य साहस दिखाने वाली गौरी इस क्षण निःशक्त महसूस कर रही थी

विद्याधर गाभार में आया

"गौरी… शांत हो जाओ, मैं तुम्हारी स्थिति समझता हूँ, पर यह विधिलिखित था… इसलिए, अपने आँसुओं को रोको"

गौरी ने उसकी आँखों में देखा

"और? और मैं इन आँसुओं को रोककर क्या करूँ, विद्याधर?" उसकी आवाज़ मे कंपन था और दृष्टि विद्याधर पर टिकी थी

"केवल नामस्मरण करो, गौरी! एक योद्धा कभी इस तरह कमजोर नहीं पड़ता!"

गौरी की आँखों में असहायता झलक उठी

"हम सिर्फ़ योद्धा नहीं, विद्याधर… हम इंसान भी हैं! हमारे भीतर भी भावनाएँ हैं! तुम सब कुछ जानते थे, फिर भी हमें अकेला छोड़ दिया! क्यों झोंक दिया हमें इस नियति के चक्र में? और अब, आगे का मार्ग भी तुम ही बताओ! क्योंकि वह भी तुम्हें ज्ञात होगा, है ना?"

विद्याधर मौन रहे

"गौरी, विधिलिखित का ज्ञान होना एक बात है… पर उसे बदलने की शक्ति हमारे पास नहीं! अगर होती, तो हम इस क्षण यहाँ नहीं होते! लेकिन फिर भी, हमें क्षमा करो, गौरी!"

गौरी ने आँसू रोकते हुए दृढ़ स्वर में कहा

"नहीं, विद्याधर! तुम्हें क्षमा माँगने की आवश्यकता नहीं बस… मार्ग दिखाओ!"

विद्याधर कुछ क्षण शांत रहे और फिर, उन्होंने बस अपना हाथ गौरी के मस्तक पर रखा

और उसी क्षण,

गौरी को "स्नेहित" में लिखी विद्याधर की पंक्तियाँ याद आ गईं

"माँ भवानी की शरण में जाओ… अग्निदेव की शरण में जाओ!"

उसने तुरंत दासी को आदेश दिया

"महल से 'स्नेहित' ले आओ! मुझे अपना मार्ग मिल चुका है!"

विद्याधर और उपस्थित सभी लोगों के आशीर्वाद के साथ, वह भवानी मंडप की ओर बढ़ी पर इस बार… विद्याधर ने उसे रोक लिया

"गौरी, तुम्हारे साथ जीवन अगर नीति-विरुद्ध है… तो मृत्यु पर तो कोई नियम लागू नहीं होता! इसलिए, अब हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे!"

उन्होंने सभी को प्रणाम किया

और…

दोनों भवानी मंडप की ओर बढ़ गए, उनका साथ चलना ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो दो सशक्त अस्तित्व एक दिशा में बढ़ रहे हों!

चंद्रप्रभाबाई, कृष्णाजी और राघोजीराव ने उन्हें रोकने का प्रयास किया पर… नारायण स्वामी ने उन्हें रोक दिया!

भवानी मंडप में… विद्याधर और गौरी अखंड धूनी में बैठ गए

"स्नेहित" को हृदय से लगा कर… अग्नितर्पण के लिए तैयार!

गौरी के मुख से अपने महेश्वर को समर्पित तेजस्वी स्तोत्र गूंजने लगे

संपूर्ण गढ़ जयजयकार के उद्घोष से गूँज उठा था! भवानी मंडप की अखंड धूनी तीव्र होने लगी थी…

और… मंत्रों घोष धीरे-धीरे मंद पड़ने लगा था!

अग्नि के गर्भ में… विद्याधर और गौरी … एक साथ विलीन हो गए थे! अपने कर्म और कर्तव्य को सार्थक करते हुए... पुनर्जन्म लेने के लिए.... एकरूप होने के लिए...

समाप्त

Bahut hi gazab ki story he Adirshi Bhai,

Ek ek patr sajiv hokar aankho me samne chal rahe tha........

Simply awesome
 

ARCEUS ETERNITY

"अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च।"
Supreme
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4,195
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Writer Aakash.

Tujhse Shuru Tujhpar Khatm"
आप की लेखनी कवितामय लगी।
कहानी का नरेशन (narration) गहरा है ।
लिखावट में शब्दो का चयन अच्छा किया है आपने
कहानी की शुरुआती पकड़ कम लगी ।
मुख्य नायिका का नाम ही पता नहीं लगा हमे। पहले श्रुति को नायिका समज बैठा था ।
कहानी अच्छी है पर रोमांस के जेनर में लिखी गई पर रोमांस के दृश्य कम लगे ।
सबसे महत्वपूर्ण बात कहानी में यादों का संगम बैठाया था पर यादों के चक्र में कहानी की पकड़ कमजोर हो गई
इस नरेशन की साथ अगर कहानी को सिंपल होती तो और अच्छी बनाई जा सकती थी ।

कहानी का अंतिम हिसा( लड़की की लाश को देख के) वह दृश्य बहुत भावनात्मक था , उस दृश्य को देख मन में भावुक भाव उमड़ पड़े।

कहानी की सबसे अच्छी बात की वह जब समाप्ति की ओर जा रही थी, जैसी कल्पना की थी वैसी ही समाप्त होती है ।

कहानी की sabse खास बात की जो इमोशनल दृश्य लिखे वे बहुत अच्छे थे ।

6/10 rating

Aakash. Bro its a good story
 

ARCEUS ETERNITY

"अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च।"
Supreme
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Story- कलंक
Aakash.
कहानी अच्छी है शुरुआत से पकड़ बनाए रखती है कहीं भी ऐसा नहीं लगता की कहानी बोर करती है
कहानी में सामाजिक मुद्दा भी उठाया है कि AI के द्वारा बनाए गए फोटो से एक लड़की की जिंदगी बर्बाद हो गई ।
कहानी में डिटेल्स भी बढ़िया दी गई हैं भाषा ओर शैली भी बढ़िया हैं एक दो शब्द के मीनिंग (मतलब) समझ नहीं आए पर इतना चलता है

कहानी सरल है एक बार पढ़ने बैठो तो समाप्त करके ही उठो कोई भी पैराग्राफ दोबारा समझने के लिए पढ़ना नहीं पड़ा।

कहानी में भाव को भी अच्छा दर्शाया गया है चाहे वो दुःख भरा या खुशनुमा हो।

कहानी का शायद सुखद अंत भी हो सकता था पर उससे कहानी कि लम्बाई पर भी असर पड़ता और वह प्रेडिक्टेबल समापन होता ।

कहानी में विलन को उसके किए का परिणाम मिला चाहिए था , एक और उदाहरण भी मिलता की बुरा किया है तो सजा भी मिलेगी ।

रेटिंग 6.5 /10
Its a very good story, you can read its multiple times
 

Samar_Singh

Conspiracy Theorist
4,535
6,175
144
Story : "Tujhse Shuru Tujhpar Khatam"
Writer : Aakash.

Review

USC ki shuruaat ek behatreen kahani se hui hai. Padhte samay aisa laga jaise kisi shayar ki gazal chal rahi hai, pura kavitamay mahaul tha.

Kahani ka narration bhi bahut acha aur jodkar rakhne wala tha, jis tarah ke shabdo ka istemal kiya uske liye tareef ke kabil ho.

Bhawnatmakta se paripurn kahani, accident ke baad wala scene bhi kafi emotional kar dene wala tha.

Kahani jo ateet aur vartman ke sath khelti hai aur drishya baar baar badalte hai woh kahani me aur jhakne ke liye majboor karte hai.

Halaki ye hi kuch kuch jagah confusion paida karte hai. Kahani ki heroine kaun hai ye kaiyo ko samjhna mushkil ho shayad se.

Dusra jo bhi corporate meeting ke drishya the unki ahmiyat ujagar nahi hoti sahi se, unki jagah agar nayak nayika ke kirdar ko aur samay milta to acha lagta.

Ant me ek khubsurat Bhavuk kahani, aur kai baar padhe jane layak. 😊

Rating - 7.5/10
 
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ARCEUS ETERNITY

"अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च।"
Supreme
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vakharia घोर पाप - एक वर्जित प्रेम कथा

सबसे पहले कहानी एडल्ट सेक्स genre की है ओर इस प्रकार की कहानिया अब में कम पढ़ता हु पर ये कहानी पढ़ी है बहुत अच्छी भी है

मेरे हिसाब से इस कहानी में शायद एक भी अंग्रेजी और उर्दू शब्द नहीं मिलेगा। शुद्ध हिंदी जो कि काबिलियत तारीफ है।

कहानी में गहरा वर्णन किया गया जो इस कहानी को और अच्छा बनाता है।

कहानी को धीरे धीरे आगे बढ़ाया जाता है वो भी एक कम शब्दो कि रचना में वाह! बढ़िया ।

कहानी अपनी पकड़ अच्छी रखती है कहीं से भी ये नहीं लगता कि कहानी की गति कम या ज्यादा है।

एक ही नकारात्मक प्वाइंट है कि कहानी सेक्स पर आधारित है तो उसे थोड़ा सा ओर screen play देना था
बाकी स्टोरी बहुत अच्छी थी

पांडु लिपि की रचनाओ का विचार और जो लिपि लिखी गई वो भी अच्छी थीं।


पाठक अगर आप सिर्फ सेक्स के लिए ये कहानी पढ़ रहे हो तोह ये आपके लिए है।

Rating 7/10

vakharia its a too good story
 
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