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Shayari शायरी और गजल™

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे,
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत तिरे नाम तक न पहुँचे!

मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी,
तिरा हाथ ज़िंदगी भर कभी जाम तक न पहुँचे!

वो नवा-ए-मुज़्महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन,
वो सदा-ए-अहल-ए-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे!

मिरे ताइर-ए-नफ़स को नहीं बाग़बाँ से रंजिश,
मिले घर में आब-ओ-दाना तो ये दाम तक न पहुँचे!

नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे!

ये अदा-ए-बे-नियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक,
मगर ऐसी बे-रुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे!

जो नक़ाब-ए-रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे!

उन्हें अपने दिल की ख़बरें मिरे दिल से मिल रही हैं,
मैं जो उन से रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे!

वही इक ख़मोश नग़्मा है 'शकील' जान-ए-हस्ती,
जो ज़बान पर न आए जो कलाम तक न पहुँचे!
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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किया है प्यार जिसे हम ने ज़िंदगी की तरह,
वो आश्ना भी मिला हम से अजनबी की तरह!

किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी,
छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह!

बढ़ा के प्यास मिरी उस ने हाथ छोड़ दिया,
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल-लगी की तरह!

सितम तो ये है कि वो भी न बन सका अपना,
क़ुबूल हम ने किए जिस के ग़म ख़ुशी की तरह!

कभी न सोचा था हम ने 'क़तील' उस के लिए,
करेगा हम पे सितम वो भी हर किसी की तरह!
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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यूँ तुझे ढूँढने निकले की ना आये खुद भी,
वो मुसाफ़िर की जो मंजिल थे बजाये खुद भी!

कितने ग़म थे की ज़माने से छुपा रक्खे थे,
इस तरह से की हमें याद ना आये खुद भी!

ऐसा ज़ालिम की अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म,
हमसे रह जाए तो वो याद दिलाये ख़ुद भी!

लुत्फ़ तो जब है ताल्लुक में की वो शहर-ए-जमाल,
कभी खींचे, कभी खींचता चला आये खुद भी!

ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिये रंग-ए-महफ़िल,
सबको मदहोश करे होश से जाए खुद भी!

यार से हमको तग़ाफ़ुल का गिला क्यूँ हो के हम,
बारहाँ महफ़िल-ए-जानां से उठ आये खुद भी!
 

Mr. Perfect

"Perfect Man"
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143
Waahh TheBlackBlood bhai what a shayri______

यूँ तुझे ढूँढने निकले की ना आये खुद भी,
वो मुसाफ़िर की जो मंजिल थे बजाये खुद भी!

कितने ग़म थे की ज़माने से छुपा रक्खे थे,
इस तरह से की हमें याद ना आये खुद भी!

ऐसा ज़ालिम की अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म,
हमसे रह जाए तो वो याद दिलाये ख़ुद भी!

लुत्फ़ तो जब है ताल्लुक में की वो शहर-ए-जमाल,
कभी खींचे, कभी खींचता चला आये खुद भी!

ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिये रंग-ए-महफ़िल,
सबको मदहोश करे होश से जाए खुद भी!

यार से हमको तग़ाफ़ुल का गिला क्यूँ हो के हम,
बारहाँ महफ़िल-ए-जानां से उठ आये खुद भी!
 

TheBlackBlood

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी,
आप से तुम तुम से तू होने लगी!

चाहिए पैग़ामबर दोने तरफ़,
लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी!

मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई,
उनकी शोहरत की क़ू-ब-कू़ होने लगी!

नाजि़र बढ़ गई है इस क़दर,
आरजू की आरजू होने लगी!

अब तो मिल कर देखिए क्या रंग हो,
फिर हमारी जुस्तजू होने लगी!

‘दाग़’ इतराए हुए फिरते हैं आप,
शायद उनकी आबरू होने लगी!
 
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