अपडेट 4अभि कल से स्कूल जाने की तैयारी मे था। वो अपने कमरे में बैठा स्कूल की कताबों को देखते हुऐ कुछ सोचने लगा...
__वो तो है अलबेला__
"मैं कह रही हूं ना, की तू स्कूल जा।"
"आज रहने ने दे ना मां, तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही हैं, बड़ी जोर से मेरा सर दुख रहा है, और आज अमन भी तो नहीं गया है स्कूल।"
"अमन की तो सच में तबियत ख़राब है, मैं देख कर आ रही हूं। वो तेरी तरह बदमाश और झूंठा नही है। चुप चाप से स्कूल जा, नही तो पिटाई करना शुरू करूं।"
"नहीं मां, तू मार मत, मैं जा रहा हूं स्कूल। तू मरती है तो मुझे अच्छा नहीं लगता,, एक बात पूंछू मां??"
"हां पूंछ, मगर ढंग की बात पूंछना।"
"तू मुझसे ज्यादा अमन को चाहती है ना?"
"मैं बोली थी ना तुझसे, ढंग का सवाल पूछना। मगर तेरे खोपड़ी में कोई बात घुसती नहीं है, अब इससे पहले की मेरी खोपड़ी घूमे, तू जा जल्दी स्कूल।"
..।l. अभि बेटा आकार खाना खा ले।"
ये आवाज सुनते ही, अभि अपने सपनो की दुनियां से वापस वर्तमान में आ जाता है। उसे रेखा ने आवास लगाई थी , खाना खाने के लिए ।
अभि अपने किताबों को स्कूल बैग में डालते हुए, अपने कमरे से बाहर निकल कर हाल के आ जाता है खाना खाने के लिए । अभि टेबल पर बैठा चुप चाप खाना खा रहा था और रेखा , उसे प्यार से खाना परोस रही था । अभि ने एक नजर रेखा की तरफ देखा और चुप चाप खाना खाने लगा ।
रेखा --"आज मैने तेरे लिए आलू के पराठे बनाए है, कैसे हैं। बता ना?"
अभि पराठा खाते हुऐ बोला....
अभि --" हम्मम.....वाकई काफी बढ़िया बना हैं। मेरी मां भी मेरे लिए पराठा बनाया करती थी, मुझे उनके हाथों का पराठा बहुत पसंद था, पर फिर धीरे-धीरे उन हाथों से पराठा बननबने हों गया, जो हाथ मुझे नवाला खिलाने के लिए उठते थे , वही हाथ मेरे धीरे -धीरे मुझ पर उठने लगे।"
रेखा वहीं खड़ी अभि की बात सुन रही थी, वो कुछ समझ नहीं पा रही थी । इसलिये वो आश्चर्य भारी आवाज में बोल पड़ी...
रेखा --" तू क्या कह रहा है मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है अभि।"
ये सुन कर अभी अपने चेहरे पर एक झूठी मुस्कान लेट हुए बोलो....
अभि --"कुछ बातें ना समझ में आए , वही बेहतर होता है आंटी। नहीं तो दिल में किसी कांटे की तरह ऐसे चुभता है की , उसकी चुभन जिंदगी भर असर करती रहती है।"
अभी की बातें रेखा के लिए समझ पाना बहुत मुश्किल था। तभी उसने देखा की अभि का चेहरा काफी उदासी में मुरझा सा गया है। वो अभी से इन सब सवालों का जवाब जानने की कोशिश पहले दिन ही की था, मगर अभी भड़क गया था। इसी लिए वो अभी को और परेशान नहीं करना चाहती थी। मगर वो अभी का उदास चेहरा देख कर साफ तौर पर समझ चुकी थी की सरूर अभी किसी बात से दुखी है। इसलिए रेखा ने बात को घुमाते हुए बोली...
रेखा --"अरे तू भी ना, ना जाने कौन सी बातें ले कर बैठ गया है, छोड़ती वो सब और चुप बाप खाना खा। मैं पूछूंगी तो नही, क्यूंकि मुझे पता है तू बताएगा नही, तो फिर उन बाटोंपा मिट्टी डाल दे बेटा, जो हो गया से हो गया , अब उन बातो को याद कर के तकलीफ क्यूं सहनी??"
अभि ने रेखा की बात तो सुनी जरूर मगर कुछ बोला नहीं, और चुप छापने अपना पराठा खाने लगा....
क्या बता बेचारा, वो बातें, या वो यादें, जो हर पल याद आते ही अभि के दिल को अंदर ही अंदर रुला देती थी। क्या कहे वो किसी से? वो तो खुद अपने आप से कुछ नहीं कह पा रहा था। हर पल, है घड़ी बस यही अपने आप से कहेता रहता था की, जरूर ये कोई सपना है। पर अब तो उसे भी लगने लगा था की , शायद सपने भी अपनी मां से इतना प्यार करते है की , वो किसी को ऐसा सपना नही दिखते, जिन सपनो में मां बुरी हो। अभि की आंखे नाम थी, उसकी आंखों के समंदर में हजारों सवाल उस किनारे पर बैठे, लहरों से जवाब मांगने के इंतजार में थे , जिस किनारे पर वो लहरें कभी आती ही नहीं....
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"ये क्या बात हुई मुखिया जी, किं ठाकुराइन ने हमे हमारा खेत देने से इंकार कर रही है। हम खाएंगे क्या? एक हमारा खेत ही तो था। जिसके सहारे हम सब गांव वाले अपना पेट पालते है। अब्बागर ठाकुराइन ने वो भी ले लिया तो , हम क्या करेंगे ?"
गांव में बैठी पंचायत के बीच एक 45 सालबका आदमी खड़ा होकर बोल रहा था। पंचायत में भीड़ काफी ज्यादा थी। सब लोग की नज़रे मुखिया जी पर ही अटकी था।
"और ये मुखिया क्या बोलेगा? मुखिया थोड़ी ना तुम लोग को कर्ज दिया है, चना खिला के!! अरे कर्ज तो तुम लोग ने ठाकुरानी से लिया था। तो फैसला भी ठाकुराणी ही करेंगी ना। चना खिला के!!
और ठाकुराइन ने फैसला कर लिया है। की अब वो जमीन उनकी हुई, जिनपर वो एक कॉलेज बनवाना चाहती है....समझे तुम लोग....चना खिलाने ।"
"पर मुनीम जी, ठाकुराइन ने तो हम्बाब गांव वालोंसे ऐसा कुछ नही कहा था"
"तुम लोगो को ये सब बात बताना जरूरी नहीं, समझे!!"
इस अनजान आवाज़ ने गांव वालोंका ध्यान केंद्रित किया, और जैसे ही अपनी अपनी नज़रे घुमा कर देखें, तो पाया की ठाकुर रमन सिंह खड़ा था। ठाकुर को देखते ही सब गांव वाले अपने अपने हाथ जोड़ते हुए गिड़गिड़ाने लगे...
"ऐसा जानकारी मालिक, भूखे मार जायेंगे। हमारे बच्चे का क्या होगा? क्या खिलाएंगे हम उन्हे? जरा सोचिए मालिक।??"
"तू चिंता बनकर सोहन,, हम्बकिसी के साथ अन्याय नहीं होने देंगे। हमने तुम सब के बारे में पहले से ही सोच रखा था।"
ठाकुर के में से ये शब्द सुनकर, गांवनवालोंके चहरेवपर एक आशा की किरण उभरने लगीं थी की तभी ....
" आज से तुम सब लोग, हमारे खेतो, बाग बगीचे और स्कूलों काम करोगे। मैं तुमसे वादा करता हूं,की दो वक्त की रोटी हर दिन तुम सब के थाली में पड़ोसी हुई मिलेगी।"
गांव वालो ये सुन कर सन्न्न रह गए, उन्हे लगा था की , ठाकुर रत्न सिंह उन्हे इनकी जमीन लौटने आया है, मगर ये तो कुछ और ही था। ठाकुर की बात सुनकर विहान गुस्से में तिलबिला पड़ा l और अपने सर बंधी पगड़ी को अपने गांठने खोलकर एक झटके में नीचे फेंकते हुए बोला....
सोहन --"शाबाश! ठाकुर, दो वक्त के रोटी बदले हमसे गुलामिंकरवान चाहते हो, मगर याद रखना ठाकुर, सोहन ना आज तक कभी किसी की गुलामी की हैं.... ना आगे करेगा।"
सोहन की बात सुनकर, ठाकुर रत्न सिंह हंसते हुए बोला....
"और भाई, मैं तो बस गांव की भलाई के बारे में सोच रहा था, भला हम्बक्यू गुलाम पालने लगे? जैसी तुंबलोगी की मर्जी, अगर तुम लोग को अपनी जमीन चाहिए, तो लाओ ब्याज सहित मुद्दल पैसा, और छुड़वा lo apni zameen।
"पर हां, सिर्फ तीन महीने, सिर्फ तीन महीने के समय देता हूं...उसके बाद जमीन हमारी। चलता हूं मुखिया जी...राम राम"
ये बोलकर ठाकुर रमन, अपनी गाड़ी में बैठकर वहां से चला जाता हैं....गांव वाले अभि भी अपना हाथ जोड़े खड़े थे, फर्क सिर्फ इतना था की, अब उन सब की आंखे भी बेबसी और लाचारी के वजह से नाम थी.....
Nice updateअपडेट.....५
गांव के लोग काफ़ी दुखी थे, उन्हे ये अंदाजा भी ना था की ठाकुराइन ऐसा भी कर सकती है!!
इधर हवेली में , संध्या अपने कमरे में गुम सूम si बैठी थीं, सरीर में जान तो थी, पर देखबकर ऐसा लग रहा था मानो कोई निर्जीव सी वस्तु है, आपने बेटे के गम में सदमा खाई हुई संध्या, बेड पर बैठी हुई अपने हाथों में अपने बेटे की तस्वीर लिए उसे एकटक निहार जा रही थी।
संध्या की आंखों से लगातार आंसू छलकते जा रहे थे, वो इस तरह से अपने बेटे की तस्वीर देख रही थीं मानो उसका बेटा उसके सामने ही बैठा हो। संध्या अभय की तस्वीर देखते - देखते अचानक ही अभय के तस्वीर को अपने सीने से लगाकर जोर जोर से रोने लगती है। संध्या की रोने की आवाज उसके कमरे से बाहर तक जा रही थी । जिसे सुनकर मालती, ललिता भागते हुए उसके कमरे में आ गईं। और बेड पर बैठते हुऐ, संध्या को सम्हालने लगती हैं।
हालत तो मालती और ललिता की भी ठीक नहीं थी, अभय के जाने के बाद सब को ये हवेली सुनी सुनी सी लग रही थी,
मालती ने संध्या के आंसुओ को पोछते हुऐ, समझते हुए बोली....
मालती --"मैं आपकी हालत समझ सकती हूं दीदी, मगर अब जो चला गया वो भला लौट कर कैसे आएगा? ज़िद छोड़ दो दीदी, और चलो कुछ खा लो।
मालती की बात का संध्या पर कुछ असर न हुआ, वो तो बस अभय का तस्वीर सीने से लगाए बस रोए जा रही थीं। मालती से भी बर्दाश्त नहीं हुआ और उसकी आंखो से भी पानी छलक पड़ते हैं। लेकिन फिर भी मालती और ललिता ने संध्या को बहुत समझने की कोशिश की, पर संध्या तो सिर्फ़ सुन रही थीं, और जवाब में उसके पास सिर्फ़ आंसू थे और कुछ नहीं।।
तभी एक हांथ संध्या के कंधे पर पड़ा और साथ ही साथ एक आवाज भी....
"चुप हो जाओ बड़ी मां, तुम ऐसे मत रोया करो, मुझे अच्छा नहीं लगता, क्या मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूं, क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करती??"
आवाज कानों में जाते ही, संध्या अपने भीगी पलकें उठाती हैं, तो पाई सामने अमन खड़ा था जो इस वक्त उसके कंधो पर हांथ रखे उसे दिलासा दे रहा था। अमन को देखते ही संध्या, जोर जोर से रोते हुऐ उसे अपनी बाहों में भर लेती हैं....
संध्या --"अब तो बस तू ही सहारा हैं, वो तो मुझसे नाराज़ हो कर ना जाने कहां चला गया हैं!!?"
अमन --"तो फ़िर चुप हो जाओ, और चलो खान खा लो, नहीं तो मैं भी नहीं खाऊंगा, तुम्हे पता हैं मैं भी कल से भूंखा हूं।"
अमन की बात सुनकर , संध्या एक बार फिर अमन को अपने सीने से लगा लेती हैं। उसके बाद ललिता दो थाली मे खाना लेकर आती हैं, संध्या से एक भी निवाला अंदर नहीं जा रहा था , पर अमन का चेहरा देखते हुऐ वो खाना खाने लगती हैं....
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अभि स्कूल क्लास में बैठा था, 6 ट्वी कक्षा में दाखिला ले कर वो बहुत खुश था, वो अपनी पुरानी जिंदगी को पीछे छोड़कर वर्तमान में जीना चाहता था, वो उन हर रिश्तों को भूल जाना चाहता था, जिन रिश्तों मे अब उसका अपनापन रहा ही नही।
अभि अब हर दिन निरंतर स्कूल आने जाने लगा था, धीरे -- धीरे वो रेखा से भी घुल मिल गया था। मगर वो गांव की उस हवेली को नहीं भूला पा रहा था, जिसे भागते वक्त उसने देखा था। अभि पढ़ने लिखने में वाकई काफी तेज़ तर्रार था,। अभि काफी होशियार भी था, सोने की चैन बेचकर जो पैसा उसे मिला था, काफी सोच समझ कर खर्चा करता था। अभि को पता था की एक दीन ये पैसे भी खत्म हो जाएंगे, फिर उसके लिए काफी मुश्किलात होने लगेंगी। पर अभी इन सब के बारे में अभी नहीं सोचना चाहता था।
इधर हवेली में भी संध्या अमन का मुंह देख कर जीने लगी थीं, पर हर रात अभय की यादों में आंसू जरूर बहाती थी, ये शायद उसका रूटीन बन गया था। रमन सिंह ने गांव वालो की ज़मीन हड़प, अपनी भाभी संध्या की स्वीकृति लेकर एक डिग्री कॉलेज की स्थापना करना चाहता था। पर वो अभी इस बारे में संध्या से बात नहीं करना चाहता था।
गांव वालों की हर रोज़ मीटिंग होती थीं, इस बारे में की ठाकुराइन से जाकर इस बारे में पूछे की उसने ऐसा क्यूं किया? क्यूं उनकी ज़मीन हड़प ली उसने? पर गांव वाले भी ये समय सही नहीं समझा।
दीन बीतता गया, संध्या भी अब नॉर्मल होने लगी थीं, वो अमन को हद से ज्यादा प्यार करने लगी थीं। हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ख्वाहिश अमन की यूं ही पूरी हो जाती। और वही अभय अपनी जिंदगी को ख्वाहिशों के हिसाब से नहीं जरूरत के हिसाब से जीना पड़ रहा था।
देखते ही देखते महीने सालों में व्यतीत होने लगे,, और जल्द ही अभि 10 वी कक्षा में आ गया था। अभि इन चार सालों में अपने आप को सही मार्गदर्शन दिया, मगर अब उसके सामने एक मुसीबत आन पड़ी थीं, उसके पैसे खत्म होने को आए थे। और ये बात रेखा और सेठ को भी पता था।
एक दिन सब लोग सुबह सुबह नाश्ता कर रहे थे, उस दिन संडे था तो अभि को स्कूल नहीं जाना था। वो चुप चाप डाइनिंग टेबल पर बैठा नाश्ता कर रहा था, और पैसों के बारे में सोच रहा था। ये देखकर सेठ ने कहा।।
सेठ --"अभि बेटा, क्या सोच रहे हो?
सेठ की बात सुनकर, अभि अपनी गहरी सोच से बाहर निकलते हुऐ बोला।
अभि --"कुछ नहीं सेठ जी, बस सोच रहा हूं की, अब आगे की पढ़ाई का खर्चा कैसे संभालूंगा? पैसे भी खत्म होने को आए हैं।"
अभि की बात पर, नाश्ता परोस रही रेखा बोल पड़ी...
रेखा --" इन चार सालों में हम तो तुझे अपना समझने लगें हैं, तेरे आने से मेरी जिंदगी भी औलाद ना होने होने का गम भी दूर हो गया। पर शायद तू ही हम लोग को अपना नहीं समझता। कितनी बार हम लोगों ने तुझे पैसे देने की कोशिश की पर तू अपनी ज़िद मे पैसे लेने से मना करता गया।"
रेखा की बात गौर से सुनते हुऐ अभी बोला...।
अभि --"ऐसी बात नहीं हैं आंटी, पैसे न लेने की वजह मेरी ज़िद नहीं हैं, ये तो वो सच हैं जिसे मैं मान चुका हूं की जिंदगी में जो करना हैं खुद के दम पर करो। और वैसे भी आप दोनो ने मेरा इतना खयाल रखा हैं इन चार सालों में, जो शायद मुझे ना मिलता तो यूं हीं आज कहीं अकेला रह जाता। पर देखो ना यहां मुझे अकेलापन महसूस ही नहीं होता।"
रेखा --"बातों में तूझसे भला कौन जीत सकता हैं? ठीक हैं तुझे पैसे नहीं लेने हैं तो मत ले, पर इस तरह से जब तू परेशान होकर सोच में डूब जाता हैं ना, तो वो मुझसे नहीं देखा जाता हैं।"
अपनी औरत की बात सुनकर पास में बैठा नाश्ता करते हुऐ सेठ ने बोला।
सेठ --"अरे रेखा तू भी ना बेवजह ही परेशान होने लगती हैं। ये तो अच्छी बात हैं, जो अपनी परेशानी की हल ढूढने के लिऐ सोचता हैं वही हर मुसीबत से लड़ सकता हैं। और अभि की तो यही खासियत हैं, जिस उम्र में बच्चो की सोच पर दायरे लगे होते हैं, उस उम्र में अभी ने वो दायरे को पार कर लिया हैं। फिर भी अभि मेरे पास एक तरकीब हैं, जिससे तेरी परेशानी टल सकती हैं, पर थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।"
सेठ की बात सुनकर अभि बिना देरी करते हुऐ बोला....
अभि --"बोलो ना सेठ, मेहनत की तुम मुझ पर छोड़ दो और तरकीब बताओ।"
सेठ --"बाजार में ही मेरे दोस्त कि, साइबर कैफे हैं। वो मुझसे बोल रहा था कि कोई लड़का हो तो बताना कुछ 4 से 5 घंटे के लिऐ हर दीन साइबर पर बैठने के लिऐ। बोल रहा था की 7 हज़ार महीने तक देगा।"
ये सुनकर अभि की परेशानी छू मंतर हों गई, और झट से बोल पड़ा।
अभि --" हां तो ठीक हैं ना, 4 बजे स्कूल से छूटने के बाद मैं साइबर हर रोज चला जाऊंगा, और 8 बजे तक काम करूंगा वहा पर। सेठ जी तुम उनसे बोल दो की, लड़का मिल गया हैं, और बात कर के मुझे जल्दी बताना।"
सेठ --" अरे बात क्या करनी? तू आज शाम को दुकान पर आ जाना, सीधा उसके पास ही चलेंगे।"
अभि --" ये सही रहेगा सेठ जी।"
और फिर जल्द ही दोनो नाश्ता कर चुके थे, सेठ तो दुकान के लिऐ निकल गया, रेखा घर के कामों में लग गई... और अभि घूमने के लिऐ बाहर निकल गया।
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इधर हवेली में भी सब नाश्ते की टेबल पर बैठे थे, अमन के सामने पड़ी प्लेट मे देसी घी के पराठे पड़े थे। जिसे वो बहुत चाम से खा रहा था। और मालती अमन को ही गौर से देख रही थीं, की संध्या कितने प्यार से अमन को अपने हाथों से खिला रही थीं।
अमन --"बस करो ना बड़ी मां, अब नहीं खाया जाता, मेरा पेट भर गया हैं।"
कहते हुऐ अमन, अपने भर चुके पेट को सहलाए जा रहा था।
संध्या --"बस बेटा, ये आखिरी पराठा, हैं। खा ले।"
अमन ने किसी तरह वो पराठा खाया, मालती अभि भी उन दोनो को ही देख रही थीं कि तभी उसे पुरानी बात याद आई। जब एक दिन इसी तरह से सब नाश्ता कर रहे थे, अभय भी नाश्ता करते हुऐ गपागप ४ पराठे खा चुका था और पांचवा पराठा खाने के लिऐ मांग रहा था , तब संध्या पराठा देते हुऐ बोली थी की, कितना खायेगा इंसान हैं या हैवान जो पेट नहीं भर रहा हैं तेरा।
वो दृश्य और आज के दृश्य से मालती किस बात का अनुमान लगा रही थीं ये तो नहीं पता, पर तभी संध्या की नज़रे भी मालती पर पड़ती हैं तो पाती हैं की, मालती उसे और अमन को ही देख रही थीं।
मालती को इस तरह दिखते हुऐ संध्या बोल पड़ी...
संध्या --"तू ऐसे क्या देख रही हैं मालती? नज़र लगाएगी क्या मेरे बेटे को?"
संध्या की बात मालती के दिल मे चुभ सी गई,और फिर अचानक ही बोल पड़ी।
मालती --"नहीं दीदी बस पुरानी बातें याद आ गई थीं, अभय की।"
और कहते हुऐ मालती अपने कमरे में चली जाती है। संध्या मालती को जाते हुऐ वही खड़ी देखती रहती है......
Emotional updateअपडेट --- ६
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मालती के जाते ही, संध्या भी अपने कमरे में चली गई। संध्या गुम सूम सी अपने बेड पर बैठी थीं, उसे अजीब सी बेचैनी हो रही थीं। वो मालती की कही हुई बात पर गौर करने लगी। वो उस दीन को याद करने लगी जब उसने अभय की जम कर पिटाई कर रही थीं। उस दीन हवेली के नौकर भी अभय की पिटाई देख कर सहम गए थे। बात कुछ यूं थीं की, रमन हवेली में लहू लुहान हो कर अपना सर पकड़े पहुंचा। संध्या उस समय हवेली के हॉल में ही बैठी थीं। संध्या ने जब देखा की रमन के सर से खून बह रहा है, और रमन अपने सर को हाथों से पकड़ा है, तो संध्या घबरा गई। और सोफे पर से उठते हुऐ बोली...
संध्या --" ये...ये क्या हुआ तुम्हे? सर पर चोट कैसे लग गई?
बोलते हुऐ संध्या ने नौकर को आवाज लगाई और डॉक्टर को बुलाने के लिऐ बोली....
संध्या की बात सुनकर रमन कुछ नहीं बोला, बस अपने खून से सने हांथ को सर पर रखे कराह रहा था। रमन को यूं ख़ामोश दर्द में करहता देख, संध्या गुस्से में बोली....
संध्या --"मैं कुछ पूंछ रही हूं तुमसे? कैसे हुआ ये?
"अरे ये क्या बताएंगे बड़ी ठाकुराइन, मैं बताता हूं..."
इस अनजानी आवाज़ ने सांध्य का ध्यान खींचा, तो पाई सामने मुनीम खड़ा था। मुनीम को देख कर रमन गुस्से में चिल्लाया....
रमन --"मुनीम जी, आप जाओ यहां से, कुछ नहीं हुआ है भाभी। ये बस मेरी गलती की वजह से ही अनजाने में लग गया।"
"नहीं बड़ी ठाकुराइन, झूंठ बोल रहे है छोटे मालिक। ये तो आपके...."
रमन --"मुनीम जी... मैने कहा ना आप जाओ।
रमन ने मुनीम की बात बीच में ही काटते हुऐ बोला। मगर इस बार सांध्या ने जोर देते हुऐ कहा....
संध्या --"मुनीम जी, बात क्या है... साफ - साफ बताओ मुझे?"
संध्या की बात सुनकर, मुनीम बिना देरी के बोल पड़ा....
मुनीम --"वो... बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक का सर अभय बाबा ने पत्थर मार कर फोड़ दीया।"
ये सुनकर संध्या गुस्से में लाल हो गई.…
संध्या --"अभय ने!! पर वो ऐसा क्यूं करेगा?"
मुनीम --"अब क्या बताऊं बड़ी ठाकुराइन, छोटे मालिक और मै बाग की तरफ़ जा रहे थे, तो देखा अभय बाबा गांव के नीच जाति के बच्चों के साथ खेल-कूद कर रहे थे। पता नहीं कौन थे चमार थे, केवट था या पता नहीं कौन से जाति के थे वो बच्चे। यही देख कर छोटे मालिक ने अभय को डाट दिया, ये कहते हुऐ की अपनी बराबरी के जाति वालों के बच्चों के साथ खेलो, हवेली का नाम मत खराब करो। ये सुन कर अभय बाबा, छोटे मालिक से जुबान लड़ाते हुए बोले,, ये सब मेरे दोस्त है, और दोस्ती जात पात नहीं देखती, अगर इनसे दोस्ती करके इनके साथ खेलने में हवेली का नाम खराब होता है तो हो जाए, मुझे कुछ फरक नहीं पड़ता।"
संध्या --"फिर क्या हुआ?"
मुनीम --"फिर क्या बड़ी मालकिन, छोटे मालिक ने अभय बाबा से कहा की, अगर भाभी को पता चला तो तेरी खैर नहीं, तो इस पर अभय बाबा ने कहा, अरे वो तो बकलोल है, दिमाग नाम का चीज़ तो है ही नहीं मेरी मां में, वो क्या बोलेगी, ज्यादा से ज्यादा दो चार थप्पड़ मरेगी और क्या, पर तेरा सर तो मै अभी फोडूंगा। और कहते हुऐ अभय बाबा ने जमीन पर पड़ा पत्थर उठा कर छोटे मालिक को दे मारा, और वहां से भाग गए।"
मुनीम की बात सुनकर तो मानो सांध्य का पारा चरम पर था, गुस्से मे आपने दांत की किटकिती बजाते हुऐ बोली...
सांध्य --"बच्चा समझ कर, मैं उसे हर बार नज़र अंदाज़ करते गई। पर अब तो उसके अंदर बड़े छोटे की कद्र भी खत्म होती जा रही है। आज रमन का सर फोड़ा है, और मेरे बारे में भी बुरा भला बोलने लगा है, हद से ज्यादा ही बिगड़ता जा रहा है, आने दो उसे आज बताती हूं की, मैं कितनी बड़ी बकलोल हूं..."
.... भाभी, भाभी... कहां हो तुम, अंदर हों क्या?
इस आवाज़ ने, सांध्य को भूत काल की यादों से वर्तमान की धरती पर ला पटका, अपनी नम हो चुकी आंखो के कोने से छलक पड़े आंसू के कतरों को अपनी गोरी हथेली से पोछते हुऐ, सुर्ख पड़ चुकी आवाज़ में बोली...
सांध्य --"हां, अंदर ही हूं।"
बोलते हुऐ वो दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी... कमरे में रमन दाखिल हुआ, और संध्या के करीब आते हुऐ बेड पर उसके बगल में बैठते हुऐ बोला।
रमन --"भाभी, मैने सोचा है की, गांव में पिता जी के नाम से एक डिग्री कॉलेज बनवा जाए, अब देखो ना यहां से शहर काफी दूर है, आस - पास के कई गांव के विद्यार्थी को दूर शहरों में जाकर पढ़ाई करनी पड़ती है। अगर हमने अपना डिग्री कॉलेज बनवा कर मान्यता हंसील कर ली, तो विद्यार्थियों को पढ़ाई में आसानी हो जाएंगी।"
रमन की बात सुनते हुऐ, सांध्य बोली.....
संध्या --"ये तो बहुत अच्छी बात है, तुम्हारे बड़े भैया की भी यही ख्वाहिश थीं, वो अभय के नाम पर डिग्री कॉलेज बनाना चाहते थे, पर अब तो अभय यहां रहा ही नहीं, बनवा दो अभय के नाम से ही... वो नहीं तो उसका नाम तो रहेगा।"
रमन --"ओ... हो भाभी, तो पहले ही बताना चाहिए था, मैने तो मान्यता लेने वाले फॉर्म पर पिता जी के नाम से भर कर अप्लाई कर दिया। ठीक हैं मैं मुनीम से कह कर चेंज करवाने की कोशिश करूंगा।"
रमन की बात सुनकर संध्या ने कहा...
संध्या --"नहीं ठीक है, रहने दो। पिता जी का नाम भी ठीक है।"
रमन --"ठीक है भाभी, जैसा तुम कहो।"
और ये कह कर रमन जाने लगा तभी... सन्ध्या ने रमन को रोकते हुऐ....
संध्या --"अ... रमन।"
रमन रुकते हुऐ, संध्या की तरफ़ पलटते हुऐ...
रमन --"हां भाभी।"
संध्या --"एक बात पूंछू??"
संध्या की ठहरी और गहरी आवाज़ में ये बात सुनकर रमन एक पल के लिऐ सोच की उलझन में उलझते 5हुऐ, उलझे हुऐ स्वर मे बोला...
रमन --"क्या अभय को मेरे और तुम्हारे रिश्ते के बारे में पता था, या फिर कुछ शक था?"
ये सुन कर रमन को ताजुब और हैरानी दोनो एक साथ हुई, ताजुब इस बात की, की इतने सालों बाद इस बारे में क्यूं? और हैरानी इस बात की, की अमन को उनके रिश्ते के बारे में पता था या नहीं इस सवाल पर।
रमन --"मुझे नहीं लगता भाभी, जब घर वालो और गांव वालो को पता नहीं चला तो, वो तो 9 साल का बच्चा था भाभी, उसे भला कैसे पता चलेगा? पर आज इतने सालों बाद क्यूं?"
संध्या अपनी गहरी और करुण्डता भरे लहज़े में बोली...
संध्या --" ना जाने क्यूं, हमेशा एक बेचैनी सी होती रहती है, ऐसा लगता है की मेरा दिल भटक रहा है किसी के लिऐ, मुझे पता है की किस के लिऐ भटकता है, मैं खुद से ही अंदर अंदर लड़ती रहती हूं, रात भर रोती रहती हूं, सोचती हूं की वो कहीं से तो आ जाए, ताकी मैं उसे बता सकूं की मैं उससे कितना प्यार करती हूं, माना की मैने बहुत गलतियां की हैं, मैंने उसे जानवरों की तरह पीटा, पर ये सब सिर्फ़ गुस्से में आकर। मुझसे गलती हो गई, मैं ये ख़ुद को नहीं समझा पा रही हूं, उसे कैसे समझाती। मैं थक गई हूं, जिंदगी बेरंग सी लगने लगी हैं। हर पल उसे भुलाने की कोशिश करती हूं, पर फिर दिल कहता है की, उसे भुला दी तो जिंदगी में तेरे क्या बचेगा? हे भगवान क्या करूं? कहां जाऊं? कोई तो राह दिखा दे?"
कहते हुऐ सन्ध्या एक बार फिर रोने लगती है...!
"अब रो कर कुछ हासिल नहीं होगा दीदी,"
नज़र उठा कर देखी तो सामने मालती खड़ी थीं, रुवांसी आंखो से मालती की तरफ़ देखते हुऐ थोड़ी चेहरे बेबसी की मुस्कान लाती हुई संध्या मालती से बोली...
संध्या --"एक मां को जब, उसके ही बेटे के लिऐ कोई ताना मारे तो उस मां पर क्या बीतती है, वो एक मां ही समझ सकती है।"
संध्या की बात मालती समझ गई थीं की सन्ध्या का इशारा आज सुबह नाश्ता करते हुऐ उसकी कही हुई बात की तरफ़ थीं।
मालती --"अच्छा! तो दीदी आप ताना मारने का बदला ताना मार कर ही ले रही है।"
संध्या को बात भी मालती की बात समझते देरी नहीं लगी, और झट से छटपटाते हुऐ बोली...
संध्या --"नहीं... नहीं, भगवान के लिऐ तू ऐसा ना समझ की, मैं तुझे कोई ताना मार रही हूं। तेरी बात एकदम ठीक थीं, मैने कभी तो अभय को ज्यादा खाना खाने पर ताना मारी थीं, मेरी मति मारी गई थीं, बुद्धि भ्रष्ट हो गई थीं, इस लिऐ ऐसे शब्द मुंह से निकल रहे थे।"
चुप चाप खड़ी संध्या की बात सुनते हुऐ मालती भावुक हो चली आवाज़ मे बोली...
मालती --"भगवान ने मुझे मां बनने का सौभाग्य तो नहीं दीया, पर हां इतना तो पता है दीदी की, बुद्धि हीन मां हो चाहे मति मारी गई मां हो, पागल मां हो चाहे शैतान की ही मां क्यूं ना हो... अपने बच्चे को हर स्थिति में सिर्फ प्यार ही करती है।"
कहते हुऐ मालती वापस उस कमरे से चली जाति है... और इधर मालती की सत्य बातें संध्या को अंदर ही अंदर एक बदचलन मां की उपाधि के तख्ते पर बिठा गई थीं, जो संध्या बर्दाश्त नहीं कर पाई।।
और जोर - जोर से उस कमरे में इस तरह चिल्लाने लगी जैसे पागल खाने में पागल व्यक्ति...
..... हां.... हां मैं एक गिरी हुई औरत हूं, यही सुनना चाहती है ना तू, लेकिन एक बात सुन ले तू भी, मेरे बेटे से मुझसे से ज्यादा कोई प्यार नहीं करता...
""अब क्या फ़ायदा दीदी, अब तो प्यार करने वाला रहा ही नहीं... फिर किसको सुना रही हो?"
चिल्लाती हुई संध्या की बात सुनकर , मालती भी चिल्लाकर कमरे से बाहर निकलते हुई बोली और फिर वो भी नम आंखों के साथ अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ती है.....
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Nice updateअपडेट 9
गर्मी के दिन थे, ठंडी हवाएं चल रही थी। अजय गांव के स्कूल के पुलिया पर बैठा था। उसके साथ दो और लड़के बैठे थे, सूर्य डूबने को था और अपनी ठंडी लालिमा धरती पर बिखेरे था।
अजय और वो दोनो लड़के आपस में बाते कर रहे थे।
"यार अजय अब तो छुट्टी के दिन भी बीत गए, कल से कॉलेज शुरू हो रहा है। फिर से उस हराम अमन के ताने सुनने पड़ेंगे।"
इस लड़के की बात सुनकर पास खड़ा दूसरा लड़का बोला।
"सही कहब्रहा है यार राजू तू। भाई अजय सच में , ये ठाकुर के बच्चो का कुछ न कुछ तोनकारना पड़ेगा।"
उन दोनो की बात सुनकर अजय बोला --
अजय --"क्या कर सकते है, झगड़ा करेंगे, अरे उन लोगो का चक्कर छोड़ो, और जरा पढ़ाई लिखाई में ध्यान लगाओ। हमारे पास कुछ बचा नही है, जो जमीन थी, वो भी उस हराम ठाकुर ने हड़प ली, अब तो सिर्फ पढ़ाई लिखाई का ही भरोसा है। अपना यार आज होता तो जरूर अपने लिए कुछ करता। पर वो भी हमे छोड़ कर उन तारों के बीच चला गया। मुझे तो अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है की, जंगल में मिली वो लाश अभय की थी।"
अजय की बात सुनकर, वहा खड़ा दूसरा लड़का बोला।
"भाई, मुझे एक बात समझ नही आई?"
अजय --"कैसी बात?"
"यही की अपने अभय की लाश जंगल में पड़ी मिली, पर पुलिस कुछ नही की। कोई जांच पड़ताल कुछ नही। और अभय की मां ने भी पता लगवाने की कोशिश नही की।"
अजय --"अरे लल्ला, इन ठाकुरों की बात मुझे समझ नहीं आती। पर इतना जरूर पता है की अभय की जान किसी जंगली जानवर की वजह से नहीं गई है, बल्कि किसी इंसानी जानवर किंवजः से ही गई है।"
अजय की बात सुनकर वांडोनो लड़के अपना मुंह खोले अजय को देखते हुए पूछे...
लल्ला --"ये तुम कैसे कह सकते हो?"
अजय --"क्यूंकी अभय के पापा ना अभय को...."
कहते हुए अजय रुक गया , और बात पलटते हुए बोला
अजय --" छोड़ो, अब क्या फ़ायदा? अब को रहा ही नही उसके बारे में बात करके अपने और उसके दुखी को क्यूं कुरेदें। चलो घर चलते है, कल से कॉलेज शुरू होने वाला है, आज छुट्टी का अखिरीं दिन है।"
ये कह कर सब अपने अपने घरों के रास्ते पर चल पड़े...
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अभि आज जब स्कूल से अपना मार्कशीट लेकर घर आया तो, उसका चेहरा उतरा था। वो मायूस लग रहा था। वो घर में प्रवेश करते ही अपने कमरे में चला गया। रेखा घर का काम कर रही थी, उसने अभय को कमरे में जाते हुए देख ली थी, और वो देख कर समझ गई थी की अभय जरूर कुछ उदास है। रेखा झट से किचन की तरफ जाति है, और एक ग्लास में पानी भर कर अभि के कमरे में आ जाती है।
उसने देखा अभि अपने चेहरे को हथेली में भरे नाचे सिर किए हुए बेड पर बैठा है। इस मुद्रा में अभी को बैठा देख कर कोई भी बता सकता था की, अभि कोई न कोई परेशानी में है। रेखा अब घबराने लगी थी। उसका दिल ना जाने क्यूं धड़कने लगा, और अपने आप को रोक न सकी। वो तड़प कर अभि के नजदीक पहुंच गई, और अपने हाथो को अभि के सिर पर प्यार से फेरते हुए अभी के बगल में बैठ गई, और बोली...
रेखा --"क्या हुआ मेरे लाल को? इस तरह से सिर पर हाथ रख कर बैठ कर, मेरे सीने में तूफान क्यूं मचा रहा है। बता अब क्या बात है?"
रेखा का कोमल हाथ अपने सिर पर स्पर्श पाते ही, अभि अपने चेहरा ऊपर उठता है , और रेखा की बातो का जवाब देते हुए बोला...
अभि --"किया बताऊं आंटी, सब कुछ अच्छा चल रहा था, जो जिंदगी मैं पीछे छोड़ कर आगे बढ़ा था, आज वही जिंदगी मुझे फिर से बुला रही है।"
अभि की बाते रेखा को समझ में नहीं आई, वो अभी भी अभि के सिर को प्यार से सहलाते हुए बोली,
रेखा --"पिछली जिंदगी, क्या बात कर रहा है मुझे तो कुछ समझ नहीं आबरा है।"
रेखा की बात सुनकर, अभि बोला...
अभि --"सरस्वती ज्ञान मंदिर की तरफ से मेरी आगे की पढ़ाई के लिए, मेरा एडमिशन जिस कॉलेज में हुआ है। उस कॉलेज का नाम ठाकुर परम सिंह इंटर मीडिएट कॉलेज है।"
अभि किंबाट सुनकर , रेखा थोड़ा हैरान हुई और बोली...
रेखा --" हां, तो इसके उदास होने जैसी क्या बात है?"
अभि --"ये मेरे दादा जी का कॉलेज है,। दौलतपुर शहर का सबसे जाना माना कॉलेज।"
रेखा के लिए ये बातें नई थी, क्युकी अभि ने रेखा को अपने अतीत के बारे में कभी नहीं बताया था। वो थोड़ा आश्चर्य होकर बोली...
रेखा --"दादा जी का कॉलेज??"
अभि --" इतना चौकों मत आंटी, ऐसी बहुत सी बाते है मेरे अतीत की, अगर बता दी, तो पैरो तले जमीन खिसक जाएगी। आपको क्या लगता है, इतनी छोटी सी उम्र में मैं घर छोड़ कर क्यूं भागा? जरूर कोई ना कोई वजह तो रही होगी? नही तो जिस उम्र में बच्चे को घर परिवार,, मां बाप का साया चाहिए होता है, उस उम्र में मैं वो साया छोड़ कर दुनिया के वीराने में भटक रहा था। और आज वही साया मुझे फिर से बुला रहा है। मैं समझ नही पा रहा ही आंटी, की ये सिर्फ एक इत्तेफाक है या फिर कुछ और।"
रेखा तो बस अपने कान खड़े किए हुए सुनती जा रही थी।
रेखा --"इसका मतलब , तेरा...भी घर परिवार है, तेरे भी मां बाप है?"
ये सुनकर अभि एक झूठी मुस्कान की छवि अपने चेहरे पर लेट हुए बोला...
अभि --"मां...,, मां तो कब की जा चुकी थी। आज हो कर भी वो नही है। पर मेरे पापा, मेरे पापा इस दुनिया में ना होकर भी मेरे साथ हमेशा रहते है। मां की कभी याद आई ही नहीं, याद आने जैसा हमारे बीच वो प्यार ही नही था। पापा की बहुत याद आती है, वो हमेशा मुझसे कहते थे, की बेटा दुनिया एक माया जाल है, कोइबटेरा नही है, तू खुद का दोस्त है ये समझ कर जिंदगी जिएगा तो हमेशा खुश रहेगा, किसी और की जिंदगी से अपनी जिंदगी जोड़ेगा तो कभी न कभी तकलीफों के भंवर में फस कर दम तोड देगा। क्या करता? छोटा था ना,उनकी बात कभी समझ ही नही पता था। ना जाने कैसी कैसी बाते बोलते थे, जो कई कभी समझ ही नही पता था। पर एक दिन उनके जाने से पहले, वो रात मुझे आज भी याद है। पापा मेरे कमरे में आए, और मुझे अपने गोद में लेकर बड़े ही प्यार से बोले,
"बेटा अभय, मैने तेरे लिए एक सवाल छोड़ा है। जब तू बड़ा हो जायेगा ना, तब वो सवाल तू मेरी जिंदगी के कोरे पन्नो के बीच वाले पन्नो पर लिखा पाएगा। जिस दिन तू वो सवाल ढूंढ लेगा, तुझे तेरे बाप का वो उत्तर मिलेगा की मैं अपने बेटे से क्या चाहता हूं?"
उस रात भी मुझे पापा की बात समझ नही आई, की वो क्या कहें चाहते है? वो रात वो मेरे पास ही सो रहे थे, पर जब अगली सुबह मेरी आंख खुली तो पापा अपनी आंखे बंद कर चुके थे। मैं बहुत रोया था। मुझे उतनी तकलीफ तब भी नही हुई थी जब मैं घर छोड़ कर भाग रहा था।"
रेखा का दिल भर आया, वो अभी अभी की तकलीफ सुन रही थी, वो अंदाजा तो लगा सकती थी की अभि किस तकलीफ में अपने घर से भगा था। मगर पूछ कर अभि की और तकलीफ नहीं बढ़ाना चाहती थीं, इसीलिए वो सामान्य अवस्था में होकर बोली...
रेखा --" तू...तू ये सब सोचना छोड़, हम किसी दूसरे कॉलेज में एडमिशन ले लेंगे। तुझे वहा जाने की जरूरत नहीं है।"
अभि --" जरूरत है, आंटी। मुझे लगता है पापा के उस सवाल को ढूंढने का वक्त आ गया है। उस रात तो मैं कुछ समझ नहीं पाया। पर आज उस रात को जब भी याद करता हूं तो मुझे पापा का वो मायूस चेहरा याद आता है। ऐसा लग रहा था जैसे वो कुछ कहें चाहते थे। पर शायद मैं बच्चा था इसलिए उनकी जुबान से वो शब्द निकल ना पाए। पर मुझे यकीन है, की वो सारी बातें मुझे उनके सवाल को ढूंढ कर जरूर मिल जायेगा।"
रेखा के दिलनमे बेचैनी बढ़ने लगी थी, वो अभी को रोकने तो चाहती थी, पर वो जानती थी की अभि अब रुकने वाला नही है, क्युकी अगर सिर्फ पढ़ाई की ही बात होती तो एक बार के लिए अभी दुबारा अपने गांव जाने का खयाल भी नही लता। पर अब उसके सामने उसके पिता का एक सवाल था, जो उसकी मंजिल बन कर खड़ी थी...
रेखा --"ठीक है, कब निकलना है? और खाना पीना अच्छे से खाना। पैसे की चिंता मत करना, जीतने जरूरत पड़ने मांग लेना, हां पता है की तू खुद्दार है, अपने दम पर जीना सिखा है पर.....
रेखा बोल ही रही थी की अभि ने ने रेखा को गले से लगा लिया। रेखा का तो दिल दिमाग सब हिल गया। वो पूरी तरह से भाउक हो कर रोने लगी।
अभि --"मैं छोड़ कर कही जा थोड़ी रहा हूं, पता है मुझे तुम मुझसे बहुत प्यार करती हो आंटी। इतने सालो तक जो प्यार और दुलार मुझे तुमसे मिला उसकी तो आदत ही नही थी मुझे। मैं कभी खुद को अकेला नहीं पाया। तो फिर मैं तुमको कैसे छोड़ सकता हूं, और हां बस कुछ दिनों के लिए जा रहा ही, उसके बाद आ जाऊंगा उस गोबर का सर खाने।"
कहते हुए रेखा और अभि दोनो हंस पड़ते है, रेखा अपने आंख के बहते मोतियों को पूछते हुए बोली...
रेखा --"तुझे पता है, एक बार मैं भी मां बनी थी, बहुत खुश थी, ऐसा लग रहा था जैसे जिंदगी मिल गई । पर एक रात वो रोने लगा, 1 साल का था। उसकी रोने की आवाज मैंस नही पाई, रोता वो था पर जान मेरी निकल रही थीं। हॉस्पिटल लेकर पहुंचे तो उसका रोना बंद हो गया । पर क्या पता था की वो आखिरी बार रोया था। मां थी ना, पागल हो गई थी, उसकी वो रोने की आवाज आज भी मुझे चैन से सोने नहीं देती। Khokh सुनी हुई तो जैसे दुनिया ही सुनी हो गई। फिर तू आया, ऐसा लगा वही वापस आ गया मेरी जिंदगी में, हमने भी औलाद की लालच वश तुझे घर में बिना कुछ जाने सोचे विचारे रख लिया। पर ये लालच नहीं, ये तो एक मां का प्यार है जो तुझ पर बरसाने के लिए तड़प रही थी।"
अभि अपनी गहरी निगाहों से रेखा की तरफ देखते हुए बोला...
अभि --"क्या सच में मां इतनी प्यारी होती है?"
अभि की बातो को सुनते हुए, रेखा अपने हाथो को उसके सिर पर रखते हुए बोली...
रेखा --"मां ऐसी ही होती है, बस अपनी मां को एक बार समझने की कोशिश करना। हो सके तो अपनी मां को एक मौका जरूर देना।"
ये सुनकर अभि मुस्कुराते हुए बोला.....
अभि --"फिर तो तुम्हारा पत्ता कट जायेगा.।"
ये कह कर अभि और रेखा दोनो हंसने लगते है।
अभि --"अच्छा आंटी, वो जो औरत मार्केट में चूड़ियां लेकर आती थीं। कुछ महीनो से दिखाई नहीं दी, आपको पता है की वो कहा रहती है??"
अभि की बात सुनकर, रेखा अभि की तरफ मुस्कुरा कर देखते हुए बोली...
रेखा --"क्या बात है? आखिर ये चूड़ियां किसके लिए? कौन है वो, जो मेरे बेटे को फंसा ली?"
ये सुनकर अभि शर्मा गया और हंसते हुए बोला...
अभि --"अरे आंटी तुम भी ना, मुझे भला कौन फसाएगी? वो तो बचपन की एक दोस्त है गांव की, उसे चूड़ियां बहुत पसंद है, कभी कभी मैं मां की चूड़ियां चुरा कर उसके लिए ले कर जाता था।"
रेखा --"अच्छा...! तो बचपन का प्यार है। तब तो चूड़ियां लेनी पड़ेगी, ठीक है मैं ले कर आ जाऊंगी । पर अभी तू चल और कुछ खा पी ले, सुबह से भूखे पेट घूम रहा है..."
उसके बाद अभि और रेखा दोनो एक साथ कमरे से बाहर निकल जाते है......
Nice updateअपडेट 11
रात का समय था, पायल अपने कमरे में बैठी थी। उसकी पलके भीगी थी। वो बार बार अपने हाथो में लिए उस कंगन को देख कर रो रही थी, जिस कंगन को अभय ने उसे दिया था। आज का दिन पायल के लिए किसी घनी सुनी अंधेरी रात की तरह था। आज के ही दिन उसका सबसे चहेता और प्यारा दोस्त उसे छोड़ कर गया था। मगर न जाने क्यों पायल आज भी उसके इंतजार में बैठी रहती है।
पायल की मां शांति से पायल की हालत देखी नही जा रही थीं। वो इस समय पायल के बगल में ही बैठी थी। और ख़ामोश पायल के सिर पर अपनी ममता का हाथ फेर रही थी। पायल का सर उसकी मां के कंधो पर था। पायल ने करुण स्वर में सुर्ख हो चुकी आवाज़ में अपने मां से बोली...
पायल --"तुझे पता है मां,। ये कंगन मुझे उसने अपनी मां से चुरा कर दिया था। कहता था, की जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो तेरे लिऐ खूब रंग बिरंगी चिड़िया ले कर आऊंगा। मुझे बहुत परेशान करता था। घंटो तक मुझे नदी के इस पार वाले फूलों के बाग में , मेरा हाथ पकड़ कर चलता था। मुझे भी उसके साथ चलने की आदत हो गई थी। अगर एक दिन भी नही दिखता था वो तो ऐसा लगता था जैसे जिंदगी के सब रंग बेरंग हो गए हो। उसे पता था की मैं उसके बिना नहीं जी पाऊंगी, फिर क्यों वो मुझे छोड़ कर चला गया मां?"
पायल की इस तरह की बाते और सवाल का जवाब शांति के पास भी नहीं था। वो कैसे अपनी लाडली कोने बोल कर और दुखी कर सकती थी की अब उसका हमसफर जिंदगी के इस सफर पर उसके साथ नही चल सकता। शांति और मंगलू को अपनी बेटी की बहुत चिंता हो रही थी। क्यूंकि पायल का प्यार अभय के लिए दिन ब दीन बढ़ता जा रहा था। वो अभय की यादों में जीने लगी थी।
शांति --"बेटी , तेरा अभय तारों की दुनिया में चला गया है, उसे भगवान ने बहुत अच्छे से वहा रखा है। वो तुझे हर रात देखता है, और तुझे इतना दुखी देखकर वो भी बहुत रोता है। तू चाहती है की तेरा अभय हर रात रोए?"
पायल -"में जो रोटी ही, उसका कुछ नही क्या? वो कहता था की वो मुझे तारों पर ले चलेगा। और आज वो मुझे छोड़ कर अकेला चला गया। जब मिलूंगी ना उससे तो खबर लूंगी उसकी।"
इसी तरह मां बेटी आपस में घंटो तक बात करती रही। पायल का मासूम चेहरा उसके अश्रु से हर बार , बार बार भीग जाते। और अंत में रोते हुए थक कर अपनी का के कंधे पर ही सिर रखे सो जाती है।
उसी रात हवेली दुल्हन किंसाजी थी। चमक ऐसी थी मानो ढेरो खुशियां आई हो हवेली में।
आज संध्या किसी परी की तरह सजी थी। Resmi बालो का जुड़ा बंधे हुए, उसके खूबसूरत फूल जैसे चेहरे पर बालो का एक लट गिर रहा था। जो उसकी खूबसूरती पर चार चांद लगा रही थी। विधवा होने के बावजूद उसने आज अपने माथे पर लाल रंग की बिंदी लगाई थी, कानो के झुमके और गले में एक हार। बदन पर लाल रंग की सारी में किसी कयामत की कहर लग रही थी।
हवेली के बाहर जाने माने अमीर घराने के ठाकुर और उच्च जाति के लोग भी आए थे। जब संध्या हॉवलिंस बाहर निकली तो, लोगो के दिलो पे हजार वॉट का करंट का झटका सा लग गया। सब उसकी खूबसूरती में खो गए। वो लोग ये भी भूल गए की वो सब संध्या के बेटे के जन्मदिन और मरण दिन , पर शोक व्यक्त करने आए है। पर वो लोग भी क्या कर सकते थे। जब मां ही इतनी सज धज कर आई है तो किसी और को क्या कहेना?
वही एकतरफ संध्या के हाथों में अभय की तस्वीर थी , जो वो लेकर थोड़ी दूर चलते हुए एक us tasveer ko ek टेबल पर रख देती है। उसके बाद सब लोग एक एक करके संध्या से मिले और उसके बेटे के लिए शोक व्यक्त किया । लोगो का शोक व्यक्त करना तो मात्र एक बहाना था। असली मुद्दा तो संध्या से कुछ पल बात करने कां था। हालाकि संध्या को किसिंस बात करने में कोइ रुची नही थी।
धीरे धीरे लोग अब वहा से जाने लगे थे। भोज किं ब्यावस्था भी हुई थी, तो सब खाना पीना खा कर गए थे। अब रात के 12 बज रहे थे। सब जा चुके थे। हवेली के सब सदस्य एक साथ मिलकर खाना खाए। और फिर अपने अपने कमरे में सोने चले गए। संध्या की आंखो में नींद नहीं था। तो वही दूसरी तरफ रमन की नींद भी आज संध्या को देखकर उड़ चुकी थी। रमन अपनी पत्नी ललिता के सोने का इंतजार करने लगा।
करीब 2 बजे संध्यानके दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजे की खटखटाहट से संध्या का ध्यान उसके बेटे की यादों से हटा, वो अपने बेड पर से उठते हुए दरवाजे तक पहुंची और दरवाजा जैसे ही खोली। रमन कमरे में दाखिल हुआ और झट से संध्या को अपनी बाहों के भर लिया...
ये सब अचानक हुआ, संध्या कुछ समझ नहीं पाई। और जब तक कुछ समझती वो खुद को रमन की बाहों में पाई।
संध्या --"रमन , पागल हो गया है क्या तू? छोड़ मुझे, और जा यह से?"
संध्या की कठोर वाणी सुनकर, रमन ने संध्या को अपनी बाहों से आजाद कर दिया। और संध्या के गोरे गालों पर अपनी उंगली फिराते हुए बोला...
रमन --"क्या हुआ भाभी? मुझसे कुछ गलती हो गई क्या?"
संध्या ने रमन का हाथ अपने गालों पर से दूर झटकते हुए बोली...
संध्या --"नही, गलती तो मुझसे हो गई, देखो रमन हमारे बीच जो भी था , वो सब अनजाने हुआ , पर अब वो सब हमे यही खत्म कर देना चाहिए।"
ये सुनकर रमन का चेहरा फक्क्क पड़ गया। सारे भाव हवा के साथ उड़ से गए थे। वो संध्या को एक बार फिर से कस कर अपनी बाहों में भरते हुए बोला...
रमन --"ये तुम क्या बोल रही हो भाभी? तुम्हे पता है ना , की मैं तुमसे कितना प्यार करता हूं? पागल हूं तुम्हारे लिए, तुम इस तरह से सब कुछ इतनी आसानी से नहीं खत्म कर सकती।"
संध्या ये सुनकर रमन को अपने आप से दूर धकेलती हुई बोली...
संध्या --"मैने कहा ना , सब कुछ खत्म। तो समझ सब कुछ खत्म, अब जा यह से। और हां दुबारा मेरे साथ ऐसी वैसी हरकत करने का सोचना भी मत।"
रमन को झटके पे झटके लग रहे थे। वो समझ नही पा रहा था की आखिर संध्या को क्या हो गया?
रमन --"पर भाभी....."
संध्या --"प्लीज़....मैने कहा ना , मुझे कोई बात नही करनी है इस पर। अब जाओ यह से..."
बेचारा रमन, अपना सा मुंह बना कर संध्या के कमरे से दबे पांव बाहर निकल गया। संध्या भी चुप चाप अपना दरवाजा बंद करती है और अपने बिस्तर पर आकर लेट जाती है।
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ट्रेन में बैठा अभय , बार बार उस चूड़ी को निहारे जा रहा था, और मन ही मन खुश होते जा रहा था। अभय जा तो रहा था अपने गांव, पर उसने एक पल के लिए अपनी मां का ख्याल तक भी नही किया। उसकी ख्यालों में सिर्फ और सिर्फ पायल ही जिंदा थी। ट्रेन की खिड़की पर सिर रख कर बाहर देखते हुए वो अपनी आंखे बंद कर लेता है। तेज हवा के झोंके उसे उसकी प्यार के धड़कन से रूबरू करा रहे थे। अभय के दिल में हलचालब्स उठाने लगी थी। आज इतने साल बाद वो अपनी जान से मिलेगा। मन में हजारों सवाल थे उसके, कैसी होगी वो? क्या अब भी वो मुझे याद करती होगी? बड़ी हो है होगी कितनी? कैसी दिखती होगी? बचपन के तो बहुत नाक बहाती थी, क्या अब भी बहती होगी? सोचते हुए अभी के चेहरे पर एक मुस्कान सी फेल जाति है। अपनी आंखे खोलते हुए वो आसमान में टिमटिमाते तारों की तरफ देखते हुए फिर से पायल की यादों में खो जाता है,
यूं इस कदर टिमटिमाते तारों को देखता रहा , और कब उसकी आंखो से वो टिमटिमाते तारे ओझल हुए उसे पता ही नही चला। नजर आसमान से धरती पर दौड़ाई तो, भोर हो गया था। अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर नजर दौड़ाई तो देखा सुबह के 6 बज रहे थे। अभय रात भर सोया नही था। अब गोबापनी मंजिल से 5 घंटे दूर था। और ये 5 घंटा उसे 5 जन्मोंके बराबर लग रहा था। जैसे जैसे ट्रेन मंजिल की तरफ रफ्तार बढ़ा रही थी, वैसे वैसे अभय के दिल की रफ्तार भी बढ़ रही थी। वो खुद को अब्बेकबजाह आराम से नहीबरख पा रहा था। कभी उठ कर बाथरूम में जाता और खुद को शीशे में देखता , तो कभी ट्रेन के दरवाजे पर खड़ा हो कर गुजर रहे गांव के घरों को देखता । रास्ते में उसे जब कही भी बाग दिख जाता , तो उसे अपने दिल को सम्हालना मुश्किल सा हो जाता।
पल पल अभय के लिए कटना मुश्किल हो रहा था। वो अभी खुद से सवाल करता की, मिल कर क्या बोलेगा? बताए की ना बताए उसे, की वो ही अभय है, उसका अभय। वो अभी भिंकिसी फैसले पर नही पहुंच पा रहा था। दिल की धड़कने भले ही तेज थी, पर चेहरे पर अलग ही चमक थी।
जिस बचपन को वो भूल चुका था, वही बचपन आज उसे याद आ रहा था। अपने दोस्तों के साथ बिताए हुए वो खुशनुमा पल, उसे एकबजीब सा अहसास दे जाति। उसे ऐसा लग रहा था। जैसे उसे आज उसका बचपन बुला रहा है, और वो एक बार फिर से अपना बचपन जीने जा रहा है। कितना सुहाना और मनभावन होता है बचपन का वो एहसास। जहां से हम अपनी जिंदगी किं शुरुवात करते है, साथ खेलते हस्ते दोस्त बन जाते है। छोटी छोटी शरारते जिंदगी का अहम किस्सा बन जाते है। बचपन है यारों जो हर एक इंसान का पहला पन्ना होता है। जिसे जितनी बार पढ़ो सिर्फ खुशियाभी मिलती है।
ये सोचते सोचते कब 5 घंटो का सफर भी गुजर जाता है अभि को पता ही नही चलता, और पता तब चलता है, जब उसे हवेली का वही कमरा दिखता है, जो कमरा उसने तब देखा था जब वो गांव छोड़ कर जा रहा था। फर्क सिर्फ इतना था की, वो समय उसके जिंदगी और रात के अंधेरे का था, पर आज का समय दिन दिन के उजाले और उसके जिंदगी के उजाले का है....
Wow, bahot hi mast update hai...अपडेट 12
अभय आज भी उस हवेली के ऊपर वाले कमरे को उसी नजरों से देख रहा था, जिस नजर से उस रात देखा था। एक पल के लिए वो अपने आप को शक्तिहीन और बेहद थका हुआ प्यासा महसूस करने लगा। जैसे उस रात वो तुफानो से लड़ता हुआ थक हार कर उस ट्रेन तक पहुंचा से जहां से आखिरी बार उसने हवेली का वो कमरा देखा था।
वो दृश्य याद कर कर अभय का दिमाग उलझन में तो दिल दुख में समा गया । पर तभी ट्रेन रुकी, अभय की तंद्रा भंग हुई, और अब उसे अपनी नजरों के सामने उसके गांव का स्टेशन था। अपने कंधो पर बैग टांगे उसने स्टेशन पर अपना पहला कदम रखा। आज वो बच्चा नहीं था। बच्चा तो वो तब भी नही था जब वो घर छोड़ कर भाग था। खाली कद छोटा था , पर आज वो कद से भी बड़ा था।
गांव में कदम रखते ही, उसके दिल को एक अजीब सा सुकून मिला। उसे ऐसा लग रहा था मानो आज इतने सालो बाद भी उसे अपने गांव में आकर अजनबी नही लग रहा था। अभय ने एक बार चारो तरफ स्टेशन की तरफ देखा और स्टेशन से बाहर निकल कर बाहर सड़क पर आ गया। वो कच्ची सड़क अब पक्की हो गई थी। अभय को वहां से अपना गांव साफ साफ दिखाई दे रहा था। अपने गांव को देखते ही उसके मन में हर्षो उल्लास के कीड़े दौड़ने लगे। और वो बिना देरी किए , अपने कदम पक्की काली सड़क पर बढ़ाते हुए अपने गांव की तरफ चल दिया।
अभय रास्ते पर चलते हुए उन सब जगहों से गुजरा , जहा उसका बचपन खेल कूद रहा था। वो नदी, जिस में वो अपने छोटे दोस्तो के साथ घूमने और नहाने आया करता था। वो आम का बगीचा, जिस बगीचे में अभय अक्सर पायल को घुमाने ले कर आया करता था। और अंत में सड़क के तीन मोहाने पर पहुंच कर, जैसे अपने गांव वाली सड़क पर पैर रखा। उसके सामने अमरूद का बड़ा सा बगीचा नजर आया।
उस अमरूद के बगीचे को देखकर अभि के चेहरे के भाव बदल गए। पल भर में ही खुशनुमा चेहरा क्रोध की अग्नि में भभकने लगा। अभय को न जाने क्या हुआ और वो अपना बैग सड़क के किनारे फेंकते हुए जोर जोर से गुस्से में चिल्लाने लगा। उसके उपर गुस्से का भार बढ़ता जा रहा था। वो इस तरह गुस्से में पगला गया की , तीन मोहाने पर टंगा ठाकुर परम सिंह डिग्री कॉलेज का वो लोखंड का बोर्ड, उखड़ने लगा। क्या हो गया था अभि को, की उसे इतना गुस्सा आया की वो डिग्री कॉलेज का बोर्ड उखाड़ कर फेंकने में जुट गया। हालाकि वो बोर्ड काफी मजबूती से गड़ा था। जो अभी के अकेले उखड़ने के बस से बाहर था। मगर अभी गुस्से में बौखलाया, जब बोर्ड नही उखड़ा तो वही शांति से अपने सिर पर हाथ रख कर बैठ जाता है। और खुद को समझते हुए खुद कोठी शांत करने लगा।
अभि कुछ देर तक उस मोड़ पर यूं ही बैठा रहा। तभी उसके ख्यालों में पायल का जिक्र आया। और वो तुरंत ही शांति की आगोश में चला गया। एक ठंडी सास लेते हुए, अपने आप को देखते हुए खुद से मन में बोला.....
"क्या कर रहा है तू अभी, खुद को तकलीफ क्यूं दे रहा है। तकलीफ तो तुझे देना है, याद रख, या कहीं लिख ले। यूं हीं छोड़ दिया तो सबक नही मिलेगा। लेकिन अभी तेरा काम है अपने बाप के उन सवालों का पता लगाना। खुद को शांत कर, इन्हे अपनी सच्चाई मत बता। की तू ही अभय है, नही तो शायद तेरे बाप के सवालों को खोजने में तेरे रास्ते में कांटे ही कांटे बीछे मिलेंगे। इसीलिए नॉर्मल बिहेव कर, जैसे तू इस गांव के लिए नया है और सिर्फ पड़ने आया है। मगर पायल का क्या? उससे तो दूर नहीं रह सकता ना? और उससे दूर कहा ही, उसके पास ही तो रहूंगा, बस कुछ समय के लिए उसे अपनी असलियत से बेखबर रखना है। समय आने पर उसे भी पता चलेगा तो जरूर समझेगी, वो।"
अभय खुद से ही सवाल जवाब करने लगा था। तभी उसे गाड़ी की हॉर्न सुनाई दी। पलट कर देखा तो एक सफेद रंग की ह्युंडई क्रेटा कर खड़ी थी जो लगातार हॉर्न बजा रही थी। होश में आया तो अभी पाया की वो रास्ते के बीचों बीच खड़ा है। अभय अपने कदम उस कार की तरफ बढ़ाते हुए कार के नजदीक पहुंचा। और कर के कांच को अपनी हाथ के उंगलियों से खटखटाया....
कुछ ही पल में कांच नीचे घिसकाने लगा , और अभि के नजरों के सामने कार के अंदर का नजारा दृष्मान होने लगा । अभि आधा ही कांच नीचे घिसका था की, अभय के चेहरे कबरंग फिर से गायब हो गया। उसके हाथ पांव में अजीब सिरहन उठाने लगी। दिल जोर जोर से धड़कने लगा। आंखें भी हैरत से चौड़ी हो चुकी थी। तभी उसके कानो में एक आवाज गूंजी...
"कौन हो बेटा? कहा जाना है तुम्हे?"
ये मीठी सी आवाज भी अभय को नीम के पत्तो की तरह कड़वी सी लगी। अभि के आंखो पर यकीन नही हो रहा था की, वो जिसे देखना भी नही चाहता था, वही उसकी आंखो के सामने थी आज। जी हां कर के अंदर ड्राइविंग सीट पर संध्या बैठी थी। बरसो बाद अभि अपनी मां का चेहरा देख रहा था। अगर उसकी यादों में उसकी मां का जरा सा भी प्यार सुमार होता। तो अभि तुरंत पिघल जाता और अपनी मनके गले लग जाता। पर अभी की यादों में उसकी मां की कोई जगह नही थी। आज उसकी मां उसकी आंखो के सामने थी पर फिर भी, अभि के दिल में सिर्फ जलन और गुस्सा ही था अपनी मां के लिए।
अभय की आंखे सीधा संध्या की आंखो मे ही झांक रही थी। और संध्या भी कुछ पल के लिए अभी के आंखो में को से गई। चुटिया थी संध्या इतना भी नही नहीं समझी की उसकी आंखो में झांक कर देखने वाली निगाह गुस्से और जलन की चिंगारी है। पर संध्या भी खामोश एक पल के लिए अभी की आंखो में देखती रही,।
"कौन है दीदी?"
एक और आवाज ने अभि के कानो पर दस्तक दी। अभय देख तो नहीं सका की किसकी आवाज है, पर आवाज से जरूर पहेचान गया था की ये आवाज उसकी चाची मालती की है। पर इससे भी अभि को कोइनफार्क नही पड़ा।
संध्या --"एक लड़का है, कहा जाना है बेटा? नए लगते हो इस गांव में?"
अपनी मां की बात सुनकर, अभि मुस्कुरा पड़ा, और बोला...
अभि --"मुझे तो आप नई लगती है इस गांव में, नही तो मुझे जरूर पहेचान लेती। मैं तो पुराना चावल हूं इस गांव का। आप इस गांव की बदचलन...आ...मेरा मतलब बहुत ही उच्च हस्ती की ठाकुराइन है। हजारों एकड़ की जमीन है। और आपका ना मिस संध्या सिंह है। जो बी ए तक की पढ़ाई की है, और वो भी नकल कर कर के पास हुई है। नकल करने वाला कोई और नहीं बल्कि आपके पतिदेव ठाकुर मनन सिंह जी थे। इतना काफी है मेरे गांव का पुराना चावल होने का की कुछ और भी बताऊं।"
संध्या के कान पर से फड़फड़ाती हुई चिड़िया उड़ गई हो जैसे, मुंह खुला का खुला, आंखो और चेहरे पर आश्चर्य के भाव और सबसे बड़ी बात वो अपने आप में ही नही थी। वो आंखे फाड़े अभि की बस देखती रह गई...अभी ने जब संध्या के भाव देखे तो, उसने कांच के अंदर हाथ बढ़ाते हुए संध्या के आंखो के सामने ले जाकर एक चुटकी बजाते हुए...
अभि --"कहा खो गई मैडम? आपने कहीं सच तो नही मान लिया? मेरी आदत है यूं अजनबियों से मजाक करने की।"
संध्या होश में तो जरूर आती है, पर अभी भी वो सदमे में थी में थी। पीछे सीट पर बैठी मालती, ललिता का भी कुछ यूं ही हाल था। तीनो को समझ में नहीं आ रहा था की, ये सारी बाते इस लड़के को कैसे मालूम? और ऊपर से कह रहा है की ये मजाक था। संध्या का दिमाग काम करना बंद हो गया था,।
संध्या --" ये...ये तुम मजाक कर ...कर रहे थे?
ये सुनकर अभि मन ही मन गुस्से की मुस्कान हंसते हुए मुस्कुरा कर बोला --
अभि --"मैडम कुछ समझा नहीं, आप क्या बोल रही है? वर्ड रिपीट मत करिए, और फिल्मों के जैसा डायलॉग तो मत ही मरिए, साफ साफ स्पष्ट शब्दों में पूछिए।"
संध्या --"मैंकः रही थी की, क्या तुम सच में मजाक कर रहे थे?"
अभि --"मैं तो मजाक ही कर रहा था, मगर अक्सर मेरे जानने वाले लोग कहते है की , मेरा मजाक अक्सर सच होता है।"
संध्या , ललिता और मालती अभि भी सदमे में थे। तीनो अभि के चेहरे को गौर से देख रही थी, पर कुछ समझ नहीं पा रही थी। बस किसी मूर्ति की तरह एकटक अभि को देखे जा रही थी।
अभि --"मुझे देख कर हो गया हो तो, कृपया आप मुझे ये बताएंगी की , ठाकुर परम सिंह इंटरमीडिएट कॉलेज के लिए कौन सा रास्ते पर जाना होगा?"
तिनोंके चेहरे के रंग उड़े हुए थे, पर तभी संध्या ने पूछा...
संध्या --"नए स्टूडेंट हो क्या तुम?"
अभि मुस्कुराते हुए एक बार फिर से बोला...
अभि --"जाहिर सी बात है, आज से कॉलेज स्टार्ट हुए है तो, इस गांव में स्टूडेंट ही आयेंगे ना। कोई टूरिस्ट प्लेस तो है नही ये, जो कंधे पर बैग रख कर घूमने आ जायेगा कोई।"
संध्या --"बाते काफी दिलचस्प करते हो तुम।"
अभि --"अब क्या करू , जब सामने इतनी खूबसूरत औरत हो तो दिलचस्पी खुद ब खुद बढ़ जाती है।, वैसे ,मेरा नाम अभय है। अच्छा लगा आपसे मिलकर।"
ये नाम सुनते ही, पीछे बैठी ललिता और मालती फटक से दरवाजा खोलते हुए गाड़ी से नीचे उतर जाति है। और बहार खड़े अभि को देखने लगती है। संध्या की तो मानो जुबान ही अटक गई हो, गला सुख चला। तीनो की हवाइयां उड़ चुकी थी, और संध्या का चेहरा तो देखन लायक था , इस कदर के भाव चेहरे पर अर्जित थे किं शब्दों में ब्यक्त करना उस भाव की बेइज्जती होगी।
इधर अभि मन ही मन खूब मस्त होते जा रहा था, और खुद से बोला....
"अभि तो शुरुवात है, ठाकुराइन। आगे ऐसे ऐसे सदमे दूंगा की, सदमे को भी सदमा लग जायेगा। बस एक बार मुझे मेरे बाप के जिंदगी का वो पन्ना मिल जाए जिनपर उन्होंने वो सवाल लिखे है। फिर तो तुम लोगो के जिंदगी के पन्नो पर मैं ऐसे सवाल लिखूंगा की कभी सॉल्व ही नही होगा।"
अभि --"क्या हुआ आप को मैडम, कब से देख रहा हूं,बोल कुछ नही रही हो, सिर्फ गिरगिट की तरह चेहरे के रंग बदल रही हो बस। लगता है इस चीज में महारत हासिल है आपको!!"
संध्या सच में गहरी सोच में पड़ गई थी, वो कुछ समझ नहीं पा रही थी , उसका सिर भी दुखने लगा था। वो कार के अंदर बैठी होश में आते हुए बोली...
संध्या --"आ जाओ बैठो , मैं तुम्हे...हॉस्टल तक छोड़ देती हूं।"
अभि --"ये हुई न बात, काम की बात आप थोड़ा रंग बदलने के बात करती है, i like it।"
फिर अभि कार में बैठ जाता है, ललिता और मालती भी सदमे में थी। तो वो भी बिना कुछ बोले कार में बैठ गई। कर हॉस्टल की तरफ चल पड़ी। संध्या चला तो रही थी कार, पर उसका ध्यान पूरा अभि पर था। वो बार बार अभि को अपनी नज़रे घुमा कर देखती । और ये बात अभि को पता थी..
अभि --"मैडम अगर मुझे देख कर हो गया हो तो, प्लेस आगे देख कर गाड़ी चला लो, नही तो अभि अभि जवानी में कदम रखा हूं, बिना कच्छी काली तोड़े ही शहीद ना हो जाऊ,।"
ये सुनकर संध्या के चेहरे पर अचानक ही मुस्कान फैल गई। उसके गोरे गुलाबी गाल देख कर अभि बोला...
अभि --"लगता है खूब बादाम और केसर के दूध पिया है आपने?"
ये सुनकर संध्या सकते में आ गई और बोली...
संध्या --"क्यूं? तुम ऐसे क्यूं बोल रहे हो"
अभि --"नही बस आपके गुलाबी गाल देख कर बोल दिया मैने, वैसे इतनी बड़ी जायदाद है, बादाम और केसर क्या चीज है आपके लिए।"
अभि की बात सुनकर संध्या ने कुछ सोचते हुए बोला...
संध्या --"क्यूं क्या तुम्हारी मां तुम्हे बादाम के दूध नही पिलाती है क्या?"
ये सुनकर अभि जोर जोर से हंसने लगा, अभि को इस तरह हंसता देख संध्या आश्चर्य के भाव में बोली...
संध्या --"क्या हुआ कुछ गलत पूंछ लिया क्या?"
अभि --"नही गलत तो नहीं था, पर सवाल पूरा नही था। आप किस मां की मां की बात कर रही है, जिसने मुझे जन्म दिया है या जिसने मुझे सहारा दिया है।"
अभि की बातें संध्या के दिल की धड़कने धीरे धीर बढ़ाए जा रही थी। उसे बेचैनी सी हो रही थी।
संध्या --"मैं कुछ समझी नहीं, जन्म देने वाली कभी तो मां होती है।"
अभि --"इसी लिए आपको बि ए कि डिग्री के लिए नकल करना पड़ा था। मां का कोई रूप नही होता, मैडम। मां किसी भी रूप में अपने बच्चे पर प्यार लुटाने आ जाति है। जैसे मेरी जिंदगी में आई, खैर छोड़ो वो सब , तुम जन्म देने वाली मां किंबात कर रही थी ना। तो बात ये है की अगर मेरी मां का बस चलता तो बादाम और केसर वाली दूध की जगह जहर वालीं दूध दे देती। थोड़ा समय लगा पर मैं समझ गया था। इस लिए तो मैं अपनी मां को ही छोड़ कर भाग गया था।"
अभि अपनी बात खत्म ही किया था की , संध्या ने जोरदार ब्रेक एक झटके में लगाते हुए गाड़ी रोक दिया। उड़ चुके चेहरे के भाव को लिए संध्या ने पूछा।
संध्या --"अपनी मां को छोड़ कर भाग गए, ये ...ये भी तो हो सकता है की तुम्हे अपनी मां को समझने में भूल हुई हो।"
अभि अपनी मां की बात सुनकर, मन ही मन मुस्कुराया, वो समझ गया था की उसे जो काम करना था वो कर दिया है, बस अब एक और दांव बाकी था, जो अब अभि अचलने वाला था। अभि अब गुस्से में थोड़ा गुर्राते हुए बोला...
अभि --"पहेली बार सुन रहा हूं की, एक बच्चे को भी अपनी मां को समझना पड़ता है, कौन है आप, इतनी भी अकल नही है तुम्हे की मां बेटे का प्यार पहले से ही समझा समझाया होता है।"
कहते हुए जब अभि ने अपनी मां की तरफ देखा तो संध्या के आंखो से आसुओं किंधरा फुट रही थी। ये देख कर अभि मन में खुद से बोला...
"कमाल है, ये रोती भी है।"
संध्या --"अगर तुम्हे , बुरा न लगे तो एक बात पूछूं।"
अभि --"नही, कुछ मत पूछो, तुमने ऑलरेडी ऐसे सवाल पूछ कर हद पार कर दी है। मैं यह पढ़ने आया हूं, और मै नही चाहता की मेरा दिमाग किसी भंवर में फंसे।"
संध्या --"मैं तो बस ये कहें चाहती थी की, अगर तुम्हे हॉस्टल में तकलीफ हो तो , मेरे साथ रह सकते हो।"
संध्या की बात सुनकर अभि बोला...
अभि --"जब साल की उम्र में घर छोड़ा था , तब तकलीफ नहीं हुई तो अब क्या होगी? तकलीफों से लड़ना आता है मुझे, मैं दो रोटी में ही खुश हु, आपकी हवेली के बादाम और केसर के दूध मुझे नही पचेंगे। और वैसे भी तुम्हारा कोई बेटा नहीं है क्या? उसे पिलाओ भर भर के।"
संध्या खुद खुद को संभाल नहीं पाई और कर से रोते हुए बाहर निकल जाति है...
ये देख कर अभि भी गुस्से में अपना बैग उठता है और कर से बाहर निकल कर अपने हॉस्टल की तरफ चल पड़ता है, अभि को बाहर जाते देख, खामोश बैठी मालती की भी आंखो में आसुओं की बारिश हो रही थी, वो बस अभी को जाते हुए देखती रहती है.....
पर अभी एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखता...