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Ajju Landwalia

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इतनी साफ सुथरी देवनागरी में लिखकर ही आपने मेरा दिल जीत लिया। सही जगह पर सही शब्दों का प्रयोग किया है आपने।
जहां तक कहानी में सिर्फ और सिर्फ सेक्स लिखने की बात है तो वह मुझे भी बकवास लगता है। एक कहानी चाहिए जो दिल को छू ले और अगर सेक्स हो भी तो कहानी के जरूरत के हिसाब से हो। बेवजह और क्षण क्षण में सेक्सुअल एक्टिविटीज कहानी के मूल भाव को खतम कर देता है।

मुझे आपके लिखने का अंदाज बेहद ही पसंद आया।
कहानी का पहला अपडेट भी काफी खूबसूरत था।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग एंड ब्रिलिएंट अपडेट।

100% Agree with you Sanju Bhai
 

The Sphinx

𝙸𝙽𝚂𝙲𝚁𝚄𝚃𝙰𝙱𝙻𝙴...
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सबसे पहले साधुवाद! 👏
कोई जब देवनागरी में लिखता है तो मुझे बड़ा अच्छा लगता है। और जब कोई आपके जैसी साफ़ भाषा का प्रयोग करता है तो और भी अच्छा लगता है। वैसे तो मैं incest नहीं पढ़ता - बस एक दो कहानियाँ ही हैं जिनको मैं पड़ता हूँ - लेकिन अगर भाषा ऐसी होगी, तो अवश्य पढूँगा और आपका मनोबल बढ़ाता रहूँगा। 👍
धन्यवाद मित्र। बेशक भाषा को आगे भी यूंही बनाए रखने का प्रयास रहेगा, और कोशिश रहेगी की कहानी आपको पसंद आए। आपके प्रोत्साहन के लिए पुनः धन्यवाद।

इतनी साफ सुथरी देवनागरी में लिखकर ही आपने मेरा दिल जीत लिया। सही जगह पर सही शब्दों का प्रयोग किया है आपने।
जहां तक कहानी में सिर्फ और सिर्फ सेक्स लिखने की बात है तो वह मुझे भी बकवास लगता है। एक कहानी चाहिए जो दिल को छू ले और अगर सेक्स हो भी तो कहानी के जरूरत के हिसाब से हो। बेवजह और क्षण क्षण में सेक्सुअल एक्टिविटीज कहानी के मूल भाव को खतम कर देता है।

मुझे आपके लिखने का अंदाज बेहद ही पसंद आया।
कहानी का पहला अपडेट भी काफी खूबसूरत था।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग एंड ब्रिलिएंट अपडेट।
बहुत धन्यवाद आपका बंधु। देवनागरी की यही तो खासियत है कि साधारण से लेख को भी असाधारण बनाने की काबिलियत है इस लिपि में। आपके प्रोत्साहन और तारीफ के लिए पुनः धन्यवाद। बने रहिएगा!

ये स्टोरी कुछ नया रंग लायेगी,???¿
अवश्य लाएगी!

Congratulations for your new thread regular Bane raho aur complete karna aur pura support milega bhai ok and nice Introduction and nice start and nice Title bro
Rochak aur Romanchak update. Pratiksha agle rasprad update ki
That was too good
Congratulations for your story💐
Congratulations for new thread..
Keep rocking..
:congrats: For starting new story thread....
Nice update
आप सभी मित्रों का बहुत बहुत धन्यवाद, आगे भी कहानी के साथ जुड़े रहिएगा और अपने बहुमूल्य विचार सामने रखते रहिएगा।

अगला अध्याय अभी कुछ ही पलों में आपके सामने होगा। तब तक के लिए, बने रहिए!
 
Last edited:

The Sphinx

𝙸𝙽𝚂𝙲𝚁𝚄𝚃𝙰𝙱𝙻𝙴...
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अध्याय – 2


“विवान "...

स्नेहा से बात करने के पश्चात मैं काफी अच्छा महसूस कर रहा था और सुबह से ही जो उदासी और द्वंद्व मेरे भीतर चल रहे थे उनसे मुझे कुछ राहत भी मिल गई थी। नाश्ता करने का फिलहाल मेरा मन नहीं था, इसीलिए अपनी कुछ किताबें लेकर मैं बाहर आ गया। मेरा मकान कुछ डेढ़ सौ गज के क्षेत्र में बना था और उसके चारों ओर लगभग पांच फीट ऊंची चारदीवारी की हुई थी। दरवाज़े को खोलते ही बाहर बैठने के लिए एक कुर्सी भी रखी हुई थी जिस से दस – पंद्रह कदम आगे मकान की चारदीवारी के बीच एक लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था। मैं बाहर आकर उसी कुर्सी पर अपनी किताब में नज़रें गड़ाकर बैठ गया। अभी मुझे अध्ययन करते हुए कुछ ही पल हुए थे कि किसीके द्वारा मेरा नाम पुकारे जाने की ध्वनि मेरे कानों में पड़ी। इस स्वर से मैं भली – भांति परिचित था, इसीलिए बिना उस आवाज़ की दिशा में देखे, मेरे होंठों पर एक मुस्कान नाच उठी।

मैंने वो किताब वहीं कुर्सी पर रखी और उस दिशा में देखा। स्वतः ही मेरे होंठों की वो मुस्कान कुछ और भी गहरा गई। मैं मुख्य दरवाज़े की ओर बढ़ता हुआ दीवार के पास जाकर खड़ा हो गया। दीवार के उस ओर शायद दुनिया की सबसे खूबसूरत कलाकृतियों में से एक मौजूद थी। हल्के गुलाबी रंग का सलवार कमीज़, कानों में छोटे – छोटे मोरपंखी झुमके और बाएं कान के करीब से लटक रही उसके बालों की वो लट, शायद आज वो मेरा कत्ल करने का निश्चय कर आई थी। बूंदा – बांदी अब थम चुकी थी, शुक्र है कि तेज़ बरसात नही हुई परंतु मौसम में ठंडक अभी भी बनी हुई थी, जो उसकी मौजूदगी को और भी खास बना रही थी। मैंने अपनी दोनो बाजुओं को मोड़कर उस दीवार पर रख दिया और बीच में अपना सर रख उसके चेहरे को देखने लगा। इस बीच मुझे एक टक देख रही उस परी की आंखों में लज्जा उभरते हुए मैं स्पष्ट रूप से देख पा रहा था। पर कुछ न कहकर मैं बस उसकी आखों में झांकते हुए मुस्कुराने लगा।

तभी, उसने अपने बाएं हाथ की अंगुलियों से उस कहर ढाती लट को अपने कान के पीछे कर दिया। उसी क्षण मैंने उसकी आंखों में ही झांकते हुए हल्के से ना में सर हिला दिया। जिसपर उसने अपनी बौहें हल्की सी उठाते हुए प्रश्नजनक निगाहों से मुझे देखा। मैंने बिना हिचकिचाए अपने हाथ को धीमे से आगे बढ़ाकर वापस से उस लट को उसके कान के पीछे से हटा आगे की ओर कर दिया। पहली बार मेरे मुख से शब्द निकले, “ऐसे अच्छी लगती हो"!

जैसे ही मेरी अंगुलियों का हल्का सा स्पर्श उसके बाएं गाल के किनारे पर हुआ उसकी आंखें एक पल को बोझिल सी हो गई और अगले ही पल मेरी अंगुलियों की क्रिया ने उसे बेशक अचंभित कर दिया। किंतु अगले ही पल मेरे मुख से निकले शब्दों के चलते लज्जा वश उसकी नज़रें झुक गई और गालों पर लाली आने लगी। कुछ पलों के लिए मैं शांत ही रहा और वो चोरी चोरी मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करती रही। तभी,

मैं : आशु...

[ अस्मिता शर्मा {आशु} (आयु : 21 वर्ष) : मेरे मकान के बिल्कुल बगल में बना घर इसका ही है। घर में केवल ये और इसकी दादी ही रहते हैं। अस्मिता के माता – पिता की मृत्यु आज से पंद्रह बरस पहले हो गई थी, अर्थात जब वो मात्र 6 वर्ष की थी तब एक सड़क दुर्घटना में उन दोनों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। उसी दुर्घटना में अस्मिता की दादी को भी गहरी चोटें आई थीं जिसके कारण आज वो अपने पैरों पर खड़ी भी नही हो पाती। अस्मिता के लिए उसकी दादी ही उसका संसार थी और हैं भी परंतु आज से तीन वर्ष पूर्व इसके संसार में एक नाम और जुड़ गया था और ऐसा जुड़ा की अस्मिता शायद खुद को ही भुला बैठी। मेरे साथ, मेरी ही कॉलेज और कक्षा में पढ़ती है। जितनी खूबसूरत ये सूरत से है उतनी ही सुंदर इसकी सीरत है। छोटे बच्चों और जानवरों से भी खास लगाव है इसे। ]

मैंने जैसे ही उसे “आशु" कहकर पुकारा तो एक दम से नज़रें उठाकर उसने मेरी और देखा। उसकी दादी उसे आशु कहकर ही पुकारती थीं जबकि मैं उसे अस्मिता कहकर पुकारता था। परंतु एक बार उसने खुद ही मुझसे कहा था कि उसे आशु कहकर पुकारा जाना ज़्यादा पसंद है। खैर, वो एक अलग किस्सा है। परंतु, उसके बाद भी मैं कम ही उसे इस नाम से पुकारता था, इसके भी दो कारण थे। पहला, कहीं न कहीं उसका पूर्ण नाम मुझे बहुत भाता था और दूसरा, उसका वो चेहरा, जब मैं उसे अस्मिता कहकर पुकारता तो उसके चेहरे पर आए नाराजगी के भाव मेरे दिल के तार छेड़ दिया करते। खैर, आज एकांकी अपने लिए मेरी ओर से ये संबोधन सुन उसके चेहरे पर स्वतः ही अचंभे और खुशी के भाव आ गए।

अस्मिता : फिर से कहना।

मैं (मुस्कुराकर) : क्या?

अस्मिता : विवान..

भोला सा चेहरा बनाते हुए कहा उसने जिसपर मैंने उसकी नाक को हल्के से खींच दिया और,

मैं : तू कितने साल की है आशु?

पुनः वही संबोधन सुन जहां उसकी खुशी बढ़ गई वहीं मेरे सवाल पर नासमझी के भाव उसके चेहरे पर उभर आए। पर तभी,

अस्मिता : लड़कियों से उनकी उम्र नही पूछते बुद्धू!

विवान : बता ना, मुझसे क्या छुपाना।

अस्मिता ने एक पल मुझे देखा और फिर, “21.. क्यों"?

मैं : लेकिन तेरी बातें पांच साल की बच्ची जैसी हैं। बड़ी हो जा वरना कोई शादी भी नही करेगा तुझसे, कहे देता हूं।

अस्मिता : मैं जिससे शादी करूंगी वो मुझे ना बोल ही नहीं सकता।

मेरी आंखों में झांकते हुए शरारत से कहा उसने जिसपर,

मैं : कौन है वो बद.. मेरा मतलब खुशकिस्मत?

अस्मिता ने एक पल मुझे घूरा और जैसे ही वो कुछ जवाब देती, उससे पहले ही उसकी दादी द्वारा उसे पुकारने की आवाज़ आ गई। वो दो पल मुझे देखती रही और जैसे ही पलटकर जाने को हुई, तभी,

मैं : गुलाबी रंग जंचता है तुझ पर।

अचानक ही उसके कदम वहीं जम से गए परंतु वो पलटी नही, बस अगले ही पल तेज़ कदमों से अपने घर की तरफ चल दी। मैं वहीं खड़ा उसे जाते देखने लगा और जब उसका अक्स भी उसके घर के अंदर, मेरी नज़रों की सीमा से दूर निकल गया, तब भी मैं वहीं खड़ा रहा। जाने क्या जादू था उस लड़की में, जब भी पास होती तो दूर लगती, और जब दूर होती तो उसकी खुशबू अपने सबसे करीब लगती। खैर, कुछ देर मैं वहीं खड़ा अस्मिता के बारे में सोचता रहा और फिर वापिस उस कुर्सी की तरफ बढ़ गया।


“भाईसाहब, आप मेरी बात नही समझ रहे हैं, ये हमारे लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है"।

एक बड़े से कमरे में जहां एक शख्स आरामदायक कुर्सी पर बैठा था तो वहीं एक और व्यक्ति उसके समक्ष हाथ बांधे खड़ा था। उसने ही ये शब्द बैठे हुए शख्स से कहे थे जिसपर,

“मुझसे ज़्यादा खतरनाक कुछ नही है, जानते हो ना"।

“ज.. जी भाईसाहब, प.. पर वो, अगर वो यहां पहुंच गया तो"?

“तो वो भी मरेगा। इस बार.. इस बार वही होगा जो मैं चाहता हूं। बहुत हो गया ये नाटक,अब खेल खत्म करने का वक्त आ गया है"।

“आप क्या करने वाले हैं"?

“कहा ना मैंने, अब खेल पूरी तरह से खत्म होगा। दुश्मनी खत्म करने का सिर्फ एक ही तरीका होता है, अपने दुश्मन को खत्म कर दो"।

“म.. मतलब"?

“मतलब वही जो तू सोच रहा है। जितना भी हिसाब बाकी है, सब लिख ले। जल्दी ही सूत समेत वसूलने वाला हूं मैं"।

जितनी रौबदार उस कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की आवाज़ थी, उतना ही संजीदा उसका चेहरा दिखाई पड़ रहा था। दूसरा शख्स आगे कुछ कहने को हुआ पर तभी उसने अपना हाथ दिखाकर उसे रोक दिया। एक पल को वो शांत होकर अपनी कुर्सी पर बैठा रहा और फिर अपने सामने रखी एक डिब्बी, जोकि किसी धातु से बनी थी, उसे उठाकर, उसमें से एक महंगी सिगार निकाल अपने मुंह से लगा ली। एक बार हल्की सी नजर उठाकर उसने अपने सामने खड़े उस शख्स को देखा और वो हड़बड़ाकर कुर्सी की ओर बढ़ चला। उसने अपने कांपते हुए हाथों में पकड़े हुए लाइटर से उस सिगार को सुलगाया और फिर कुछ कदम पीछे होकर खड़ा हो गया। फिलहाल उसकी श्वास असामान्य हो चुकी थी, नतीजतन माथे और चेहरे पर पसीना उभरने लगा था। कुर्सी पर बैठे उस व्यक्ति ने इसकी तरफ देखा और एक व्यंग्यात्मक मुस्कान उसके होंठों पर उभर आई।

उस मुस्कान को देखकर ये हड़बड़ा गया और अपनी जेब से रुमाल निकलकर अपने चेहरे को पोंछने लगा। तभी,

“अशफ़ाक को फोन कर"।

अभी वो रुमाल जेब में रखने ही वाला था कि ये शब्द सुनकर उसके हाथ से रुमाल छिटक कर नीचे गिर गया। वो आंखें फाड़े कुर्सी पर बैठे इस आदमी को देखने लगा और फिर बड़ी मुश्किल से उसने अपने कंठ से ये शब्द निकाले,

“अ.. अशफ़ाक"!?

“मुझे अपनी बातें दोहराने की आदत नही है, और तुम ये अच्छी तरह जानते हो"।

“प.. पर"...

बस एक बार जलती हुई निगाहों से उसने इसकी तरफ देखा और आगे के शब्दों ने इसके कंठ में ही प्राण त्याग दिए। अपने और अधिक कांप रहे हाथों से इसने अपनी जेब से मोबाइल निकाला और जल्दी – जल्दी उसपर अंगुलियां चलाने लगा। कुछ देर बाद वो कुर्सी के नज़दीक हाथ में मोबाइल पकड़े खड़ा था, और उसकी सहमी सी नज़रें कुर्सी पर बैठे उस शख्स पर ही जमी हुई थी। तभी मोबाइल से एक स्वर उत्पन्न हुआ, “कहो, रणवीर बाबू आज कैसे याद किया"। शायद मोबाइल फोन स्पीकर पर था, इसीलिए कुर्सी पर बैठे उस शख्स के कानों तक भी ये स्वर पहुंच गया।

रणवीर (फोन पर) : भाईसाहब तुमसे बात करेंगे अशफ़ाक।

जैसे ही रणवीर ने ये शब्द कहे, फोन के उस ओर से कुछ गिरने की आवाज़ उत्पन्न हुई जिसका कारण ये दोनो ही समझ गए थे। नतीजतन, उस कुर्सी पर बैठे शख्स के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान ने अपनी जगह बना ली। खैर, उसने रणवीर के हाथों में ही फोन रहने दिया और बोला,

“एक काम है तुम्हारे लिए अशफ़ाक"।

अशफ़ाक (फोन पर) : ज.. जी मालिक हुकुम कीजिए।

“अगले हफ्ते 10 तारीख को, मुझे उन सभी की लाशें चाहिए। सबकी"।

अशफ़ाक : अ.. आप किसकी बात कर रहें हैं मालिक?

उस शख्स ने इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बस अपनी अंगुलियों में पकड़ी उस सिगार, जो अब समाप्त हो चुकी थी, उसे वहीं रखे एक छोटे से बक्से में रख दिया। इस खामोशी से जहां रणवीर के पसीने छूट रहे थे वहीं फोन पर अशफ़ाक की तीव्र होती श्वास उसकी घबराहट की भी गवाही दे रही थी। तभी,

अशफाक : समझ गया मालिक.. समझ गया। प.. पर...

उसकी बात को काटकर,

“वो यहां नही आने वाला अशफ़ाक और इस बार अगर कोई भी चूक हुई तो..."

उस शख्स ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी।

अशफ़ाक : नहीं मालिक कोई गलती नहीं होगी। अगर हो तो मैं...

फिर उसकी बात को काटकर,

“अगर हुई!? सोच भी मत अशफ़ाक, क्योंकि इस अगर के सत्य में बदलते ही तेरी ज़िंदगी मौत में बदल जाएगी"!

इतना कहते ही उसने रणवीर को घूरा और रणवीर ने भी फटाफट फोन काट दिया।


*खट ~ खट ~ खट*...

रात का वक्त था, चांद बखूबी अपनी चांदनी बिखेर रहा था और आज भोर से ही लगातार, थोड़े – थोड़े अंतराल पर चली आ रही धीमी बरसात के कारण मौसम बड़ा सुहावना सा हो चुका था। मैं इस समय एक घर के दरवाज़े पर खड़ा उसपर दस्तक दे रहा था कि तभी मुझे अंदर से आती कदमों की आहट सुनाई दी। फलस्वरूप, मैंने अपने हाथों की क्रिया को रोक दिया। जैसे ही दरवाज़ा खुला एक साथ ही दो प्रतिक्रियाएं हुईं। पहली, मेरे सामने खड़ी अस्मिता को देख कर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई, वहीं अस्मिता मुझे देखकर प्रसन्न और हैरान, दोनों ही हो गई। हैरानी का कारण जल्दी ही पता चल जाएगा, और प्रसन्नता का बताने की आवश्यकता है?

अस्मिता : विवान! तुम यहां?

मैं (मुस्कुराकर) : क्यों? नही आ सकता?

अस्मिता : नहीं – नहीं.. हां.. मेरा मतलब दादी गुस्सा होंगी।

मैं : तो क्या हुआ? उनका गुस्सा देखकर मुझे तो बड़ा मज़ा आता है।

अस्मिता : गुस्सा देखकर मज़ा?

मैं : अपनों की मार दुलार के ही समान लगती है अस्मिता।

अस्मिता (मुस्कुराकर) : दादी तुम्हारी अपनी हैं?

मैं : जो तुम्हारे जितने करीब है, वो उतने ही नजदीक मेरे भी है।

अस्मिता (मुस्कुराकर) : वो कैसे?

मैं : तुम भी तो मेरी ही...

मैं अपनी बात भी पूरी नही कर पाया था कि तभी अंदर से अस्मिता की दादी की आवाज़ आई, “कौन है आशु"? इधर अस्मिता मेरी बात को समझकर जहां शर्मा गई थी वहीं उसकी दादी की अचानक ही आवाज़ से मेरे मुंह से स्वयं ही निकल गया,

मैं : कबाब में हड्डी।

अस्मिता (घूरते हुए) : क्या कहा तुमने?

मैंने उसी बात का कोई जवाब नही दिया और बिना कुछ कहे अंदर आ गया। मैं उसकी दादी के कमरे की तरफ बढ़ ही रहा था की तभी अचानक ही मुझे कुछ स्मरण हुआ और मैं वापिस पीछे की तरफ पलटा। अस्मिता जोकि दरवाज़ा लगा रही थी वो भी उसी पल मेरी और मुड़ी और अचानक से ही हड़बड़ा गई। पर मैंने बिना कुछ कहे उसके चेहरे की तरफ हाथ बढ़ाया और अपनी अंगुलियों से एक बार फिर उसके कान के पीछे अटकी उस ज़ुल्फ को आगे उसके चेहरे पर कर दिया।

मैं : कहा था ना कि ऐसे अच्छी लगती है तू।

इतना कहकर मैं पलट गया और अस्मिता की दादी के कमरे की ओर अपना रुख कर लिया। मैंने अस्मिता की प्रतिक्रिया नही देखी थी परंतु मैं जानता था कि वो जड़वत सी खड़ी मुझे ही ताक रही थी।

“कैसी हो दादी"?

मैं जैसे ही अस्मिता की दादी के कमरे में पहुंचा तो उनकी नजर सीधा मुझपर ही पड़ी और एकाएक उनके चेहरे पर गुस्से के भाव आ गए। उसके उपरांत मेरे द्वारा किए गए सवाल पर,

दादी : तू यहां क्या कर रहा है?

मैं : आराम से दादी, धीरे बोलो, मैं बराबर सुन सकता हूं।

दादी : अस्मिता.. ए अस्मिता..

मुझे घूरते हुए उन्होंने तेज़ आवाज़ में अस्मिता को पुकारा तो अगले ही पल अस्मिता भी मेरे पास ही आकर खड़ी हो गई। कुछ असमंजस में फंसी लग रही थी वो।

दादी : ये यहां क्यों आया है आशु?

अस्मिता : वो.. दादी.. वो..

मैं : अरे दादी, इसने ही तो मुझे बुलाया है खाने पर।

जहां मेरी बात सुनकर अस्मिता मुंह फाड़े मेरी ओर देखने लगी वहीं दादी अब अस्मिता को घूरने लगी थी।

मैं : आशु.. तुमने दादी को बताया नहीं?

दादी : ये क्या कह रहा है आशु? और ये तुझे आशु क्यों कह रहा है?

बेहद गुस्से में अपनी दोनों बातें कहीं उन्होंने जिसपर अस्मिता मासूम सा चेहरा बनाकर मेरी ओर देखने लगी। जैसे कह रही हो कि, मैं उसे क्यों फंसा रहा हूं।

मैं : अब यहीं खड़ी रहोगी तो खाना कैसे बनाओगी आशु? चलो जल्दी करो, देख रही हो ना, दादी को कितनी भूख लग रही है?

मैंने अस्मिता को आंखों के इशारे से बाहर जाने को कहा तो वो कुछ सोचकर बाहर की तरफ चल दी। इधर दादी उसे आवाज़ लगाती रही पर वो... खैर, मैंने एक पल दादी की तरफ देखा और फिर चलकर उनके पैरों के नजदीक ज़मीन पर ही बैठ गया। वो एक पहियेदार कुर्सी पर बैठी थीं, आज पहली बार मैं उनके पांव के पास बैठा था, और इसी वजह से अचानक ही उनके चेहरे के भाव बदल गए।

मैं : आप आशु से बहुत प्यार करती हो ना दादी?

उन्होंने कोई जवाब नही दिया, बस मुझे हैरानी से देखती रहीं। मैंने उनके दाएं हाथ को अपने हाथों में पकड़ लिया,

मैं : और इसीलिए आप मुझपर गुस्सा करती हो कि कहीं मैं भी और लड़कों की तरह आपकी पोती को बुरी नज़र से ना देखता होऊं।

दादी ने अचानक ही मेरे सर पर हाथ रख दिया,

दादी : ये बाल ऐसे ही सफेद नहीं हुए हैं। दुनिया देखी है इस बुढ़िया की आंखों ने, अच्छे – बुरे की परख है मुझे। अगर तुम्हारी नज़र मेरी पोती पर वैसी ही होती जैसी आज कल के लड़कों की होती है तो हर रोज़ तेरे भरोसे उसे कालेज नही भेजती। तुझे क्या लगता है, मैं नही पढ़ पाई हूं तेरी आंखों को, जो उनमें मेरी आशु के लिए है उसे? मैंने कहा ना विवान, इन आंखों ने दुनिया देखी है, तुझपर विश्वास करती हूं तभी तू यहां मेरे घर में है, तुझपर विश्वास करती हूं तभी आशु को कभी मना नही करती तेरे साथ कालेज जाने से। बाकी रही बात गुस्से की, तो उसकी वजह जानता है तू, और वो गुस्सा कभी कम नहीं होने वाला, हां।

पूरी बात जिस प्रेम और भावना से कही उन्होंने, खासकर जिस “विश्वास" की बात उन्होंने की, मेरी आंखों में नमी उतरने लगी। पर तभी अपनी कमीज़ के किनारों से अपनी आंखों को पोंछ मैंने मुस्कुराकर कहा,

मैं : उस बात के लिए कितनी बार तो माफी मांग चुका हूं मैं आपसे।

दादी : पर मैंने तो माफ नही किया है।

अभी मैं आगे कुछ कहता उससे पहले ही मुझे हल्की सी सुबकने की आवाज़ सुनाई दी। जिसका कारण मैं भली – भांति समझ गया था, मैंने दादी की तरफ देखा तो उन्होंने प्रथम बार मेरी तरफ मुस्कुराते हुए देखा और हां में सर हिला दिया। मैं बिना कोई आवाज़ किए अपनी जगह से उठा और धीमे कदमों से चलकर कमरे के दरवाज़े के नज़दीक खड़ा हो गया। मेरा अंदेशा सही ही था, वहीं दरवाज़े की ओट में खड़ी अस्मिता अपने मुंह पर हाथ रखे सुबक रही थी। शायद वो हमारी बातें ही सुन रही होगी। जैसे ही उसकी नजर मुझपर पड़ी तो वो रोते हुए भी मुस्कुरा दी और अपनी आंखों को पोंछकर रसोईघर की तरफ बढ़ गई। तभी, “मुस्कुराते हुए भी अच्छी लगती हो तुम"!

इस बार वो पलटी और मुस्कुराते हुए,

अस्मिता : सिर्फ तुम्हारे लिए गुलाबी रंग पहनती हूं, सिर्फ तुम्हारे लिए अपने बालों को कान के पीछे करती हूं, ताकि तुम उसे आगे करो और सिर्फ तुम्हारे लिए ही मुस्कुराती हूं मैं...


X––––––––––X
 
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parkas

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65,862
303
अध्याय – 1


“सारी दुनिया से मुझे क्या लेना है...
बस तुझको ही पहचानुं,
मुझको ना मेरी अब खबर हो कोई,
तुझसे ही खुदको मैं जानूं"...

रोज़ की ही भांति आज भी मैं अपने इस ठिकाने पर बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था। उस खोखे रूपी दुकान में रखे एक मोबाइल में ही ये गाना बज रहा था। उस दुकान का मालिक, शायद 40–45 बरस का रहा होगा वो, उसके जैसा संगीत प्रेमी मैने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था। अब तो काफी समय हो चला था मुझे इस दुकान पर आते हुए, और उस आदमी, या कहूं कि संजीव से मेरी बोलचाल भी काफी अच्छी हो गई थी। वैसे भी, मेरे जीवन में यदि किसी चीज़ की इस वक्त सबसे अधिक आवश्यकता थी तो वो थे किसी के कर्ण और मुख, जिससे मैं अपनी बात कर सकूं। सुना तो था मैंने कि अकेलापन और एकांकी जीवन नर्क समान ही होता है, परंतु पिछले कुछ समय से उसका प्रत्यक्ष उदाहरण मैं अपने ही रूप में देख रहा था।

खैर, संजीव, उसकी भी बड़ी ही रोचक कहानी थी। उसका नाम शुरू से संजीव नही था, अर्थात, जन्म के समय उसके माता – पिता ने तो उसका नामकरण कुछ और ही किया था, परंतु वो, जैसा मैंने बताया संगीत और फिल्म जगत का असामान्य सा प्रेमी था... फलस्वरूप, उसने अपना नाम स्वयं ही बदलकर संजीव कुमार कर लिया था। आम जीवन में भी अक्सर वो संजीव कुमार के ही प्रचलित संवादों का प्रयोग किया करता था। एक चायवाले के बारे में इतनी जानकारी और बातें, शायद हास्यास्पद भी लगें परंतु सत्य यही था कि मेरे पास फिलहाल केवल चंद ही लोग बचे थे, जिनसे मैं बात कर सकता था और ये उनमें से एक था। तभी, “और सुनाओ भईया क्या चल रहा है, दिखते नही हो आज – कल"।

मैं, जो चाय की चुस्कियां लेते हुए उस गाने में खो सा गया था, उसके स्वर से हकीकत में लौटा। उसके सवाल का तात्पर्य मैं समझ रहा था, पिछले एक हफ्ते से मैं यहां नही आया था, और इसीलिए उसने ये प्रश्न किया था। अब उसकी भी कहानी कुछ मेरे ही जैसी थी, ना तो उसका कोई परिवार था और हमारे समाज का अधिकतर हिस्सा उसके और उसके जैसे कार्यों को करने वालों से बात करना, पसंद कहां करता था? बस यही कारण था कि शायद उसकी और मेरी आयु में इतना अंतर होने के बाद भी एक दोस्ती का भाव हमारे मध्य उत्पन्न हो चुका था। खैर, उसके प्रश्न के उत्तर में,

मैं : बस यहीं था, करने को है भी क्या अपने पास?

एक कागज़ में लपेटे हुए पान को निकालकर अपने मुंह में रखते हुए वो अजीब तरीके से मुस्कुरा दिया।

संजीव : भईया मैं तो अब भी कहता हूं, एक बार शंकर भगवान के चरणों में सर रखकर देखो, अगर जीवन ना पलट जाए तो कहना।

हां, वो अव्वल दर्जे का शिवभक्त भी था। उज्जैन का निवासी हो और शिवभक्त ना हो, ये भी कैसे ही संभव है? परंतु जिससे वो ये बात कह रहा था उसकी आस्था शायद ईश्वर में थी ही नहीं और एक नास्तिक के समक्ष इन बातों का शायद ही कोई महत्व हो। वो भी ये जानता था, परंतु कहीं न कहीं उसके चेहरे पर ऐसे भाव दिखते थे, जैसे उसे पूर्ण विश्वास हो कि एक दिन मैं ज़रूर वो करूंगा जो वो कहा करता था। पिछले तीन वर्षों में तो ऐसा हुआ नहीं था, और मेरा भी मानो दृढ़ निश्चय था कि ऐसा आगे भी नही होगा। उसकी बात पर मैं कोई प्रतिक्रिया देता उससे पहले ही बूंदा – बांदी शुरू हो गई। जुलाई का महीना अभी शुरू ही हुआ था, और वर्षा ऋतु का असर स्पष्ट देखा जा सकता था। खैर, मेरी कोई इच्छा नहीं थी बारिश में भीगने की क्योंकि बालपन से ही बरसात से मेरी कट्टर दुश्मनी रही है। दो बूंद सर पर पड़ी नही, कि खांसी – जुखाम मुझे जकड़ लिया करता था।

इसीलिए मैंने बिना कुछ कहे अपनी जेब से एक दस रुपए का नोट निकलकर उसके गल्ले के नज़दीक रख दिया और उस कुल्हड़ को वहीं में के किनारे पर रख, तेज़ कदमों से वहां से निकल गया। मुख्य सड़क से होता हुआ मैं बाईं ओर मुड़ गया और साथ ही मेरी गति भी कुछ कम हो गई। कारण, पगडंडी पर हाल फिलहाल में हो रही बरसात के कारण हल्का पानी भर गया था। कुछ दस – पंद्रह मिनट तक एक ही दिशा में चलते हुए मैं उस इलाके से हल्का सा बाहर की तरफ निकल आया। इस ओर घरों को संख्या अधिक नही थी और फिलहाल तो कोई अपने घर से बाहर नज़र भी नही आ रहा था। मैं पुनः बाईं ओर मुड़ गया और बस कुछ ही कदम दूर आकर मेरे कदम ठहर गए। सामने ही मेरा छोटा सा घर था, जिसे मैं घर कहना पसंद नही करता था।

मुझे आज भी याद थे वो शब्द जो मुझे बचपन में गुरुजी ने कहे थे, “बेटा एक बात सदैव याद रखना, घर ईंट – पत्थर या रूपये से नही बनता है। घर बनता है तो उसमें रहने वाले लोगों से। जीवन में कभी भी कोई ऐसा काम नहीं करना जिससे तुम्हारा घर एक मकान में परिवर्तित हो जाए"! उस समय तो मुझे उनकी कही बात अधिक समझ नही आई थी परंतु आज उस बात के पीछे छुपा मर्म मैं भली भांति समझ पा रहा था। हालांकि, गुरुजी के कहे अनुसार ही मैंने ऐसा कुछ नही किया था जिसके कारण मुझे इस मकान में रहना पड़ता, परंतु जब भी मैं इस बारे में सोचता, मुझे गुरुजी की कही एक और बात का स्मरण हो आता। मसलन, “जीवन कभी भी एक सा नहीं रहता बेटा, परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। जीवन में कई बार ऐसा कुछ होगा, जिसकी कल्पना भी तुमने नही की होगी। परंतु, उस पल उस घटना या दुर्घटना को लेकर शोक मनाने की जगह उस परिस्थिति का सामना करना, क्योंकि.. जीवन कभी भी एक सा नही रहता"।

मैने एक लंबी श्वास छोड़ी और अपने मन में चल रहे इन विचारों को झटकते हुए आगे की तरफ कदम बढ़ा दिए। मैंने जैसे ही दरवाजे पर लगा ताला हटाया तभी मेरी जेब में रखा मोबाइल बजने लगा। मैंने अंदर आकर एक हाथ से दरवाजा लगा दिया और दूसरे हाथ से जेब से मोबाइल निकलकर देखा। उसपर वो नाम देखते ही, शायद आज की तारीख में पहली मरतबा मेरे होंठों पर एक हल्की पर सच्ची मुस्कान आ गई। “कैसी है तू स्नेहा"? मोबाइल को अपने कान से लगाते हुए कहा मैंने।


“वीरेंद्र कहां है बहू "?

एक बेहद ही ही खूबसूरत और विशाल हवेली में इस समय कुछ लोग खाने की मेज पर बैठे हुए थे। जिनमें से सामने वाली कुर्सी पर बैठे एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ने भोजन परोस रही एक मध्यम आयु की महिला से ये प्रश्न किया था। जिसपर,

महिला : वो तो सुबह ही निकल गए थे पिताजी।

“सुबह ही? कहां"?

महिला : उन्होंने बताया नहीं।

सपाट से लहज़े में उस महिला ने जवाब दिया परंतु उनके स्वर में छिपे उस दुख के भाव को वो बुज़ुर्ग भली – भांति पहचान गए थे। उस महिला पर जो हर तरफ से दुखों का पहाड़ टूटा था उससे ना तो वो अनजान थे और ना हो इस परिवार का कोई और सदस्य। इसी के चलते एक बार भोजन करते हुए सभी के हाथ अपने आप ही रुक गए और सभी ने एक साथ ही उस महिला की ओर देखा और फिर एक साथ ही सभी के चेहरों पर निराशा उभर आई। परंतु उनमें से एक शख्स ऐसा भी था जिसके चेहरे पर निराशा नही, अपितु कुछ और ही भाव थे, और उन भावों को शायद उसके नज़दीक खड़ी एक युवती ने भी पहचान लिया था। तभी, अपनी थाली के समक्ष एक बार हाथ जोड़कर वो शख्स खड़ा हो गया जिसके कारण सभी की नजरें उसपर चली गई। उसकी थाली में रखा भोजन भी उसने खत्म नही किया था। खैर, सभी को नजरंदाज़ करते हुए वो एक दफा उन बुज़ुर्ग व्यक्ति के चरण स्पर्श कर बाहर निकल गया।

इधर वहां खड़ी वो युवती उसे जाते देखती रही और फिर कुछ सोचकर उसके चेहरे पर भी उदासी के भाव उत्पन्न हो गए। तभी वही बुजुर्ग व्यक्ति बोले, “विजय! कुछ पता चला उसके बारे में"?

वैसे तो भोजन के समय वो बोला नहीं करते थे, परंतु इस सवाल को अपने भीतर रोककर रखने की क्षमता उनमें नही थी। उनके प्रश्न को सुनकर वहीं बैठे एक मध्यम आयु के पुरुष की नज़रें एक बार उठी और फिर स्वयं ही झुक गई। उन्हें भी अपने प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो गया और एक लंबी श्वास छोड़ते हुए वो कुछ सोचने लगे।


यहां मैं इस परिवार का परिचय दे देना सही समझता हूं।


ये कहानी हरिद्वार से कुछ 50 किलोमीटर दूरी पर बसे एक गांव “यशपुर" (काल्पनिक) में रहने वाले इस परिवार की है जिसके मुखिया हैं, रामेश्वर सिंह राजपूत। इनकी आयु 71 वर्ष है और पूरे परिवार में यही एक ऐसे शख्स हैं जिसकी बात शायद कोई टाल नही सकता। इनके पिताजी, यशवर्धन राजपूत, यशपुर और पास के सभी गांवों के सुप्रसिद्ध जमींदार थे और यशपुर का नाम भी उन्ही के नाम पर पड़ा था। रामेश्वर सिंह, ने भी अपने पिता की ही विरासत को आगे बढ़ाते हुए जमींदारी की बागडोर अपने हाथों से संभाली जिसमें इनका सदैव साथ दिया इनकी धर्मपत्नी, सुमित्रा राजपूत ने। ये रामेश्वर सिंह से 5 बरस छोटी हैं, परंतु जिस तरह से इन्होंने अपने पति और परिवार को संभाला उसके कायल स्वयं रामेश्वर सिंह भी हैं। इन्हीं से रामेश्वर जी को तीन संतान भी प्राप्त हुई जिनमें से दो बेटे और एक बेटी है।

1.) वीरेंद्र सिंह राजपूत (आयु : 47 वर्ष) : रामेश्वर जी के बड़े बेटे जोकि पेशे से एक कारोबारी हैं। इनकी शुरुआत से ही जमींदारी और अपने पारिवारिक कार्यों में कुछ खास रुचि नहीं रही तो इन्होंने अपने दम पर अपना नाम बनाने का निश्चय किया और आगे चलकर इन्होंने अपने स्वप्न को साकार भी कर लिया। कामयाबी के साथ गुरूर और अहम भी इन्हे तोहफे में मिला, जिसके फलस्वरूप इनका स्वभाव जो अपनी जवानी में दोस्ताना हुआ करता था, आज बेहद गुस्सैल और अभिमानी बन चुका है।

नंदिनी राजपूत (आयु : 44 वर्ष) : वीरेंद्र की धर्मपत्नी। यही वो महिला हैं जिनका ज़िक्र कुछ देर पहले कहानी में हुआ था। आयु तो इनकी 44 वर्ष है परंतु देखने में उससे काफी छोटी ही लगती हैं। चेहरा भी बेहद ही खूबसूरत है। परंतु उस चेहरे को इनके ऊपर टूटे दुखों ने बेनूर सा कर दिया है। काफी उदास और चिंतित रहती हैं, कारण आगे चलकर पता चलेगा। इनकी भी तीन संतान हैं, दो बेटे और एक बेटी।

विक्रांत राजपूत (आयु : 24 वर्ष) : वीरेंद्र – नंदिनी का बड़ा बेटा। अपने पिता के चरित्र की झलक देखने को मिलती है इसमें, या शायद उनसे भी कुछ कदम आगे ही है ये। इसने भी अपने पिता की ही भांति खुद के बल पर कुछ करने का निश्चय किया था, परंतु सभी को अपनी सोच के अनुसार कामयाबी नही मिलती। इसी कारण अभी ये अपने पिता के ही कारोबार में शामिल हो चुका हो। स्वभाव... उसके बारे में धीरे – धीरे पता चल ही जाएगा।

शुभ्रा राजपूत (आयु : 21 वर्ष) : विक्रांत की पत्नी। केवल 21 वर्ष की आयु में विवाहित है ये, असलियत में तो इसका विक्रांत से विवाह मात्र 18 वर्ष की आयु में ही हो गया था, जिसका अपना एक विशेष कारण था। शुरू में बहुत मुश्किल हुई थी इसे अपने जीवन में आए परिवर्तन के कारण, पर नियति का खेल मानकर अब ये सब कुछ स्वीकार कर चुकी है। इसके जीवन में भी काफी कुछ ऐसा चल रहा है जिसकी जानकारी आगे ही मिल पाएगी।

आरोही राजपूत (आयु : 21 वर्ष) : वीरेंद्र और नंदिनी की इकलौती बेटी। यही एक है जिससे शुभ्रा इस घर में अपने मन की के पाती है। ये दिखने में बेहद ही खूबसूरत है, और इसके चेहरे पर मौजूद गुलाबीपन की चादर इसकी सुंदरता को और अधिक निखार देती है। स्वभाव से थोड़ी अंतर्मुखी है और शुभ्रा के अतिरिक्त किसीसे भी अधिक बात नही करती।

विवान राजपूत (आयु : 21 वर्ष) : वीरेंद्र – नंदिनी का छोटा बेटा और आरोही का जुड़वा भाई।

2.) दिग्विजय सिंह राजपूत (आयु : 43 वर्ष) : रामेश्वर जी के छोटे बेटे। ये भी अपने बड़े भाई के हो कारोबार में उनका साथ देते हैं। परिवार और पारिवारिक मूल्यों में बहुत अधिक विश्वास रखते हैं। इनके लिए अपने पिता द्वारा की गई हर एक बात आदेश समान है। अपने घर में चल रहे हालातों को बाकी सभी सदस्यों से बेहतर जानते है पर एक महत्वपूर्ण कारण से कुछ भी करने में असमर्थ हैं।

वंदना राजपूत (आयु : 41 वर्ष) : दिग्विजय की धर्मपत्नी और घर की छोटी बहू। स्वभाव में अपने पति का ही प्रतिबिंब हैं और इनकी सदा से केवल एक ही इच्छा रही है कि इनका पूरा परिवार हमेशा एक साथ सुख से रहे। इनकी केवल एक ही बेटी है जिसे वंदना और दिग्विजय दोनो ही जान से ज़्यादा चाहते हैं।

स्नेहा राजपूत (आयु : 18 वर्ष) : दिग्विजय – वंदना की बेटी और इस घर की सबसे चुलबुली और नटखट सदस्य। यदि इस घर में कोई आज की तारीख में सभी के चेहरों पर मुस्कान लाने की काबिलियत रखता है तो वो यही है, और अपने इसी स्वभाव के चलते घर में सभी को ये बेहद ही प्यारी है। परंतु एक सत्य ऐसा भी है जो ये सबसे छुपाए हुए है।

रामेश्वर जी की तीसरी संतान अर्थात उनकी इकलौती बेटी और उनके परिवार की जानकारी कहानी में आगे चलकर मिलेगी।

तो, राजपूत भवन में जैसे ही सबने नाश्ता पूर्ण कर लिया, तो सभी उठकर अपने – अपने कार्यों में जुट गए। जहां दिग्विजय दफ्तर के लिए निकल चुके थे तो वहीं रामेश्वर जी भी किसी कार्य हेतु बाहर की तरफ चल दिए। इधर इसी महलनुमा घर के एक कमरे में एक लड़की बैठी हुई थी जो अपने हाथों में एक मोबाइल पकड़े हुए कुछ सोच रही थी। तभी उसने मोबाइल पर कुछ पल के लिए उंगलियां चलाई और फिर मोबाइल को अपने कान से लगा लिया। कुछ ही पलों में उसके कान में एक ध्वनि पहुंची, “कैसी है तू स्नेहा"?

जैसे ही मैंने ये शब्द कहे, तभी मेरे कानों में उसकी मीठी सी आवाज़ पड़ी, “बहुत अच्छी! आप कैसे हो"?

मैं : अब तेरी आवाज़ सुन ली है तो बिल्कुल बढ़िया हो गया हूं।

स्नेहा (खिलखिलाते हुए) : सच्ची?

मैं : मुच्ची!

स्नेहा : क्या कर रहे हो? कॉलेज नही गए क्या आज?

मैं : नहीं, आज यहीं पर ही हूं। तू भी नही गई ना कॉलेज?

स्नेहा : हम्म्म। भईया...

अचानक ही उसका स्वर कुछ धीमा सा हो गया जैसे वो उदास हो गई हो। मैं समझ गया था कि अब वो क्या कहने वाली थी पर फिर भी मैंने कुछ नहीं कहा।

स्नेहा : वापिस आ जाओ ना भईया। मुझे आपके बिना अच्छा नही लगता। आरोही दीदी भी अब किसीसे बात नही करती। बड़ी मां भी हमेशा उदास रहती हैं। मां ही सब कुछ संभालती हैं और इसीलिए मुझसे कोई भी ज़्यादा बात नही करता। आ जाओ ना भईया।

मैं उसकी बात, जो वो हर बार मुझसे फोन पर कहा करती थी, उसे सुनकर आज फिर विचलित सा हो गया। आरोही के ज़िक्र ने अचानक ही मुझे कुछ स्मरण करवा दिया जिसके फलस्वरूप मेरी आंखों में दुख के भाव उभर आए। पर फिर मैंने खुद को संभालते हुए कहा,

मैं : अरे मेरी गुड़िया उदास है? स्नेहा, बेटा तू जानती है ना सब कुछ, फिर भी...

स्नेहा : भईया मुझे सचमें आपकी बहुत याद आती है।

मैं एक पल को चुप हो गया परंतु फिर कुछ सोचकर,

मैं : चल ठीक है तेरे जन्मदिन पर मैं तुझे ज़रूर मिलूंगा।

स्नेहा : भ.. भईया!! सच्ची? आप वापिस आ रहे हो?

मैं : मैने कहा कि तुझसे जरूर मिलूंगा, पर ये तो नही कहा कि वापिस आ रहा हूं।

स्नेहा : मतलब?

मैं : जल्दी ही पता चल जाएगा तुझे। चल अब फोन रख और थोड़ी देर किताबें उठाकर उनके भी दर्शन कर ले। वरना परीक्षा में कहेगी कि मैं पढ़ नही पाई।

मैंने अंतिम शब्द उसे हल्का सा चिढ़ाते हुए कहे और फिर फोन काट दिया। जहां स्नेहा से बात करके मैं अंदरूनी खुशी का आभास कर रहा था तो वहीं अभी – अभी उससे किए वादे की बात भी मेरे मन में चल रही थी। पर मैं जानता था कि अब शायद उससे मिलना जरूरी हो गया था,उसकी बातों और स्वर में मैं अकेलापन स्पष्ट रूप से अनुभव कर पा रहा था और उसकी आयु में ये अच्छी बात नहीं थी।

इधर स्नेहा जहां अपने भईया से बात कर खुश हो गई थी और उस वादे के चलते उसका चेहरा पूरी तरह खिल उठा था, वहीं उन आखिरी व्यंग्यात्मक शब्दों को सुनकर वो चिढ़ भी गई। पर तभी खुदसे ही बोली, “आप एक बार मिलो मुझे, फिर देखना"!

वहीं स्नेहा के कमरे के दरवाजे पर एक और भी शख्स मौजूद था, जिसकी आंखें हल्की सी नम थी। स्नेहा की मोबाइल पर सारी बात सुनने के बाद वो बिना कोई आहट किए वहां से लौट गया और उसी पल स्नेहा दरवाज़े की तरफ देख कर हल्का सा मुस्कुरा पड़ी।


X––––––––––X
Nice and lovely start of the story....
 

L.king

जलना नही मुझसे नही तो मेरी DP देखलो।
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XForum के सभी सदस्यों को मेरा नमस्कार। मैं एक नई कहानी यहां आरंभ कर रहा हूं। कहानी मुख्यतः “INCEST" पर आधारित होगी। परंतु, अभी से एक बात स्पष्ट कर देना चाहूंगा की यदि आप कहानी में सेक्स की अधिकता पढ़ने को आतुर हैं, तो शायद ये कहानी आपके लिए ना हो। हां, अब ये तो साफ है कि कहानी यदि “INCEST" के आधार पर लिखी जा रही है तो देर सवेर सेक्स कहानी में होगा ही। किंतु इस कहानी में कहानी अधिक होगी और सेक्स उसकी तुलना में कम। मैं इन बातों से किसी के ऊपर भी कुतर्क नही कर रहा हूं, बस अपनी बात रखने की एक कोशिश है। बस यही कहूंगा कि मैंने जैसा सोचा है यदि वैसा लिख पाया तो बेशक ये कहानी आपको पसंद आएगी।

हां, एक और ज़रूरी बात ये कि कहानी मैं देवनागरी लिपी में ही लिखूंगा क्योंकि कहानी की पृष्ठभूमि ऐसी है कि केवल देवनागरी ही उसके साथ न्याय कर पाएगी।

धन्यवाद।
कहानी में सेक्स अपडेट देने से कहानी के अपडेट में बढ़ोतरी होती है न की कहानी में।कहानी में सेक्स तभी डाले जब उसकी आवश्यकता हो फालतू मे ये न करे की हीरो जहां जाए वहा केवल सेक्स ही करे इससे केवल उत्तेजना ही होती है बाकी कहानी का कोई मजा नही आता है। आप अपने हिसाब से कहानी को लिखे क्योंकि कहानी यदि कई लोगो के मंतव्य से लिखी गई तो कहानी का लय बिगाड़ भी सकता है।
............

आपकी कहानी के लिए हमारे तरफ से शूभकमनाए, आशा करते है की कहानी अपने अंतिम अध्याय की यात्रा अवश्य पूरा करेगी..................
 

L.king

जलना नही मुझसे नही तो मेरी DP देखलो।
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अध्याय – 1


“सारी दुनिया से मुझे क्या लेना है...
बस तुझको ही पहचानुं,
मुझको ना मेरी अब खबर हो कोई,
तुझसे ही खुदको मैं जानूं"...

रोज़ की ही भांति आज भी मैं अपने इस ठिकाने पर बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था। उस खोखे रूपी दुकान में रखे एक मोबाइल में ही ये गाना बज रहा था। उस दुकान का मालिक, शायद 40–45 बरस का रहा होगा वो, उसके जैसा संगीत प्रेमी मैने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था। अब तो काफी समय हो चला था मुझे इस दुकान पर आते हुए, और उस आदमी, या कहूं कि संजीव से मेरी बोलचाल भी काफी अच्छी हो गई थी। वैसे भी, मेरे जीवन में यदि किसी चीज़ की इस वक्त सबसे अधिक आवश्यकता थी तो वो थे किसी के कर्ण और मुख, जिससे मैं अपनी बात कर सकूं। सुना तो था मैंने कि अकेलापन और एकांकी जीवन नर्क समान ही होता है, परंतु पिछले कुछ समय से उसका प्रत्यक्ष उदाहरण मैं अपने ही रूप में देख रहा था।

खैर, संजीव, उसकी भी बड़ी ही रोचक कहानी थी। उसका नाम शुरू से संजीव नही था, अर्थात, जन्म के समय उसके माता – पिता ने तो उसका नामकरण कुछ और ही किया था, परंतु वो, जैसा मैंने बताया संगीत और फिल्म जगत का असामान्य सा प्रेमी था... फलस्वरूप, उसने अपना नाम स्वयं ही बदलकर संजीव कुमार कर लिया था। आम जीवन में भी अक्सर वो संजीव कुमार के ही प्रचलित संवादों का प्रयोग किया करता था। एक चायवाले के बारे में इतनी जानकारी और बातें, शायद हास्यास्पद भी लगें परंतु सत्य यही था कि मेरे पास फिलहाल केवल चंद ही लोग बचे थे, जिनसे मैं बात कर सकता था और ये उनमें से एक था। तभी, “और सुनाओ भईया क्या चल रहा है, दिखते नही हो आज – कल"।

मैं, जो चाय की चुस्कियां लेते हुए उस गाने में खो सा गया था, उसके स्वर से हकीकत में लौटा। उसके सवाल का तात्पर्य मैं समझ रहा था, पिछले एक हफ्ते से मैं यहां नही आया था, और इसीलिए उसने ये प्रश्न किया था। अब उसकी भी कहानी कुछ मेरे ही जैसी थी, ना तो उसका कोई परिवार था और हमारे समाज का अधिकतर हिस्सा उसके और उसके जैसे कार्यों को करने वालों से बात करना, पसंद कहां करता था? बस यही कारण था कि शायद उसकी और मेरी आयु में इतना अंतर होने के बाद भी एक दोस्ती का भाव हमारे मध्य उत्पन्न हो चुका था। खैर, उसके प्रश्न के उत्तर में,

मैं : बस यहीं था, करने को है भी क्या अपने पास?

एक कागज़ में लपेटे हुए पान को निकालकर अपने मुंह में रखते हुए वो अजीब तरीके से मुस्कुरा दिया।

संजीव : भईया मैं तो अब भी कहता हूं, एक बार शंकर भगवान के चरणों में सर रखकर देखो, अगर जीवन ना पलट जाए तो कहना।

हां, वो अव्वल दर्जे का शिवभक्त भी था। उज्जैन का निवासी हो और शिवभक्त ना हो, ये भी कैसे ही संभव है? परंतु जिससे वो ये बात कह रहा था उसकी आस्था शायद ईश्वर में थी ही नहीं और एक नास्तिक के समक्ष इन बातों का शायद ही कोई महत्व हो। वो भी ये जानता था, परंतु कहीं न कहीं उसके चेहरे पर ऐसे भाव दिखते थे, जैसे उसे पूर्ण विश्वास हो कि एक दिन मैं ज़रूर वो करूंगा जो वो कहा करता था। पिछले तीन वर्षों में तो ऐसा हुआ नहीं था, और मेरा भी मानो दृढ़ निश्चय था कि ऐसा आगे भी नही होगा। उसकी बात पर मैं कोई प्रतिक्रिया देता उससे पहले ही बूंदा – बांदी शुरू हो गई। जुलाई का महीना अभी शुरू ही हुआ था, और वर्षा ऋतु का असर स्पष्ट देखा जा सकता था। खैर, मेरी कोई इच्छा नहीं थी बारिश में भीगने की क्योंकि बालपन से ही बरसात से मेरी कट्टर दुश्मनी रही है। दो बूंद सर पर पड़ी नही, कि खांसी – जुखाम मुझे जकड़ लिया करता था।

इसीलिए मैंने बिना कुछ कहे अपनी जेब से एक दस रुपए का नोट निकलकर उसके गल्ले के नज़दीक रख दिया और उस कुल्हड़ को वहीं में के किनारे पर रख, तेज़ कदमों से वहां से निकल गया। मुख्य सड़क से होता हुआ मैं बाईं ओर मुड़ गया और साथ ही मेरी गति भी कुछ कम हो गई। कारण, पगडंडी पर हाल फिलहाल में हो रही बरसात के कारण हल्का पानी भर गया था। कुछ दस – पंद्रह मिनट तक एक ही दिशा में चलते हुए मैं उस इलाके से हल्का सा बाहर की तरफ निकल आया। इस ओर घरों को संख्या अधिक नही थी और फिलहाल तो कोई अपने घर से बाहर नज़र भी नही आ रहा था। मैं पुनः बाईं ओर मुड़ गया और बस कुछ ही कदम दूर आकर मेरे कदम ठहर गए। सामने ही मेरा छोटा सा घर था, जिसे मैं घर कहना पसंद नही करता था।

मुझे आज भी याद थे वो शब्द जो मुझे बचपन में गुरुजी ने कहे थे, “बेटा एक बात सदैव याद रखना, घर ईंट – पत्थर या रूपये से नही बनता है। घर बनता है तो उसमें रहने वाले लोगों से। जीवन में कभी भी कोई ऐसा काम नहीं करना जिससे तुम्हारा घर एक मकान में परिवर्तित हो जाए"! उस समय तो मुझे उनकी कही बात अधिक समझ नही आई थी परंतु आज उस बात के पीछे छुपा मर्म मैं भली भांति समझ पा रहा था। हालांकि, गुरुजी के कहे अनुसार ही मैंने ऐसा कुछ नही किया था जिसके कारण मुझे इस मकान में रहना पड़ता, परंतु जब भी मैं इस बारे में सोचता, मुझे गुरुजी की कही एक और बात का स्मरण हो आता। मसलन, “जीवन कभी भी एक सा नहीं रहता बेटा, परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। जीवन में कई बार ऐसा कुछ होगा, जिसकी कल्पना भी तुमने नही की होगी। परंतु, उस पल उस घटना या दुर्घटना को लेकर शोक मनाने की जगह उस परिस्थिति का सामना करना, क्योंकि.. जीवन कभी भी एक सा नही रहता"।

मैने एक लंबी श्वास छोड़ी और अपने मन में चल रहे इन विचारों को झटकते हुए आगे की तरफ कदम बढ़ा दिए। मैंने जैसे ही दरवाजे पर लगा ताला हटाया तभी मेरी जेब में रखा मोबाइल बजने लगा। मैंने अंदर आकर एक हाथ से दरवाजा लगा दिया और दूसरे हाथ से जेब से मोबाइल निकलकर देखा। उसपर वो नाम देखते ही, शायद आज की तारीख में पहली मरतबा मेरे होंठों पर एक हल्की पर सच्ची मुस्कान आ गई। “कैसी है तू स्नेहा"? मोबाइल को अपने कान से लगाते हुए कहा मैंने।


“वीरेंद्र कहां है बहू "?

एक बेहद ही ही खूबसूरत और विशाल हवेली में इस समय कुछ लोग खाने की मेज पर बैठे हुए थे। जिनमें से सामने वाली कुर्सी पर बैठे एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ने भोजन परोस रही एक मध्यम आयु की महिला से ये प्रश्न किया था। जिसपर,

महिला : वो तो सुबह ही निकल गए थे पिताजी।

“सुबह ही? कहां"?

महिला : उन्होंने बताया नहीं।

सपाट से लहज़े में उस महिला ने जवाब दिया परंतु उनके स्वर में छिपे उस दुख के भाव को वो बुज़ुर्ग भली – भांति पहचान गए थे। उस महिला पर जो हर तरफ से दुखों का पहाड़ टूटा था उससे ना तो वो अनजान थे और ना हो इस परिवार का कोई और सदस्य। इसी के चलते एक बार भोजन करते हुए सभी के हाथ अपने आप ही रुक गए और सभी ने एक साथ ही उस महिला की ओर देखा और फिर एक साथ ही सभी के चेहरों पर निराशा उभर आई। परंतु उनमें से एक शख्स ऐसा भी था जिसके चेहरे पर निराशा नही, अपितु कुछ और ही भाव थे, और उन भावों को शायद उसके नज़दीक खड़ी एक युवती ने भी पहचान लिया था। तभी, अपनी थाली के समक्ष एक बार हाथ जोड़कर वो शख्स खड़ा हो गया जिसके कारण सभी की नजरें उसपर चली गई। उसकी थाली में रखा भोजन भी उसने खत्म नही किया था। खैर, सभी को नजरंदाज़ करते हुए वो एक दफा उन बुज़ुर्ग व्यक्ति के चरण स्पर्श कर बाहर निकल गया।

इधर वहां खड़ी वो युवती उसे जाते देखती रही और फिर कुछ सोचकर उसके चेहरे पर भी उदासी के भाव उत्पन्न हो गए। तभी वही बुजुर्ग व्यक्ति बोले, “विजय! कुछ पता चला उसके बारे में"?

वैसे तो भोजन के समय वो बोला नहीं करते थे, परंतु इस सवाल को अपने भीतर रोककर रखने की क्षमता उनमें नही थी। उनके प्रश्न को सुनकर वहीं बैठे एक मध्यम आयु के पुरुष की नज़रें एक बार उठी और फिर स्वयं ही झुक गई। उन्हें भी अपने प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो गया और एक लंबी श्वास छोड़ते हुए वो कुछ सोचने लगे।


यहां मैं इस परिवार का परिचय दे देना सही समझता हूं।


ये कहानी हरिद्वार से कुछ 50 किलोमीटर दूरी पर बसे एक गांव “यशपुर" (काल्पनिक) में रहने वाले इस परिवार की है जिसके मुखिया हैं, रामेश्वर सिंह राजपूत। इनकी आयु 71 वर्ष है और पूरे परिवार में यही एक ऐसे शख्स हैं जिसकी बात शायद कोई टाल नही सकता। इनके पिताजी, यशवर्धन राजपूत, यशपुर और पास के सभी गांवों के सुप्रसिद्ध जमींदार थे और यशपुर का नाम भी उन्ही के नाम पर पड़ा था। रामेश्वर सिंह, ने भी अपने पिता की ही विरासत को आगे बढ़ाते हुए जमींदारी की बागडोर अपने हाथों से संभाली जिसमें इनका सदैव साथ दिया इनकी धर्मपत्नी, सुमित्रा राजपूत ने। ये रामेश्वर सिंह से 5 बरस छोटी हैं, परंतु जिस तरह से इन्होंने अपने पति और परिवार को संभाला उसके कायल स्वयं रामेश्वर सिंह भी हैं। इन्हीं से रामेश्वर जी को तीन संतान भी प्राप्त हुई जिनमें से दो बेटे और एक बेटी है।

1.) वीरेंद्र सिंह राजपूत (आयु : 47 वर्ष) : रामेश्वर जी के बड़े बेटे जोकि पेशे से एक कारोबारी हैं। इनकी शुरुआत से ही जमींदारी और अपने पारिवारिक कार्यों में कुछ खास रुचि नहीं रही तो इन्होंने अपने दम पर अपना नाम बनाने का निश्चय किया और आगे चलकर इन्होंने अपने स्वप्न को साकार भी कर लिया। कामयाबी के साथ गुरूर और अहम भी इन्हे तोहफे में मिला, जिसके फलस्वरूप इनका स्वभाव जो अपनी जवानी में दोस्ताना हुआ करता था, आज बेहद गुस्सैल और अभिमानी बन चुका है।

नंदिनी राजपूत (आयु : 44 वर्ष) : वीरेंद्र की धर्मपत्नी। यही वो महिला हैं जिनका ज़िक्र कुछ देर पहले कहानी में हुआ था। आयु तो इनकी 44 वर्ष है परंतु देखने में उससे काफी छोटी ही लगती हैं। चेहरा भी बेहद ही खूबसूरत है। परंतु उस चेहरे को इनके ऊपर टूटे दुखों ने बेनूर सा कर दिया है। काफी उदास और चिंतित रहती हैं, कारण आगे चलकर पता चलेगा। इनकी भी तीन संतान हैं, दो बेटे और एक बेटी।

विक्रांत राजपूत (आयु : 24 वर्ष) : वीरेंद्र – नंदिनी का बड़ा बेटा। अपने पिता के चरित्र की झलक देखने को मिलती है इसमें, या शायद उनसे भी कुछ कदम आगे ही है ये। इसने भी अपने पिता की ही भांति खुद के बल पर कुछ करने का निश्चय किया था, परंतु सभी को अपनी सोच के अनुसार कामयाबी नही मिलती। इसी कारण अभी ये अपने पिता के ही कारोबार में शामिल हो चुका हो। स्वभाव... उसके बारे में धीरे – धीरे पता चल ही जाएगा।

शुभ्रा राजपूत (आयु : 21 वर्ष) : विक्रांत की पत्नी। केवल 21 वर्ष की आयु में विवाहित है ये, असलियत में तो इसका विक्रांत से विवाह मात्र 18 वर्ष की आयु में ही हो गया था, जिसका अपना एक विशेष कारण था। शुरू में बहुत मुश्किल हुई थी इसे अपने जीवन में आए परिवर्तन के कारण, पर नियति का खेल मानकर अब ये सब कुछ स्वीकार कर चुकी है। इसके जीवन में भी काफी कुछ ऐसा चल रहा है जिसकी जानकारी आगे ही मिल पाएगी।

आरोही राजपूत (आयु : 21 वर्ष) : वीरेंद्र और नंदिनी की इकलौती बेटी। यही एक है जिससे शुभ्रा इस घर में अपने मन की के पाती है। ये दिखने में बेहद ही खूबसूरत है, और इसके चेहरे पर मौजूद गुलाबीपन की चादर इसकी सुंदरता को और अधिक निखार देती है। स्वभाव से थोड़ी अंतर्मुखी है और शुभ्रा के अतिरिक्त किसीसे भी अधिक बात नही करती।

विवान राजपूत (आयु : 21 वर्ष) : वीरेंद्र – नंदिनी का छोटा बेटा और आरोही का जुड़वा भाई।

2.) दिग्विजय सिंह राजपूत (आयु : 43 वर्ष) : रामेश्वर जी के छोटे बेटे। ये भी अपने बड़े भाई के हो कारोबार में उनका साथ देते हैं। परिवार और पारिवारिक मूल्यों में बहुत अधिक विश्वास रखते हैं। इनके लिए अपने पिता द्वारा की गई हर एक बात आदेश समान है। अपने घर में चल रहे हालातों को बाकी सभी सदस्यों से बेहतर जानते है पर एक महत्वपूर्ण कारण से कुछ भी करने में असमर्थ हैं।

वंदना राजपूत (आयु : 41 वर्ष) : दिग्विजय की धर्मपत्नी और घर की छोटी बहू। स्वभाव में अपने पति का ही प्रतिबिंब हैं और इनकी सदा से केवल एक ही इच्छा रही है कि इनका पूरा परिवार हमेशा एक साथ सुख से रहे। इनकी केवल एक ही बेटी है जिसे वंदना और दिग्विजय दोनो ही जान से ज़्यादा चाहते हैं।

स्नेहा राजपूत (आयु : 18 वर्ष) : दिग्विजय – वंदना की बेटी और इस घर की सबसे चुलबुली और नटखट सदस्य। यदि इस घर में कोई आज की तारीख में सभी के चेहरों पर मुस्कान लाने की काबिलियत रखता है तो वो यही है, और अपने इसी स्वभाव के चलते घर में सभी को ये बेहद ही प्यारी है। परंतु एक सत्य ऐसा भी है जो ये सबसे छुपाए हुए है।

रामेश्वर जी की तीसरी संतान अर्थात उनकी इकलौती बेटी और उनके परिवार की जानकारी कहानी में आगे चलकर मिलेगी।

तो, राजपूत भवन में जैसे ही सबने नाश्ता पूर्ण कर लिया, तो सभी उठकर अपने – अपने कार्यों में जुट गए। जहां दिग्विजय दफ्तर के लिए निकल चुके थे तो वहीं रामेश्वर जी भी किसी कार्य हेतु बाहर की तरफ चल दिए। इधर इसी महलनुमा घर के एक कमरे में एक लड़की बैठी हुई थी जो अपने हाथों में एक मोबाइल पकड़े हुए कुछ सोच रही थी। तभी उसने मोबाइल पर कुछ पल के लिए उंगलियां चलाई और फिर मोबाइल को अपने कान से लगा लिया। कुछ ही पलों में उसके कान में एक ध्वनि पहुंची, “कैसी है तू स्नेहा"?

जैसे ही मैंने ये शब्द कहे, तभी मेरे कानों में उसकी मीठी सी आवाज़ पड़ी, “बहुत अच्छी! आप कैसे हो"?

मैं : अब तेरी आवाज़ सुन ली है तो बिल्कुल बढ़िया हो गया हूं।

स्नेहा (खिलखिलाते हुए) : सच्ची?

मैं : मुच्ची!

स्नेहा : क्या कर रहे हो? कॉलेज नही गए क्या आज?

मैं : नहीं, आज यहीं पर ही हूं। तू भी नही गई ना कॉलेज?

स्नेहा : हम्म्म। भईया...

अचानक ही उसका स्वर कुछ धीमा सा हो गया जैसे वो उदास हो गई हो। मैं समझ गया था कि अब वो क्या कहने वाली थी पर फिर भी मैंने कुछ नहीं कहा।

स्नेहा : वापिस आ जाओ ना भईया। मुझे आपके बिना अच्छा नही लगता। आरोही दीदी भी अब किसीसे बात नही करती। बड़ी मां भी हमेशा उदास रहती हैं। मां ही सब कुछ संभालती हैं और इसीलिए मुझसे कोई भी ज़्यादा बात नही करता। आ जाओ ना भईया।

मैं उसकी बात, जो वो हर बार मुझसे फोन पर कहा करती थी, उसे सुनकर आज फिर विचलित सा हो गया। आरोही के ज़िक्र ने अचानक ही मुझे कुछ स्मरण करवा दिया जिसके फलस्वरूप मेरी आंखों में दुख के भाव उभर आए। पर फिर मैंने खुद को संभालते हुए कहा,

मैं : अरे मेरी गुड़िया उदास है? स्नेहा, बेटा तू जानती है ना सब कुछ, फिर भी...

स्नेहा : भईया मुझे सचमें आपकी बहुत याद आती है।

मैं एक पल को चुप हो गया परंतु फिर कुछ सोचकर,

मैं : चल ठीक है तेरे जन्मदिन पर मैं तुझे ज़रूर मिलूंगा।

स्नेहा : भ.. भईया!! सच्ची? आप वापिस आ रहे हो?

मैं : मैने कहा कि तुझसे जरूर मिलूंगा, पर ये तो नही कहा कि वापिस आ रहा हूं।

स्नेहा : मतलब?

मैं : जल्दी ही पता चल जाएगा तुझे। चल अब फोन रख और थोड़ी देर किताबें उठाकर उनके भी दर्शन कर ले। वरना परीक्षा में कहेगी कि मैं पढ़ नही पाई।

मैंने अंतिम शब्द उसे हल्का सा चिढ़ाते हुए कहे और फिर फोन काट दिया। जहां स्नेहा से बात करके मैं अंदरूनी खुशी का आभास कर रहा था तो वहीं अभी – अभी उससे किए वादे की बात भी मेरे मन में चल रही थी। पर मैं जानता था कि अब शायद उससे मिलना जरूरी हो गया था,उसकी बातों और स्वर में मैं अकेलापन स्पष्ट रूप से अनुभव कर पा रहा था और उसकी आयु में ये अच्छी बात नहीं थी।

इधर स्नेहा जहां अपने भईया से बात कर खुश हो गई थी और उस वादे के चलते उसका चेहरा पूरी तरह खिल उठा था, वहीं उन आखिरी व्यंग्यात्मक शब्दों को सुनकर वो चिढ़ भी गई। पर तभी खुदसे ही बोली, “आप एक बार मिलो मुझे, फिर देखना"!

वहीं स्नेहा के कमरे के दरवाजे पर एक और भी शख्स मौजूद था, जिसकी आंखें हल्की सी नम थी। स्नेहा की मोबाइल पर सारी बात सुनने के बाद वो बिना कोई आहट किए वहां से लौट गया और उसी पल स्नेहा दरवाज़े की तरफ देख कर हल्का सा मुस्कुरा पड़ी।


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बड़े भाई आपने मेरा दिल जीत लिया इतनी अच्छी शुरुआत करके, आपने एक एक शब्द उसके उपयुक्त जगह पर उपयोग किया है जिससे कहानी को पढ़ने पर मेरा मन ही प्रफुल्लित हो गया आपने वास्तव में ही एक अच्छी कहानी की शुरुआत की है।
 
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