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Adultery दिलवाले

Tiger 786

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#३९

दरोगा कुछ दिनों से थाने में आया ही नहीं था , पर फिर वो कहाँ था .उसके सरकारी क्वार्टर पर भी ताला लगा था और पुलिस अधिकारी के घर का ताला तोडना किसी भी लिहाज से उचित नहीं था . शतरंज की इस बिसात पर मेरे पास चलने को कोई चाल नहीं थी , मैं खुद को किसी प्यादे सा महसूस करने लगा था . उस रात को कौन औरत हो सकती थी दरोगा के साथ , आवाज को पहचान नहीं सका मैं फुसफुसाहट भरी बातो से अंदाजा लगाना मुश्किल था. कुछ ना कुछ तो करना ही था वर्ना ये मेरी घुटन मार डालने वाली थी मुझे. पर मैं क्या जानता था दरोगा के बारे में कुछ भी तो नहीं सिवाय उसके नाम के.

एक बार फिर मेरी चाहत मुझे हवेली के दरवाजे पर ले आई थी,इसकी ख़ामोशी मुझे इतना परेशान कर रही थी की मैं पागल हो रहा था . एक बार फिर मैं हवेली में छिपे हुए सच को तलाश करने में जुट गया था . पिताजी के सामान को बार बार खंगाल रहा था मैं पर शायद अब कुछ नहीं था मेरे लिए. मैंने हवेली के दुसरे बंद पड़े कमरे को खोला जो चाचा का होता था , वहां कुछ नहीं था पूरी तरह से खाली कमरा था वो . एक एक करके हवेली के सब लोग इसे छोड़ गए, क्या मनहूसियत थी घर चाहे जैसा भी हो घर तो घर ही होता है . पांच साल पुराने इतिहास को कैसे जोडू आज से सोचते सोचते मैं हद से ज्यादा परेशान हो चूका था .

अचानक ही मेरी नजर पिताजी की तस्वीर पर पड़ी, जंगल में खिंची गयी तस्वीर जिसमे वो शान से खड़े थे . वन दरोगा और जंगल में खान. जंगल में वन चौकी और खान का बंद होना कुछ तो कनेक्शन था और शायद इसका जवाब हवेली में नहीं जंगल में ही था. बिना देर किये मैं वहां के लिए चल दिया. कुछ समय बाद मैं उस बंद पड़ी चौकी के सामने खड़ा था. मौसम और वक्त की मार से उसकी हालत जर्जर हो गयी थी. लोहे का दरवाजा जंग खा चूका था . झाड-झंखाड़ और गहरी काई से लिपटी वो चौकी की ईमारत इन्सान के मतलबी होने का सबूत थी.

बड़ी मशक्कत के बाद मैंने दरवाजे को खोला और अन्दर दाखिल हुआ, हाल बुरा था अन्दर का. छत टपक रही थी जिसकी वजह से अन्दर भी हालत बुरे हो गए थे . कोने में एक अलमारी रखी थी जिसके ऊपर रखे कागजो को दीमक चाट गयी थी . दीवारों पर फटे पुराने कलेंडर थे जो बरसो बाद हवा को महसूस करके फडफडा रहे थे. मैंने अलमारी को खोला कुछ फाइलें थी जिन पर धुल मिटटी और दीमक का कब्ज़ा था . मैंने उस मेज-कुर्सी को सहलाया जिस पर कभी पिताजी बैठते थे . धीरे से मैंने दराज को खोला वहां कुछ फाइल पड़ी थी जिनमे मुझे एक तस्वीर मिली जिसे मैं उसके धुंधलेपन के बावजूद भी पहचान सकता था , क्योंकि वो तस्वीर मेरी थी , वो तस्वीर जिसमे मैं और मेरा भाई था . कांपते हाथो से छुटी उस तस्वीर को जब मैं उठा रहा था तो उसके पिछले भाग पर पेन से बनी रेखाओ पर मेरी नजर पड़ी उंगलियों से मैंने उसे रगडा और मैं हैरान रह गया . तस्वीर के पीछे हीरो की छाया बनी हुई थी .खान और इस चौकी का आपस में कोई कनेक्शन जरुर था और मुझे बस इसी के बारे में मालूम करना था .एक बार फिर मैं खान के मुहाने पर खड़ा था .ढलती शाम में सूरज की रौशनी से इसके पत्थर जैसे चमक रहे थे.



“क्या छिपाए हुए हो तुम. क्या है वो वजह जिसने सब को बर्बाद कर दिया. “कहते हुए मैं अन्दर की तरफ चल दिया. मेरे कदमो को अच्छे से मालूम था की कहाँ जाना है, जैसे जैसे मैं अन्दर जा रहा था रौशनी कम हो रही थी . धीरे धीरे मैं हीरो को पार करके मैं पानी में डूबता जा रहा था , सांसे कम होने लगी थी पर इस बार मेरे हाथ उस दरवाजे तक पहुँच ही गए थे और जैसे ही मैंने वो दरवाजा खोला मेरी समझ से बाहर हो गया सब कुछ . आँखों को यकीं नहीं हो रहा था .

“कबीर तुम ” उसकी आँखे हैरानी से फटी के फटी रह गयी.

“सोचा नहीं था की यहाँ ऐसे मिलेंगे ”मैंने कहा

“कबीर, मेरी बात सुनो . मैं समझाती हु ” कपडे पहनते हुए बोली वो .

मैं- तो रात को इस दरोगा के साथ तुम थी वहां चबूतरे वाले पेड़ के पास . दोनों मिलकर मुझे चुतिया बना रहे थे .

“कबीर, हमारी बात सुनोगे तभी तो समझ पाओगे ” दरोगा ने धीमी आवाज में कहा

मैं- क्यों छिपाया मुझसे ये अब अगर चल ही रहा था तो क्यों किया ये नाटक

“मैं क्या करती कबीर . तुम यूँ गायब हो गए थे सब कुछ रूठ गया था मुझे . बड़ी मुश्किल से संभाला मैंने खुद को फिर मेरी जिन्दगी में विक्रम आ गया . जीवन की गाडी पटरी पर आई ही थी की तुम लौट आये कबीर. समझ ही नहीं आया की क्या करू.

“इतना तो हक़ था तुम्हारा मुझ पर की कह सकती थी . ये नाटक करने की क्या जरूरत थी ” मैंने कहा .

वो नजरे चुराने लगी.

मैं- तो अब जब सब कुछ सामने है , हम तुम सब लोग यहाँ है तो कुछ सवालो के जवाब तो बनते है .तुम्हे इस जगह के बारे में कैसे मालूम हुआ . क्या तुम इस बात से इंकार करोगे की हीरो को तुम दोनों ही बेचते थे रत्ना को .

“तुम्हारे पिता लाये थे मुझे इस जगह पर कबीर ” हौले से बोली वो .

मैं- तुम्हे पर क्यों .

“उन्होंने मुझे कहा था की भविष्य में ये जगह तुम्हारे काम आएगी ” उसने जवाब दिया.

मैं- रत्ना के सम्पर्क में कैसे आई तुम

“रत्ना से हमारा कोई लेना देना नहीं कबीर ” दरोगा ने कहा

मैं- कैसे मान लू मैं इस बात को . सब कुछ तो शीशे की तरह साफ़ है

दरोगा- क्योंकि सच यही है कबीर. हमने कभी भी हीरो का लालच नहीं किया. बल्कि हमने तो ............

इसके आगे दरोगा कुछ नहीं बोल पाया .

“धान्य ” एक आवाज आई और दरोगा लहरा कर गिर गया.

“विक्रम ” चीखी वो और दरोगा की तरफ बढ़ी ही थी की अगली गोली से उसके कदम डगमगा गए. ...............
Manju hi hogi
Awesome update
 

Luckyloda

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#३९

दरोगा कुछ दिनों से थाने में आया ही नहीं था , पर फिर वो कहाँ था .उसके सरकारी क्वार्टर पर भी ताला लगा था और पुलिस अधिकारी के घर का ताला तोडना किसी भी लिहाज से उचित नहीं था . शतरंज की इस बिसात पर मेरे पास चलने को कोई चाल नहीं थी , मैं खुद को किसी प्यादे सा महसूस करने लगा था . उस रात को कौन औरत हो सकती थी दरोगा के साथ , आवाज को पहचान नहीं सका मैं फुसफुसाहट भरी बातो से अंदाजा लगाना मुश्किल था. कुछ ना कुछ तो करना ही था वर्ना ये मेरी घुटन मार डालने वाली थी मुझे. पर मैं क्या जानता था दरोगा के बारे में कुछ भी तो नहीं सिवाय उसके नाम के.

एक बार फिर मेरी चाहत मुझे हवेली के दरवाजे पर ले आई थी,इसकी ख़ामोशी मुझे इतना परेशान कर रही थी की मैं पागल हो रहा था . एक बार फिर मैं हवेली में छिपे हुए सच को तलाश करने में जुट गया था . पिताजी के सामान को बार बार खंगाल रहा था मैं पर शायद अब कुछ नहीं था मेरे लिए. मैंने हवेली के दुसरे बंद पड़े कमरे को खोला जो चाचा का होता था , वहां कुछ नहीं था पूरी तरह से खाली कमरा था वो . एक एक करके हवेली के सब लोग इसे छोड़ गए, क्या मनहूसियत थी घर चाहे जैसा भी हो घर तो घर ही होता है . पांच साल पुराने इतिहास को कैसे जोडू आज से सोचते सोचते मैं हद से ज्यादा परेशान हो चूका था .

अचानक ही मेरी नजर पिताजी की तस्वीर पर पड़ी, जंगल में खिंची गयी तस्वीर जिसमे वो शान से खड़े थे . वन दरोगा और जंगल में खान. जंगल में वन चौकी और खान का बंद होना कुछ तो कनेक्शन था और शायद इसका जवाब हवेली में नहीं जंगल में ही था. बिना देर किये मैं वहां के लिए चल दिया. कुछ समय बाद मैं उस बंद पड़ी चौकी के सामने खड़ा था. मौसम और वक्त की मार से उसकी हालत जर्जर हो गयी थी. लोहे का दरवाजा जंग खा चूका था . झाड-झंखाड़ और गहरी काई से लिपटी वो चौकी की ईमारत इन्सान के मतलबी होने का सबूत थी.

बड़ी मशक्कत के बाद मैंने दरवाजे को खोला और अन्दर दाखिल हुआ, हाल बुरा था अन्दर का. छत टपक रही थी जिसकी वजह से अन्दर भी हालत बुरे हो गए थे . कोने में एक अलमारी रखी थी जिसके ऊपर रखे कागजो को दीमक चाट गयी थी . दीवारों पर फटे पुराने कलेंडर थे जो बरसो बाद हवा को महसूस करके फडफडा रहे थे. मैंने अलमारी को खोला कुछ फाइलें थी जिन पर धुल मिटटी और दीमक का कब्ज़ा था . मैंने उस मेज-कुर्सी को सहलाया जिस पर कभी पिताजी बैठते थे . धीरे से मैंने दराज को खोला वहां कुछ फाइल पड़ी थी जिनमे मुझे एक तस्वीर मिली जिसे मैं उसके धुंधलेपन के बावजूद भी पहचान सकता था , क्योंकि वो तस्वीर मेरी थी , वो तस्वीर जिसमे मैं और मेरा भाई था . कांपते हाथो से छुटी उस तस्वीर को जब मैं उठा रहा था तो उसके पिछले भाग पर पेन से बनी रेखाओ पर मेरी नजर पड़ी उंगलियों से मैंने उसे रगडा और मैं हैरान रह गया . तस्वीर के पीछे हीरो की छाया बनी हुई थी .खान और इस चौकी का आपस में कोई कनेक्शन जरुर था और मुझे बस इसी के बारे में मालूम करना था .एक बार फिर मैं खान के मुहाने पर खड़ा था .ढलती शाम में सूरज की रौशनी से इसके पत्थर जैसे चमक रहे थे.



“क्या छिपाए हुए हो तुम. क्या है वो वजह जिसने सब को बर्बाद कर दिया. “कहते हुए मैं अन्दर की तरफ चल दिया. मेरे कदमो को अच्छे से मालूम था की कहाँ जाना है, जैसे जैसे मैं अन्दर जा रहा था रौशनी कम हो रही थी . धीरे धीरे मैं हीरो को पार करके मैं पानी में डूबता जा रहा था , सांसे कम होने लगी थी पर इस बार मेरे हाथ उस दरवाजे तक पहुँच ही गए थे और जैसे ही मैंने वो दरवाजा खोला मेरी समझ से बाहर हो गया सब कुछ . आँखों को यकीं नहीं हो रहा था .

“कबीर तुम ” उसकी आँखे हैरानी से फटी के फटी रह गयी.

“सोचा नहीं था की यहाँ ऐसे मिलेंगे ”मैंने कहा

“कबीर, मेरी बात सुनो . मैं समझाती हु ” कपडे पहनते हुए बोली वो .

मैं- तो रात को इस दरोगा के साथ तुम थी वहां चबूतरे वाले पेड़ के पास . दोनों मिलकर मुझे चुतिया बना रहे थे .

“कबीर, हमारी बात सुनोगे तभी तो समझ पाओगे ” दरोगा ने धीमी आवाज में कहा

मैं- क्यों छिपाया मुझसे ये अब अगर चल ही रहा था तो क्यों किया ये नाटक

“मैं क्या करती कबीर . तुम यूँ गायब हो गए थे सब कुछ रूठ गया था मुझे . बड़ी मुश्किल से संभाला मैंने खुद को फिर मेरी जिन्दगी में विक्रम आ गया . जीवन की गाडी पटरी पर आई ही थी की तुम लौट आये कबीर. समझ ही नहीं आया की क्या करू.

“इतना तो हक़ था तुम्हारा मुझ पर की कह सकती थी . ये नाटक करने की क्या जरूरत थी ” मैंने कहा .

वो नजरे चुराने लगी.

मैं- तो अब जब सब कुछ सामने है , हम तुम सब लोग यहाँ है तो कुछ सवालो के जवाब तो बनते है .तुम्हे इस जगह के बारे में कैसे मालूम हुआ . क्या तुम इस बात से इंकार करोगे की हीरो को तुम दोनों ही बेचते थे रत्ना को .

“तुम्हारे पिता लाये थे मुझे इस जगह पर कबीर ” हौले से बोली वो .

मैं- तुम्हे पर क्यों .

“उन्होंने मुझे कहा था की भविष्य में ये जगह तुम्हारे काम आएगी ” उसने जवाब दिया.

मैं- रत्ना के सम्पर्क में कैसे आई तुम

“रत्ना से हमारा कोई लेना देना नहीं कबीर ” दरोगा ने कहा

मैं- कैसे मान लू मैं इस बात को . सब कुछ तो शीशे की तरह साफ़ है

दरोगा- क्योंकि सच यही है कबीर. हमने कभी भी हीरो का लालच नहीं किया. बल्कि हमने तो ............

इसके आगे दरोगा कुछ नहीं बोल पाया .

“धान्य ” एक आवाज आई और दरोगा लहरा कर गिर गया.

“विक्रम ” चीखी वो और दरोगा की तरफ बढ़ी ही थी की अगली गोली से उसके कदम डगमगा गए. ...............


Kon hai jo itni shiddat se दुश्मनी निभा रहा हैं कि किसी को भी मारने से परहेज नहीं कर रहा..... चाहें वो चाचा हो या मंजू या दरोगा
 

SKYESH

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muje koi Aur lag raha hai ....... kuchh chhut raha hai ............
Kon hai jo itni shiddat se दुश्मनी निभा रहा हैं कि किसी को भी मारने से परहेज नहीं कर रहा..... चाहें वो चाचा हो या मंजू या दरोगा
 

Naik

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दरोगा कुछ दिनों से थाने में आया ही नहीं था , पर फिर वो कहाँ था .उसके सरकारी क्वार्टर पर भी ताला लगा था और पुलिस अधिकारी के घर का ताला तोडना किसी भी लिहाज से उचित नहीं था . शतरंज की इस बिसात पर मेरे पास चलने को कोई चाल नहीं थी , मैं खुद को किसी प्यादे सा महसूस करने लगा था . उस रात को कौन औरत हो सकती थी दरोगा के साथ , आवाज को पहचान नहीं सका मैं फुसफुसाहट भरी बातो से अंदाजा लगाना मुश्किल था. कुछ ना कुछ तो करना ही था वर्ना ये मेरी घुटन मार डालने वाली थी मुझे. पर मैं क्या जानता था दरोगा के बारे में कुछ भी तो नहीं सिवाय उसके नाम के.

एक बार फिर मेरी चाहत मुझे हवेली के दरवाजे पर ले आई थी,इसकी ख़ामोशी मुझे इतना परेशान कर रही थी की मैं पागल हो रहा था . एक बार फिर मैं हवेली में छिपे हुए सच को तलाश करने में जुट गया था . पिताजी के सामान को बार बार खंगाल रहा था मैं पर शायद अब कुछ नहीं था मेरे लिए. मैंने हवेली के दुसरे बंद पड़े कमरे को खोला जो चाचा का होता था , वहां कुछ नहीं था पूरी तरह से खाली कमरा था वो . एक एक करके हवेली के सब लोग इसे छोड़ गए, क्या मनहूसियत थी घर चाहे जैसा भी हो घर तो घर ही होता है . पांच साल पुराने इतिहास को कैसे जोडू आज से सोचते सोचते मैं हद से ज्यादा परेशान हो चूका था .

अचानक ही मेरी नजर पिताजी की तस्वीर पर पड़ी, जंगल में खिंची गयी तस्वीर जिसमे वो शान से खड़े थे . वन दरोगा और जंगल में खान. जंगल में वन चौकी और खान का बंद होना कुछ तो कनेक्शन था और शायद इसका जवाब हवेली में नहीं जंगल में ही था. बिना देर किये मैं वहां के लिए चल दिया. कुछ समय बाद मैं उस बंद पड़ी चौकी के सामने खड़ा था. मौसम और वक्त की मार से उसकी हालत जर्जर हो गयी थी. लोहे का दरवाजा जंग खा चूका था . झाड-झंखाड़ और गहरी काई से लिपटी वो चौकी की ईमारत इन्सान के मतलबी होने का सबूत थी.

बड़ी मशक्कत के बाद मैंने दरवाजे को खोला और अन्दर दाखिल हुआ, हाल बुरा था अन्दर का. छत टपक रही थी जिसकी वजह से अन्दर भी हालत बुरे हो गए थे . कोने में एक अलमारी रखी थी जिसके ऊपर रखे कागजो को दीमक चाट गयी थी . दीवारों पर फटे पुराने कलेंडर थे जो बरसो बाद हवा को महसूस करके फडफडा रहे थे. मैंने अलमारी को खोला कुछ फाइलें थी जिन पर धुल मिटटी और दीमक का कब्ज़ा था . मैंने उस मेज-कुर्सी को सहलाया जिस पर कभी पिताजी बैठते थे . धीरे से मैंने दराज को खोला वहां कुछ फाइल पड़ी थी जिनमे मुझे एक तस्वीर मिली जिसे मैं उसके धुंधलेपन के बावजूद भी पहचान सकता था , क्योंकि वो तस्वीर मेरी थी , वो तस्वीर जिसमे मैं और मेरा भाई था . कांपते हाथो से छुटी उस तस्वीर को जब मैं उठा रहा था तो उसके पिछले भाग पर पेन से बनी रेखाओ पर मेरी नजर पड़ी उंगलियों से मैंने उसे रगडा और मैं हैरान रह गया . तस्वीर के पीछे हीरो की छाया बनी हुई थी .खान और इस चौकी का आपस में कोई कनेक्शन जरुर था और मुझे बस इसी के बारे में मालूम करना था .एक बार फिर मैं खान के मुहाने पर खड़ा था .ढलती शाम में सूरज की रौशनी से इसके पत्थर जैसे चमक रहे थे.



“क्या छिपाए हुए हो तुम. क्या है वो वजह जिसने सब को बर्बाद कर दिया. “कहते हुए मैं अन्दर की तरफ चल दिया. मेरे कदमो को अच्छे से मालूम था की कहाँ जाना है, जैसे जैसे मैं अन्दर जा रहा था रौशनी कम हो रही थी . धीरे धीरे मैं हीरो को पार करके मैं पानी में डूबता जा रहा था , सांसे कम होने लगी थी पर इस बार मेरे हाथ उस दरवाजे तक पहुँच ही गए थे और जैसे ही मैंने वो दरवाजा खोला मेरी समझ से बाहर हो गया सब कुछ . आँखों को यकीं नहीं हो रहा था .

“कबीर तुम ” उसकी आँखे हैरानी से फटी के फटी रह गयी.

“सोचा नहीं था की यहाँ ऐसे मिलेंगे ”मैंने कहा

“कबीर, मेरी बात सुनो . मैं समझाती हु ” कपडे पहनते हुए बोली वो .

मैं- तो रात को इस दरोगा के साथ तुम थी वहां चबूतरे वाले पेड़ के पास . दोनों मिलकर मुझे चुतिया बना रहे थे .

“कबीर, हमारी बात सुनोगे तभी तो समझ पाओगे ” दरोगा ने धीमी आवाज में कहा

मैं- क्यों छिपाया मुझसे ये अब अगर चल ही रहा था तो क्यों किया ये नाटक

“मैं क्या करती कबीर . तुम यूँ गायब हो गए थे सब कुछ रूठ गया था मुझे . बड़ी मुश्किल से संभाला मैंने खुद को फिर मेरी जिन्दगी में विक्रम आ गया . जीवन की गाडी पटरी पर आई ही थी की तुम लौट आये कबीर. समझ ही नहीं आया की क्या करू.

“इतना तो हक़ था तुम्हारा मुझ पर की कह सकती थी . ये नाटक करने की क्या जरूरत थी ” मैंने कहा .

वो नजरे चुराने लगी.

मैं- तो अब जब सब कुछ सामने है , हम तुम सब लोग यहाँ है तो कुछ सवालो के जवाब तो बनते है .तुम्हे इस जगह के बारे में कैसे मालूम हुआ . क्या तुम इस बात से इंकार करोगे की हीरो को तुम दोनों ही बेचते थे रत्ना को .

“तुम्हारे पिता लाये थे मुझे इस जगह पर कबीर ” हौले से बोली वो .

मैं- तुम्हे पर क्यों .

“उन्होंने मुझे कहा था की भविष्य में ये जगह तुम्हारे काम आएगी ” उसने जवाब दिया.

मैं- रत्ना के सम्पर्क में कैसे आई तुम

“रत्ना से हमारा कोई लेना देना नहीं कबीर ” दरोगा ने कहा

मैं- कैसे मान लू मैं इस बात को . सब कुछ तो शीशे की तरह साफ़ है

दरोगा- क्योंकि सच यही है कबीर. हमने कभी भी हीरो का लालच नहीं किया. बल्कि हमने तो ............

इसके आगे दरोगा कुछ नहीं बोल पाया .

“धान्य ” एक आवाज आई और दरोगा लहरा कर गिर गया.

“विक्रम ” चीखी वो और दरोगा की तरफ बढ़ी ही थी की अगली गोली से उसके कदम डगमगा गए. ...............
Yeh sala kia chakkar h iska matlab woh Mnju thi dariga ke saath
Ab saala kisne thonk dia dino ko or heere ke peeche nahi tow kiske peeche the yeh log
Kon h jisne gili maari
Dekhte haage kia hota h
Badhiya shaandar update
 
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