An emotional update. Very realistic story.
अब तक आपने पढ़ा:
खैर, अंकल-आंटी ने हमारे घर की घंटी बजाई| रोते हुए मैंने दरवाजा खोला तो सबसे पहले मुझे अंकल मिले, उन्होंने मेरे आँसूँ पोछे और मुझे दिलासा देते हुए बोले; "बेटी, तू चिंता न कर मैं बात करता हूँ भाईसाहब से|" मैं जानती थी की पिताजी किसी की नहीं सुनेंगे पर अंकल के दिलाये इस दिलासे से मेरी उम्मीद बँधने लगी थी| अंकल जी अंदर आ कर पिताजी को समझाने लगे और उधर आंटी जी अंदर आईं और मुझे अपने गले लगा कर मुझे एक माँ की तरह लाड करने लगीं| दो पल मुझे लाड कर आंटी भी मुझे आश्वासन दे कर माँ को समझाने चली गईं| इधर मैं चुपचाप आदि भैया के पास आ कर खड़ी हो गई क्योंकि उनके अलावा अब मेरा कोई सहारा नहीं रह गया था|
अब आगे:
मानु के माता-पिता हम दोनों भाई-बहन के सामने ही हमारे माँ-पिताजी को समझाने में लगे थे की वे अपने बच्चों को माफ़ कर दें तथा अपना 'तुगलकी फरमान' वापस ले लें| "आजकल सरकारी नौकरी के बजाए बच्चे प्राइवेट नौकरी करते हैं क्योंकि वहाँ सैलरी अच्छी मिलती है| मैं भी चाहता था की मानु सरकारी नौकरी करे मगर वो बैंगलोर में प्राइवेट कंपनी में लग गया| ये सब आम बात है भाईसाहब! आदित्य अच्छी कम्पनी में लगा हुआ है, अच्छी सैलरी मिल रही है, उसे कल को सरकारी नौकरी मिली तो वो सरकारी नौकरी कर लेगा! ऐसा कोई नियम थोड़े ही है की प्राइवेट नौकरी वाले बाद में सरकारी नौकरी नहीं कर सकते?!
जहाँ तक कीर्ति बिटिया की बात है तो अगर वो अभी शादी नहीं करना चाहती तो उसे 1-2 साल नौकरी करने दो, फिर उसकी शादी कर देंगे| ये रिश्ता न सही मैं हमारी बिटिया के लिए इससे भी अच्छा रिश्ता ढूँढूँगा ये मैं आपसे वादा करता हूँ|" अंकल जी ने मेरे पिताजी को बहुत समझाने की कोशिश की मगर मेरे पिताजी अपने ही बच्चों से नज़रें फेरे हुए चुप-चाप सुनते रहे! उन्होंने जैसे अपना मन बना लिया था की उनके लिए उनके बच्चे जीते जी मर चुके हैं इसलिए वो अंकल जी की दलीलें सुनकर भी खामोश थे|
जब पिताजी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो अंकल-आंटी जी ने हमारी माँ को समझाना शुरू किया की कम से कम वो एक माँ होते हुए अपने दोनों बच्चों पर तरस खाएँ और अपने पति को समझाएं; “"बहनजी, दोनों बच्चे अभी नादान हैं! आप एकबार दोनों को प्यार से समझाओ, दोनों समझ जाएंगे| इस तरह से बच्चों को घर से निकाल देने से दोनों बच्चे आप दोनों के जीते-जी अनाथ हो जायेंगे! ज़रा सोचो, दोनों कैसे इस दुनिया में अकेले रहेंगे?!
आप भाईसाहब को समझाओ की वो शांत हो जाएँ, मैं दोनों बच्चों से बात करती हूँ...उन्हें समझाती हूँ...दोनों आपसे माफ़ी मांगेंगे! आप बस भाईसाहब को शांत करो!" आंटी जी ने हमारी माँ को समझाने के लिए अपनी पूरी कोशिश की मगर मेरी माँ किसी पत्थर की मूर्त की तरह खामोश बैठी थीं जिनके चेहरे पर अपने दोनों बच्चों से दूर होने का ज़रा भी दुःख नहीं झलक रहा था...बल्कि उनके चेहरे पर तो कोई भाव ही नहीं थे!
आज जब उस पल को याद करती हूँ तो मन में विचार आता है की ये कैसे माँ-बाप थे जिनसे अपने बच्चों की ज़रा सी ख़ुशी नहीं देखि गई! क्या खुदका अहंकार इतना बड़ा होता है की इंसान अपने ही खून से सारे रिश्ते तोड़ लेता है?!
खैर, इतना तो साफ़ हो चूका था की हम दोनों भाई-बहन का दाना-पानी इस घर से उठ चूका है! ये घर जिसमें हम दोनों पैदा हुए, जिस घर ने हमारा बचपन देखा...हमारी शैतानियाँ...नादानियाँ...धमा-चौकड़ी देखि, माँ-बाप और बच्चों का लाड-प्यार देखा, जिस घर में हमने आजतक हर ख़ुशी मनाई...हर दुःख को साथ-साथ बाँटा... आज वही घर दो नन्हें परिंदों को अकेला इस घरोंदे से बेदखल होता हुआ देख रहा था!
"कीर्ति..." आदि भैया मेरी ओर मुड़ते हुए रूँधे गले से बोले| वो इस समय इतने भावुक थे की उनके मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे परन्तु मैं समझ गई थी की भैया क्या कहना चाह रहे हैं| भैया को अंदर से इस कदर दुखी देख मैं टूटने लगी! एक भैया ही थे जिन्हें मैं अपना सहारा समझ रही थी मगर जब उनको यूँ टूटते हुए देखा तो मेरा दिल धक्क सा रह गया! उस समय मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था की मैं क्या करूँ? नाक रगड़ कर पिताजी से माफ़ी माँगू या फिर अपना समान ले कर भैया के साथ चली जाऊँ?! मैं इसी उधेड़-बुन में लगी थी की भैया ने मुझे कमज़ोर पड़ते हुए देखा, उन्होंने फौरन खुद को सँभाला और मेरे काँधे पर हाथ रख मुझे हिम्मत दी|
आँसुओं से भरी आँखें लिए मैंने आखरी बार अपने कमरे में प्रवेश किया| कमरे में प्रवेश करते ही जो पहला ख्याल मन में कौंधा वो था की आज के बाद मेरा अपने कमरे से नाता हमेशा-हमेशा के लिए टूट जायेगा! इस ख्याल के मन में आते ही हिम्मत जवाब दे गई और आँखों में आँसूँ लिए मैं आखरी बार अपने कमरे को देखने लगी ताकि इस कमरे में बसी यादों को मैं अपने दिल में बसा लूँ!
जब मैं छोटी थी तब आदि भैया के साथ लुका-छिपी खेलते हुए इसी कमरे में छुपती थी, कभी पलंग के नीचे तो कभी अलमारी के पीछे और एक बार तो मैं अलमारी के अंदर घुस कर ऐसी छिपी थी की आधे घंटे तक ढूँढने पर भी भैया मुझे नहीं पकड़ पाए थे!
जब मैं तीसरी में थी तब मुझे ड्राइंग करने का शौक चढ़ा था, संडे का दिन मैं बस ड्राइंग करती थी और अपनी सारी ड्राइंग अपने कमरे की दीवारों पर चिपका देती थी! ड्राइंग खराब न हो जाए उसके लिए मैं ट्रांसपेरेंट पन्नी अपनी इन ड्राइंग के ऊपर चिपका देती थी और रोज़ कपड़े से उसे साफ़ करती थी| दिवाली पर पिताजी ने घर में पेंटिंग करवानी थी और चूँकि मैं स्कूल में थी तो पेंटर अंकल ने मेरी सारी ड्राइंग उखाड़ दी और मेरी माँ ने 'गलती से' सारी ड्राइंग कूड़े में फेंक दी| जब मैं घर लौटी और कमरे में अपनी ड्राइंग नहीं देखि तो मैं इतना रोइ थी की मुझे मनाने के लिए पिताजी ने खुद अपने हाथ से मलाई चुन्गडी बना कर मुझे खिलाई तब जा कर मैं चुप हुई थी!
(वैसे अब मुझे लगता है की मेरी माँ ने गलती से नहीं जानबूझ कर मेरी ड्राइंग कूड़े में फेंकी थी क्योंकि उन्हें मेरी आडी-टेढ़ी चित्रकारी कतई पसंद नहीं थी!)
जब मैंने किशोरावस्था में पैर रखा था तो इसी कमरे में मैं छुप कर अंजलि की दी हुई कामुक कहानियाँ पढ़ती थी! रात को जब सब सो जाते थे तब अपने कमरे का दरवाजा बंद कर बिस्तर पर लेट अपने जिस्म को सहलाते हुए वो कामुक कहानियाँ पढ़ती थी| कहानी पढ़ते हुए जब कामुकता काबू से बढ़ जाती थी तब इसी कमरे में अपनी मुनिया को सहलाते हुए मैं स्खलित होती थी!
इन मीठी-मीठी यादों को पुनः याद कर मेरा दिल बहुत दुखा था, मुझ में हिम्मत ही नहीं थी की मैं अपना ये कमरा छोड़ कर जाऊँ?! दिल कर रहा था की अपने इस कमरे को भी अपने बैग में पैक कर लूँ!
बहरहाल, अपने अतीत की यादों भरी गलियों से मैं बाहर आई और अपने कपड़े एक बैग में डालकर एक आखरीबार अपने कमरे को देख...उसे अलविदा कर मैं बाहर आई| आदि भैया अपने काँधे पर बैग टांगें मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे| रोने से खराब मेरा चेहरा देख उन्होंने मेरे आँसूँ पोछे और एक अंतिमबार उन्होंने माँ-पिताजी की ओर देखा, इस उम्मीद में की शायद...शायद उन्हें अपने दोनों बच्चों..अपने खून पर तरस आ जाए और वो हमें रोक लें! परन्तु पिताजी ने हमारी तरफ देखा तक नहीं! हाँ माँ ने हम दोनों को एक नज़र भर कर ज़र्रूर देखा मगर उन्होंने हमें रोकने के लिए एक शब्द नहीं कहा!
बस अंकल-आंटी को हम दोनों भाई-बहन पर तरस आ रहा था इसलिए उन्होंने हमें रोकने की कोशिश की; "रुको बच्चों!" फिर उन्होंने एक बार फिर पिताजी को समझाने की कोशिश की; "भाईसाहब..." परन्तु वो आगे कुछ कह पाते उससे पहले ही पिताजी ने उनकी बात काट दी; "मत रोकिये इन दोनों को! हमारा इनसे कोई नाता नहीं और अगर आप मुझे अपना बड़ा भाई मानते हैं तो आप भी इन दोनों से कोई नाता नहीं रखेंगे! अगर आपने इन दोनों को अपने घर में पनाह दी तो हमारा रिश्ता भी खत्म हो जायेगा!" पिताजी की दी इस चेतावनी सुन अंकल-आंटी स्तब्ध थे पर फिर भी हार न मानते हुए उन्होंने पुनः पिताजी को समझाने की कोशिश जारी रखी|
इधर हम दोनों जानते थे की अब हमारा इस घर में कुछ नहीं रह गया इसलिए अब यहाँ रहना व्यर्थ था| आदि भैया ने हाथ जोड़कर, सर झुका कर माँ-पिताजी को आखरीबार प्रणाम किया; "आपके इस तिरस्कार को आपका आशीर्वाद मानकर हम दोनों जा रहे हैं| हमारे कारण जो आपका दिल दुख उसके लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ! अगर अगले जन्म में मैं फिर आपके घर पैदा हुआ तो जो सेवा मैं इस जन्म में नहीं कर पाया वो अवश्य करूँगा!" ये कहते हुए आदि भैया बाहर निकल गए|
पिताजी का ये उखड़ा हुआ रवैय्या देख और आदि भैया के दिल में उठे दर्द को महसूस कर मेरा गुस्सा अब धधकने लगा था! मुझे समझ नहीं आ रहा था की आखिर हमने ऐसा कौनसा पाप कर दिया जो पिताजी हमारे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं?! अगर भैया ने MBA की...एक अच्छी MNC में जॉब की तो किस के लिए? अपने लिए?...नहीं...अपने परिवार के लिए ताकि उन्हें अच्छे सैलरी मिले और वो पिताजी का बोझ अपने सर ले सकें! अगर मैं शादी नहीं करना चाहती तो कौन सी बड़ी बात हो गई?! एकबार पिताजी मेरी बात तो सुन लेते...अगर मैं गलत थी तो कम से कम मुझे आराम से समझाते...मगर उन्होंने तो एकदम से हमारे साथ सारे रिश्ते खत्म कर लिए! दुनिया में ऐसा कौन सा बाप होता है जो अपने बच्चों के लिए फैसलों पर बात करने के बजाए, अपने ही बच्चों को घर से निकाल देता है?!
वहीं मेरी माँ...जो चाहती तो पिताजी को समझा सकती थी या कुछ नहीं तो कम से कम अपने खून...अपने बड़े बेटे की तरफदारी तो करतीं मगर वो तो एकदम से खामोश हो कर बूत बन गई थीं! उन्होंने तो आखरीबार अपने बेटे तक को नहीं रोका!
मन में उमड़े इन ख्यालों से मुझे अपने ही माँ-पिताजी से कोफ़्त होने लगी थी इसलिए मैंने अंतिमबार उनसे कुछ नहीं कहा...यहाँ तक की उन्हें आखरीबार प्रणाम तक नहीं किया! गुस्से से भरी मैं बिना किसी से कुछ कहे आदि भैया के पीछे-पीछे घर से निकल पड़ी!
जब मैं घर से बाहर निकली तो मैंने देखा की हमारे घर के बाहर पड़ोसियों का जमावड़ा लगा हुआ है| सभी घर के भीतर से आ रही पिताजी की ऊँची-ऊँची आवाज़ सुनकर आपस में खुसर-फुसर कर रहे थे| उधर आदि भैया घर से बाहर निकल कर एक आखरीबार हमारे घर को देख रहे थे| जैसे ही मैं उनके नज़दीक आई तो मुझे उनकी आँखों में आँसूँ नज़र आये! मैंने आजतक भैया को यूँ मायूस...यूँ बेसहारा...यूँ...बेबस हुआ नहीं नहीं देखा था इसलिए उनकी आँखों में आँसुओं को देख कर उस पल मेरे मन में अपने ही माँ-बाप से बदला लेने की भावना ने जन्म ले लिया! मुझे ये तो नहीं पता था की मैं अपने ही माँ-बाप से बदला कैसे लूँगी मगर मैंने ये तय कर लिया था की मैं बदला तो जर्रूर लूँगी और जिस घर से हमें निकाला गया है इसे फिर से हासिल कर के रहूँगी!
खैर, मुझे देखते ही भैया ने अपने आँसूँ से भरी आँखें मुझसे फेर ली और आगे-आगे चलने लगे| मैं भी उनके पीछे-पीछे ख़ामोशी से चलने लगी| सारे पडोसी खड़े हम दोनों भाई-बहन को जाते हुए देख रहे थे पर किसी ने हमसे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं दिखाई!
चलते-चलते हम गली से बाहर आये मगर अब जाना कहाँ है ये हमें नहीं पता था?! इधर मेरे भीतर इतनी हिम्मत नहीं थी की मैं भैया से पूछूँ की अब हम जाएंगे कहाँ क्योंकि मुझे डर था की मेरे पूछे इस सवाल के कारण कहीं आदि भैया हारा हुआ न महसूस करने लगें| भले ही मैंने ये सवाल न पुछा हो मगर आदि भैया ने मेरे मन में पैदा हुए इस सवाल को पढ़ लिया था| उन्होंने आते हुए एक ऑटोरिक्शा को हाथ दे कर रोका और उससे रेलवे स्टेशन चलने को कहा| मुझे लगा की शायद भैया गाँव में किसी रिश्तेदार के यहाँ मुझे छोड़कर अकेले वापस आएंगे| भैया से दूर होने के इस ख्याल ने मुझे एकदम से डरा दिया था और मैं मन ही मन सोचने लगी थी की मैं क्या तर्क दूँ की भैया मुझे खुद से दूर न करें|
रेलवे स्टेशन आया और पैसे दे कर हमने रेलवे स्टेशन के भीतर प्रवेश किया| इस समय तक गाँव में अकेले रहने के डर के मारे मेरे हाथ-पाओं फूलने लगे थे| भैया आगे-आगे चल रहे थे और मैं डरी-सहमी सी उनके पीछे चल रही थी| उस समय मेरे दिमाग में कोई आईडिया नहीं सूझ रहा था की मैं ऐसा क्या करूँ की भैया गाँव जाने का प्लान कैंसिल कर दें!
जारी रहेगा...







