• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Adultery अद्भुत जाल ....

Bhaiya Ji

Member
413
1,256
124
अभी पिछले अपडेट में तो आप चाची और अभय की बात दिखा रहे थे । पर इस अपडेट में कहानी को सिधा मोना और अभय पर ले आए ।

कहानी को एक जगह तो टिकने दो सरकार । कहानी की शुरुआत में तो फुल इराटिक फैक्टर था । मगर अब सिर्फ ससपेंस और थ्रिलर रह गया है ।

भैया जी थोडा चाची पर फोकस रखो .. आपने तो हमारा दिल ही तोड दिया । :sad:


:lotpot: :lotpot: :thumbup:
 
  • Like
Reactions: Studxyz and brego4

Bhaiya Ji

Member
413
1,256
124
ज़बरदस्त अपडेट रहा, मोना तो अभय से भी तगड़ी जासूसनी है. अब देखो अभय को चाची के बारे में आगे क्या पता लगता है

बहुत बहुत धन्यवाद आपका.. :thanks:
 
  • Like
Reactions: brego4 and Studxyz

Bhaiya Ji

Member
413
1,256
124
भाग ३८)

मोना की कार अपने सामने वाले कार का पीछा कर रही थी...

कार मोना की ज़रूर है पर चला मैं रहा हूँ.

मोना बगल की सीट में बैठी बेचैनी से पहलू बदले जा रही है...

अधिक देर तक चुप नहीं रहा गया तो पूछ ही बैठी,

“तुम कुछ बताओगे भी, अभय? कहाँ जा रहे हो .. किसके पीछे जा रहे हो? क्या करने वाले हो??”

बड़ी सावधानी और पूर्ण मनोयोग से सामने वाली गाड़ी का पीछा करने के कारण पहली बार में मोना की बात को सुन न सका पर मोना ने समझा की मैं उसे और उसके प्रश्न को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश कर रहा हूँ.

इसलिए वो तुनक कर जब दोबारा अपने प्रश्न को दोहराई तब मैंने ध्यान दिया,

“ओह्ह.. सॉरी मोना. मेरा ध्यान कहीं ओर था...”

“पता है.. दिख रहा है.. पर मेरे लिए अभी ज़रूरी यह है की मैंने जो पूछा है तुमसे उसका जवाब दोगे भी या नहीं?”

“यस, श्योर...”

“तो दो...”

जवाब सुनने को लेकर एक तरह से मोना की इस तरह की हठ को देख कर मैंने भी अधिक चुप रहना उचित न समझा.

“मोना, तुम्हारे चार प्रश्न में से पहला प्रश्न का उत्तर है की मैं अभी तुम्हें बताऊँगा.. सब.. दूसरा प्रश्न की मैं कहाँ जा रहा हूँ तो सच कहता हूँ , ये मुझे भी नहीं पता. तुम्हारा तीसरा प्रश्न की किसके पीछे जा रहा हूँ तो इसका जवाब ये है कि जब हम दोनों वहाँ कॉफ़ी पीते हुए बातें कर रहे थे तो मुझे बगल के ही रास्ते पर वही लड़का दिखा जो उस दिन उस पुराने बिल्डिंग में देखा था .. वह लड़का सड़क पर खड़ा , एक कार की ड्राइविंग वाली सीट के खिड़की पर हाथों के सहारे झुक कर किसी से बातें कर रहा था. लड़के को पहचानने में मुझसे कोई भूल नहीं हो सकती. शत प्रतिशत वही लड़का था... दोनों के बीच कुछ बातें हुईं और फ़िर वह उसी कार में बैठ गया.. अभी मैं उसी कार का पीछा कर रहा हूँ. ऍम सॉरी मोना, अगर मेरे कारण तुम्हें परेशानी हो रही है तो ..... म..”

मुझे बीच में ही टोकती हुई मोना बोली,

“और चौथा??”

“चौथा क्या... ओह हाँ.. तुम्हारा चौथा प्रश्न की मैं क्या करने वाला हूँ, तो इसका उत्तर देना अभी थोड़ा मुश्किल है पर इतना तय है की जो भी करूँगा, बहुत सोच समझ कर करूँगा.”

“ह्म्म्म.. संभल कर अभय .. ज़्यादा रिस्क लेने की गलती मत करना.”

“बिल्कुल.. वो देखो.. वह कार उस मोड़ को पार कर सड़क के आगे जा कर रुकी. मैं भी अपनी कार यहीं रोक देता हूँ.....”

“अपनी कार?”

“सॉरी .. तुम्हारी कार...”

“कोई बात नहीं, सुन कर अच्छा लगा.”

“श्शश्श्श... वो देखो, वह लड़का कार से उतर गया..”

“हम्म.. उतर कर ड्राईवर से कुछ बात कर रहा है... तुम्हें कोई आईडिया है की ऐसा कौन हो सकता है?”

“नहीं मोना, मुझे कैसे मालूम होगा..?”

“डिकोस्टा?”

“नहीं.. आई मीन, मुझे नहीं लगता की ड्राइविंग सीट पे डिकोस्टा होगा.”

इस वाक्य को बड़ी दृढ़ता से कहा मैंने.

थोड़ा हैरान होते हुए मोना फ़िर पूछी,

“ऐसा क्यों?”

“इनकी बातों से.. उस दिन उस पुरानी बिल्डिंग में ये लोग जिस तरह से डिकोस्टा के बारे में बात कर रहे थे; मानो डिकोस्टा कोई बहुत ही पहुँचा हुआ चीज़ हो.. और ये लोग उसके प्यादे... इसलिए मुझे नहीं लगता की कार में बैठा शख्स डिकोस्टा हो सकता है.. अगर होता तो गाड़ी उसका ड्राईवर चला रहा होता.. वो खुद नहीं.”

“हम्म.. तुम्हारी बात में दम है. पर दिक्कत यह है की कार के सभी खिड़कियों में काले शीशे लगे हुए हैं. ठीक से कुछ दिखता भी तो नहीं.”

मोना ने चिंता ज़ाहिर की.

उसकी चिंता सही भी है. काले शीशों के जगह अगर पारदर्शी शीशे लगे होते तो थोड़ा बहुत अंदाज़ा लगा पाना आसान होता. पर अब जो है नहीं उसके बारे में सोच कर क्या फ़ायदा.

मैं अपने रिस्ट वाच की ओर देखा.. खड़े खड़े पाँच मिनट ऐसे ही बीत गए. लड़का अभी भी ड्राईवर से पूर्ववत बात किये जा रहा है. एक दो बार उसने सिर इधर उधर कर घूमाते समय एकाध बार हमारे कार की ओर भी देखा.. शायद उसे अभी भी कोई संदेह नहीं हुआ है.

पाँच मिनट और बीत गए.

मैं और मोना, दोनों ही बेचैन हो रहे थे उनके अगले कदम को ले कर.

तभी लड़का सीधा खड़ा हुआ.

अपने दाएँ हाथ को आँखों के ऊपर से सर पे रख कर कार वाले को सलाम किया.

कार स्टार्ट हुआ.

और धुआँ छोड़ते हुए आगे बढ़ गया.

लड़का कुछेक मिनट उस कार को दूर तक जाते देखता रहा , फ़िर अपने चारों ओर एक नज़र घूमा कर देख लेने बाद वह तेज़ी उस मोड़ वाले रास्ते अंदर चला गया. मेरे हाथ स्टीयरिंग पर जम गए.. आगे कुछ करता की तभी मोना पूछ बैठी,

“अब क्या करोगे?”

“मतलब?” थोड़ा आश्चर्य से पूछा.

“मतलब की, एक मोड़ वाले रास्ते में अंदर घुस गया और दूसरा कार ले कर सीधे निकल गया. तुम्हारा क्या प्लान है... किधर जाओगे... किसके पीछे जाओगे?”

“ओह्ह.” एक अफ़सोस सा आह निकला.

कार के चक्कर में लड़के को भूल ही गया था.

एक साथ दोनों के पीछे जाना संभव नहीं है.

पर किसी एक के पीछे तो जा सकता हूँ.

पर किसके पीछे जाऊं...

जल्द ही निर्णय लेना था..

और निर्णय ले भी लिया ..

मोना की ओर देख कर कहा,

“मोना, मैं सोच रहा हूँ इस लड़के के पीछे जाने का. कार वाला तो पता नहीं अब तक कहाँ से कहाँ निकल गया होगा. लड़के का पीछा किया जा सकता है आसानी से. क्या कहती हो?”

मोना सहमती में सिर हिलाते हुए बोली,

“हाँ, यही ठीक रहेगा. तुम जाओ, मैं आती हूँ.”

“मतलब.. क्या करोगी?”

“अरे बाबा.. गाड़ी को साइड में लगाना होगा न.. या फ़िर इसी तरह यहाँ छोड़ दूँ?” व्यंग्यात्मक लहजे में थोड़ा गुस्सा करते हुए मोना बोली.

मैं हल्का सा मुस्कराया और तेज़ी उस लड़के के पीछे उस मोड़ वाले रास्ते की ओर बढ़ गया.

मैं तेज़ी से चलता हुआ उस मोड़ तक पहुँचा ही की देखा वह लड़का आगे दाएँ ओर की एक गली में घुस गया. अगर सेकंड भर की देर हो जाती तो शायद लड़के को ढूँढने में थोड़ी परेशानी हो सकती थी क्योंकि ये मोड़ वाला रास्ता आगे बहुत दूर तक निकल गया है और इस सामने दाएँ वाली गली के अलावा थोड़ी ही दूरी पर बाएँ तरफ़ एक और गली का होना मालूम पड़ता है.

मैं मुड़ कर पीछे गाड़ी की ओर देखा, मोना अब तक ड्राइविंग सीट पर बैठ चुकी थी और गाड़ी को थोड़ा पीछे करते हुए सड़क के किनारे लगाने का प्रयास कर रही थी.

मैं जल्दी से उस मोड़ वाले रास्ते से आगे बढ़ा और गली तक पहुँचा.

जेब से मशहूर जापानी सिगरेट ‘कास्टर’ निकाला और सुलगा लिया और इस अंदाज़ से गली में घुसा मानो मुझे किसी की परवाह नहीं.. बस ऐसे ही गली गली घूमने वाला कोई आवारा लड़का हूँ.

गली में घुसते ही वह लड़का एक छोटे से रेस्टोरेंट में घुसता हुआ दिखा.

मैं भी रेस्टोरेंट में घुसा.

लड़का एक टेबल पर जा कर बैठा, वेटर का काम करते एक छोटे लड़के को बुलाया और दो समोसे, दो वेजिटेबल चॉप और एक चाय मँगाया. उस चौकोर टेबल की चार कुर्सियों में से एक पर बैठा था वह.

मैं उसके पीछे वाले टेबल पर जा बैठा. उसकी पीठ की ओर अपना पीठ कर सिर नीचे कर अपने शर्ट के पॉकेट से तह कर के रखे कागजों को निकाला और टेबल पर सामने रख कर बड़े ध्यान से उन कागजों को देखने का नाटक करने लगा.

ऐसा आभास हो रहा था जैसे की वह लड़का बार बार सिर पीछे कर दरवाज़े की ओर देख रहा हो. शायद किसी के आने का इंतज़ार है उसे.

उसके इस इंतज़ार में भागीदार बनने के लिए मैंने भी दो समोसे और एक चाय मँगा लिया.

कुछ ही मिनटों बाद देखा की सामने एक सफ़ेद अम्बेसेडर कार थोड़ा आगे जा कर रुकी और उसमें से एक भारी भरकम सा आदमी उतरा.

बहुत अधिक मोटा भी न था वह पर शरीर देख कर इतना तो तय था की काफ़ी खाते पीते परिवार से है और ख़ुद भी शायद बड़ा शौक़ीन है खाने पीने का. उम्र से अंदाज़न चालीस के पास होगा.

वह अंदर घुस कर चारों ओर बड़े ध्यान से देखने लगा. तभी मेरे पीछे बैठा वह लड़का अपनी जगह पर खड़ा हो कर हाथ हिला कर उसे संकेत दिया. प्रत्युत्तर में वह आदमी मुस्कराता हुआ आगे बढ़ा और भारी कदमों से चलता हुआ मुझे पार करता हुआ उस लड़के के पास पहुँचा. लड़के ने दुआ सलाम किया. बदले में उस आदमी ने भी मुस्करा कर अभिवादन किया.

“आइए मनसुख भाई, आइए. बैठिए.” लड़के ने कहा.

“हाँ हाँ आलोक.. बैठ रहा हूँ.. भई, कहीं मुझे देर तो नहीं हो गई आने में. हाहाहा.”

हाँ..! अब याद आया लड़के का नाम. आलोक ! यही नाम तो सुना था उस दिन उस पुरानी बिल्डिंग में.

उस मोटे आदमी ने हँसते हुए पूछा. बात करने तरीके से तो बड़ा हँसमुख जान पड़ता है.

इस पर लड़के ने भी ‘खी खी’ कर के हँसते हुए कहा,

“अरे नहीं मनसुख जी.. आप बिल्कुल सही टाइम पर आये हैं. बल्कि टाइम से थोड़ा पहले ही आ गए हैं.”

आवाज़ में बड़ा मीठापन लिए बोला आलोक. समझते देर न लगी की चापलूसी में माहिर है.

अभी इनकी बातों में ध्यान दे ही रहा था की तभी मोना भी मुझे ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुँची. चेहरे पर आते जाते भाव साफ़ बता रहे थे की मुझे ढूँढने में उसे थोड़ी परेशानी हुई है. दरवाज़े से अंदर आते ही मैंने अपने होंठों पर ऊँगली रख कर उसे चुप रहने का संकेत किया और फ़िर अँगूठे से पीछे की ओर इशारा कर के ये भी जतला दिया की लड़का पीछे ही बैठा है.

मोना जल्द ही सावधान वाले मुद्रा में आ गई और धीरे कदमों से चलती हुई मेरे पास पहुँची और मेरे सामने वाली कुर्सी के खाली रहने के बावजूद वह मुझे उठा कर मेरे बगल की कुर्सी पर बैठ गई.

मैं दोबारा अपने सीट पर विराजमान हुआ.

गौर किया मैंने, अब तक आलोक और मनसुख भाई में दबे स्वर में बातें होने लगी हैं. मैं उनकी बातों को सुनने को आतुर होने लगा पर कोई उपाय न सूझ रहा था. उनकी खुसुर-पुसुर जारी थी.. कुर्सी पर बैठे बैठे ही मैं बेचैनी में पहलू बदलने लगा. आधा बचा समोसा और ठंडी होती चाय पर मेरा कतई तवज्जो न रहा.

मुझे बेचैन – परेशान देख मोना ने इशारों में कारण पूछा.

मैंने सामने रखे कागजों में से एक उठाया और पेन से लिख कर मोना की ओर बढ़ा दिया.

मोना ने कागज़ पे लिखे मेरे शब्दों को ध्यान से पढ़ा और पढ़ कर कागज़ को मेरी ओर सरका दी. अपने पर्स से हथेली से भी छोटा एक उपकरण निकाली, एक – दो बटन दबाई और उसको एक ख़ास कोण में घूमा कर पीछे बैठे आलोक और मनसुख भाई की ओर कर के अपनी ही कुर्सी पर रख दी. इसके लिए उसे खुद थोड़ा आगे सरकना पड़ा.

मैं हैरानी से उपकरण को देखता हुआ मोना को देखने लगा. कुछ बोलने के लिए मुँह खोलने ही वाला था की मोना ने इशारे से मुझे चुप रहने का संकेत किया और मेरे सामने से कागज़ उठा कर , मेरे हाथ से पेन लेकर उसपे कुछ लिखने लगी.

फ़िर कागज़ मुझे दी.

लिखा था,

“निश्चिन्त रहो. उन्हें उनकी बात करने दो. हम अपनी कुछ बात करते हैं; नहीं तो इन्हें शक हो सकता है. चलो अब जल्दी से कुछ रोमांटिक बातें शुरू करो. बॉयफ्रेंड – गर्लफ्रेंड वाली.”

पढ़ कर मैं आश्चर्य से उसकी ओर देखा.

वह मुस्कराई.

मुझे समझ में नहीं आया की क्या इसे बात की गम्भीरता समझ में नहीं रही है --- या शायद मुझे परेशान हाल में नहीं देखना चाहती फ़िलहाल.

अभी कुछ सोचता की तभी मोना बोल पड़ी,

“ओफ्फ्हो... क्या सिर्फ़ चुप रहने और समोसा खिलाने के लिए ही मुझे यहाँ बुलाया है. कितनी दूर से किस तरह से आई हूँ तुम्हें पता भी है?”

“अन्हं...अम्म्म्म...”

“और देखो तो.. मेरे आने से पहले ही तुम अपने हिस्से की ले कर खाने लगे हो... ?!”

मैंने गौर किया,

आलोक और मनसुख दोनों ही हमारे तरफ़ देखा, मोना की बातों को सुना, फ़िर आपस में एक-दूसरे को देख कर मुस्कराने लगे.

आलोक – “हाहा.. आजकल ऐसे लव बर्ड्स शहर में हर तरफ़ देखने को मिल रहे हैं मनसुख भाई..”

मनसुख – “हाहाहा... हाँ.. सही कहा .. वैसे एक टाइम अपना भी हुआ करता था आलोक. हर तरह के फूल रखने का शौक हुआ करता था. अब तो बस.... हाहाहा...”

आलोक – “अब तो बस क्या मनसुख भाई.. बोल भी दीजिए.. बात को यूँ अधूरा न छोड़िये |”

“हाहाहा... अब तो बस हरेक फूलों के रस को चूस कर फ़ेंक देता हूँ. हाहाहाहाहा!!”

आलोक भी खिलखिलाकर हँसते हुए मनसुख का साथ दिया..

मैंने मोना की ओर देखा.

गुस्से में होंठ चबाते हुए बड़बड़ाई,

“ब्लडी बास्टर्ड.. स्वाइन..!”

मैंने जल्दी ही उसका बायाँ हाथ थाम कर उसे शांत रखने का प्रयास करने लगा. कोई भरोसा नहीं.. लड़ाकू लड़की है.. कहीं कुछ कर ना बैठे.. वरना सब गुड़ गोबर हो जाएगा.





क्रमशः

********************




 
Last edited:

Studxyz

Well-Known Member
2,933
16,363
158
कहानी बहुत ही थ्रिल्लिंग अंदाज़ में आगे बढ़ रही है, अभय और मोना का पुलिस की मदद ना ले पाना भी इस जासूसी के काम को बहुत मुश्किल बना रहा है
 

Bhaiya Ji

Member
413
1,256
124
भाग ३९)


आलोक और मनसुख दोनों पूर्ववत सिर से सिर सटा कर आपस में फुसफुसा कर बतियाने लगे.


मैं और मोना भी धीमे स्वर में बात करने लगे पर ध्यान हमारा उधर ही था हालाँकि फ़ायदा कुछ था नहीं क्योंकि उन दोनों की फुसफुसाहट हमारे कानों तक नहीं पहुँच रही थी |


उन दोनों की बातचीत लगभग आधे घंटे तक चली.


और हम दोनों भी आधे घंटे तक आपस में गर्लफ्रेंड – बॉयफ्रेंड वाली रंग बिरंगी बातें करते रहें ताकि उन्हें कोई शक न हो.


आधे घंटे बाद मनसुख अपने जगह से उठा और आलोक को अलविदा कह कर बाहर की भारी कदमों से चल दिया.


दरवाज़े के पास पहुँच कर उसने दाएँ तरफ़ देख कर किसी को आवाज़ दी.


मिनट दो मिनट में ही उसकी एम्बेसडर धीरे धीरे पीछे होते हुए मनसुख के निकट आ कर खड़ी हुई. अपने लंबे कुरते के पॉकेट से एक मुड़ी हुई पान का पत्ता निकाला, खोला और उसमें से पान निकाल कर अपने मुँह में भर लिया. फ़िर, बड़े इत्मीनान से अपने एम्बेसडर का पीछे वाला दरवाज़ा खोल कर उसमें जा बैठा. उसके बैठते ही कार अपने आगे निकल गई.


हम दोनों, मतलब मैं और मोना, दोनों ने ही पूरा घटनाक्रम बहुत अच्छे से देखा पर दाद देनी होगी मोना की भी कि इस दौरान उसने अपनी बातों को बहुत अच्छे से जारी रखी.


थोड़ी ही देर बाद आलोक भी उठा और काउंटर पर पेमेंट कर के चला गया |


जाने से पहले एक बार उसने पलट कर मोना को देखने की कोशिश की पर चंद सेकंड पहले ही मोना अपना सिर झुका कर , थोड़ा तीरछा कर के मेरी ओर घूमा ली थी.. इसलिए बेचारा आलोक मोना के चेहरे को देख नहीं पाया..


और इस कारण उसके ख़ुद के चेहरे पर जो अफ़सोस वाले भाव आए; उन्हें देख कर मुझे हंसी आ गई.


काउंटर पर रखे प्लेट पर से थोड़े सौंफ़ उठाया, मुँह में रखा और चबाते हुए निकल गया दरवाज़े से बाहर.


उसके बाहर निकलते ही मोना ने जल्दी से उस छोटे से उपकरण को उठाया और उसके स्विच को घूमा कर अपने पर्स में रख ली.


रखने के बाद मेरी ओर देख कर बोली,


“अब आगे क्या करना है?”


“पहले ये तो बताओ की ये डिवाइस है क्या?”


“बताऊँगी.. पर यहाँ नहीं.. कार में.”


“हम्म.. यही सही रहेगा.”


“वैसे, तुम्हें वो मोटा आदमी कैसा लगता है...?”


“मतलब?”


“मतलब उसका पेशा क्या हो सकता है?”


“अम्मम्म... मुझे तो कोई बड़ा सेठ टाइप का आदमी लगता है. एक्साक्ट्ली क्या करता है ये कहना तो मुश्किल है पर इतना तय है कि ये एक बिज़नेसमैन है. तुम्हें क्या लगता है?”


“हरामी..”


“अरे?!” मैं थोड़ा चौंका.. ऐसे किसी जवाब के बारे में उम्मीद नहीं किया था.


“ओफ़्फ़ो.. तुम्हें नहीं.. उस आदमी को कह रही हूँ.”


मोना हँसते हुए बोली.


क़रीब १० मिनट तक हम दोनों वहीँ बैठे रहे.


और जब लगा की हमें निकलना चाहिए तब काउंटर पर पेमेंट कर के वहाँ से निकल कर सीधे मोना के कार तक पहुंचे और जल्दी से अंदर बैठने के बाद मोना ने पर्स से वह उपकरण निकाला और २-३ बटन दबाई.


ऐसा करते ही उस छोटे से डिवाइस में ‘क्लिक’ की आवाज़ हुई और उसमें से आवाजें आने लगीं, जो संभवतः उसी रेस्टोरेंट की थी...


शुरुआत में ‘घिच्च – खीच्च’ की आवाजें आती रही --- फ़िर धीरे धीरे क्लियर हो गया.


दो लोगों की आवाजें सुनाई दी..


एक भारी आवाज़ दूसरा थोड़ा हल्का... पतला..


पहचानने में कोई दिक्कत न हुई की ये इन स्वरों के मालिक कौन हैं ---


मनसुख और आलोक!


वाह.. तो मोना ने रिकॉर्ड किया है उनके आपसी बातचीत को ... मन ही मन दाद दिया उसके दिमाग को ... वाकई बहुत , बहुत काम की और अकलमंद लड़की है.


अधिक दाद देने का समय न मिला..


उस डिवाइस में से आती आवाज --- बातचीत के वह अंश --- जो आलोक और मनसुख भाई के बीच हुए थे --- ने बरबस ही मेरा ध्यान अपने ओर खींच लिया.


बातचीत कुछ यूँ थी...


“मनसुख जी...”


“अरे यार... कितनी बार कहा है की या तो मुझे मनसुख ‘भाई’ ही बोला करो या फ़िर मनसुख ‘जी’ ... तुम कभी भाई , कभी जी बोल कर यार मेरे दिमाग की कुल्फी जमा देते हो.. हाहाहा...”


“अब क्या बताऊँ, आपके लिए पर्सनली मेरे दिल में जो सम्मान के भाव हैं, वही वजह है की आपके लिए कभी भाई तो कभी जी निकल जाता है.. अच्छा ठीक है, आज से .. बल्कि अभी से ही मैं आपको सिर्फ़ और सिर्फ़ मनसुख ‘जी’ कह कर बुला और बोला करूँगा.. ओके? ...”


“हाँ भई, ये ठीक रहेगा... हाहा..”


“वैसे मनसुख जी..”


“हाँ कहो..”


“दिमाग का कुल्फी जमना नहीं... दही जमना कहते हैं...”


“हैं?!.. ऐसा...??”


“जी... कुल्फी तो कहीं और जमती है...”


“कहाँ भई...?”


“वहाँ..”


“वहाँ कहाँ...?”


“वहाँ... “


“कहाँ???”


“ओफ्फ्फ़... मनसुख जी.. आँखों के इशारों को तो समझो...”


“ओह... ओ... वो... वहाँ..?”


“हाँ. जी..”


“हाहाहाहा..”


“हाहाहाहाहाहा”


अगले दो तीन मिनट तक सिर्फ़ हँसने की ही आवाज़ आती रही.


पर मोना और मैं, दोनों को ही उनके मज़ाक और हंसी नहीं, बल्कि आगे होने वाली बातचीत में इंटरेस्ट है.. और पूरा ध्यान वहीँ है.


“अच्छा भई, अब जल्दी से उस ज़रूरी काम के बारे में कुछ उचरो जिसके लिए तुमने मेरे को इतना अर्जेंटली बुलाया है मिलने को.”


“मनसुख जी.. मैं वही बात करने आया हूँ... उसी के बारे में.. क्या सोचा है आपने.. आपने तो कहा था की सोच कर अपना निर्णय सुनाओगे.”


“ओ. वह.. अरे नहीं... अभी तक सोचने का टाइम ही नहीं मिला....”


“मनसुख जी.....” आलोक का शिकायती स्वर ...


“अरे सच में.. आजकल बिज़नेस आसान नहीं रह गया है.. हमेशा उसमें लगे रहना पड़ता है न ...”


“किसी भी तरह का बिज़नेस कभी भी आसान नहीं था मनसुख जी.. न है और न रहेगा.. पर मैं जो डील के बारे में आपसे बात कर रहा हूँ.. ये जो प्रस्ताव है.. ये क्या किसी भी नज़रिए से कम है?”


“नहीं .. कम तो नहीं.. पर...” आवाज़ से लगा मानो मनसुख कुछ स्वीकार करने में हिचकिचा रहा था..


“पर??”


“अब क्या बताऊँ... डील है तो....”


“मनसुख जी... ज़रा ठन्डे दिमाग और एक बिज़नेसमैन के दृष्टिकोण से सोचिये... क्या पचास लाख रुपए कम होते हैं?”


“सोचना क्या है इसमें... बिल्कुल कम नहीं होते...”


“तो फ़िर समस्या क्या है?”


“समस्या यही है की मन नहीं मान रहा है.” ये आवाज़ काफ़ी सपाट सा आया. शायद मनसुख ने भी ऐसे ही सपाट तरीके से ही बोला हो वहाँ.


“अरे! अब ये क्या बात हुई मनसुख जी.. प्रस्ताव पर विचार करने का इरादा है.. विचार कर भी रहे हैं.. पर साथ ही कहते हैं की मन नहीं मान रहा है.?! ऐसे कैसे चलेगा.. और तो और आप स्वयं ये मान रहे हैं कि पचास लाख रुपया कम नहीं होते ... कुछ तो विचार क्लियर रखिए मालिक!”


काफ़ी शिकायती लहजा था ये आलोक की तरफ़ से.


बिल्कुल की छोटे से बच्चे की तरह.


मैं और मोना दोनों इसे सुनकर एक दूसरे की ओर देखते हुए हँस दिए.


“हाँ भई, मैं भी मानता हूँ की निर्णय लेने में थोड़ा विलम्ब हो रहा है मेरी ओर से ...”


“विलम्ब का कारण? .... अब ये फ़िर न कहना की मन नहीं मान रहा है.”


मनसुख की बात को बीच में ही काटते हुए आलोक पूछ बैठा..


“कारण ये है कि ये जो अमाउंट... पचास लाख की बात कर रहे हो... इसकी सिर्फ़ पेशकश हुई है.”


“तो?”


“तो ये.. की ये सिर्फ़ पेशकश है.. हासिल की क्या गारंटी है...?”


“हासिल की??!”


“हाँ भई.. देखो .. साफ़ बात कहता हूँ.. मैं एक बिज़नेसमैन हूँ .. बचपन से ही अपनी पूरी फैमिली को बिज़नेस करते देखा है.. और एक बात मोटे तौर पर सीखी है की बिज़नेस में डील के समय और ख़ुद डील में; हमेशा --- हमेशा पारदर्शिता होनी चाहिए. साथ ही दम होनी चाहिए.”


“ओके.. तो इस डील में ...?”


“इस डील में वैसा दम नहीं ... और अगर मान भी लूँ की दम है.. तो इतनी तो पक्की दिख ही रही है कि इसमें पारदर्शिता नहीं है.”


“क्या बात कर रहे हो मालिक...!”


“सही बात कर रहा हूँ बच्चे.”


मनसुख के इसबार के वाक्य में अत्यंत ही गम्भीरता का पुट था..


कुछ सेकंड्स की शांति छा गई..


शायद आलोक ने मनसुख की तरफ़ से ऐसी गम्भीरता का कल्पना नहीं किया था इसलिए शायद सहम गया था उन सेकंड्स भर के लिए.


डिवाइस से दोबारा आवाज़ आई,


“मनसुख जी... हासिल की पूरी गारंटी है..”


“कहाँ है गारंटी ... किस तरह का गारंटी...?”


“अरे मालिक... मेरा विश्वास कीजिए.. हासिल की पूरी गारंटी है.. फूलप्रूफ़ प्लान है... फ़ेल होने का सवाल ही नहीं है.”


“हाहाहा ...”


“क्या हुआ ... हँस क्यों रहे हो आप?”


“बताता हूँ.. पहले ये बताओ.. कभी जेल गए हो?”


“नहीं ... अभी तक ऐसा दुर्भाग्य नहीं हुआ है. वैसा भी नया हूँ धंधे में.. अधिक दिन नहीं हुआ है.. पर क्यों पूछा आपने ऐसा?”


“न जाने कितने ही जेल भरे पड़े हैं तुम्हारे जैसे लोगों से जो कभी समझते थे की उनका प्लान पूरा टाइट है .. फूलप्रूफ़ है.. जो कभी फ़ेल नहीं हो सकती!”


“अरे बकलोल रहे होंगे ऐसे लोग...”


“जो की तुम नहीं हो..”


“ना.. कोई सवाल ही नही इसमें.”


“क्या प्रूफ है भई इसका?”


“प्रूफ तो मैं खुद हूँ.. क्या आपको ऐसा लगता है कि मैं किसी ऐसी प्लान का हिस्सा बनूँगा जिससे मुझे जेल जाना पड़े?”


“जितना तुम्हें जान पाया हूँ; उसके आधार पर तो नहीं लगते हो.”


“तो फ़िर.. ?”


“अरे यार... समझो बात को.. पेशकश तुम्हारे हवाले से आया है. जो मास्टरमाइंड है मैं उसे नहीं जानता.. सामने अभी तक आया नहीं.. ऊपर से इतना रिस्की प्लान.. अब तुम्हीं बताओ की मैं कैसे किसी आदमी की कोई ऐसी पेशकश को स्वीकार करूँ जिसे मैं जानता तक नहीं और जो सामने नहीं आता ... यहाँ तक की फ़ोन तक पर वह बात नहीं कर सकता.”


“ओह.. तो ये बात है..”


“हाँ भई... यही बात है.”


“मैं आपको प्लान और नाम .. दोनों बताऊंगा.. पर शर्त यही एक है...”


“क्या शर्त है...?”


“मैं आपको प्लान और नाम दोनों बताऊंगा पर तभी जब आप हामी भरेंगे.”


“हाहाहा... बहुत मजाकिया हो यार.. ख़ुद सोचो.. मेरे हामी भर लेने से अगर तुम मुझे अपना प्लान और नाम --- दोनों बताओगे.. तो कहीं मुसीबत में नहीं फंस जाओगे?”


“वह कैसे?”


“अरे भई... मेरे हामी पर भारत सरकार का मुहर तो नहीं लगा होगा न...? हामी भर के बाद में मैं मुकर गया तो..? और अगर तुम्हारे प्लान के बारे में पुलिस में खबर कर दिया तो??”


“नहीं.. आप ऐसा नहीं करेंगे..”


“हैं??”


“जी.. बल्कि स्पष्ट रूप से कहूँ तो आप ऐसा कर ही नहीं सकते..”


“अच्छा..!! ऐसा कैसे... कौन रोकेगा मुझे?”


“है एक आदमी.”


“कौन.. तुम्हारा वो मास्टरमाइंड?”


“जी.”


“नाम क्या है उसका?”


“इस प्रस्ताव के लिए हामी भर रहे हैं आप?”


“अहहम्म....”


“सोच लीजिए... मैं अपनी तरफ़ से आपको एक सप्ताह और देता हूँ.. एक सप्ताह बाद हम यहीं मिलेंगे..ओके..?”


“और अगर मैं हामी न भरा तो?”


“तो कोई बात नहीं.. आप अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते...”


“और तुम्हारा वो मास्टरमाइंड?”


“वो भी अपने रास्ते.”


“पक्का ना? बाद में मुझे फ़ोर्स तो नहीं किया जाएगा.... अगर मैं मुकर गया तो..?”


“बिल्कुल पक्का... प्रॉमिस.”


“ठीक है भई... तब ठीक एक सप्ताह बाद यहीं मिलते हैं.”


“ओके.. पहले आप.”


“मतलब?”


“पहले आप ..”


“ओह समझा... मतलब मैं पहले जाऊँ?”


“जी.”


“ठीक है.. विदा!”


“जी.. विदा...”


फ़िर..


कुछ खिसकने की आवाज़ आई... चेयर होगा. फ़िर, चलने की आवाज़ और फ़िर थोड़ी निस्तब्धता..


फ़िर चेयर खिसकने की आवाज़...


फ़िर चुप्पी.


इतने पर मोना ने डिवाइस के स्विच को ऑफ कर दिया. मेरी ओर देखी.. मैं आलरेडी गहरी सोच में डूब गया था.


“क्या सोच रहे हो?”


“बहुत कुछ.”


“क्या लगता है तुम्हें .. कौन हो सकता है इनका मास्टर माइंड? और प्लान क्या हो सकता है?”


“प्लान का तो पता नहीं.. वह तो समय आने पर ही पता चलेगा.. पर...”


“पर क्या?”


“पता नहीं मुझे न जाने ऐसा क्यों लग रहा है की जैसे मैं इनके इस.. इस मास्टर माइंड को जानता हूँ.”


“क्या.. सच में?”


“नहीं.. सच में नहीं.. आई मीन, अंदाज़ा है... बल्कि.. अंदाज़ा लगा रहा हूँ...”


“तो.. तुम्हारे अंदाज़े से ऐसा कौन हो सकता है?”


मोना के इस प्रश्न का मैंने कोई उत्तर देने के जगह एक ‘कास्टर’ सुलगा लिया.








क्रमशः


**************************

 
Top