Iron Man
Try and fail. But never give up trying
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Shaandar Romanchak Update#127.
ध्वनि शक्ति: (14 वर्ष पहले.......04 जनवरी 1988, सोमवार, 10:30, मानसरोवर झील, हिमालय)
त्रिशाल मानसरोवर झील के पास खड़े होकर उसे निहार रहा था।
झील का स्वच्छ नीला जल, सूर्य के प्रकाश में एक अद्भुत छटा बिखेर रहा था।
कुछ देर तक उस पवित्र नीले रंग के पानी को देखते रहने के बाद, त्रिशाल ने अपना सिर घुमाकर चारो ओर नजर डाली। इस समय दूर-दूर तक उसे कोई दिखाई नहीं दे रहा था।
यह देख त्रिशाल ने अपने बैग से एक छोटी सी गोली और एक डिबिया निकाल ली।
त्रिशाल ने गोली को खा लिया और डिबिया खोलकर उसमें रखे नीले रंग के द्रव को अपनी आँखों पर मल लिया।
यह दोनों वस्तुएं उसे ऋषि विश्वाकु ने दीं थीं।
गोली के प्रभाव से अब वह पानी में भी साँस ले सकता था और नीले द्रव के प्रभाव से अब वह किसी भी अदृश्य चीज को देख सकता था।
अब त्रिशाल मानसरोवर की ओर ध्यान से देखने लगा। नीले द्रव के प्रभाव से त्रिशाल को मानसरोवर के अंदर सीढ़ियां बनीं दिखाईं दीं।
त्रिशाल उन सीढ़ियों के पास पहुंच गया और इधर-उधर नजर घुमाने के बाद त्रिशाल ने सीढ़ियां उतरना शुरु कर दिया।
7-8 सीढ़ियां उतरते ही त्रिशाल पूरा का पूरा पानी में समा गया फिर भी वह इस स्वच्छ जल में लगातार सीढ़ियां उतर रहा था।
लगभग 100 सीढ़ियां उतरने के बाद त्रिशाल झील की तली तक पहुंच गया।
जिस जगह पर सीढियां समाप्त हो रहीं थीं, त्रिशाल को पानी में आर्क की आकृति में एक सोने का दरवाजा बना दिखाई दिया, जिस पर संस्कृत भाषा में शक्ति लोक लिखा था।
त्रिशाल उस द्वार से अंदर की ओर प्रवेश कर गया। अंदर किसी भी जगह पानी नहीं दिखाई दे रहा था।
झील का पूरा पानी द्वार पर ही रुका हुआ था। चारो ओर निस्तब्ध सन्नाटा छाया हुआ था।
तभी कुछ दूरी पर त्रिशाल को हवा में लहराता हुआ, एक बोर्ड दिखाई दिया, जिस पर कुछ आकृतियां बनीं थीं।
त्रिशाल उस बोर्ड वाली जगह पर पहुंच गया और बोर्ड पर बनी उन आकृतियों को ध्यान से देखने लगा।
बोर्ड पर सबसे ऊपर संस्कृत भाषा में एक श्लोक लिखा था- “ऊँ नमो भगवते……य नमः” और उस श्लोक के नीचे वि.. के अलग-अलग अस्त्रों को दर्शाया गया था।
“इस गोले में दर्शाये गये भगवान अस्त्रों का क्या मतलब है?” त्रिशाल बोर्ड को देखकर लगातार सोच रहा था- “कहीं ध्वनि शक्ति इन अस्त्रों से बने मायाजाल के अंदर तो नहीं है। लगता है आगे बढ़ना होगा। उसके बाद स्वयमेव सब कुछ पता चल जायेगा।”
यह सोच त्रिशाल आगे की ओर बढ़ गया।
लगभग 1 घंटे चलने के बाद त्रिशाल को एक ऊंचा सा पर्वत दिखाई दिया, त्रिशाल उस दिशा की ओर चल पड़ा।
पास जाने पर पता चला कि वह एक पर्वत नहीं है, बल्कि पर्वतों की एक पूरी श्रृंखला है।
त्रिशाल को 2 पर्वतों के बीच से होकर गुजरता हुआ, एक पक्का रास्ता दिखाई दिया। त्रिशाल उस रास्ते से पर्वत के दूसरी ओर चल दिया।
कुछ आगे चलने पर त्रिशाल को रास्ते में रखी एक 50 फुट लंबी गदा दिखाई दी।
“यह प्रभू की कौमोदकी गदा है, पर इसे इस प्रकार बीच रास्तें में क्यों रखा है?”
त्रिशाल ने गदा को उठाने की बहुत कोशिश की, पर गदा उठना तो दूर हिली तक नहीं।
थक-हार कर त्रिशाल आगे की ओर बढ़ गया।
पर कुछ आगे चलते ही त्रिशाल को रास्ता रोके एक विशाल चट्टान दिखाई दी, शायद वह किसी पहाड़ी से लुढ़ककर बीच रास्तें में आ गिरी थी।
वह चट्टान इस प्रकार रास्ते में गिरी थी कि अब एक भी व्यक्ति का बिना चट्टान हटाए, दूसरी ओर जा पाना सम्भव नहीं था।
पर इतनी बड़ी चट्टान को हटा पाना किसी मनुष्य के बस की बात नहीं थी।
त्रिशाल बहुत देर तक पर्वत के उस पार जाने की सोचता रहा, पर उसे कोई रास्ता समझ नहीं आया।
“यह पर्वत भी काफी सपाट और चिकना है, इस वजह से इस पर भी चढ़ा नहीं जा सकता....फिर उस पार कैसे जाऊं? मुझे नहीं लगता कि बिना दूसरी ओर गये, मुझे ध्वनि शक्ति मिलेगी?...कहीं यह चट्टान इस कौमोदकी गदा से तो नहीं टूटेगी? पर कैसे?...मैं तो इस गदा को हिला भी नहीं पा रहा।”
कुछ सोचकर त्रिशाल फिर एक बार गदा के पास आ गया और उसे ध्यान से देखने लगा, पर उस गदा में त्रिशाल को कुछ भी अनोखा नहीं दिखा।
तभी अचानक त्रिशाल को बोर्ड पर लिखा, वह मंत्र याद आ गया। अब त्रिशाल ने कौमोदकी गदा को हाथ लगाकर वह मंत्र पढ़ा- “ऊँ नमो भग..वते वा….य नमः”
मंत्र के पूरा होते ही गदा अपने आप हवा में उठी और तेजी से जा कर उस चट्टान से जा टकराई।
एक भयानक धमाका हुआ, और गदा के भीषण प्रहार से चट्टान पूरी तरह से चूर-चूर हो गयी।
अपना कार्य पूरा करते ही कौमोदकी गदा स्वतः ही हवा में विलीन हो गई। त्रिशाल अब आगे बढ़ गया।
उस पर्वत के आगे एक मैदान था, उस मैदान के एक किनारे एक बड़ा सा धनुष रखा दिखाई दे रहा था।
त्रिशाल चलते-चलते उस धनुष के पास पहुंच गया। धनुष का आकार भी 50 फिट के आसपास था, पर आसपास कहीं कोई तीर दिखाई नहीं दे रहा था।
“यह उन्हीं का दूसरा अस्त्र ‘शारंग धनुष’ है, अब इस का क्या काम हो सकता है यहां?....और यहां पर तो कोई तीर भी नहीं है, फिर इससे कौन से लक्ष्य का संधान करना है?” त्रिशाल ने धनुष से थोड़ा और आगे बढ़कर देखा।
आगे एक 400 फुट गहरी खांई थी और उस खांई में ज्वालामुखी का लावा बहता हुआ दिखाई दे रहा था।
उस खांई पर कोई भी पुल नहीं बना था। यह देख त्रिशाल थोड़ा घबरा गया।
“हे ईश्वर अब तुम ही मुझे इस खांई को पार करने में मदद करो।”
त्रिशाल काफी देर तक सोचता रहा और फिर थककर वहीं जमीन पर बैठ गया।
तभी उसे कौमोदकी गदा वाला दृश्य याद आ गया कि किस प्रकार मंत्र पढ़ने से उसके सामने की चट्टान गदा ने तोड़ दी थी।
यह सोच वह जमीन से उठा और अपने कपड़ों को झाड़कर फिर से धनुष के पास आ गया।
धनुष को छूकर त्रिशाल ने फिर वही मंत्र दोहराया, मंत्र के बोलते ही पता नहीं कहां से धनुष पर एक तीर नजर आने लगा।
तीर के धनुष पर चढ़ते ही, धनुष की प्रत्यंचा अपने आप खिंच गई और धनुष ने उस भारी-भरकम तीर को खांई के दूसरी ओर वाली जमीन पर फेंक दिया।
अब धनुष पर दूसरातीर नजर आने लगा था। यह देख त्रिशाल के दिमाग में एक विचार आया। वह धीरे-धीरे सहारा लेकर धनुष के ऊपर चढ़ गया।
तभी धनुष ने वो दूसरा तीर भी खांई के दूसरी ओर फेंक दिया और धनुष पर एक बार फिर नया तीर नजर आने लगा।
इस बार नये तीर के नजर आते ही त्रिशाल उस तीर की नोक को पकड़कर हवा में लटक गया।
कुछ ही क्षणों में धनुष ने इस तीर को भी खांई की ओर उछाल दिया, पर इस बार यह तीर अकेला नहीं था, उसके साथ था, उस तीर को पकड़कर लटका हुआ 'त्रिशाल' भी।
जैसे ही वह तीर खांई के दूसरी ओर पहुंचा, त्रिशाल छलांग लगा कर दूसरी ओर की जमीन पर कूद गया।
त्रिशाल के दूसरी ओर पहुंचते ही धनुष और तीर दोनों ही हवा में विलीन हो गये।
त्रिशाल फिर आगे बढ़ना शुरु हो गया। कुछ आगे चलने पर त्रिशाल को एक बहुत बड़ी सी किताब जमीन पर खड़ी हुई दिखाई दी।
उस किताब की जिल्द का कवर नारंगी रंग का था, जिस पर नीचे की ओर एक तलवार की खोखली आकृति बनी थी।
उस आकृति को देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे इस किताब पर कोई तलवार जड़ी हुई थी जिसे उससे निकाल लिया गया हो।
किताब के ऊपर संस्कृत भाषा के बड़े अक्षरों में ‘ध्वनिका’ लिखा हुआ था।
किताब से कुछ दूरी पर एक 6 फुट का सोने का खंभा जमीन में गड़ा हुआ दिखाई दिया।
खंभे के ऊपरी सिरे पर एक त्रिशूल जैसी आकृति बनी थी।
त्रिशाल ने उस किताब को खोलने की बहुत कोशिश की, परंतु वह अपने इस प्रयास में सफल नहीं हो पाया।
“ये क्या ? यहां पर तो और कोई चीज है ही नहीं, फिर भला इस किताब को कैसे खोला जा सकता है।? और मुझे नहीं लगता कि बिना इस किताब को खोले मैं इस जगह से आगे बढ़ पाऊंगा।
त्रिशाल ने हर दिशा में देखते हुए सोचा। अगर मैं उस बोर्ड के हिसाब से चलूं तो मुझे इस भाग में भगवान की ‘नंदक तलवार’ दिखनी चाहिये थी। इस किताब पर भी तलवार की आकृति के समान ही, खाली जगह है। इसका मतलब तलवार मिलने के बाद ही यह किताब खुलनी चाहिये। पर तलवार यहां पर कहां.......?”
अभी त्रिशाल इतना ही सोच पाया था कि उसकी निगाह सोने के खंभे पर पड़ी- “कहीं यह खंभा तलवार की मूठ तो नहीं और तलवार जमीन में घुसी हुई हो? पर अगर यह तलवार की मूठ हुई तो तलवार का
आकार काफी बड़ा होगा और इतनी बड़ी तलवार इस किताब में नहीं लगेगी।”
त्रिशाल चलता हुआ उस खंभे के पास आ गया और उसे छूकर ध्यान से देखने लगा।
तभी त्रिशाल को जाने क्या सूझा कि उसने तलवार को पकड़ कर फिर से ...ष्णु के उस मंत्र का उच्चारण किया- ऊँ….नमः”
मंत्र का जाप करते ही वह सोने का खंभा जोर-जोर से हिलकर ऊपर की ओर उठने लगा।
त्रिशाल का सोचना बिल्कुल सही था। वह नंदक तलवार ही थी।
जब वह तलवार पूरी तरह से जमीन के बाहर आ गयी, तो उसका आकार किताब के खोखले स्थान के जैसा हो गया और वह तलवार स्वतः ही जाकर ध्वनिका के जिल्द पर फिट हो गयी।
तलवार के वहां लगते ही ध्वनिका का प्रथम पृष्ठ अपने आप खुल गया।
प्रथम पृष्ठ के खुलते ही ध्वनिका से एक जोर की ‘ऊँ’ की ध्वनि निकली, जो कि वहां के पूरे वातावरण में गूंज गयी।
तभी ध्वनिका का सफेद पृष्ठ एक चलचित्र के रुप में चलने लगा।
इस चलचित्र में एक बलशाली योद्धा कुछ राक्षसों से लड़ रहा था। वह योद्धा अपनी शक्ति से बड़ी-बड़ी चट्टानों को किसी खिलौने की तरह हाथ में उठाकर राक्षसों पर फेंक रहा था।
युद्ध अपने चरम पर था, परंतु उस योद्धा का पराक्रम देख त्रिशाल की पलकें भी नहीं झपक रहीं थीं।
तभी उस योद्धा के हाथ में एक सोने के समान चमकता हुआ पंचशूल दिखाई दिया, जिसमें से तेज बिजली निकल रही थी।
योद्धा ने ‘ऊँ’ का जाप किया और वह पंचशूल लेकर हवा में उड़ गया। इतना दिखाकर वह चलचित्र बंद हो गया और इसी के साथ बंद हो गया ध्वनिका का वह पृष्ठ भी।
“वाह! कितना बलशाली योद्धा था, काश मेरी पुत्री का विवाह इस योद्धा से हो पाता।” त्रिशाल ने जैसे ही यह सोचा, ध्वनिका से तेज प्रकाश निकलकर, एक दिशा की ओर चल दिया।
उस प्रकाश की गति बहुत तेज थी। कुछ ही देर में वह प्रकाश सामरा राज्य में स्थित अटलांटिस वृक्ष में
समा गया।
त्रिशाल को कुछ समझ नहीं आया कि यह किताब क्या है? वह योद्धा कौन था? और ध्वनिका ने जो दृश्य त्रिशाल को दिखाया, उसका औचित्य क्या था?
अभी त्रिशाल आगे के बारे में सोच ही रहा था कि तभी नंदक तलवार अपने आप कहीं गायब हो गई, जो इस बात का द्योतक थी कि यह भाग पूर्ण हो चुका है। त्रिशाल यह देखकर आगे की ओर बढ़ गया।
आगे जाने पर त्रिशाल को एक बहुत बड़ी सी दीवार में एक दरवाजा दिखाई दिया। त्रिशाल उस दरवाजे में प्रवेश कर गया।
त्रिशाल के उस दरवाजें में प्रवेश करते ही वह दरवाजा कही गायब हो गया।
अब त्रिशाल ने स्वयं को एक बड़े से कमरे में पाया, परंतु उस कमरे से निकलने का कोई भी मार्ग नहीं था।
कमरे के बीचो बीच भगवान का सुदर्शन चक्र रखा हुआ था, जिसका आकार एक रथ के पहिये के बराबर था।
चक्र पूर्णतया रुका हुआ था। कमरे में और कुछ भी नहीं था। त्रिशाल को इस बार ज्यादा नहीं सोचना पड़ा।
त्रिशाल ने चक्र का हाथों से छूकर फिर से भगवान विष्णु के उसी मंत्र का उच्चारण किया- “ऊँ नमो……नमः”
मंत्र का उच्चारण करते ही सुदर्शन चक्र बहुत तेजी से नाचने लगा।
चक्र को नाचता देख त्रिशाल उससे थोड़ा दूर हट गया और चक्र से होने वाले किसी चमत्कार का इंतजार करने लगा।
चक्र धीरे-धीरे नाचता हुआ अपना आकार बढ़ाता जा रहा था। यह देख त्रिशाल कमरे के एक किनारे पर आ गया, पर चक्र के नाचने और बढ़ने की गति देखकर त्रिशाल समझ गया कि वह चक्र कुछ ही देर मे त्रिशाल के पास पहुंच जायेगा।
यह देख त्रिशाल घबरा गया और तेजी से उस चक्र से बचने का उपाय सोचने लगा।
पर उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्यों कि ना तो उसके पास उस चक्र को रोकने का कोई उपाय था और ना ही उस कमरे में रहकर चक्र से बचा जा सकता था।
चक्र धीरे-धीरे अपना आकार बढ़ाते हुए, उसकी ओर बढ़ता जा रहा था।
त्रिशाल, चक्र का आकार बढ़ता देख यह तो समझ गया कि कुछ ही देर में चक्र उस कमरे की दीवारों को काट देगा, पर उससे पहले ही वह स्वयं चक्र का शिकार हो जायेगा।
त्रिशाल ने उस मंत्र का भी जाप किया, पर वह चक्र नहीं रुका। चक्र अब त्रिशाल से मात्र एक फुट की दूरी पर ही बचा था।
यह देख त्रिशाल ईश्वर से प्रार्थना करने लगा- “हे ईश्वर मुझे बचा लीजिये, मैं अपने कुल का आखिरी दीपक हूं, अगर मैं मर गया तो मेरे कुल का दीपक बुझ जायेगा।”
तभी दीपक शब्द को याद कर एकाएक त्रिशाल के दिमाग की बत्ती जल गयी- “दीपक...दीपक के नीचे तो अंधेरा रहता है। यानि जो दीपक सबको उजाला देता है, वह स्वयं के नीचे उजाला नहीं कर सकता।
यह सोच त्रिशाल की आँखें, उस नाच रहे सुदर्शन चक्र के नीचे की ओर गयी। चक्र के नीचे लगभग 1 फुट की जगह थी।
यह सोच त्रिशाल तेजी से जमीन पर लेट गया और चक्र के केन्द्र की ओर जाने लगा।
बाल-बाल बचा था त्रिशाल। अगर उसे यह विचार आने में एक पल की भी और देरी हो जाती, तो उसकी मृत्यु निश्चित थी।
चक्र ने अब कमरे की दीवारों को काटना शुरु कर दिया। दीवारों का मलबा तेजी से कमरे के अंदर गिरने लगा, पर त्रिशाल को ये पता था, इसलिये वह पहले ही लेटे-लेटे चक्र के केंद्र के पास पहुंच गया था।
दीवारों के कटने से कमरे में जोरदार आवाज उत्पन्न होने लगी। कुछ ही देर में चक्र ने कमरे की सारी दीवारों को काट दिया।
कमरे की दीवारों के कटते ही चक्र अपनी जगह से गायब हो गया।
त्रिशाल ने यह देख अब राहत की साँस ली और उठकर खड़ा हो गया ओर अपने वस्त्रों पर लगी धूल को साफ कर दीवारों के मलबे पर चढ़कर बाहर आ गया।
बाहर एक 200 फुट से भी ऊंचा सोने का कलश रखा था, जिस पर चढ़ने के लिये सीढ़ियां भी बनीं थीं। उस कलश के अलावा वहां कुछ भी नहीं था।
वह कलश इतना विशाल था कि उसमें पानी भरकर एक राज्य की प्यास बुझाई जा सकती थी।
त्रिशाल धीरे-धीरे उस कलश की सीढ़ियां चढ़ने लगा।
आखिरी सीढ़ी पर एक छोटा सा प्लेटफार्म बना था। प्लेटफार्म पर खड़े हो कर त्रिशाल ने कलश के अंदर ओर झांका, अंदर उसे पानी की झलक मिली, मगर अंदर धुप्प अंधेरा था।
त्रिशाल बिना भयभीत हुए उस सोने के कलश में कूद गया।
‘छपाक’ की आवाज के साथ उसका शरीर पानी से टकराया।
तभी त्रिशाल को पानी की तली में एक रोशनी सी दिखी। त्रिशाल एक डुबकी लगा कर उस रोशनी के पीछे चल पड़ा।
कुछ ही देर में त्रिशाल उस रोशनी के पास था। कलश की तली में ‘पाञचजन्य शंख’ रखा था।
वह रोशनी उसी से प्रस्फुटित हो रही थी। वह शंख भी आकार में विशाल था।
त्रिशाल उस शंख के पास पहुंचकर उसे ध्यान से देखने लगा।
जिस ओर से शंख को बजाया जाता है, त्रिशाल को उस ओर एक मनुष्य के घुसने बराबर एक छेद दिखाई दिया। त्रिशाल उस छेद में प्रवेश कर गया।
अंदर से शंख की दीवारें बहुत चिकनी दिख रहीं थीं, इसलिये त्रिशाल अपने पैरों को जमा-जमा कर शंख में चलने की कोशिश कर रहा था।
तभी त्रिशाल को ‘ऊँ’ की एक धीमी आवाज शंख में गूंजती हुई सुनाई दी।
“शंख में यह आवाज कहां से आ रही है? कहीं यही तो ध्वनि शक्ति नहीं?” यह सोच त्रिशाल उस ध्वनि की दिशा में चल पड़ा।
कुछ आगे जाने पर एक बहुत गहरी और चिकनी ढलान दिखाई दी। इस ढलान का अंत कहीं नहीं दिख रहा था।
यह देख त्रिशाल थोड़ा भयभीत हो गया।
तभी त्रिशाल का पैर चिकनी सतह पर फिसल गया और वह ढलान पर बहुत तेजी से फिसलने लगा।
त्रिशाल के मुंह से चीख की आवाज निकल गई।
त्रिशाल लगातार फिसलता जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि जैसे उस फिसलन का कहीं अंत ही नहीं है।
लगभग 10 मिनट तक इसी तरह फिसलने के बाद त्रिशाल एक कोमल सी वस्तु पर गिरा, पर उस जगह इतना अंधेरा था कि त्रिशाल को कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था कि वह कहां पर आकर गिरा है?
तभी त्रिशाल को कहीं पानी में एक बूंद के गिरने की आवाज सुनाई दी। इस बूंद की आवाज के साथ चारो ओर प्रकाश फैल गया।
प्रकाश के फैलते ही त्रिशाल को नजर आया कि वह एक विशाल कमल के फूल पर गिरा पड़ा है। तभी ‘ऊँ’ की आवाज पुनः आने लगी।
इस बार वह आवाज कमल के फूल के अंदर से आती हुई प्रतीत हुई।
तभी कमल के फूल की पंखंड़ियों ने स्वतः बंद हो कर त्रिशाल को अपने अंदर समा लिया।
अब तेज रोशनी और ‘ऊँ’ की आवाज त्रिशाल को अपने शरीर में समाहित होती हुई सी प्रतीत हुई।
त्रिशाल ने अपनी आँखें जोर से बंद कर लीं।
कुछ देर बाद जब हर ओर से आवाज आनी बंद हो गयी, तो त्रिशाल ने अपनी आँखें खोलीं। उसने अपने आप को मानसरोवर झील के किनारे पड़ा हुआ पाया।
तभी उसे अपने शरीर के अंदर किसी विचित्र शक्ति का अहसास हुआ। यह विचित्र अनुभव ये समझने के लिये पर्याप्त था कि त्रिशाल को ध्वनि शक्ति प्राप्त हो गई है।
यह महसूस कर त्रिशाल के चेहरे पर एक भीनी सी मुस्कान बिखर गयी और वह योग गुफा की ओर चल दिया।
Jaari Rahega……
