महल की ऊँची दीवारों पर सूरज की अंतिम किरणें ठहरी हुई थीं, संध्या आरती की घंटियों की गूंज हवाओं में घुल रही थीं, लेकिन महल के भीतर एक अजीब सा सन्नाटा था, जैसे कोई अनकहा शब्द होंठों पर ठहरसा गया हो...
ऐसे मे गौरी के कदम संगमरमर की सीढ़ियों पर पड़े, तो हल्की सी प्रतिध्वनि गूंज उठी, उसकी कलाईयों में बंधी चूड़ियों की खनक और पैंजनों की लय हर बार उसे इस नए संसार की याद दिला देती, जो उसका था और फिर भी नहीं था देवगढ़ के चौड़े आंगनों और खुले गलियारों से निकलकर वह इस राजस्थानी महल के दायरों में आ बसी थी, एक ऐसी जगह, जहाँ हर दीवार के पीछे कोई नियम, कोई परंपरा उसकी राह देख रही थी...
आसमान के अंतिम उजाले में महल का आंगन सुनहरा दिख रहा था, यहाँ हर चीज़ राजसी थी, हर चीज़ विशाल थी, लेकिन फिर भी कुछ कमी थी... एक अधूरापन, जो किसी और को शायद न दिखे, पर उसे हर क्षण महसूस होता था
विचारों की कड़ियाँ अब भी उलझी ही थीं कि तभी दासी की आवाज़ ने उसे वर्तमान में खींच लिया..
"राणीसा, राणासा ने आपको बुलाया है!"
यह सुनते ही उसने शीशे में एक नजर खुद पर डाली, फिर तुरंत घूँघट खींच लिया, भारी लहंगा, घूँघट, गहनों का बोझ.. इन सबसे चलते-चलते उसका दम घुटने लगता था, मगर राणा साहब का बुलावा आया है, यह सोचकर वह जितनी तेज़ी से हो सका, आगे बढ़ गई और चलते ही उसके कंगनों और पायल की झंकार महल के गलियारों में गूँज उठी
"प्रणाम, राणासा!"
"पधारिए, राणीसा," राणा ने मुस्कराते हुए कहा और उसे धीरे से मंचक पर बैठा दिया
वह घूँघट की ओट से राणा को देखने का प्रयास कर रही थी… विवाह को तो अभी कुछ ही दिन हुए थे, और वह इस महल में नयी नवेली रानी बनकर आई थी अजनबी प्रदेश, अलग भाषा, अलग पहनावा, और अनजानी परंपराएँ… सबकुछ नया था उसके लिए और इन दिनों वो खुद को इस माहौल में ढालने की कोशिशों में ही उलझी रही थी, यहाँ तक कि राणा साहब से अभी तक उसकी ठीक से भेंट नहीं हुई थी
"आप चाहें तो ये घूँघट हटाकर हमें देख सकती हैं," राणा ने हँसी के साथ कहा
उसकी चोरी पकड़ी गई थी! राणा ने आगे बढ़कर खुद ही उसका घूँघट हल्का-सा ऊपर किया और उसकी आँखें शर्म से झुक गईं
कुछ देर राणा से बातें करने के बाद, उसका मन थोड़ा हल्का हुआ था और महल लौटते समय उसके कदम धीमे हो गए थे, उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई… हर चीज़ को ध्यान से देखने लगी
"प्रतापगढ़!"
देवगढ़ के किले के मुकाबले यह काफ़ी भव्य था, लेकिन मराठा दुर्गों की तरह ऊँचा नहीं था, बल्कि ये पहाड़ियों के बीच कुछ इस तरह समाया हुआ था कि बाहर से देखने पर यह किसी को नज़र भी नहीं आता। हर महल, हर दालान अपने आप में अनूठा था, खंभों पर महीन नक्काशी थी, संगमरमर की सीढ़ियाँ चमकती थीं, और दालानों में ऊँचे झरोखे बने थे, मगर दरवाज़े छोटे थे, शायद सुरक्षा की दृष्टि से
"पर देवगढ़... वह तो बिल्कुल अलग था!"
देवगढ़ का किला! गौरी का माईका, जहा का महोल ही अलग था, वहाँ किसी पर कोई रोक-टोक नहीं थी, हर दालान तक पहुँचने की पूरी स्वतंत्रता थी पर यहाँ? यहाँ हर गलियारे में दासियाँ पीछे-पीछे चलतीं, हर द्वार पर निगाहबान खड़े रहते, और घूँघट... यहाँ तक कि महल में भी घूँघट के बिना चलना संभव न था
यहाँ की तो धरती भी देवगढ़ जितनी हरी-भरी नहीं थी
"यहाँ कुछ भी तो वैसा नहीं है, जैसा देवगढ़ में था..."
यह सोचते ही उसका मन भारी हो गया था
गौरी, देवगढ़ के पराक्रमी मराठा सरदारों की सुपुत्री, जो अब प्रतापगढ़ के महलों में ‘राणीसा’ के रूप में राजस्थान की धरती पर आ बसी थी
राणा विक्रमसिंह जब दक्षिण से एक युद्ध अभियान पूरा कर लौट रहे थे, तब देवगढ़ में कुछ दिनों के लिए ठहरे थे और वहीं उन्होंने पहली बार गौरी को देखा था नाम के अनुरूप, चंद्रमा की आभा जैसी शीतल सुंदरता लिए हुए
गोरा मुख, तीखे नयन, लंबा कद, उसकी छवि ने राणा को पहली ही दृष्टि में मोह लिया था और उनके पड़ाव के दिन बढ़ते चले गए, और जब वे प्रतापगढ़ लौटे, तब अकेले नहीं, बल्कि गौरी को अपनी अर्धांगिनी बनाकर साथ ले गए
नऊवारी साड़ी पहनने वाली, खुले आंगनों में निर्भीक घूमने वाली मराठा सरदार की बेटी अब घूँघट में लिपटी, एक परायी भूमि की राजरानी बन चुकी थी
लेकिन इस परिवर्तन में बस एक राहत की बात थी.. उसकी विद्या, वह इस परदेस की भाषा भले न बोल पाती, लेकिन उसे समझने में कठिनाई नहीं थी समय बदल रहा था, अंग्रेज़ी सत्ता धीरे-धीरे भारत पर पाँव पसार रही थी मराठा साम्राज्य में अब दूसरे छत्रपति की सत्ता थी और अब, सरदारों के साथ उनकी पुत्रियों को भी शिक्षित किया जाने लगा था, सैन्य कला, राजनीति और कूटनीति की शिक्षा भी दी जा रही थी
गौरी ने भी यही सीखा था, और अब यह शिक्षा ही उसकी सबसे बड़ी पूँजी थी
महल में प्रवेश करते ही उसकी तंद्रा टूटी भवानी मंडप में संध्या आरती शुरू हो चुकी थी महल की ऊँची खिड़कियों से भवानी मंडप साफ़ दिखाई देता था गौरी वहीं खड़ी होकर आरती के मंत्रों को सुनने लगी लेकिन उसका मन भवानी मंडप में नहीं था...
उसका मन तो देवगढ़ के उस शिवालय में पहुँच चुका था जहा उसने बरसों पूजा की थी
वह दिन उसे आज भी याद था… श्रावण मास का पहला सोमवार! उस दिन पहली बार, आचार्य की जगह उनका पुत्र विद्याधर पूजा कराने आया था
जब वह मंत्र पढ़ता, तो गौरी मंत्रों को दोहराती, उसकी गहरी, गंभीर आवाज़ जैसे मंत्रों को और भी प्रभावशाली बना रही थी जिसे गौरी निस्तब्ध सुन रही थी, विद्याधर के मुख पर वैराग्य था तथा नेत्रों में बस भक्ति की गहराई जैसे वह पुरुष नहीं, कोई साधक था
गौरी को ऐसा सात्विक तेजस्वी स्वरूप पहले कभी किसी में नहीं दिखा था पहली ही पूजा में, उसने अपने लिए ‘वर’ चुन लिया था… विद्याधर!
इसके बाद कई दिन तक वह नियमित रूप से शिवालय आता रहा, और हर दिन गौरी का मन उस पर और अधिक टिकने लगता वह सारा पूजन-सामान स्वयं उसके लिए लेकर जाती और जब वह वेद मंत्र पढ़ता, तो पूरा मंदिर उसकी गूँज से भर जाता और जब यह गूँज शांत होती, तब भी गौरी के हृदय में विद्याधर के नाम का जाप होता रहता
लेकिन वह... उसने कभी उसकी ओर देखा तक नहीं था!
वह मराठा सरदार की पुत्री थी, और वह कर्नाटक के एक कर्मठ ब्राह्मण परिवार का लड़का उसकी जाति, उसके संस्कार उसे यह स्वीकार करने ही नहीं देते कि वह किसी क्षत्राणी को देखे!
किन्तु...
कई बार, जब गौरी शिवालय में प्रवेश करती, विद्याधर की दृष्टि अनायास उसके नन्हें पैरों पर अटक जाती, वह चाहता था कि एक बार उसे देखे, बस एक बार लेकिन अगले ही क्षण, उसके हृदय की तपस्या जाग जाती, और वह मन ही मन ‘महेश्वर’ का नाम लेकर अपनी भावनाओं को वश में कर लेता
विद्याधर की यह घबराहट गौरी की दृष्टि से कभी छुप नहीं सकी
जब भी वह मंत्र पढ़ता, उसकी आवाज़ की लय बदल जाती, शब्द तेज़ हो जाते, स्वर स्थिरता खो देता, और गौरी यह सब महसूस कर सकती थी साथ ही, उसके भीतर भी एक अजीब उथल-पुथल थी
कई बार उसके मन में आया कि खुद जाकर पूछे, क्या तुम्हारे मन में भी वही है, जो मेरे मन में है?
लेकिन वह जाधव सरदार की पुत्री थी इस तरह का साहस दिखाना उसके कुल को शोभा नहीं देता और यदि उसने यह प्रश्न कर भी लिया, तो परिणाम क्या होंगे? क्या उसका उत्तर वही होगा जो वह चाहती थी?
पर एक बात तो निश्चित थी...
उसका मन विद्याधर का हो चुका था!
मन और बुद्धि का यह द्वंद्व कभी समाप्त नहीं होता था
और जब भी यह संघर्ष उसकी सोच पर हावी हो जाता, तब उसकी तलवार बेधड़क चलती!
घोड़ा तूफ़ान की तरह दौड़ता, और उसके वार हवा को चीरते चले जाते थे
समय के साथ गौरी के मन में विद्याधर की छवि और भी गहरी होती गई लेकिन उसके मन के भाव, जो गौरी के लिए स्वाभाविक थे, विद्याधर के लिए वैसे थे ही नहीं.. उसने कभी प्रेम-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा तक नहीं था
फिर भी, हर दिन वह महेश्वर के समक्ष सिर झुकाकर बस एक ही प्रार्थना करती कि उसे विद्याधर मिले
और शायद महेश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली थी
उस दिन, जब गौरी तेज़ी से घोड़ा दौड़ाते हुए जंगल की ओर बढ़ी, तो अनजाने में ही वह रास्ता भटक गई
जंगल उसके लिए नया नहीं था, लेकिन आज उसे यह अजनबी सा लग रहा था उसके चारों ओर घने पेड़ थे, और कहीं दूर नदी की मद्धम ध्वनि सुनाई दे रही थी
वह घोड़े से उतरी आँखें बंद कीं और उसने अपनी साँसों को शांत किया
"शांत मन से ही रास्ता मिलेगा..." उसने मन ही मन सोचा
धीरे-धीरे कानों में कोई हल्की ध्वनि गूँजने लगी... मंत्रों की ध्वनि!
गौरी का हृदय धड़क उठा और उसके कदम अनायास उसी ओर बढ़ चले और कुछ ही पलों में, वह नदी के किनारे पहुँच चुकी थी
विद्याधर वहाँ खड़ा था, नदी के शीतल जल में, संध्या कर रहा था उसकी गहरी, गंभीर आवाज़ मंत्रों का जाप कर रही थी, सफेद वस्त्र पहने, उसका तेजस्वी स्वरूप और भी स्पष्ट दिख रहा था
एक राजसी काया, लेकिन मन में संतों जैसी शांति!
गौरी ठिठक गई, उसकी आँखें बस उसे देखती रहीं
चंदन का तिलक, मुख पर अद्भुत तेज़, और ध्यानस्थ मुद्रा… यह वही विद्याधर था, जिसे उसने हमेशा अपने हृदय में संजोकर रखा था
लेकिन आज…
आज वह पहले से भी अधिक आकर्षक लग रहा था!
संध्या समाप्त होते ही विद्याधर ने आँखें खोलीं तो जैसे ही उसकी दृष्टि सामने खड़ी गौरी पर पड़ी, वह क्षणभर के लिए चौंक गया
उसकी आँखें गौरी की मुखाकृति पर ठहर गईं थी लेकिन अगले ही क्षण, वह अपने भावों को वश में करता हुआ नज़र झुकाकर बोला
"आप यहा? क्या आपको रास्ता नहीं मिल रहा?"
गौरी कुछ क्षण उसे देखती रही, वह असमंजस मे थी के विद्याधर कैसे इस बात को जान गया और फिर धीमे स्वर में बोली
"हाँ… हम भटक गए हैं"
“हमारे पीछे आइए” विद्याधर बिना ज्यादा कुछ बोले आगे बढ़ने लगा उसके कदम तेज़ थे, मानो वह इस बातचीत को टाल देना चाहता हो
लेकिन गौरी वहीं खड़ी रही उसने आगे बढ़कर उसका रास्ता रोक लिया
"देर हो रही है, महल में आपकी खोज शुरू हो चुकी होगी हमें तुरंत लौटना चाहिए," विद्याधर ने संयमित स्वर में गौरी को समझाया जिसपर
गौरी ने सिर हिला दिया "नहीं, मैं यहाँ से तब तक नहीं जाऊँगी, जब तक आपसे बात न कर लूँ"
विद्याधर की भवें तन गईं "आपको जो भी कहना हो, कल महल में कहिएगा अभी हमें यहाँ से निकलना चाहिए मैं आपसे विनती करता हूँ, गौरी "
पर गौरी ने उसकी बात अनसुनी कर दी "मुझे आपसे विवाह करना है, विद्याधर" गौरी की आवाज़ में अडिग विश्वास था
विद्याधर तो अपनी जगह जम गया था, और फिर उसने गहरी साँस ली और गौरी की आँखों में सीधे देखते हुए कठोर स्वर में कहा
"यह असंभव है, गौरी आप एक सरदार कन्या है और यह व्यवहार आपके कुल की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं और यह धर्म विरुद्ध भी है"
गौरी एक कदम आगे बढ़ी "धर्म के विरुद्ध क्यों? और इसमें कुल की मर्यादा कहाँ आती है? मैंने महेश्वर के समक्ष आपको पति रूप में चुन लिया है और मुझे पता है, आपभी मुझसे उतना ही प्रेम करते हो!"
"नहीं!" विद्याधर का स्वर पहले से अधिक कठोर था "मैं आपसे प्रेम नहीं करता और आप यह कभी मत भूलना कि मैं केवल एक पुरोहित का पुत्र हूँ हमारे बीच कोई संबंध संभव नहीं अब कृपया, महल लौट चले यहाँ अधिक देर तक ठहरना उचित नहीं"
गौरी ने उसकी आँखों में देखा "तो यही सब मेरी आँखों में आँखें डालकर कहिए, विद्याधर!"
विद्याधर वहीं ठिठक गया और वहा कुछ क्षणों तक मौन पसरा रहा। फिर, उसने एक गहरी साँस ली और बोला
"गौरी, यह हठ छोड़ दीजिए इस प्रेम का कोई भविष्य नहीं है"
"तो आपके मन में भी प्रेम है?" गौरी ने तुरंत प्रतिप्रश्न किया
विद्याधर ने नज़रें झुका लीं "कुछ प्रश्न अनुत्तरित ही रहे तो अच्छा होता है... इससे अनर्थ टलता है"
"कोई अनर्थ नहीं होगा बल्कि, अब तो इस रिश्ते को एक अर्थ मिलेगा मैं सही समय पर अपने पिता से बात करूँगी!" गौरी का स्वर आत्मविश्वास से भरा था, उसकी आँखों में विवाह की कल्पना कौंध रही थी पर विद्याधर को अब भय सताने लगा था गौरी के इस दृढ़ निश्चय ने उसे मानो चेतावनी दे दी थी, अगर उसने कुछ नहीं किया, तो यह बात कृष्णाजी तक पहुँच जाएगी, उसे कुछ करना होगा... इससे पहले कि बहुत देर हो जाए!
वही गौरी तो जैसे आनंद से बावरी होने को थी, पर उसने अपने भीतर उठते उल्लास को जब्त कर लिया था, यह सही समय नहीं था, यह बात वह भली-भाँति जानती थी
जैसे ही वह महल में पहुँची, सवालों की बौछार शुरू हो गई "इतनी देर तक कहाँ थी?" जैसे सवाल आने लगे पर असली झटका उसे तब लगा जब यह निर्णय सुना दिया गया की "कल से घुड़सवारी बंद!" लेकिन गौरी को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा, उसके मन का अश्व तो पहले ही कल्पनाओं के अनंत विस्तार में दौड़ चुका था
अगले दिन जब विद्याधर पूजा के लिए आया, तब पहली बार उनके बीच कोई वास्तविक संवाद हुआ, पूजा समाप्त होते ही विद्याधर ने एक लाल वस्त्र में लिपटा हुआ ग्रंथ गौरी की ओर बढ़ाया और गंभीर स्वर में बोला
"जब भी जीवन में कमजोरी महसूस हो, जब कोई शून्यता लगे, या कभी ऐसा लगे कि मुझे तुम्हारे पास होना चाहिए… तो यह ग्रंथ खोलकर पढ़ लेना यह तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर देगा और तुम्हें बल प्रदान करेगा"
गौरी मुस्कराई, उसकी आँखों में अलग ही उत्साह था
"अब हमें इसकी कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी कलही मैं आबासाहब से बात करने वाली हूँ उसके बाद आप सदा हमारे साथ रहोगे फिर इस ग्रंथ की क्या ज़रूरत?" उसने सहजता से ग्रंथ उसकी ओर बढ़ाया
विद्याधर ने ठहरकर उसे देखा, फिर उसी शांति से ग्रंथ पुनः उसकी हथेलियों में रख दिया
"इसे रख लो, गौरी भाग्य में जो लिखा है, उसे बदला नहीं जा सकता… पर सहन करने की शक्ति ज़रूर पाई जा सकती है"
इतना कहकर वह मुड़ कर चला गया बिना यह देखे कि उसकी बातों का गौरी पर क्या असर हुआ
वही गौरी ठगी-सी वही खडी रह गई, खुद से सवाल करते हुए की "आख़िर यह क्या चाहता है?" "न तो मेरे प्रेम की स्वीकारोक्ति करता है, न इसे ठुकराता है! यह 'भाग्य' की बातें क्यों कर रहा है?"
"पर कोई भाग्य नहीं! मैं कल ही आबासाहब से बात करूँगी, और इस दूरी को हमेशा के लिए मिटा दूँगी!"
गौरी ने उस ग्रंथ को यूँ ही एक संदूक के नीचे डाल दिया और मन में अपनी बात दोहराने लगी की "आबासाहब से बात कैसे शुरू करूँ?"
अब तक उसके हर हठ को मान लिया गया था पर विवाह की बात साधारण नहीं थी। फिर भी, उसे विश्वास था.. आबा मना नहीं करेंगे
उसने निश्चिंत होकर सुबह का इंतज़ार किया...
अगली सुबह, गौरी ने अपने संजोए हुए वस्त्रों में से अपनी प्रिय पीली साड़ी, जिसकी किनारी गहरी हरी थी, निकाल ली और बार-बार दर्पण में खुद को देखती, कभी बालों का जूड़ा ठीक करती
आज उसके हर स्पर्श में एक अलग सी उमंग थी, मोगरा, केवड़ा… सभी सुगंधित फूलों को उसने पूजा के लिए चुना था और जब ये सब उसकी माँ चंद्रप्रभाबाई ने देखा तो पूछा, "आज कुछ विशेष अवसर है क्या?"
गौरी बस हल्का सा मुस्कराई और सिर हिला दिया "नहीं, कुछ नहीं!"
पर शिवालय पहुँचते ही उसकी यह मुस्कान मुरझा गई, आज पूजा कराने के लिए विद्याधर नहीं, बल्कि आचार्य आए थे
सिर झुकाकर उसने उन्हें प्रणाम किया और पूजा में बैठ गई, लेकिन उसका मन कहीं और भटक रहा था
"विद्याधर क्यों नहीं आए?"
"क्या हुआ उन्हे?"
"क्या मैं आचार्य से पूछ सकती हूँ?"
लेकिन कैसे?
आज उसकी आँखों से अश्रु स्वतः ही बह निकले थे... पूजा समाप्त होने तक, उसने खुद को किसी तरह संभाल लिया… लेकिन भीतर कुछ टूटने सा लग रहा था
गौरी ने खुद को संयत किया और गहरी साँस लेते हुए आचार्य से पूछा
"आज विद्याधर नहीं आए?"
आचार्य चौंक गए "अरे, उसने आपको नहीं बताया? मुझे लगा, उसने स्वयं ही कह दिया होगा!"
गौरी के भीतर कुछ काँपा "आप किस बारे में बात कर रहे हैं?" उसने अपनी सिहरन को दबाते हुए पूछा
आचार्य ने सहज स्वर में कहा
"वह तो कल सुबह ही काशी के लिए रवाना हो गया है, वहा के दर्शन के बाद उसने आगे ऋषिकेश जाने का निश्चय किया है वहाँ नारायण स्वामी के सान्निध्य में शिष्यत्व ग्रहण करेगा, कृष्णाजी से अनुमति और आशीर्वाद लेने के बाद ही वह निकला था"
ये सुनते ही गौरी के पैरों तले की ज़मीन खिसक गई, उसने अब समझा कि कल विद्याधर ने उसे ग्रंथ क्यों दिया था, वह सिर्फ़ एक पुस्तक नहीं थी… वह उसका अंतिम संदेश था
उसने यह भी समझ लिया कि जैसे ही उसने अपने पिता से बात करने का निश्चय किया था, विद्याधर ने देवगढ़ छोड़ने का निश्चय कर लिया था
वह विदा लेने तक नहीं आया था
आचार्य को प्रणाम कर गौरी मंदिर से बाहर निकल आई थी लेकिन उसका दुख, उसकी पीड़ा वह खुलेआम नहीं दिखा सकती थी
उस दिन, उसने खुद को महल के अपने कक्ष में बंद कर लिया और बिना रुके रोती रही और फिर… उसने मंदिर जाना ही छोड़ दिया, जैसे वह महेश्वर से रूठ गई थी!
गौरी के चंचल स्वभाव के चलते कीसी ने भी इस बारे मे उससे कोई सवाल नहीं किया था के उसने अचानक पूजा करना क्यों बंद कर दिया
हाँ, माँ चंद्रप्रभाबाई ने दो-तीन बार सवाल किया, पर उसने किसी तरह बात को टाल दिया था पर जब भी शिवालय की घंटी बजती, जब भी आचार्य के मंत्रोच्चार महल तक पहुँचते… विद्याधर की स्मृतियाँ उसके हृदय पर हथौड़े की तरह गिरतीं और तब, वह अपने कक्ष में पांडुलिपियों का अध्ययन करती, संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण करती, या फिर तलवार उठा लेती
और जब उसके हृदय की बेचैनी तलवार भी शांत न कर पाती, तब वह अपने अश्व पर सवार होकर सीधे उसी नदी के तट पर जा पहुँचती, जहाँ पहली बार उसने विद्याधर को संध्या करते हुए देखा था
वहाँ पहुँचकर उसे अक्सर ढलते सूरज की लालिमा में कोई छवि दिखती… पृथ्वी से परे, एक दिव्य आभा में लिपटी हुई…
संध्या कर रहा विद्याधर… उसका विद्याधर!
पर यह तो बस एक मृगमरीचिका थी
ऐसे ही एक दिन, महल के प्रांगण में तलवार चलाती गौरी राणा विक्रमसिंह की दृष्टि में आ गई, गहरी अंजिरी रंग की नऊवारी साड़ी में, गहनों से मुक्त, सिर्फ़ अपनी तलवार के साथ…
वह दृश्य राणा के हृदय में उतर गया था पर गौरी को इसका आभास तक नहीं था, उसे तो पता ही नहीं था कि उसका भविष्य किस मोड़ पर मुड़ने वाला है… वह तो बस विद्याधर की स्मृतियों के संग तलवार चलाए जा रही थी… एक अनसुने, अनकहे प्रेम की विरासत पर!
राणा विक्रमसिंह जब देवगढ़ में ठहरे, तब उन्होंने कृष्णाजी के समक्ष गौरी से विवाह का प्रस्ताव रखा
नकार की कोई संभावना ही नहीं थी
आख़िर, हर किसी को रानी बनने का सौभाग्य नहीं मिलता और फिर गौरी तो वैसे भी जाधव सरदारों की इकलौती पुत्री थी, लाड़-प्यार में पली, नाज़ों से सजी ऐसे में उसका विवाह किसी सामान्य परिवार में कैसे कर दिया जाता?
समय बीतता गया, लेकिन उसके लिए कोई योग्य वर नहीं मिल रहा था ऐसे में, जब राणा विक्रमसिंह ने अपना प्रस्ताव रखा तो कृष्णाजी ने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया
राजदरबार में खलिते (राजकीय पत्र) भेजे गए, विवाह की तैयारियाँ शुरू हुईं, मंडप खड़ा हुआ… और देवगढ़ की सरदार कन्या गौरी देखते ही देखते प्रतापगढ़ की राणीसा बन गई
यह वह युग था, जब कन्या की पसंद-नापसंद कोई मायने नहीं रखती थी इसलिए, गौरी से किसी ने कुछ नहीं पूछा
उसने तो अब तक राणा को देखा तक नहीं था, और अब उसे उन्हे मन से स्वीकार करना था… जबकि उसका मन तो पहले ही विद्याधर के नाम अंकित हो चुका था और यह विचार ही उसे भीतर से तोड़ रहा था
उस पर, यह नया स्थान, अलग रीति-रिवाज, अलग वेशभूषा, अलग लोग, फिर भी उसने खुद को हर परिस्थिति के लिए तैयार कर लिया था अपने चेहरे पर हँसी का मुखौटा पहन लिया था पर कभी-कभी, घूँघट में उसे दम घुटता सा लगता
जब कोई भारी हार पहनाया जाता, तो उसे अपने देवगढ़ के छोटे-से बकुलहार और पोहेहार की याद आ जाती, यहाँ के भारी गहनों की जगह, उसे अपनी सरल बोरमाल ही प्रिय थी
पर अब उसे इन सब चीज़ों में सामंजस्य बैठाना था
देवगढ़ के किले में हर दिन उसके वेद पाठ की गूँज सुनाई देती थी
पर प्रतापगढ़ में?
यहाँ तो सिर्फ उसके पैंजनों और कंगनों की झंकार गूँजती थी!
उसने तय कर लिया था, अब इसे ही अपना जीवन मानना होगा!
वह स्वयं को यह दिलासा देने लगी कि राणा विक्रमसिंह एक योग्य, समझदार, और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति हैं और शायद, उनसे संवाद करने के बाद जीवन आसान हो जाएगा
वह अब खुद को इस नए बदलाव के लिए तैयार कर चुकी थी… राणा को स्वीकार करने के लिए तैयार थी
उस दिन जब भवानी मंडप में संध्या आरती समाप्त हुई उसके साथ ही, गौरी का महेश्वर से रूठना भी समाप्त हो गया था
अगले ही दिन, उसने राणा से अनुरोध किया कि महल में एक शिवालय बनवाया जाए और राणा ने उसकी इच्छा को सहर्ष स्वीकार किया
धीरे-धीरे, वह इस नए जीवन को अपनाने लगी थी, महल के नियम, भोजन की परंपराएँ, प्रतापगढ़ का माहौल… और राणा विक्रमसिंह
अब वह मारवाड़ी भाषा भी बोलने लगी थी लेकिन…
एक बात उसे हमेशा खटकती थी
राणा की मासा!
वह शायद ही कभी अपने महल से बाहर आतीं थी
राजपरिवार के अन्य सदस्यों से भी गौरी की कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी और एक दिन, उसने राणा से यह बात कह दी
"आप परदेस से आई हैं, इसलिए राजपरिवार थोड़ा असंतुष्ट है," राणा ने शांत स्वर में उत्तर दिया "धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाएगा आप बस शिवालय के निर्माण कार्य पर ध्यान दें, बाकी की चिंता न करें"
राणा के इन शब्दों के बाद, गौरी ने स्वयं को शिवालय के निर्माण में पूरी तरह झोंक दिया था, अब उसका सारा दिन इसी में बीतने लगा था…
शिवालय का निर्माण पूरे वैभव और भव्यता के साथ आगे बढ़ रहा था, विशाल संगमरमर के पत्थरों पर जटिल नक्काशी उकेरी जा रही थी प्रत्येक खंभे पर अलग-अलग आकृतियाँ, पुराण कथाओं से उत्कीर्ण प्रतिमाएँ उकेरी जा रही थी, गौरी की आँखों के सामने शिल्पकला के अप्रतिम चमत्कार आकार ले रहे थे
लेकिन…
जैसे-जैसे मंदिर पूर्णता की ओर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे उसके हृदय के किसी गहरे कोने में कुछ हलचल मच रही थी, भवानी मंडप में अखंड धूनी के सामने हाथ जोड़ते ही, उसकी आँखों के आगे एक अतीत बार-बार चमक उठता
मन अशांत होने लगा था
उस दिन वह भवानी मंडप से बिना घूँघट लिए ही महल की ओर चल पड़ी, दासियाँ पीछे से आवाज़ लगाती रहीं, लेकिन उसने किसी की नहीं सुनी
महल में जिसने भी उसे देखा, स्तब्ध रह गया
एक स्वर्णिम आभा में लिपटी, तेजस्वी, अनिंद्य सौंदर्य की प्रतिमा जैसी…
मानो कोई दैवी शक्ति स्वयं धरती पर उतर आई हो, पर उसका यह व्यवहार प्रतापगढ़ की प्रतिष्ठा और नियमों के विरुद्ध था और गौरी को इसका आभास तक नहीं था
वह खुद से ही जूझ रही थी
यह कैसी बेचैनी थी? यह कैसी रिक्तता थी? आखिर यह कैसी कमजोरी थी, जो उसे भीतर तक हिला रही थी?
जब यह समाचार राणा विक्रमसिंह तक पहुँचा, तो वे तुरंत गौरी के महल में पहुँचे और वहाँ जो दृश्य उन्होंने देखा, वह उन्हें विचलित कर गया
गौरी, मंचक से नीचे, अस्त-व्यस्त, बिखरे केशों में, लाल आँखों के साथ भूमि पर बैठी थी, उन्हें समझ ही नहीं आया कि आखिर हुआ क्या है
उन्होंने आगे बढ़कर उसे सहारा दिया, मंचक पर बैठाया और जल का पात्र उसके हाथ में थमाया, जल की कुछ घूँट पीने के बाद वह थोड़ा संयत हुई
"गौरी, क्या हुआ?" राणा ने धीमे लेकिन गहरे स्वर में पूछा
"आप जानती हैं कि इस महल में बिना घूँघट बाहर जाना उचित नहीं, फिर भी आज आपसे यह भूल कैसे हुई?"
राणा के शब्द कठोर नहीं थे, बल्कि उनमें एक अजीब सी कोमलता थी
गौरी ने कुछ नहीं कहा, वह बस राणा के सीने से लगकर फूट-फूटकर रो पड़ी और सिसकियों के बीच, वह बस इतना ही कह पाई
"मुझे देवगढ़ की याद आती है…"
राणा हल्का सा मुस्कराए "बस इतनी सी बात पर राणीसा ने यह हाल बना लिया?"
उन्होंने कोमलता से उसकी आँखों के आँसू पोंछे और कहा
"हम आज ही संदेश भेज देते हैं, ताकि कोई आपके घर से मिलने आ सके पर आगे से ऐसी भूल न हो"
गौरी जानती थी कि उसकी गलती बहुत बड़ी थी पर राणा ने उसे डाँटा नहीं, बल्कि समझा था, उन्होंने पहले ही दिन गौरी की आँखों में कोमलता के साथ एक ज्वाला भी देखी थी शायद इसलिए, आज की यह घटना उन्होंने अपने मन में रख ली, उसे कोई बड़ा विषय नहीं बनाया
पर गौरी उलझ गई थी, आखिर आज ऐसा क्या हुआ, जिससे विद्याधर की याद इतनी तीव्र हो उठी?
इतने वर्षों में उसका अतीत धुँधला पड़ चुका था
फिर आज, भवानी मंडप से शिवालय की ओर देखते हुए अचानक उसे क्या हो गया?
शिवालय का निर्माण अपने अंतिम चरण में था, शिवरात्रि के दिन भव्य यज्ञ के साथ वहा ईश्वर की स्थापना की जानी थी और इसके लिए काशी, हरिद्वार और केदारनाथ से ऋषि-मुनियों का आगमन होने वाला था, प्रतापगढ़ में बरसों बाद इतना बड़ा आयोजन हो रहा था
परंतु…
जब सब कुछ अपने श्रेष्ठतम रूप में था, ठीक उसी समय गौरी का मन टूट रहा था, इतनी श्रद्धा और परिश्रम से महेश्वर का मंदिर बन रहा था… फिर भी वह भीतर से इतनी व्याकुल क्यों थी?
महाशिवरात्रि अब बस कुछ ही दिनों की दूरी पर थी, गढ़ में संत-महात्माओं का आना-जाना शुरू हो चुका था, सभी ओर तैयारियाँ तेज़ हो गई थीं
मंडप सज रहे थे, मधुर वाद्यों की ध्वनि गूँज रही थी, द्वारों पर तोरण बंध गए थे, आँगनों में रंगोलियाँ बिखर रही थीं, पूरा प्रतापगढ़ मंगलमय वातावरण से भर उठा था…
लेकिन…
गौरी का हृदय शून्य था
वह किसी और ही संसार में खोई हुई थी
और फिर…
उस रात, एक स्वप्न ने उसे झकझोर कर रख दिया, देवगढ़ का वह शिवालय उसकी आँखों के सामने चमक उठा…
वही क्षण… जब विद्याधर ने उसे वह ग्रंथ दिया था
वह चौंककर जाग उठी
जलती हुई दीपशिखा को थोड़ा ऊँचा किया और आगे बढ़ी उसने संदूक का ढक्कन उठाया और उसमे नीचे दबे लाल वस्त्र को हटाया… और वहाँ वही ग्रंथ रखा था
"स्नेहित" विद्याधर का हस्तलिखित ग्रंथ!
उसने दो पल उसे सीने से लगाया और फिर काँपते हाथों से पन्ने पलटने लगी…
"प्रिय गौरी,
"हाँ, आप बिल्कुल सही पढ़ रही हैं, आप हमें प्रिय हैं… और शायद आपको पता भी नहीं कि कितने समय से प्रिय हैं, आपने तो हमें पहली बार श्रावण के सोमवार की पूजा में देखा था… पर हमने आपको उससे पहले ही देख लिया था… महारुद्र यज्ञ में… तभी से आप हमारे हृदय में बस गईं
हाँ, गौरी … हम आपके प्रेम में हैं!"
“सोमवार के दिन, जब आपने वह अंजिरी रंग की साड़ी पहनी थी… उस क्षण, कोई भी आपको देखकर मोहित हो जाता, आपके कोमल हाथों में खनकती लाल चूड़ियों की आवाज़… आज भी हमारे कानों में गूँजती है
आपके शरीर से उठती चंदन और केवड़े की भीनी सुगंध… हमारे श्वासों में रची-बसी है..
जब आप घोड़े पर सवार होकर हवा से बातें करतीं… तब हमें लगता, काश, हम भी वायु बनकर आपकी संगति कर पाते!
जब आप स्नान के बाद खुले केशों में मंदिर आतीं… तब हमें लगता कि मंदिर में बादल घिर आए हैं…
आपकी अरुणिमा से दमकती मुखाकृति… वह गहरी अनुरागी आँखें… आपको देखकर यह हृदय हर क्षण आपका व्रत करता था!
परंतु, गौरी…
हम ब्राह्मण पुत्र हैं आप क्षत्रिय सरदार की सुपुत्री, इस प्रेम को न तो आपके कुल में स्थान मिलेगा, न हमारे कुल में...
इसीलिए, हमने कभी आपको अपने भावों से अवगत नहीं कराया…
लेकिन, आप तो आप है...
आज, आपने यह सत्य हमारे मुख से कहलवा ही लिया, और अब, आपके आबा से विवाह की बात करने के संकल्प के बाद… हमें भी एक निर्णय लेना पड़ा है…"
गौरी के हाथ काँपने लगे
"निर्णय?"
उसने पन्ने तेजी से पलटने शुरू किए…
"इससे पहले कि आप कृष्णाजी से बात करें, हम देवगढ़ छोड़ चुके होंगे, हमें पता है कि आप इतनी आसानी से कमजोर नहीं पड़ेंगी… लेकिन एक दिन, यह हस्तलिखित आपको अवश्य पढ़ना होगा..
इसमें आपके लिए लिखी गई कुछ कविताएँ हैं, संकट के समय सहारा देने वाले चारों वेदों के श्लोक हैं, शिवमहिमा का वर्णन है… और हमारी वर्षों की साधना और पुण्याई समर्पित है
उचित समय पर इसका पाठ करें, महेश्वर आपको मार्ग दिखाएँगे
हम स्वयं आकर आपको इस पीड़ा से बाहर नहीं निकाल सकते, लेकिन…
महेश्वर अवश्य निकालेंगे"
अब आपको यह प्रश्न अवश्य होगा..कौन सी पीड़ा? कैसा संकट? और महेश्वर किस मार्ग की ओर ले जाएँगे?
गौरी, हर जन्म का एक उद्देश्य होता है, आपका जन्म भी केवल व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं हुआ है, आपका जन्म महेश्वर की सेवा और मातृभूमि की रक्षा के लिए हुआ है...
इसलिए, अपने आराध्य से जो रूठकर बैठी हैं, वह रूठना शीघ्र समाप्त करें... अंजिरी रंग की साड़ी पहनकर बाहर जाएँ, तो सतर्क रहें, दूर देश से आया एक यात्री आपको अपने साथ ले जाएगा… यह विधिलिखित है, और हम इसे टाल नहीं सकते क्योंकि वहीं आपका वास्तविक कर्म होने वाला है"
गौरी हड़बड़ा गई
"अंजिरी साड़ी?"
उसे याद आया
राणा विक्रमसिंह ने उसे पहली बार इसी रंग की साड़ी में देखा था! और यह बात स्वयं राणा ने ही उसे बताई थी!
"महेश्वर की सेवा तो हो रही है, लेकिन मातृभूमि की सेवा?" "क्या यह कोई संकेत है?"
उसने आगे पढ़ना जारी रखा
"जब कभी तुम्हारी धैर्य-शक्ति डगमगाए, तो केवल अपने आराध्य का नामस्मरण करना
आने वाली शिवरात्रि पर तुम्हें एक बड़ा कार्य पूरा करना होगा, परदेस में हो, तो भागने के मार्ग कम होंगे, ऐसे में, माँ भवानी को स्मरण करना… और अग्नि की शरण जाना.."
गौरी के हाथ काँपने लगे थे
"विद्याधर को यह सब कैसे पता?"
उसने आगे पढ़ा
"यह सब हमें कैसे ज्ञात हुआ यही सोच रही है ना, यह भी महेश्वर की कृपा है भविष्य के संकेत हमें थोड़े-बहुत ज्ञात होते हैं और इसलिए, हम नहीं चाहते कि हमारी भावनाएँ आपके मार्ग में कोई बाधा बनें इसीलिए, हमने यह निर्णय लिया...
गौरी, तुम्हारा प्रेम हमारे हृदय में सदा रहेगा, यही प्रेम हमें जीवन की ऊर्जा देता रहेगा लेकिन तुम्हें कभी अपने क्षत्रिय धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए शस्त्र केवल संहार के लिए नहीं, बल्कि रक्षा के लिए भी होता है… इसे सदा अपने साथ रखना
अब हम विदा लेते हैं
सदैव तुम्हारा,
विद्याधर"
गौरी की आँखों से अश्रु गिरने लगे थे
"तो यही विधिलिखित था?" "राणा विक्रमसिंह से विवाह?" "परदेस में एक नए कर्म की शुरुआत?"
विद्याधर चला गया था… लेकिन उसका यह पत्र, यह आखिरी शब्द… उसका प्रेम सदैव जीवित रहेगा!
गौरी असमंजस में पड़ गई, सैकड़ों प्रश्न उसके भीतर उमड़ने लगे थे, आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे "आखिर यह कैसी परीक्षा थी?"
उसने हस्तलिखित का अगला पृष्ठ पलटा
“तूने निभाई, मैंने भी न तोड़ी,
सखी, ये मर्यादाओं की डोरी।
बदले मौसम कितने ही,
खत्म हुए प्रेम के पर्व सभी,
पर न टूटी कभी
ये मर्यादाओं की डोरी...
यह पढ़ते ही वह टूट गई थी
"जिसकी साँसों में मेरे अस्तित्व की सुगंध है… जिसकी हर धड़कन में मेरा नाम बसा है… उसी की संगति तक न मिले? क्या यही विधिलिखित था?"
रात ढलते-ढलते उसने पूरा हस्तलिखित पढ़ डाला
शास्त्रों के श्लोक, स्तोत्रों के मार्गदर्शन… विद्याधर ने जाते-जाते भी उसे अकेला नहीं छोड़ा था
अब तक, जो गौरी केवल गढ़ की किलाबंदी पर ध्यान देती थी… अब उसने यहाँ के हर व्यक्ति को ध्यान से देखना शुरू किया था
स्वराज्य संकट में था… छत्रपति के विरुद्ध षड्यंत्र रचा जा रहा था… और प्रतापगढ़ के राणा का जीवन भी खतरे में था
गौरी ने संदूक खोला, अपनी छोटी कटार निकाली और कमर में कस ली
महाशिवरात्रि आने में केवल सात दिन शेष थे पर उससे पहले, उसे गढ़ के भीतर छिपे शत्रु को बेनकाब करना था
इस षड्यंत्र की जड़ें खोदनी थीं
आज, पहली बार… उसने केवल महेश्वर ही नहीं, बल्कि विद्याधर को भी मन ही मन स्मरण किया
"तुम नहीं हो, फिर भी मुझे मार्ग दिखाओगे, यह मैं जानती हूँ!"
गौरी, बिना किसी पूर्व सूचना के, सीधे राणा विक्रमसिंह के महल में पहुँची, रास्ते में आते हुए, वह हर सैनिक के उच्चारण को ध्यान से सुन रही थी, भाषा की लय में परिवर्तन… स्वर में कोई असामान्यता… कुछ न कुछ… कहीं न कहीं… गड़बड़ थी!
और तभी…
एक स्वर उसके मन में गूँजा
"ऐसा ही कोई लहजा मैंने पहले भी सुना था… लेकिन कहाँ?"
इसी सोच में डूबी वह महल में प्रवेश कर गई और जैसे ही वह भीतर पहुँची, राणा विक्रमसिंह और मंत्री हरीप्रसाद चौंक गए, परंतु राणा विक्रमसिंह तुरंत ही संभल गए
उन्होंने मंत्री हरीप्रसाद को महल से विदा होने का संकेत दिया और फिर गौरी का स्वागत किया
"पधारिए, राणीसा! आज बिना किसी संदेस के ही महल में पधार गईं?"
गौरी ने हल्के से भौंहें उठाईं और मुस्कराते हुए कहा
"अच्छा… तो अब हमें राणाजी से मिलने के लिए अनुमति लेनी पड़ेगी?"
राणा हँस पड़े
"ना, ना, राणीसा! आप कभी भी आ सकती हैं बैठिए…" फिर उन्होंने सहजता से बात आगे बढ़ाई
"वैसे, देवगढ़ से कृष्णाजी और परिवार के अन्य लोग भी आ रहे हैं"
"जी, संदेसा तो हमें भी प्राप्त हुआ है," गौरी ने बिना किसी विशेष प्रतिक्रिया के उत्तर दिया
"आपके मामासाहब जी भी आ रहे हैं, ना?"
"जी हाँ"
गौरी ने तुरंत राणा विक्रमसिंह की आँखों में एक क्षणिक चमक देखी
उसका हृदय हल्के से काँपा
"यह क्या था?"
वह राणा पर भरोसा करती थी… लेकिन कुछ था जो ठीक नहीं लग रहा था परंतु, बिना किसी भाव-परिवर्तन के, उसने वार्तालाप को सहज बनाए रखा
लेकिन तभी…
"यही वह लहजा है!"
"यही स्वर, यही उच्चारण…!"
उसका मन दौड़ने लगा
"क्या यह सच में राणा विक्रमसिंह हैं?"
"या फिर मेरे ही सुनने में कोई भूल हो रही है?"
तभी…
उसके स्मरण में एक पंक्ति कौंधी
"हर पल नया रूप दिखाए,
झूठ को सच बनाकर जतलाए।
सिरत उसकी खोटी, सुरत जरा भोली,
तुम कान लगाकर सुनना उसकी बोली”
"विद्याधर के ग्रंथ में लिखी यह पंक्तियाँ… क्या यह वही संकेत था?"
गौरी ने बिना किसी घबराहट के साधारण चर्चा जारी रखी फिर, पूर्ण शांति से महल से बाहर निकली
परंतु अब, उसका लक्ष्य स्पष्ट था
देवगढ़ से आने वाले परिवारजन और सरसेनापती मामा को सतर्क करना!
कोई खुला संदेश भेजना असंभव था, यह जोखिम भरा होता, पर गौरी अबोध नहीं थी, उसने एक युक्ति सोची और उसने संदेश भिजवाया
"चंद्रमौली का आशीष मिले, विश्वनाथ हर संकट हरे।
अब प्रतीक्षा और न हो पाए, जल्दी आओ, मन घबराए।"
अब उसे सिर्फ इंतज़ार करना था… क्योंकि… विद्याधर की भविष्यवाणी धीरे-धीरे सत्य हो रही थी!
गौरी ने बस यही कुछ पंक्तियाँ लिखवाकर संदेश भिजवा दिया था
उसे पूरा विश्वास था कि मामा राघोजीराव जैसे ही दीपक के प्रकाश में इस खलिते को पढ़ेंगे, सबकुछ समझ जाएँगे
अब, जब तक उत्तर नहीं आता, उसे खुद यह सुनिश्चित करना था कि आखिर राणा विक्रमसिंह के नाम पर कौन चाल चल रहा है, उसकी गतिविधियाँ तेज़ हो गईं थी,
गढ़ पर आए साधु-संतों से आशीर्वाद लेने का बहाना बनाकर, वह महल से बाहर जाने लगी थी और धीरे-धीरे, उसे पूरी स्थिति समझ आने लगी
गढ़ नजरकैद में था!
चारों ओर वेश बदलकर मुग़ल बादशाह के गुप्तचर घूम रहे थे, गढ़ में एक अदृश्य भय फैला हुआ था लेकिन एक पहेली अब भी हल नहीं हुई थी
"राणा विक्रमसिंह के रूप में आखिर कौन है?"
हर रात, वह "स्नेहित" पढ़ती, हर पंक्ति में छुपे संकेतों को समझने की कोशिश करती इसी बीच, प्रत्याशित उत्तर आ गया था राघोजीराव किसी अभियान के कारण स्वराज्य लौट गए थे अब केवल देवगढ़ से परिवार के अन्य लोग आ रहे थे गौरी ने जैसे ही खलिता पढ़ा, वह तुरंत सतर्क हो गई
"राणा" के हावभाव अचानक बदल गए थे और अब उसे पूरा यक़ीन हो चुका था
"यही शत्रु है!"
लेकिन यह था कौन?
"क्या यह कोई मुग़ल सरदार है? या फिर कोई और?"
इसे जानना ज़रूरी था और उसके पास सिर्फ़ तीन दिन थे
देवगढ़ का काफिला सुबह तक प्रतापगढ़ पहुँचने वाला था, इससे पहले, उसे हर हाल में यह षड्यंत्र उजागर करना था अपने मन में निश्चय कर, गौरी ने राजमाता के महल में संदेश भिजवाया, महल में आने के बाद से, वह सिर्फ़ एक बार राजमाता से मिली थी उसे शुरू से ही, यह कहकर टाल दिया गया था कि
"वह परदेस से आई हैं, इसलिए राजमाता उनसे नाराज़ हैं और स्वास्थ्य कारणों से वह किसी से अधिक नहीं मिलतीं"
उस समय, यह तर्क उसे कुछ अजीब तो लगा था… लेकिन शिवालय के कार्यों में व्यस्त रहते हुए उसने इस पर अधिक विचार नहीं किया था और अब, यही राजमाता उसे इस संकट से उबार सकती थीं! कम से कम, वह उसे कोई मार्गदर्शन अवश्य दे सकती थीं
गौरी , राजमाता के महल में पहुँची
"प्रणाम, माँसा!"
"आईये, गौरीबाईसा!"
"आपसे एक आवश्यक प्रश्न करना था, माँसा…"
"जानु हूँ, घने अंधेरे में राणीसा के सवाल लेकर आई हैं… राणासां की हकीकत… बस, आपने यह पूछने में बहुत देर कर दी"
गौरी एक पल को ठिठक गई
"मतलब?"
राजमाता की आँखों में एक ठहरी हुई गंभीरता थी
"किला नजरकैद में है, और हमारे राणासां भी… और वक्त बहुत कम है"
गौरी ने एक गहरी साँस ली
"आप साफ़-साफ़ बताइए, माँसा! यह सब कौन है? और राणा विक्रमसिंह कहाँ हैं?"
राजमाता ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया
"विक्रमसिंह कैद में हैं… तहख़ाने में"
ये सुनते ही गौरी के पैरों तले ज़मीन खिसक गई
"तो फिर, उनकी जगह यह कौन है?"
"यह…"
"यह मुग़ल बादशाह का बेटा जफरउद्दीन है! वह राणा का वेश धरकर यहाँ आया है!"
राजमाता ने आगे जो बताया, वह गौरी के लिए एक भयानक सत्य था, दक्षिण से लौटते समय, अपने ही कुछ विश्वासघाती सरदारों के कारण राणा विक्रमसिंह को पकड़ लिया गया था और उनकी जगह जफरउद्दीन प्रतापगढ़ पहुँचा और… चूँकि राणा और जफरउद्दीन की आकृति काफ़ी हद तक मिलती-जुलती थी, इसलिए किसी को संदेह नहीं हुआ साथ ही, वह कई भाषाओं में निपुण था, संस्कृत, मराठी, राजस्थानी, और दख्खनी हिंदुस्तानी इसलिए, गढ़ के भीतर किसी को भी उसकी भाषा में कोई अंतर महसूस नहीं हुआ, वह पूरी तरह से विक्रमसिंह का स्वरूप धारण कर चुका था
और अब…
प्रतापगढ़ पूरी तरह से उसकी मुट्ठी में था! मंत्रिमंडल और स्वयं राजमाता नजरकैद में थे!
अब गौरी को समझ आया कि देवगढ़ में पड़ाव डालना और उससे विवाह का प्रस्ताव रखना… यह जफरउद्दीन की पहली चाल थी! प्रतापगढ़, जो अपनी भौगोलिक संरचना के कारण किसी की नज़र में नहीं आता था, वह जफरउद्दीन के लिए एक महत्त्वपूर्ण जीत थी परंतु, इससे भी अधिक…
उसका असली उद्देश्य था… मराठा छत्रपति को नामोहरम करना!
गौरी की माँ, चंद्रप्रभाबाई, मराठा सेनापति राघोजीराव देशमुख की मानिहुई बहन थीं इस कारण, जाधव और देशमुख परिवारों के संबंध अत्यंत निकट थे साथ ही, राघोजीराव को गौरी से विशेष स्नेह था
यही जफरउद्दीन की चाल थी!
वह जानता था कि यदि राघोजीराव को प्रतापगढ़ आने का निमंत्रण दिया जाए, तो वह इसे अस्वीकार नहीं करेंगे इसीलिए, जब वह सोच रहा था कि गढ़ में कौन सा उत्सव आयोजित किया जाए, जिससे उसे अपनी योजना सफल करने का अवसर मिले… और ऐसे मे गौरी ने स्वयं ही शिवालय बनवाने की बात छेड़ दी!
यह उसके लिए एक सुनहरा अवसर था! यदि राघोजीराव को कैद कर लिया जाए, तो छत्रपती तक पहुँचना सरल हो जाएगा क्योंकि… छत्रपति स्वराज्य के सेनापति को छुड़ाने अवश्य आएँगे… और तभी उन पर घातक आघात किया जा सकता था!
असल में, जफरउद्दीन ने पहले ही देवगढ़ में हमला करने की योजना बनाई थी लेकिन… उसी समय राघोजीराव विवाह में नहीं पहुँच पाए, और उसकी योजना विफल हो गई थी...
अब… उसने राजमाता के समक्ष एक संधि का प्रस्ताव रखा किन्तु… यह संधि नहीं, बल्कि एक और छल था! विक्रमसिंह की कैद के बाद, राजमाता ने उनकी रिहाई के लिए संधि करने की सहमति जताई तो जफरउद्दीन ने स्पष्ट कहा था कि यदि राजमाता ने इस योजना में सहयोग किया, तो वह राणा को मुक्त कर देगा
परंतु…
राजमाता को यह स्वीकार नहीं था लेकिन… जब जफरउद्दीन ने यह धमकी दी कि यदि उन्होंने विरोध किया, तो विक्रमसिंह को मृत्यु दंड दिया जाएगा, तो अंततः उनका मनोबल भी झुक गया
"राजपूतानी संस्कारों पर प्राण न्योछावर करने वाली माँ… आज अपने पुत्र के लिए झुक गई थी!"
जब यह सब घटित हो रहा था, तब गौरी गढ़ में ही थी… पर उसे इसकी भनक तक नहीं लगी! अब, जब यह सत्य उसके सामने था, तो सभी संदर्भ स्पष्ट होते गए
अचानक राणा का देवगढ़ आना… उससे विवाह का प्रस्ताव रखना … राजपरिवार द्वारा उससे दूरी बनाए रखना…
सब कुछ केवल एक योजना थी!
गौरी को अब एक और महत्वपूर्ण शिक्षा मिली रणनीति सीखना और उसे वास्तविक युद्ध में लागू करना, दोनों में आकाश-पाताल का अंतर होता है!"
उसने राघोजीराव पर आने वाले संकट को तो टाल दिया था, पर अब विक्रमसिंह को छुड़ाने की जिम्मेदारी भी उसके कंधों पर आ गई थी
परंतु…
क्या यह कार्य वह अकेले कर पाएगी? गौरी ने गहरी साँस ली और राजमाता की ओर देखा
"माँसा, आप चिंता मत कीजिए, हम आपके राणासां को कैद से बाहर लेकर ही आएँगे! अब हमें चलना चाहिए… आप अपना ध्यान रखिए, प्रणाम!"
राजमाता ने उसे आशिर्वाद दिया
अब, उनके मन में भी थोड़ी-सी आशा जागी थी, देवगढ़ से सभी लोग प्रतापगढ़ पहुँच गए थे, राणा से भेंट करने के बाद, सभी सीधे गौरी के महल में पहुँचे जहा गौरी ने संक्षेप में आबासाहेब (कृष्णाजी) को पूरी सच्चाई बता दी
वही कृष्णाजी पहले से ही तैयारी के साथ आए थे!
साधु-संतों के भेष में कुछ मराठा सैनिक पहले ही गढ़ में प्रवेश कर चुके थे और स्वयं राघोजीराव, वेश बदले हुए सैनिकों की टुकड़ी लेकर आने वाले थे
अब, गौरी ने ‘स्नेहित’ का पाठ शुरू किया
"शत्रु को पहचानना कठिन था, पर उससे विजय पाना और भी कठिन था!"
शाम ढलते ही, गढ़ में यह सूचना पहुँची कि ऋषिकेश से नारायण स्वामी अपने शिष्यगणों के साथ प्रतापगढ़ पधारे हैं
गौरी ने यह समाचार सुना तो उसका हृदय प्रसन्नता से भर उठा!
अंततः, जो कार्य विद्याधर के वियोग से आरंभ हुआ था… वह उसी की उपस्थिति से सिद्ध होने वाला था!
गौरी तुरंत स्वामी नारायण के दर्शन के लिए पहुँची
"प्रणाम, स्वामीजी!"
स्वामी ने आशिर्वाद देते हुए कहा
"शुभं भवतु! शुभं भवतु!"
स्वामी जी के साथ महाशिवरात्रि के आयोजन की योजना बनाते हुए भी, गौरी की आँखें किसी और को ही तलाश रही थीं… और अंततः उसे वह दिख ही गया!
विद्याधर! उसे देखते ही गौरी ने उसने चरणों मे झुकते हुए उसे प्रणाम किया और विद्याधर ने शांत भाव से उसका अभिवादन स्वीकार करते हुए कहा "कल्याणमस्तु!"
गौरी ने एक गहरी साँस ली और कहा "सिर्फ़ दो दिन शेष हैं… लेकिन अब तक कोई मार्ग स्पष्ट नहीं!"
विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा "चिंता न करें नारायण स्वामी इसके लिए ही आए हैं बस, महेश्वर पर विश्वास रखें"
गौरी अभी भी असमंजस में थी
"लेकिन…"
"अब मन में कोई किंतु न रखें, धरती के गर्भ में छुपा रहस्य शीघ्र ही प्रकट होगा, आप निश्चिंत रहें!"
गौरी ने उसकी ओर देखा, विद्याधर की आँखों में अडिग विश्वास झलक रहा था, उसने सिर झुका लिया
"ठीक है, यदि आप कह रहे हैं, तो मैं कोई संशय नहीं रखूँगी"
योजना यह थी कि पूजा के समय केवल जफरउद्दीन, गौरी , नारायण स्वामी और भक्तगण ही मंदिर के गर्भगृह में रहेंगे इनके अलावा वहा और कोई नहीं होने वाला था पूजा की तैयारियाँ आरंभ हो गईं थी और गौरी ने नारायण स्वामी और उनके अनुयायियों को पुनः प्रणाम किया, फिर महल की ओर चल पड़ी
दूसरी ओर…
जफरउद्दीन, राघोजीराव के न आने से बौखला गया था, उसके भीतर अब क्रोध की ज्वाला धधक रही थी!
"पूजा समाप्त होते ही, गौरी और देवगढ़ से आए सभी लोगों को कैद कर लेना है!" उसने अपने विश्वासपात्र हरीप्रसाद को आदेश दिया
"हमें किसी भी कीमत पर राघोजीराव और छत्रपती को यहाँ बुलाना होगा! और विक्रमसिंह… उसे खत्म कर दो साथ ही उसकी अम्मी को भी!”
जफरउद्दीन की बात सुन शिवप्रसाद ने सिर झुकाकर कहा
"लेकिन, जहाँपनाह… यह कार्य हमें पूजा के दौरान ही करना होगा, इससे पहले हमला करना उचित नहीं होगा, जब तक महल में बाहरी लोग आते-जाते रहेंगे, तब तक यह संभव नहीं, लेकिन जैसे ही पूजा प्रारंभ होगी, सभी लोग बेखबर होंगे… और तब… कार्य को अंजाम देना आसान होगा!"
हरिप्रसाद की बात सुन जफरउद्दीन के होठों पर एक क्रूर मुस्कान उभर आई
"तो ठीक है… सब सैनिकों को सतर्क कर दो अब नजरकैद नहीं होगी… अब असली कैद होगी!"
"जी, जहाँपनाह!" जफरउद्दीन को सलाम कर, हरीप्रसाद महल से बाहर निकल गया
उधर…
गौरी को भली-भाँति ज्ञात था कि जफरउद्दीन किसी को इतनी आसानी से मुक्त नहीं करेगा, अब उसके विचारों की गति और तीव्र हो गई थी जफरउद्दीन को समाप्त करने की योजना उसके मन में आकार लेने लगी थी
लेकिन… पहले विक्रमसिंह को मुक्त कराना आवश्यक था!
कृष्णाजी पहले से ही योजना तैयार कर चुके थे मराठा सैनिकों को विशेष निर्देश गुप्त रूप से भेजे जा चुके थे, गढ़ में पहले से मौजूद वेश बदलकर आए मराठा सैनिक अब पूर्ण रूप से इस मिशन में सक्रिय हो चुके थे
अब… विक्रमसिंह को कैद से छुड़ाने के मार्ग तैयार किए जाने लगे थे!
साधु के वेश में आए योद्धा धीरे-धीरे प्रतापगढ़ के सैनिकों की तरह महल में विचरण करने लगे थे और इससे तहखाने तक पहुँचने का रास्ता सहज बन गया था
इधर, गौरी के महल से वैदिक मंत्रों का स्वर गूँजने लगा था, यज्ञ की कुछ विशेष विधियाँ केवल नारायण स्वामी, उनके शिष्यों, राणा और राणीसा की उपस्थिति में संपन्न होनी थी ऐसा संदेश महल में भेजा गया
अब गौरी को पूर्ण विश्वास हो गया था की "अब कार्य सिद्ध होगा!"
रात के अंधकार में, गुप्त योजना साकार होने लगी थी… इसी बीच विक्रमसिंह को कैद से मुक्त कर दिया गया था और उनकी जगह एक सैनिक को उनके वेश में बंदी बनाकर रखा गया था गनिमी कावा (छल-युद्ध) का पूरा उपयोग किया जा रहा था!
शत्रु के पहरेदारों को मोहित किया गया, छला गया, और आवश्यकता पड़ने पर… नष्ट कर दिया गया
शिवरात्रि का सूर्योदय होने से पहले ही… शत्रु को कोई सूचना भी नहीं मिल पाई थी और मराठाओ ने अपनी योजना पूरी तरह सफल कर दी थी!
इसका संदेश गौरी , नारायण स्वामी और विद्याधर तक पहुँचा दिया गया था वही इस सबसे अनभिज्ञ… जफरउद्दीन अपने महल में गहरी निद्रा में था
लेकिन… अब… उसके लिए यह निद्रा ही अंतिम सिद्ध होने वाली थी!
ब्राह्ममुहूर्त का वक्त हो चला था…
शिवालय में जफरउद्दीन को समाप्त करने की अंतिम योजना साकार हो रही थी! गौरी , जफरउद्दीन के साथ शिवालय पहुँची तो आज वह लाल जरी की भारी पोशाक में थी… सोने और हीरों के आभूषणों से सजी हुई… एक नववधू के समान....
परंतु…
उसकी आँखें केवल महेश्वर के समक्ष एक ही प्रार्थना कर रही थीं "अब केवल बल दो… इस अंतिम युद्ध को लड़ने का!"
उधर, जफरउद्दीन ने भी शिवालय में ही गौरी को कैद करने का निश्चय कर लिया था और… वह पूरी तैयारी के साथ, शस्त्र धारण कर शिवालय में पहुँचा था!
अब… अंतिम युद्ध आरंभ होने ही वाला था!
यज्ञ का शुभारंभ हुआ… महेश्वर की प्राणप्रतिष्ठा संपन्न हुई… पंचनदियों के पवित्र जल से, दुग्ध से अभिषेक किया गया… धूप और दीपों की सुगंध से वातावरण गूंज उठा
नारायण स्वामी गंभीर स्वर में रुद्राष्टक का पाठ कर रहे थे और प्रत्येक आहुति के पश्चात… विद्याधर, जफरउद्दीन को अभिमंत्रित जल आचमन के लिए दे रहा था, जल का प्रभाव धीरे-धीरे जफरउद्दीन पर स्पष्ट होने लगा था तभी नारायण स्वामी ने विद्याधर को कुछ संकेत दिया और बोले
"राणा और राणीसा के साथ भवानी मंडप जाएँ… और अखंड धूनी से अग्नि ले आएँ"
दूसरी ओर… भवानी मंडप में, पुरोहितों के वेश में स्वयं राघोजीराव और राणा विक्रमसिंह बैठे थे!
जैसे ही जफरउद्दीन ने भवानी मंडप में प्रवेश किया, विद्याधर ने द्वार बंद करते हुए सैनिकों को बाहर ठहरने का आदेश दिया वही जफरउद्दीन को देखते ही राणा ने आगे बढ़कर व्यंग्य भरे स्वर में कहा
"पधारिए, राणासा… नहीं-नहीं… शहजादे जफरउद्दीन!"
जफरउद्दीन, जो अभी तक अर्धचेतन अवस्था में था, अचानक चौंककर बड़बड़ाने लगा
"कौन? कौन?"
"हमें पहचाना नहीं, शहजादे? हम राणा विक्रमसिंह! और यह रहे सरसेनापती राघोजीराव, जिन्हें आप कैद करना चाहते थे!"
जैसे ही जफरउद्दीन ने राघोजीराव का नाम सुना, उसने अपने अंगरखे से तलवार खींची और अर्धमूर्छित अवस्था में भी त्वरित उन पर झपट पड़ा!
किन्तु…
गौरी पहले ही सावधान थी वह बिजली की गति से आगे बढ़ी… और उसने अपनी कटार जफरउद्दीन के सीने में उतार दी!
सटीक, गहरा वार!
जफरउद्दीन लड़खड़ाया
उसकी आँखों में एक क्षणिक भय और विस्मय का भाव आया
"एक स्त्री के हाथों… पराजय?"
यह विचार आते ही… उसने अंतिम साँस ली… और भवानी मंडप की अखंड धूनी के पास भूमि पर गिर पड़ा! उसे संभलने तक का अवसर नहीं मिला था... और जैसे ही जफरउद्दीन जमीन पर गिरा राघोजीराव ने संकेतस्वरूप घंटानाद किया… जिसके साथ ही विक्रमसिंह की सेना और माराठाओ ने जफरउद्दीन के आदमियों को चारों ओर से घेर लिया!
प्रतिकार करने से पहले ही, गद्दारों के सिर धड़ से अलग हो चुके थे!
विद्याधर ने भवानी मंडप के द्वार खोल दिए थे और… हाथ में रक्तरंजित कटार लिए, गौरी भवानी मंडप से बाहर निकली
उसका घूँघट तो कब का हट चुका था, क्रोध से लाल आँखें हाथ में रक्त से सना शस्त्र... आज… वह साक्षात रणचंडी का अवतार लग रही थी!
स्वराज्य और महेश्वर के प्रति उसकी साधना पूर्ण हुई थी! राणा विक्रमसिंह ने जफरउद्दीन की सेना के साथ-साथ गढ़ के गद्दारों को भी कारागृह में डालने का आदेश दे दिया था!
जब पूरी घटना प्रजा को ज्ञात हुई, तो गढ़ गूँज उठा
"राणीसा की जय हो!"
"गौरी बाईसा की जय हो!"
गौरी ने संतोष से विद्याधर की ओर देखा और फिर… प्रजा को नमन कर, वह शिवालय की ओर बढ़ गई
शिवालय में…
नारायण स्वामी ने प्राणप्रतिष्ठा कर, यज्ञ को पूर्ण कर दिया था परंतु… जब गौरी गाभार में पहुँची, उसके आँसू अनवरत बहने लगे, संघर्ष समाप्त हो चुका था… लेकिन आगे की राह और कठिन थी!
वह राणीसा बनकर तो आई थी… परंतु… विवाह जफरउद्दीन से हुआ था! इसलिए… प्रतापगढ़ में राणा विक्रमसिंह की पत्नी बनकर रहना संभव नहीं था और… विद्याधर के साथ जाना भी समाज की परंपराओं के विरुद्ध था
"क्या मुझे देवगढ़ लौट जाना चाहिए?" यह विचार आया… परंतु उसी क्षण, मन ने तीव्रता से इनकार कर दिया!
असंख्य प्रश्नों ने उसके मन में उथल-पुथल मचा दी थी रणभूमि में अदम्य साहस दिखाने वाली गौरी इस क्षण निःशक्त महसूस कर रही थी
विद्याधर गाभार में आया
"गौरी… शांत हो जाओ, मैं तुम्हारी स्थिति समझता हूँ, पर यह विधिलिखित था… इसलिए, अपने आँसुओं को रोको"
गौरी ने उसकी आँखों में देखा
"और? और मैं इन आँसुओं को रोककर क्या करूँ, विद्याधर?" उसकी आवाज़ मे कंपन था और दृष्टि विद्याधर पर टिकी थी
"केवल नामस्मरण करो, गौरी! एक योद्धा कभी इस तरह कमजोर नहीं पड़ता!"
गौरी की आँखों में असहायता झलक उठी
"हम सिर्फ़ योद्धा नहीं, विद्याधर… हम इंसान भी हैं! हमारे भीतर भी भावनाएँ हैं! तुम सब कुछ जानते थे, फिर भी हमें अकेला छोड़ दिया! क्यों झोंक दिया हमें इस नियति के चक्र में? और अब, आगे का मार्ग भी तुम ही बताओ! क्योंकि वह भी तुम्हें ज्ञात होगा, है ना?"
विद्याधर मौन रहे
"गौरी, विधिलिखित का ज्ञान होना एक बात है… पर उसे बदलने की शक्ति हमारे पास नहीं! अगर होती, तो हम इस क्षण यहाँ नहीं होते! लेकिन फिर भी, हमें क्षमा करो, गौरी!"
गौरी ने आँसू रोकते हुए दृढ़ स्वर में कहा
"नहीं, विद्याधर! तुम्हें क्षमा माँगने की आवश्यकता नहीं बस… मार्ग दिखाओ!"
विद्याधर कुछ क्षण शांत रहे और फिर, उन्होंने बस अपना हाथ गौरी के मस्तक पर रखा
और उसी क्षण,
गौरी को "स्नेहित" में लिखी विद्याधर की पंक्तियाँ याद आ गईं
"माँ भवानी की शरण में जाओ… अग्निदेव की शरण में जाओ!"
उसने तुरंत दासी को आदेश दिया
"महल से 'स्नेहित' ले आओ! मुझे अपना मार्ग मिल चुका है!"
विद्याधर और उपस्थित सभी लोगों के आशीर्वाद के साथ, वह भवानी मंडप की ओर बढ़ी पर इस बार… विद्याधर ने उसे रोक लिया
"गौरी, तुम्हारे साथ जीवन अगर नीति-विरुद्ध है… तो मृत्यु पर तो कोई नियम लागू नहीं होता! इसलिए, अब हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे!"
उन्होंने सभी को प्रणाम किया
और…
दोनों भवानी मंडप की ओर बढ़ गए, उनका साथ चलना ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो दो सशक्त अस्तित्व एक दिशा में बढ़ रहे हों!
चंद्रप्रभाबाई, कृष्णाजी और राघोजीराव ने उन्हें रोकने का प्रयास किया पर… नारायण स्वामी ने उन्हें रोक दिया!
भवानी मंडप में… विद्याधर और गौरी अखंड धूनी में बैठ गए
"स्नेहित" को हृदय से लगा कर… अग्नितर्पण के लिए तैयार!
गौरी के मुख से अपने महेश्वर को समर्पित तेजस्वी स्तोत्र गूंजने लगे
संपूर्ण गढ़ जयजयकार के उद्घोष से गूँज उठा था! भवानी मंडप की अखंड धूनी तीव्र होने लगी थी…
और… मंत्रों घोष धीरे-धीरे मंद पड़ने लगा था!
अग्नि के गर्भ में… विद्याधर और गौरी … एक साथ विलीन हो गए थे! अपने कर्म और कर्तव्य को सार्थक करते हुए... पुनर्जन्म लेने के लिए.... एकरूप होने के लिए...
समाप्त