parkas
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Bahut hi badhiya update diya hai Just4fun95 bhai....
निषिद्ध अग्नि: अध्याय ३ - तुलसी का धुआँ
कल्याणपुर की संध्या मानो एक जादुई कविता हो, आकाश में लाल-नारंगी आभा बादलों के कैनवास पर घुल रही थी। दूर नदी की कल-कल एक नरम राग की तरह, कहीं से बाँसुरी की तान हवा में तैर रही थी। हवा में रातरानि के फूलों की मीठी खुशबू अर्जुन के नथुनों में भटक रही थी, मानो कोई अनदेखा इत्र उसके मन को हिला रहा हो। तुलसी मंच के चारों ओर नरम अंधेरा जमा हो रहा था, संध्या की मद्धम रोशनी में एक आलो-छाया का खेल चल रहा था। अर्जुन आँगन में बैठा था, हाथ में एक खुली किताब, लेकिन उसका किशोर मन शहर की भागदौड़ से इस गाँव की शांति में खो गया था। उसके सीने में एक अनजाना खिंचाव, मानो कुछ उसके मन को बेचैन कर रहा हो।
इसी बीच रमा स्नान करके तुलसी मंच पर पूजा करने आती है। उसने पतली सूती साड़ी पहनी है, बिना ब्लाउज़, गीला कपड़ा उसके शरीर से इस तरह चिपका है मानो उसकी दूसरी त्वचा हो। साड़ी उसके शरीर की हर रेखा को थामे हुए है, जैसे किसी चित्रकार ने उसके देह पर रंग-तूलिका फेरी हो। हवा में साड़ी हल्के से काँप रही है, उसके शरीर की वक्रता और स्पष्ट हो रही है। उसकी त्वचा पर स्नान के पानी की बूँदें मोतियों की तरह चमक रही हैं, कुछ बूँदें उसकी गर्दन, कंधे, और कमर पर लुढ़क रही हैं, मानो संध्या की रोशनी में तारे झिलमिला रहे हों। उसके शरीर से गीली त्वचा की एक मीठी खुशबू तैर रही है, रातरानि के फूलों के साथ मिलकर एक निषिद्ध सुगंध बना रही है, जो अर्जुन के नथुनों में घुसकर उसके मन को और बेचैन कर देती है।
उसके लंबे, काले बाल गीले होकर लहरों की तरह उसके कंधों और गर्दन पर बिखरे हैं, मानो संध्या के आकाश में कोई काला मेघ उमड़ रहा हो। कुछ गीले बाल उसके माथे और गालों पर चिपके हैं, एक पानी की बूँद उसकी गर्दन पर लुढ़क रही है, जैसे कोई छोटी नदी उसकी त्वचा के रास्ते बह रही हो। उसकी आँखें गहरी, मानो दो शांत सरोवर, जिनमें संध्या की रोशनी झिलमिल कर रही है। उसकी नाक नाज़ुक, किसी नायाब मूर्ति की तरह, उसके होंठ रसीले, जैसे अभी पके आम्रपाली के रस से भरे हों। उसकी गर्दन मुलायम, वहाँ एक पानी की बूँद मोती की तरह ठहरी है, मानो कोई मणि उसकी त्वचा में अटक गया हो।
उसके स्तन साड़ी के नीचे उभरे हुए, नरम पहाड़ियों की तरह, गीला कपड़ा उनकी आकृति को और साफ़ कर देता है, उनकी मुलायम गर्मी मानो साड़ी के पार अर्जुन को पुकार रही हो। उसकी नाभि गहरी, जैसे कोई छिपा हुआ कुआँ, साड़ी का पल्लू हल्के से सरकने पर उसकी कमर की नरम वक्रता उजागर होती है, मानो किसी नदी का मोहना। एक पानी की बूँद उसकी नाभि के इर्द-गिर्द लुढ़क रही है, जैसे कोई रहस्यमयी रास्ते का संकेत दे रही हो। उसकी कमर साड़ी के नीचे लहरों की तरह, हर कदम पर हल्के से हिलती है, मानो समुद्र की तरंगें। उसके पैर लंबे, मुलायम, गीली साड़ी के नीचे उनकी आकृति धुँधली-सी उभर रही है, जैसे किसी मूर्ति का अंतिम स्पर्श।
अर्जुन की कल्पना और आगे बढ़ती है। उसका मन साड़ी के नीचे छिपे रहस्यों की तस्वीरें उकेरता है—उसके स्तनों की मुलायम गोलाई की गर्मी, उनके शिखर पर छिपा रहस्य, उसकी नाभि के नीचे त्वचा की मखमली चिकनाहट, उसकी कमर की परिपूर्णता मानो कोई निषिद्ध फल। उसकी कल्पना में रमा का शरीर एक निषिद्ध बागीचा है, जहाँ हर रेखा एक अनजाने फूल की पंखुड़ी। उसकी नज़रें अटक जाती हैं, उसका दिल तेज़ी से धड़कता है, उसके शरीर में एक तीव्र सिहरन। उसका किशोर मन रमा के शरीर की हर रेखा में खो जाता है। उसका मन कहता है, “ये मामी है, ये गलत है।” लेकिन उसका शरीर नहीं मानता। उसके भीतर एक निषिद्ध प्यास जागती है, मानो उसके किशोर मन की सारी सीमाएँ टूट रही हों।
रमा धूप जलाती है, धुआँ तुलसी मंच के चारों ओर फैलता है, संध्या की रोशनी में एक जादुई पर्दा बनाता है। उसकी उंगलियों की हरकत में साड़ी का पल्लू हल्के से हिलता है, उसकी कमर की मुलायम त्वचा और साफ़ हो जाती है, एक पानी की बूँद उसकी कमर पर लुढ़क रही है।
वह अर्जुन की ओर देखती है, उसके होंठों पर एक नरम हँसी। “अर्जुन, याद है, बचपन में पूजा के वक़्त तू मेरे पीछे-पीछे प्रसाद माँगने को घूमता था?” उसकी आवाज़ में स्नेह, मानो एक माँ की गर्मी उसकी बातों में घुली हो। अर्जुन हँसने की कोशिश करता है, “हाँ, मामी, याद है। तुम्हारे हाथ का प्रसाद मैं अब भी नहीं भूला।” लेकिन उसकी आवाज़ में एक कंपन, उसकी नज़रें रमा के शरीर की रेखाओं पर अटक जाती हैं।
पूजा खत्म कर रमा अर्जुन के पास आती है। उसके हाथ में पत्ते पर प्रसाद, उसकी साड़ी अभी भी उसके शरीर से चिपकी है, हवा में हल्के से काँप रही है। उसकी त्वचा पर पानी की बूँदें अभी भी चमक रही हैं, उसके शरीर की मीठी खुशबू अर्जुन के मन को और बेचैन कर देती है। वह अर्जुन के हाथ में प्रसाद देती है, उसकी नरम उंगलियाँ अर्जुन के हाथ को हल्के से छूती हैं। फिर वह अर्जुन के बालों में हाथ फेरकर कहती है, “भगवान मेरे बेटे को सदा खुश रखे।” उसकी आवाज़ में गहरा स्नेह, उसकी आँखों में ममता भरी गर्मी। अर्जुन का सिर झुक जाता है, उसके सीने में एक तूफान। उसकी कामना और द्वंद्व उसे छिन्न-भिन्न कर देते हैं। उसकी आँख से एक आँसू की बूँद लुढ़ककर प्रसाद के पत्ते पर मिल जाती है। वह कुछ नहीं बोलता, बस सिर झुकाए रहता है, उसके मन में रमा के शरीर की तस्वीर और उसका ममता भरा स्नेह एक-दूसरे से जूझ रहे हैं।
रमा घर के अंदर चली जाती है, उसकी साड़ी का पल्लू ज़मीन पर घिसटता है, उसकी पीठ की मुलायम रेखा संध्या की रोशनी में झिलमिल करती है। अर्जुन आँगन में बैठा रहता है, उसके हाथ में प्रसाद का पत्ता, उसकी आँखों में वही आँसू। उसके मन में रमा की गीली साड़ी, उसके शरीर की हर वक्रता, उसकी मीठी खुशबू, उसकी ममता भरी हँसी। वह खुद से कहता है, “ये क्या हो रहा है? मामी के बारे में ऐसा सोचना गलत है।” लेकिन उसका मन नहीं मानता, उसके शरीर में वह निषिद्ध प्यास और गहरी हो जाती है। रात में खाने बैठकर रमा कहती है, “अर्जुन, कल मेले में जाएगा? तेरा मामा हमें ले जायेंगे।” अर्जुन सिर हिलाता है, “ठीक है, मामी।” उसकी नज़रें रमा की ओर, उसके चेहरे पर हँसी, लेकिन उसके मन में एक निषिद्ध लहर उमड़ रही है।
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Nice and beautiful update....