श्रीमान | ऐसा कहना आपके विनम्र और कोमल स्वभाव को दर्शाता है |
वैसे भी मित्र, मेरी कविता से आपकी कविता की तुलना हो ही नहीं सकती | क्योंकि आपकी कविता शृंगार रस के अधिक करीब है, पर मेरी वो कविता केवल कामोत्तेजना को प्रज्ज्वलित करने के प्रयोजन से एक नटखटी अंदाज़ में लिखी गई है, जिसे पढ़ कर इस मंच पर मौजूद हमारे शरारती भाई-बहनों को मज़ा आ जाये |
हम सभी आपको भविष्य में और पढ़ना चाहेंगे, मै उत्सुक हूँ पढ़ने के लिए, कि आपकी कलम और क्या-क्या अपने भीतर दबाये बैठी है |
बस एक विनती और सुझाव है, इस बार हम सबने आपकी सहजता देखि, अगली बार हम आपका नटखट अंदाज़ भी देखना चाहेंगे | आप समझ रहे हैं ना, कि मै क्या कहना चाह रहा हूँ श्रीमान ?
आपसे विनती है कृपया मुझे फॉलो कर लें, और फॉलो करते समय ऊपर के 3 बॉक्सेस पर टिक ज़रूर कर लें, जिससे मेरा हर अपडेट आप तक उचित समय पर स्वयं ही पंहुच जाये | क्योंकि जैसे जैसे पाठकों की संख्या बढ़ेगी, सभी पाठकों को एक एक करके सूचित करना कठिन होता जायेगा |
आशा करता हूँ आपको मेरा काम आगे भी अच्छा लगेगा | पढ़ें और आनंद लें | धन्यवाद |
'माई ना… अब तू हो गइलू रानी'
भोरहीं के बेला, पसरील सन्नाटा,
अंगना में झाड़ू देत, मुनिया के माई के छटा।
पचास के पार, बाकिर देहवा कस,
साड़ी के भीतर लूके, लहके जवानी के रस।
छोरा बीस बरिस के, देख के चुपचाप रहल,
बाकिर नजरिया ओकरी कमर पे घुमात रहल।
झुकी त साड़ी सरकल, पिघलल दूधिया सेना,
लउकत रहे जइसे भगवान दे दिहले सीना।
“बेटा कह के ना बोलS,” ऊ धीरे से कहली,
“तोहर नजर से कब के जान गइनी, ना बेजाय कहली।”
लउकल ना अब लाज, ना उमिर के फांस,
दूनो देह मांगल बस एकहि साँस।
ओकर कमर पकड़ के, छोरा लगवलसे सीना,
ऊ मुस्काई- “बेटा अब ना, रउआ बन जाईं नसीब के मीना।”
कांपल ओकर देह, चूचियाँ में तनिक फड़फड़ाहट,
साड़ी के फाँक से झाँके गुलाबी लहराहट।
“रउवा चाहत बाड़S त उठाS हमार साया,
ए बूढ़ देह में अबहियों बा वासना के माया।”
लड़िका ना चूकल, चूम लेहल ओकर गाल,
कहलस- “आज ना माई, तू बनबू हमार माल।”
पलंग के कोना में ले गइलस चुपचाप,
चूड़ी खनकली, ओठ पर पसरल ताप।
साड़ी हटली, उफ्फ! दूधिया बदन उजियार,
जइसन पचास साल लुकवले रहले बहार।
लड़का चूमे लागल बड़-बड़ चूचियाँ,
ऊ सिसियाइल- “ए राजा! अब ना रूकीं इ लूचियाँ।”
बुरवा पर उँगरी चलवलस, ऊ करिहाई कँप-कँप,
“घुसा द, अब ना रोकS, चढ़ गइल बा हमार तन-बदन सब।”
धीरे से घुसवलस आपन जवानी के चाबुक,
ऊ तड़प के गइली- “हाय! इ लंडिया त बा एकदम रबड़!”
पेल-पेल के भरलस ओकरे पेट में तान,
जइसे हर अधूरी पियास के मिलल हो नया जान।
बुढ़िया चिचियाइल, “अब रोज करS ई खेल,
ए जवना में तू बाड़S देवता, हम हईं तोहार मेला।”
चूचियाँ चूसलस, बुरवा में घुसल रहल दम,
ऊ बोली- “ई पचास में मिलल जवानी के धरम।”
वैसे तो मेरी मातृभाषा भोजपुरी नहीं है, फिर भी उसमे लिखने का प्रयास किया है vyabhichari भाई से प्रेरणा लेकर!