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Incest Mukkader ka sikander

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Hamantstar666

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Haa to isme kon sa Naya or alag Ho jayega... Pehle bhi maa usko maarna chahti thi agr End me mar jayega toh Kya frk padega.. Ek bacha jisne bachpan se jawaani tak dukh takleef ghutan nfrt se bhari zindagi jeete hue arha hai.. Uske sath hi mar jayegi.. Negativity ki jeet Ho jana hai.. Buraai ki jeet hogi... Ap kahin aisa to nhi keh film se inspired hai ye story jisme sikandar Mar jata hai...
क्या स्टोरी पसंद नहीं आ रही दोस्त.... या फिर तुम इमोशनल हो गए हो 🤣
 

Hamantstar666

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Bhai revenge wala scene kitne update baad se start karoge.
Shahbaz ka aisa haal karbana ki maut zindgi se payari lage uska haal dekhne walo ke ruh tak kaap jaye.
तुम्हे इस कहानी मे कौन सबसे ज्यादा पसंद आया... सिकंदर के अलावा
 
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तुम्हे इस कहानी मे कौन सबसे ज्यादा पसंद आया... सिकंदर के अलावा
Uska dost or sikander ki maami.
Mammi ka taunt thoda aur diply karo tab mazza ayega bro.
 

buck

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कमरा धूप से झुलसा हुआ था... दीवारों पर पुरानी सीलन के निशान थे, और छत से घूमता पंखा पुराने वक्त की तरह चर्र-चर्र की आवाज़ कर रहा था।

सिकंदर कमरे में दाख़िल हुआ। थकान उसके चेहरे पर नहीं, उसकी रूह में थी। वो चुपचाप आकर बिस्तर पर लेट गया। कमरा शांत था... सिवाय उस रेडियो के, जो कोने में पड़ा था और धुंधली आवाज़ में एक पुराना गीत बजा रहा था...

"सहारे छिनने वालों, ज़रा सोचो क्या किया तुमने...
किसी का वजूद मिटाया है, किसी की ज़िन्दगी छीनी..."

गाने की ये पंक्तियाँ कमरे में गूंज रही थीं, और सिकंदर की आँखें छत के पंखे पर टिकी थीं... लेकिन उसके ज़हन में कोई और चेहरा था — अलीना का चेहरा। उसकी माँ।

"कितना प्यार करता था तुझसे... माँ कहते ही दिल सुकून पा लेता था, और तूने उस सुकून को भी बेच दिया..." — वो मन ही मन बुदबुदाया।

गाने की अगली लाइनें जैसे उसकी तकलीफ का बयान बन गई थीं...

"जो प्यार माँगता था, उसे जख़्मी कर डाला..."

उसकी आँखों में अलीना की झलकें दौड़ने लगीं —
वो सुबह जब उसकी आँखे अलीना के बांहों मे खुलती थी
फिर
वो रातें, जब भूखा सो गया क्योंकि माँ ने दरवाज़ा नहीं खोला...
वो जन्मदिन, जब अलीना के पास वक्त नहीं था उसकी जन्मदिन को मानाने का.. क्यों की सहबाज का कॉलेज
का पहला दिन था और अलीना को उस दिन को यादगार बनाना था... इसी सब मे वो सिकंदर के जन्मदिन को भूल गयी थी...
और फिर वो दिन, जब उसने किसी और को ‘बेटा’ कहकर पुकारा... सहबाज।

उसके गले में कुछ अटक गया था, जैसे कोई भारी पत्थर हो जो बोलने नहीं दे रहा।

"तूने मेरी जगह किसी और को दे दी,

"कभी दिल से पूछा होता, मैं क्या चाहता हूँ...
बस एक बार देख लेती, मेरी आँखों में कितनी शिकायतें थी तुझसे..."

गाना अब आखिरी पंक्तियाँ कह रहा था...

"कभी चाहा नहीं जाना, कभी जाना तो ठुकराया..."

सिकंदर ने करवट ली, और अपने हाथ से मुँह ढक लिया।
आँखों से आंसू नहीं बह रहे थे, पर उसकी रूह बिलकुल भीगी हुई थी।
पंखा घूम रहा था... जैसे वक्त घूम रहा हो, मगर कुछ भी नहीं बदलता।

और रेडियो... अब भी गुनगुना रहा था...
‘किसी की ज़िन्दगी छीनी... किसी का दर्द छिना है


---

कमरे में अब भी वही सन्नाटा पसरा था… रेडियो की आवाज़ कुछ देर पहले ही बंद हुई थी, लेकिन कमरे की हवा में अब भी वही उदासी तैर रही थी।
सिकंदर बिस्तर पर वैसे ही पड़ा था — जैसे कोई टूटी हुई चीज़ जिसे अब उठाने वाला कोई ना हो।

तभी दरवाज़ा हल्के से खुला।

ज़ोया अंदर आई।( ये वही लड़की है जिसने सिकंदर को भूत समझ लिया था... जिसने फर्स्ट अपडेट पढ़ी होगी उसे पाता होगा)

वो थम गई। उसकी नज़र सबसे पहले सिकंदर पर पड़ी।

वो चुप था… बिस्तर पर पड़ा, छत को एकटक घूरता हुआ।

ज़ोया के क़दम खुद-ब-खुद धीमे हो गए। वो कुछ कहना चाहती थी, पर जैसे आवाज़ उसके होंठों से बाहर ही न आ सकी।

(ज़ोया के दिल की आवाज़)
क्या हुवा है इसे....लग रहा है, ये तो अंदर से मर चूका है
... ऐसा क्यों मासूस कर रही हूँ मे इसे देखकर....

वो कुछ और पास आई।

"कितनी गहरी खामोशी है इसमें… पर इन आंखों में… कितना तूफान है… ऐसा लगता है जैसे इसके अंदर कोई ज़ोर-ज़ोर से चीख रहा हो, पर वो चीख बाहर तक नहीं पहुंच पा रही..."


किसने तोड़ा इसको? किसने छीन लिया इससे सबकुछ?" क्या ये प्यार मे धोका खाया हुवा कोई आशिक है

ज़ोया का कलेजा भीगने लगा। पर उसने अपने आंसू रोक लिए।

इसके अंदर कुछ और है… कुछ अधूरा, कुछ टूटा हुआ… जो दुनिया को दिखाना नहीं चाहता...

वही सिकंदर इस से अनजान था की एक प्यारी सी लड़की उसके इतने पास आकर खड़ी है और उसके दिल मे झाकने की कोशिस कर रही है..

लेकिन कुछ ही वक्त मे सिकंदर ने ये समझ लिया उसके कमरे मे कोई और भी है.... वो मुर कर देखता है... दोनों की नज़रे मीलते है...

सिकंदर - ओह्ह्ह तुम हो.... तुम्हे कुछ चाहिए...

ज़ोया उसके अचानक खुद के तरफ देखने से आवाक रह गई..
उसने खुद को थोड़ा संभाला…और नज़रे चुराते हुवे धीरे-धीरे बहुत नर्म आवाज़ में बोली:

नीचे खाना लगा है...अम्मी ने भेजा है तुम्हें बुलाने के लिए..."

सिकंदर ने उसकी ओर देखा, पर कुछ कहा नहीं… बस वैसे ही लेटा रहा।

ज़ोया ने एक आख़िरी नज़र डाली उसकी तरफ… और मन ही मन बुदबुदाई —

खड़ूस कही का.... इसी ऐटिटूड के कारण इसकी मासूका ने इसे छोरा होगा... बतमीज़... बगैरत... और कुछ नहीं तो कम से कम नाम ही पूछ लेता....

फिर वो चुपचाप पलटी… और बिना कुछ कहे, कमरे से बाहर जाने लगी....

सिकंदर - रुको.... तुम्हारा नाम क्या है...

ज़ोया के मानो पर निकल आये हो... वो बिना पलटती हुवी बोली - ज़ोया

सिकंदर - बहुत प्यारा नाम है... मुझे सिकंदर कहते है...

ज़ोया - जल्दी चलो खाना ठंडा हो जायेगा







---

सिकंदर जब ज़ोया के घर पहुँचा, दरवाज़ा पहले से खुला हुआ था।
अंदर से हलकी सी बातों की आवाज़ें आ रही थीं — एक घरेलू गुनगुनाहट, जिसमें थोड़ी गर्मी थी, थोड़ी तल्ख़ी…

"तुम्हें ज़रा भी अकल नहीं है अली… दिन भर बाइक लेकर गली गली घूमता रहता है!"
ये आवाज़ थी ज़ोया के अब्बू की — हाशिम साहब।

"बस करिए आप भी! मेरा बेटा कोई गलत काम नहीं करता! सारे मोहल्ले में सबसे अच्छा बच्चा है अली!"
ये थी रुखसार बेगम — ज़ोया की अम्मी… जिनकी आवाज़ में बेटे के लिए एक माँ की ढाल थी।

सिकंदर ने जैसे ही घर में कदम रखा, ये मंजर उसके सामने था।
रुखसार अपने बेटे अली के सामने सीना ताने खड़ी थी… उसकी आँखों में सिर्फ एक बात थी — मेरा बेटा ग़लत नहीं हो सकता।

सिकंदर कुछ पल के लिए वहीं दरवाज़े पर खड़ा रह गया।

उसके अंदर कुछ हिला।

"क्या उसने ने कभी इस तरह मेरी तरफ देखा था…?"
"क्या कभी वो किसी के सामने मेरे लिए खड़ी हुई थी…?"
"नहीं… वो तो हमेशा किसी और की माँ बनती रही… मेरे लिए कभी नहीं…"

ज़ोया ने ये सब देखा… वो सब समझ रही थी।
वो सिकंदर की आँखों की नमी भी देख रही थी… और उसकी निगाहों में उफनते सैलाब को भी।



रुखसार अब सिकंदर की तरफ़ मुड़ी।
"अरे आओ बेटा, अंदर आओ… खाना तैयार है, बहुत देर से तुम्हारा इंतज़ार हो रहा है…"

हाशिम साहब ने मुस्कुरा कर कहा,
"हमने सोचा आज तुम्हारा पहला दिन है इस मोहल्ले में… और ऊपर से ये हमरी बेटी जोया के वजह से तुम्हे कल की सुबह ख़राब हो गई.... ( वही भूत वाला कांड).. बेचारी नादान है अभी... माफ़ कर दो इसे.....

उसके अब्बू का जोया को यु बच्ची कहना वो भी सिकंदर के सामने जोया को बिलकुल पसन्द नहीं आया..

जोया - अब्बू मे अब बच्ची नहीं हूँ... 23 साल उम्र है मेरी... ऐसा लग रहा था वो ये बात अपने अब्बू से नहीं सिकंदर से बोल रहे हो....








सिकंदर ने हल्की सी मुस्कान दी… बिलकुल फीकी, पर सच्ची।

अली अब भी चुप था, पर उसकी अम्मी ने उसकी थाली पहले लगा दी थी…
और सिकंदर देख रहा था — माँ का वो स्पर्श… जो थाली में रोटियाँ रखते हुए बेटे के माथे तक पहुंच जाता है।

"खाओ बेटा, घर जैसा ही समझो… और ज़ोया ने बताया तुम फौज मे हो सिकंदर मुस्कराते हुवे बोला - नहीं आंटी मे फौज मे था.... पर वहां से मुझे निकाल दिया गया.....







रुखसार की आवाज़ में अपनापन था, और सिकंदर के लिए… एक अनजानी सी बेचैनी।

सिकंदर ने खुद को रोकते हुए कहा —
"बहुत शुक्रिया… आप सब का…मुझे इंसान समझने के लिए
सब उसकी बातों पर हस परे...

अली - सिकंदर भाई इस ज़ोया की बच्ची ने तो आपको पूरा भूत डिक्लेअर कर दिया था वो तो सुकर है मेरजो मे समझ गया के आप इंसान है...





---



(जिज्ञासु आँखों से):
"भाईजान, सुना है आप Markos में थे? वो तो बहुत ही खतरनाक फोर्स है ना?"

सिकंदर (आँखें झुकाए, गहरे स्वर में):
"अली वहाँ जिंदा रहने का मतलब है रोज़ कुछ ना कुछ मार देना — कभी अपनी नींद, कभी अपना ज़मीर।"

रुक्सार (हौले से):
"तुम बहुत कुछ झेल कर आए हो बेटा... अल्23लाह तुम्हें सुकून दे।"

सिकंदर (हल्की सी कड़वी हँसी):
"सुकून तो वहां कब्र में मिले गा आंटी... हम जैसे लोगों को बस साँसें मिलती हैं, ज़िंदगी नहीं।"

ज़ोया चुपचाप बैठी थी। वो कुछ बोल नहीं रही थी, लेकिन उसके अंदर की हलचल उसकी आँखों से साफ़ झलक रही थी। सायद इस लड़की को सिकंदर से प्यार हो गया था.... पहेली नज़र वाला प्यार...

ज़ोया (मन ही मन):
"क्या हो रहा है मुझे...? क्यों . , उसी की आँखों में डूब जाने को दिल कर रहा है..."

उसने धीरे से नजरें झुका लीं, पर उसका दिल उसकी आँखों से ज़्यादा तेज़ बोल रहा था।

ज़ोया (मन ही मन):
"पागल हो गई है ज़ोया...? किसी अजनबी के लिए ऐसा महसूस करना... ये मोहब्बत नहीं बस आकर्षण ... है ना...? या फिर... अल्23लाह... कहीं मुझे... नहीं!"

ज़ोया (खुद से लड़ती हुई, मन में):
"ख़ुदा का वास्ता ज़ोया, होश में आ! तुझे क्या लगने लगा है... वो तुझसे मोहब्बत करेगा? उसके सीने में मोहब्बत बची ही कहाँ है...? उसकी तो हर बात में दर्द है, और तू उस दर्द से मोहब्बत करने लगी है...?"



हासिम साहब(नज़रों में गहराई लेकर):
"तुम्हारी ख़ामोशी बहुत वजनदार है बेटे तुम जरूर कुछ उससे भी बड़ा करोगे बड़ा करो

सिकंदर हल्का सा मुस्कराया, पर वो मुस्कराहट भी जैसे किसी पुराने ज़ख़्म पर मरहम रखने जैसा था।



---







---




---

सिकंदर चुपचाप ज़मीन पर बिछी दरी पर बैठ गया।
उसके सामने थाली सजाई गई थी — गरम गरम रोटियाँ, सब्ज़ी, चावल और कटोरी में दाल।
रुखसार ने खुद उसके सामने थाली रखी थी।
"खा लो बेटा… हाथ गरम हैं अभी।"



रुखसार मुस्कुरा दी —
"अब से जब तक यहां हो… बेटा ही रहोगे।"


ज़ोया चुपचाप रसोई के कोने में खड़ी होकर उसे देख रही थी।
सारे घरवाले अपने-अपने बातों में लगे थे… लेकिन ज़ोया की नज़र सिकंदर से हटी ही नहीं।



रुखसार ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा,
"और चाहिए कुछ…?"

सिकंदर ने बस एक मुस्कान दी…
"नहीं… बहुत है…"


"


---



सिकंदर अब भी थाली में रखी रोटी को देख रहा है…
पर उसका मन वहां नहीं है —
उसका दिल कहीं और भटक गया है।

Flsahback

सीढ़ी पर सिकंदर दुबका बैठा है,
उसका मुंह सूखा हुआ है, होंठ फटे हुए…
आँखों के नीचे गड्ढे…
पर नज़रें ड्राइंग रूम की उस बड़ी टेबल पर टिकी हैं, जहाँ पूरा खानदान बैठकर खाना खा रहा है।

अलीना — रेशम की साड़ी, गहनों से लदी, चेहरे पर रौब...
सामने उसके पति हसन मिर्ज़ा, सहबाज, अलीना के अब्बू-अम्मी, भाई, भाभियाँ —
सब हँसते हुए खाना खा रहे थे।

सिर्फ एक चेहरा था जो रो नहीं रहा था… लेकिन हर कोई देख सकता था — वो बच्चा अंदर ही अंदर तड़प रहा था।
सिकंदर

उसने एक निवाला मुँह में नहीं गया सुबह से…
पेट में मरोड़ उठ रही थी…
पर दिल को सुकून इस बात का था कि अम्मी पास ही तो बैठी हैं… शायद अभी बुला लें…

अलीना की नज़र एक पल को सिकंदर पर पड़ी…

सिकंदर की आँखें चमक उठीं —
एक मासूम सी उम्मीद लिए…
जैसे उस नजर में छुपा हो रब…

पर…

अलीना ने ठंडी आवाज़ में कहा —
"तू यहीं बैठे रह, आज तुझे खाना नहीं मिलेगा।"

सिकंदर हक्का-बक्का।

"तू बहुत बिगड़ गया है सिकंदर… मेरी अंगूठी चुराई तूने।"

"चोरी भी सीख गया तू… यही सिखाया था मैंने तुझे?"

सिकंदर का चेहरा जैसे पत्थर हो गया।
वो कुछ नहीं बोला…

सहबाज जोर जोर से हसने लगा.... हसन के भी चेहरे पर मुस्कान थी... पर अलीना उसे तो लग रहा था वो ऐसा कर के सिकंदर को सुधार रही है.... उसे ये नहीं दिख रहा था की.. उसके बेटे पर सब हस रहें है.... वो खुद से ही अपने बच्चे को तोर रही है... उसके आत्माविस्वास को तोर रही है... वो उसे बागी बना रही है...

(वापस वर्तमान में)

सिकंदर की आँख से एक आँसू थाली में गिरा।
रुखसार ने देखा… लेकिन कुछ नहीं कहा।
उसने अपने आँचल से उसकी आँखों को पोंछा।
सिर्फ इतना बोली — "बोलो बेटा, नमक ज्यादा तो नहीं?"

सिकंदर मुस्कराया — वो मुस्कान जो सिर्फ दर्द के साथ आती है।
"नहीं आंटी बहुत सही है सब…

दूसरी तरफ ज़ोया, जो ये सब देख रही थी,


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धूप तेज थी, और पुरानी दिल्ली की गलियों में जैसे हमेशा की तरह भीड़-भाड़ थी। तभी एक सफेद रंग की चमचमाती कार, जिसे देखकर ही अंदाजा हो रहा था कि किसी अमीर घर की है, तेज़ी से मुड़ी… और धड़ाक!

"अबे ओ कमीनो!" – राहेल की बाइक ज़मीन पर गिर चुकी थी, और वो खुद अपने दोनों हाथों से सड़क रगड़ते हुए गालियाँ देता उठ रहा था – "दिखाई नहीं देता? क्या आंखों में मूंगफली डाल रखे हो बे

कार से पहले उतरी एक औरत – करीब 45 की उम्र, भारी साड़ी, भारी मेकअप और उससे भी भारी एटीट्यूड। उसके पीछे-पीछे उतरीं उसकी दो जवान बेटियां, जिनके कपड़ों और चेहरे के एक्सप्रेशन से ज़ाहिर था कि ड्रामा इनके डीएनए में है।

"Excuse me?" बड़ी बेटी ने चश्मा उतारते हुए कहा, "तमीज़ नहीं है बात करने की? इतनी ज़ोर से बोलोगे तो रैड कारपेट बिछा के माफ़ी मांग लेंगे क्या?"

राहेल ने खून खौलता हुआ उठाया — "अबे गाड़ी चलाते हो या बुलेट ट्रैन...

"हाय !" औरत ने मुंह पर हाथ रखा, "देखा आजकल के लड़कों को? हमसे टकराए भी, और ऊपर से बदतमीज़ी भी कर रहे हैं!"ये थी नफीसा बेगम पुरानी दिल्ली की रेड लाइट एरिया की मालकिन... पूरी की पूरी रेड लाइट एरिया की ज़मीन इसी की है..पहले ये भी वास्या थी पर अपने बाटियों के होने के बाद इसने धंधा छोड़ दिया पर अब दुसरी औरते धंधा करती है और ये उनकी मालकिन है

छोटी बेटी (छोटे बाल, कानों में बडी सी बाली, ऐटिटूड ऐसा जैसे पूरी सड़क इसकी माँ की हो " नाम है सुहाना) बोली — "मम्मी, clearly इनको attention की सीकर है... बड़ा आया छपरी

राहेल (तेज गुस्से से) — "अबे ओ इंस्टाग्राम की रीलों की औलादों! गलती तुम लोगों की है और भाषण मुझे सुना रही हो? गाड़ी चलानी नहीं आती तो Auto लो ना, Paris Fashion Week में घूमने थोड़़ी आयी हो

बरी बेटी (नाक सिकोड़कर नाम है ईरा) — "मम्मी, police बुलाते हैं। ये लड़का तो literally हमपे चिल्ला रहा है। बहुत toxic vibes हैं!"

"Toxic tere baap ka naam hai kya?" राहेल गुस्से में चीखा — "अबे माफ़ी माँग लो और निकलो यहां से वरना मैं ही बुला लूंगा पुलिस और तुम लोगों के नंबर प्लेट की वीडियो वायरल कर दूंगा, फिर देखना कौन toxic लगता है!"

औरत (नाटकीय तरीके से दोनों बेटियों को पीछे करती हुई) — "चलो बेटा, हम इनके जैसे सड़कछापों से बहस नहीं करते। और सुन लड़के, तुम्हें जो करना है कर ले


राहिल (जब वो चले गये तो पीछे से चिलाते हुवे) सालो दिख मत जाना दुबारा....






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वो सफ़ेद चमचमाती कार पुरानी दिल्ली के एक तंग मोड़ से गुज़री और आकर एक सुनसान गली के कोने पर रुक गई। बाहर से देखने पर ये गली एकदम मामूली सी लगती थी — पर यहां हर कोने में कोई राज छुपा था।

कार से पहले उतरी वही औरत — चेहरे पर अब कोई ड्रामा नहीं था, बल्कि एक सख्त कठोरता थी। उसके पीछे उतरीं उसकी दोनों बेटियाँ, अब उनके चेहरे से नकली मासूमियत और चुलबुलापन गायब था। उनकी आँखों में तेज़ी थी, चाल में एक अलग ही आत्मविश्वास।

"चलो अंदर," औरत ने गाड़ी की चाबी पर्स में डालते हुए कहा, "आज फिर देर हो गई है।

तीनों एक पुराने, बदरंग से बिल्डिंग में दाख़िल हुईं। बाहर बोर्ड पर कुछ नहीं लिखा था, लेकिन जगह-जगह लगे कपड़े, खिड़की से झांकती औरतों की आँखें, और बिल्डिंग से आती सुगंध सब कुछ कह रही थी। ये कोई आम जगह नहीं थी — ये था "वेश्यालय"।

भीतर दाख़िल होते ही, हॉल में लगभग 15-20 औरतें बैठी थीं। कोई पान चबा रही थी, कोई आईने में बाल सवार रही थी, कोई मोबाइल पर किसी ग्राहक से रेट तय कर रही थी। वो औरत — जो कार चला रही थी — यहां की मलक़ा थी। सब उसे "मालकिन" कहती थीं।



बड़ी बेटी ने झल्ला कर कहा — "अम्मी, वो कमीना हमें गालियाँ दे रहा था! हमने उसकी बाइक से हल्की सी टक्कर मारी थी बस... पर वो तो जैसे हमारी औकात बताने पर तुला था!"

"औक़ात?" नासिफा बगम ने ठंडी हँसी हँसी, "औक़ात हम बना भी सकते हैं, और मिटा भी सकते हैं... याद रखना, हमारे पास कौन आता है और किसके साथ क्या होता है — ये हम तय करते हैं। ये लड़के-लड़की हमें सिखाएँगे?"

छोटी बेटी — "अम्मी, अगर वो लड़का फिर सामने आया तो इस बार मैं ही उसका तमाशा बना दूंगी… हम सिर्फ जिस्म नहीं बेचते, दिमाग भी चलाना आता है!"

मलिका ने उनके सिर पर हल्की चपत लगाई — **"तुम दोनों मेरे नाम की इज़्ज़त हो, समझीं? तुम्हें किसी राहेल, साहिल या समीर से डरने की ज़रूरत नहीं।"

( नासिफा बगम ही मलिका है...)

और फिर वो तीनों भीतर चली गईं — उस गली के उस हिस्से में, जहां रात की रौशनी और जिस्मों की सौदागरी दोनों एक साथ दमकती हैं।


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बिल्डिंग के ऊपरी हिस्से में एक छोटा-सा कमरा था। कमरे में हल्की-हल्की रोशनी थी और एक कोने में बिछी गंदी-सी चादर पर एक औरत दर्द से कराह रही थी। उसका चेहरा पसीने से भीगा हुआ था, बाल बिखरे हुए थे। गोद में एक नवजात बच्चा था जो अभी-अभी इस दुनिया में आया था… और उसकी किलकारी एक कोने में टंगी दीवारों को हिला रही थी।

वो औरत — शबनम — काँपते हुए खड़ी हुई और जैसे ही नफ़ीसा बेगम कमरे में दाखिल हुईं, वो दौड़ कर उनके पैरों में गिर पड़ी।

शबन (गिड़गिड़ाती हुई, आँखों से आंसू बहाते हुए):
"बेगम जी… खुदा का वास्ता है, मेरे लाल को मत छीनिए मुझसे… मेरा बेटा है ये… मेरी जान है… इसे अनाथ आश्रम मत भेजिए… मैं इसे काम पर नहीं लगाऊंगी, मैं जो कहोगी करूँगी… लेकिन इसे मुझसे मत छीनो…"

नफ़ीसा बेगम (बिलकुल बर्फ की तरह ठंडी आँखों से उसे घूरते हुए):
"क्यों...? क्या तुझे लगता है तेरा ये बेटा कोई राजा का वारिस है...? औरत, जब मैं चार दिन के अपने बेटे को इस धंधे की खातिर अनाथालय में छोड़ आई थी... तब ना किसी खुदा ने मुझे रोका, ना किसी माई के लाल ने।"

शबन उनके पांव पकड़ कर ज़ोर से रोने लगती है।
"बेगम जी... आप माँ हो... खुद माँ हो कर भी... ऐसा कैसे कर सकती हो...?"

नफ़ीसा बेगम (चीखती है, पैर झटकती है):
"हाँ, माँ हूँ! और माँ ही हूँ, तभी जानती हूँ कि इस धंधे में मर्द सिर्फ लेने आते हैं, देने नहीं। मर्दों का काम सिर्फ हमारे जिस्म को नोचना है, पर इस धंधे में पैदा हुए मर्द किसी काम के नहीं होते। तेरा ये बच्चा मेरे धंधे की किताब में बस एक बोझ है!"

वो झुकती है और शबन के गोद से बच्चा छीन लेती है।
नफ़ीसा बेगम (गुस्से से):
"ये बेटा तुझे कभी नहीं मिलेगा। इसे वहीं भेजा जाएगा जहां और भी धंधे की औलादें पड़ी हैं – अनाथाश्रम। और अगर तुझे ज्यादा दर्द हो रहा है तो अपने जिस्म से ही पूछ, जिसने बिना शराफत के इसे पैदा किया है!"

शबन फूट-फूट कर रोती है। कमरे के बाहर से कुछ और औरतें ये मंज़र चुपचाप देख रही थीं, पर किसी की हिम्मत नहीं थी बोलने की।

एक बुढ़ी औरत (धीरे से बुदबुदाती है):
"नफ़ीसा बेगम... औरत कम... जल्लाद ज़्यादा है... दिल तो इसका कब का मर चुका है।"

कमरे का दरवाज़ा तेज़ आवाज़ के साथ बंद होता है। और शबन की चीखें उस वीरान कमरे की दीवारों में गूँजती रहती हैं…




---



राहिल का घर... रात का वक़्त था। कमरे की लाइटें बुझी हुई थीं बस एक कोने में रखा लैम्प जल रहा था। उसके पीली रौशनी में सिकंदर की आंखें चमक रही थीं — मगर वो चमक किसी उम्मीद की नहीं थी… वो थी एक ऐसे अतीत की जो उसे हर पल तोड़ता जा रहा था।

सिकंदर के हाथ में एक पुरानी सी डीवीडी थी — धूल जमी हुई, किनारे मुड़े हुए। उस पर जले हुए मार्कर से लिखा था:

"Sikander Birth Record."

राहिल (हैरानी से):
"भाई... ये क्या है...? जन्म की रिकॉर्डिंग...?"

सिकंदर ने बिना कुछ कहे डीवीडी को प्लेयर में डाला। टीवी पर पुरानी वीडियो चलने लगी — एक डिलीवरी रूम का दृश्य, डॉक्टर्स, नर्सें, और दर्द में तड़पती हुई एक औरत…

आवाज़ आई — अलीना की चीखों में लिपटी नफ़रत:

"निकालो इसे मेरे शरीर से बाहर...!! निकालो!!
मर क्यों नहीं गया ये…?
तू मर क्यों नहीं गया सिकंदर...?
अल्23लाह! इस बच्चे को उठा लो... सिकंदर को मौत दे दे..!!
इससे अच्छा तो मेरी कोख सूनी रह जाती...!!"

टीवी की स्क्रीन पर नर्सें बच्चे को संभालती हैं, पर अलीना का चेहरा... नफ़रत से भरा हुआ, जैसे उसने कोई शैतान देख लिया हो।

राहिल का मुँह खुला का खुला रह जाता है… उसकी आंखें हैरानी और दर्द से भर जाती हैं।

राहिल (धीरे से, टूटी आवाज़ में):
"ये... ये तेरी माँ थी...? ये औरत...?


सिकंदर खामोश था। उसकी आंखें पथरा चुकी थीं। होंठ सूखे हुए थे। उसने धीरे से अपनी आँखें बंद कीं और अपने माथे को पीछे दीवार से टिका लिया।

सिकंदर (धीमी मगर कांपती आवाज़ में):
उस बदचलन औरत ने मुझसे कभी प्यार ही नहीं किया वो बस मुझसे प्यार करने का दिखावा करती रही... और जब उसे मौका मिला तो उनसने अपने यार और उसके बेटे के सामने अपनी टांगे खोल दी.... रंडी है वो...





उसके लिए मैं बस एक गलती था… एक सज़ा…"

राहिल (आँखें भरकर):
"साला... मेरी माँ भी मुझे नहीं चाहती थी... लेकिन उसने मुझे मारने की बद्दुआ तो नहीं दी…
कम से कम उसने मुझे किसी दरगाह के बाहर छोड़ दिया... ताकि कोई पाल ले।
लेकिन... ये...? ये औरत... ये तो माँ के नाम पर धब्बा है।"

सिकंदर की आंखों से आँसू नहीं निकले... शायद अब निकलते भी नहीं थे। वो रो चुका था — हज़ारों बार — — हर उस दिन, जब उसे भूख लगी, जब वो बीमार पड़ा,

सिकंदर (आहिस्ता से):
"जिस दिन मैंने पहली बार ये वीडियो देखा था ना…
मैं रात भर बस एक ही सवाल करता रहा — ‘मैं क्यों जिंदा हूँ...?’
अगर अल्23लाह को मुझसे इतना ही नफ़रत थी… तो मुझे क्यों भेजा…?"

राहिल (उसका कंधा पकड़ता है):
"भाई... अब बस कर... तेरा वक़्त अब आया है।
अब वो दिन आएंगे जब दुनिया तुझसे पूछेगी —
'तू कौन है सिकंदर?'
और तू मुस्कुराकर कहेगा —
'वो जो मरना चाहता था,

टीवी की स्क्रीन अब ब्लैंक हो गई थी... मगर उस कमरे में सन्नाटा चीख रहा था।
एक बेटे का टूटा बचपन... एक माँ की झूठी ममता... और दो दोस्तों की बीच की वो खामोशी,
जो शब्दों से कहीं ज़्यादा गहरी थी।


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Behad hi shandar uodate
 

abida jahan

Member
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B
कमरा धूप से झुलसा हुआ था... दीवारों पर पुरानी सीलन के निशान थे, और छत से घूमता पंखा पुराने वक्त की तरह चर्र-चर्र की आवाज़ कर रहा था।

सिकंदर कमरे में दाख़िल हुआ। थकान उसके चेहरे पर नहीं, उसकी रूह में थी। वो चुपचाप आकर बिस्तर पर लेट गया। कमरा शांत था... सिवाय उस रेडियो के, जो कोने में पड़ा था और धुंधली आवाज़ में एक पुराना गीत बजा रहा था...

"सहारे छिनने वालों, ज़रा सोचो क्या किया तुमने...
किसी का वजूद मिटाया है, किसी की ज़िन्दगी छीनी..."

गाने की ये पंक्तियाँ कमरे में गूंज रही थीं, और सिकंदर की आँखें छत के पंखे पर टिकी थीं... लेकिन उसके ज़हन में कोई और चेहरा था — अलीना का चेहरा। उसकी माँ।

"कितना प्यार करता था तुझसे... माँ कहते ही दिल सुकून पा लेता था, और तूने उस सुकून को भी बेच दिया..." — वो मन ही मन बुदबुदाया।

गाने की अगली लाइनें जैसे उसकी तकलीफ का बयान बन गई थीं...

"जो प्यार माँगता था, उसे जख़्मी कर डाला..."

उसकी आँखों में अलीना की झलकें दौड़ने लगीं —
वो सुबह जब उसकी आँखे अलीना के बांहों मे खुलती थी
फिर
वो रातें, जब भूखा सो गया क्योंकि माँ ने दरवाज़ा नहीं खोला...
वो जन्मदिन, जब अलीना के पास वक्त नहीं था उसकी जन्मदिन को मानाने का.. क्यों की सहबाज का कॉलेज
का पहला दिन था और अलीना को उस दिन को यादगार बनाना था... इसी सब मे वो सिकंदर के जन्मदिन को भूल गयी थी...
और फिर वो दिन, जब उसने किसी और को ‘बेटा’ कहकर पुकारा... सहबाज।

उसके गले में कुछ अटक गया था, जैसे कोई भारी पत्थर हो जो बोलने नहीं दे रहा।

"तूने मेरी जगह किसी और को दे दी,

"कभी दिल से पूछा होता, मैं क्या चाहता हूँ...
बस एक बार देख लेती, मेरी आँखों में कितनी शिकायतें थी तुझसे..."

गाना अब आखिरी पंक्तियाँ कह रहा था...

"कभी चाहा नहीं जाना, कभी जाना तो ठुकराया..."

सिकंदर ने करवट ली, और अपने हाथ से मुँह ढक लिया।
आँखों से आंसू नहीं बह रहे थे, पर उसकी रूह बिलकुल भीगी हुई थी।
पंखा घूम रहा था... जैसे वक्त घूम रहा हो, मगर कुछ भी नहीं बदलता।

और रेडियो... अब भी गुनगुना रहा था...
‘किसी की ज़िन्दगी छीनी... किसी का दर्द छिना है


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कमरे में अब भी वही सन्नाटा पसरा था… रेडियो की आवाज़ कुछ देर पहले ही बंद हुई थी, लेकिन कमरे की हवा में अब भी वही उदासी तैर रही थी।
सिकंदर बिस्तर पर वैसे ही पड़ा था — जैसे कोई टूटी हुई चीज़ जिसे अब उठाने वाला कोई ना हो।

तभी दरवाज़ा हल्के से खुला।

ज़ोया अंदर आई।( ये वही लड़की है जिसने सिकंदर को भूत समझ लिया था... जिसने फर्स्ट अपडेट पढ़ी होगी उसे पाता होगा)

वो थम गई। उसकी नज़र सबसे पहले सिकंदर पर पड़ी।

वो चुप था… बिस्तर पर पड़ा, छत को एकटक घूरता हुआ।

ज़ोया के क़दम खुद-ब-खुद धीमे हो गए। वो कुछ कहना चाहती थी, पर जैसे आवाज़ उसके होंठों से बाहर ही न आ सकी।

(ज़ोया के दिल की आवाज़)
क्या हुवा है इसे....लग रहा है, ये तो अंदर से मर चूका है
... ऐसा क्यों मासूस कर रही हूँ मे इसे देखकर....

वो कुछ और पास आई।

"कितनी गहरी खामोशी है इसमें… पर इन आंखों में… कितना तूफान है… ऐसा लगता है जैसे इसके अंदर कोई ज़ोर-ज़ोर से चीख रहा हो, पर वो चीख बाहर तक नहीं पहुंच पा रही..."


किसने तोड़ा इसको? किसने छीन लिया इससे सबकुछ?" क्या ये प्यार मे धोका खाया हुवा कोई आशिक है

ज़ोया का कलेजा भीगने लगा। पर उसने अपने आंसू रोक लिए।

इसके अंदर कुछ और है… कुछ अधूरा, कुछ टूटा हुआ… जो दुनिया को दिखाना नहीं चाहता...

वही सिकंदर इस से अनजान था की एक प्यारी सी लड़की उसके इतने पास आकर खड़ी है और उसके दिल मे झाकने की कोशिस कर रही है..

लेकिन कुछ ही वक्त मे सिकंदर ने ये समझ लिया उसके कमरे मे कोई और भी है.... वो मुर कर देखता है... दोनों की नज़रे मीलते है...

सिकंदर - ओह्ह्ह तुम हो.... तुम्हे कुछ चाहिए...

ज़ोया उसके अचानक खुद के तरफ देखने से आवाक रह गई..
उसने खुद को थोड़ा संभाला…और नज़रे चुराते हुवे धीरे-धीरे बहुत नर्म आवाज़ में बोली:

नीचे खाना लगा है...अम्मी ने भेजा है तुम्हें बुलाने के लिए..."

सिकंदर ने उसकी ओर देखा, पर कुछ कहा नहीं… बस वैसे ही लेटा रहा।

ज़ोया ने एक आख़िरी नज़र डाली उसकी तरफ… और मन ही मन बुदबुदाई —

खड़ूस कही का.... इसी ऐटिटूड के कारण इसकी मासूका ने इसे छोरा होगा... बतमीज़... बगैरत... और कुछ नहीं तो कम से कम नाम ही पूछ लेता....

फिर वो चुपचाप पलटी… और बिना कुछ कहे, कमरे से बाहर जाने लगी....

सिकंदर - रुको.... तुम्हारा नाम क्या है...

ज़ोया के मानो पर निकल आये हो... वो बिना पलटती हुवी बोली - ज़ोया

सिकंदर - बहुत प्यारा नाम है... मुझे सिकंदर कहते है...

ज़ोया - जल्दी चलो खाना ठंडा हो जायेगा







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सिकंदर जब ज़ोया के घर पहुँचा, दरवाज़ा पहले से खुला हुआ था।
अंदर से हलकी सी बातों की आवाज़ें आ रही थीं — एक घरेलू गुनगुनाहट, जिसमें थोड़ी गर्मी थी, थोड़ी तल्ख़ी…

"तुम्हें ज़रा भी अकल नहीं है अली… दिन भर बाइक लेकर गली गली घूमता रहता है!"
ये आवाज़ थी ज़ोया के अब्बू की — हाशिम साहब।

"बस करिए आप भी! मेरा बेटा कोई गलत काम नहीं करता! सारे मोहल्ले में सबसे अच्छा बच्चा है अली!"
ये थी रुखसार बेगम — ज़ोया की अम्मी… जिनकी आवाज़ में बेटे के लिए एक माँ की ढाल थी।

सिकंदर ने जैसे ही घर में कदम रखा, ये मंजर उसके सामने था।
रुखसार अपने बेटे अली के सामने सीना ताने खड़ी थी… उसकी आँखों में सिर्फ एक बात थी — मेरा बेटा ग़लत नहीं हो सकता।

सिकंदर कुछ पल के लिए वहीं दरवाज़े पर खड़ा रह गया।

उसके अंदर कुछ हिला।

"क्या उसने ने कभी इस तरह मेरी तरफ देखा था…?"
"क्या कभी वो किसी के सामने मेरे लिए खड़ी हुई थी…?"
"नहीं… वो तो हमेशा किसी और की माँ बनती रही… मेरे लिए कभी नहीं…"

ज़ोया ने ये सब देखा… वो सब समझ रही थी।
वो सिकंदर की आँखों की नमी भी देख रही थी… और उसकी निगाहों में उफनते सैलाब को भी।



रुखसार अब सिकंदर की तरफ़ मुड़ी।
"अरे आओ बेटा, अंदर आओ… खाना तैयार है, बहुत देर से तुम्हारा इंतज़ार हो रहा है…"

हाशिम साहब ने मुस्कुरा कर कहा,
"हमने सोचा आज तुम्हारा पहला दिन है इस मोहल्ले में… और ऊपर से ये हमरी बेटी जोया के वजह से तुम्हे कल की सुबह ख़राब हो गई.... ( वही भूत वाला कांड).. बेचारी नादान है अभी... माफ़ कर दो इसे.....

उसके अब्बू का जोया को यु बच्ची कहना वो भी सिकंदर के सामने जोया को बिलकुल पसन्द नहीं आया..

जोया - अब्बू मे अब बच्ची नहीं हूँ... 23 साल उम्र है मेरी... ऐसा लग रहा था वो ये बात अपने अब्बू से नहीं सिकंदर से बोल रहे हो....








सिकंदर ने हल्की सी मुस्कान दी… बिलकुल फीकी, पर सच्ची।

अली अब भी चुप था, पर उसकी अम्मी ने उसकी थाली पहले लगा दी थी…
और सिकंदर देख रहा था — माँ का वो स्पर्श… जो थाली में रोटियाँ रखते हुए बेटे के माथे तक पहुंच जाता है।

"खाओ बेटा, घर जैसा ही समझो… और ज़ोया ने बताया तुम फौज मे हो सिकंदर मुस्कराते हुवे बोला - नहीं आंटी मे फौज मे था.... पर वहां से मुझे निकाल दिया गया.....







रुखसार की आवाज़ में अपनापन था, और सिकंदर के लिए… एक अनजानी सी बेचैनी।

सिकंदर ने खुद को रोकते हुए कहा —
"बहुत शुक्रिया… आप सब का…मुझे इंसान समझने के लिए
सब उसकी बातों पर हस परे...

अली - सिकंदर भाई इस ज़ोया की बच्ची ने तो आपको पूरा भूत डिक्लेअर कर दिया था वो तो सुकर है मेरजो मे समझ गया के आप इंसान है...





---



(जिज्ञासु आँखों से):
"भाईजान, सुना है आप Markos में थे? वो तो बहुत ही खतरनाक फोर्स है ना?"

सिकंदर (आँखें झुकाए, गहरे स्वर में):
"अली वहाँ जिंदा रहने का मतलब है रोज़ कुछ ना कुछ मार देना — कभी अपनी नींद, कभी अपना ज़मीर।"

रुक्सार (हौले से):
"तुम बहुत कुछ झेल कर आए हो बेटा... अल्23लाह तुम्हें सुकून दे।"

सिकंदर (हल्की सी कड़वी हँसी):
"सुकून तो वहां कब्र में मिले गा आंटी... हम जैसे लोगों को बस साँसें मिलती हैं, ज़िंदगी नहीं।"

ज़ोया चुपचाप बैठी थी। वो कुछ बोल नहीं रही थी, लेकिन उसके अंदर की हलचल उसकी आँखों से साफ़ झलक रही थी। सायद इस लड़की को सिकंदर से प्यार हो गया था.... पहेली नज़र वाला प्यार...

ज़ोया (मन ही मन):
"क्या हो रहा है मुझे...? क्यों . , उसी की आँखों में डूब जाने को दिल कर रहा है..."

उसने धीरे से नजरें झुका लीं, पर उसका दिल उसकी आँखों से ज़्यादा तेज़ बोल रहा था।

ज़ोया (मन ही मन):
"पागल हो गई है ज़ोया...? किसी अजनबी के लिए ऐसा महसूस करना... ये मोहब्बत नहीं बस आकर्षण ... है ना...? या फिर... अल्23लाह... कहीं मुझे... नहीं!"

ज़ोया (खुद से लड़ती हुई, मन में):
"ख़ुदा का वास्ता ज़ोया, होश में आ! तुझे क्या लगने लगा है... वो तुझसे मोहब्बत करेगा? उसके सीने में मोहब्बत बची ही कहाँ है...? उसकी तो हर बात में दर्द है, और तू उस दर्द से मोहब्बत करने लगी है...?"



हासिम साहब(नज़रों में गहराई लेकर):
"तुम्हारी ख़ामोशी बहुत वजनदार है बेटे तुम जरूर कुछ उससे भी बड़ा करोगे बड़ा करो

सिकंदर हल्का सा मुस्कराया, पर वो मुस्कराहट भी जैसे किसी पुराने ज़ख़्म पर मरहम रखने जैसा था।



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सिकंदर चुपचाप ज़मीन पर बिछी दरी पर बैठ गया।
उसके सामने थाली सजाई गई थी — गरम गरम रोटियाँ, सब्ज़ी, चावल और कटोरी में दाल।
रुखसार ने खुद उसके सामने थाली रखी थी।
"खा लो बेटा… हाथ गरम हैं अभी।"



रुखसार मुस्कुरा दी —
"अब से जब तक यहां हो… बेटा ही रहोगे।"


ज़ोया चुपचाप रसोई के कोने में खड़ी होकर उसे देख रही थी।
सारे घरवाले अपने-अपने बातों में लगे थे… लेकिन ज़ोया की नज़र सिकंदर से हटी ही नहीं।



रुखसार ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा,
"और चाहिए कुछ…?"

सिकंदर ने बस एक मुस्कान दी…
"नहीं… बहुत है…"


"


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सिकंदर अब भी थाली में रखी रोटी को देख रहा है…
पर उसका मन वहां नहीं है —
उसका दिल कहीं और भटक गया है।

Flsahback

सीढ़ी पर सिकंदर दुबका बैठा है,
उसका मुंह सूखा हुआ है, होंठ फटे हुए…
आँखों के नीचे गड्ढे…
पर नज़रें ड्राइंग रूम की उस बड़ी टेबल पर टिकी हैं, जहाँ पूरा खानदान बैठकर खाना खा रहा है।

अलीना — रेशम की साड़ी, गहनों से लदी, चेहरे पर रौब...
सामने उसके पति हसन मिर्ज़ा, सहबाज, अलीना के अब्बू-अम्मी, भाई, भाभियाँ —
सब हँसते हुए खाना खा रहे थे।

सिर्फ एक चेहरा था जो रो नहीं रहा था… लेकिन हर कोई देख सकता था — वो बच्चा अंदर ही अंदर तड़प रहा था।
सिकंदर

उसने एक निवाला मुँह में नहीं गया सुबह से…
पेट में मरोड़ उठ रही थी…
पर दिल को सुकून इस बात का था कि अम्मी पास ही तो बैठी हैं… शायद अभी बुला लें…

अलीना की नज़र एक पल को सिकंदर पर पड़ी…

सिकंदर की आँखें चमक उठीं —
एक मासूम सी उम्मीद लिए…
जैसे उस नजर में छुपा हो रब…

पर…

अलीना ने ठंडी आवाज़ में कहा —
"तू यहीं बैठे रह, आज तुझे खाना नहीं मिलेगा।"

सिकंदर हक्का-बक्का।

"तू बहुत बिगड़ गया है सिकंदर… मेरी अंगूठी चुराई तूने।"

"चोरी भी सीख गया तू… यही सिखाया था मैंने तुझे?"

सिकंदर का चेहरा जैसे पत्थर हो गया।
वो कुछ नहीं बोला…

सहबाज जोर जोर से हसने लगा.... हसन के भी चेहरे पर मुस्कान थी... पर अलीना उसे तो लग रहा था वो ऐसा कर के सिकंदर को सुधार रही है.... उसे ये नहीं दिख रहा था की.. उसके बेटे पर सब हस रहें है.... वो खुद से ही अपने बच्चे को तोर रही है... उसके आत्माविस्वास को तोर रही है... वो उसे बागी बना रही है...

(वापस वर्तमान में)

सिकंदर की आँख से एक आँसू थाली में गिरा।
रुखसार ने देखा… लेकिन कुछ नहीं कहा।
उसने अपने आँचल से उसकी आँखों को पोंछा।
सिर्फ इतना बोली — "बोलो बेटा, नमक ज्यादा तो नहीं?"

सिकंदर मुस्कराया — वो मुस्कान जो सिर्फ दर्द के साथ आती है।
"नहीं आंटी बहुत सही है सब…

दूसरी तरफ ज़ोया, जो ये सब देख रही थी,


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धूप तेज थी, और पुरानी दिल्ली की गलियों में जैसे हमेशा की तरह भीड़-भाड़ थी। तभी एक सफेद रंग की चमचमाती कार, जिसे देखकर ही अंदाजा हो रहा था कि किसी अमीर घर की है, तेज़ी से मुड़ी… और धड़ाक!

"अबे ओ कमीनो!" – राहेल की बाइक ज़मीन पर गिर चुकी थी, और वो खुद अपने दोनों हाथों से सड़क रगड़ते हुए गालियाँ देता उठ रहा था – "दिखाई नहीं देता? क्या आंखों में मूंगफली डाल रखे हो बे

कार से पहले उतरी एक औरत – करीब 45 की उम्र, भारी साड़ी, भारी मेकअप और उससे भी भारी एटीट्यूड। उसके पीछे-पीछे उतरीं उसकी दो जवान बेटियां, जिनके कपड़ों और चेहरे के एक्सप्रेशन से ज़ाहिर था कि ड्रामा इनके डीएनए में है।

"Excuse me?" बड़ी बेटी ने चश्मा उतारते हुए कहा, "तमीज़ नहीं है बात करने की? इतनी ज़ोर से बोलोगे तो रैड कारपेट बिछा के माफ़ी मांग लेंगे क्या?"

राहेल ने खून खौलता हुआ उठाया — "अबे गाड़ी चलाते हो या बुलेट ट्रैन...

"हाय !" औरत ने मुंह पर हाथ रखा, "देखा आजकल के लड़कों को? हमसे टकराए भी, और ऊपर से बदतमीज़ी भी कर रहे हैं!"ये थी नफीसा बेगम पुरानी दिल्ली की रेड लाइट एरिया की मालकिन... पूरी की पूरी रेड लाइट एरिया की ज़मीन इसी की है..पहले ये भी वास्या थी पर अपने बाटियों के होने के बाद इसने धंधा छोड़ दिया पर अब दुसरी औरते धंधा करती है और ये उनकी मालकिन है

छोटी बेटी (छोटे बाल, कानों में बडी सी बाली, ऐटिटूड ऐसा जैसे पूरी सड़क इसकी माँ की हो " नाम है सुहाना) बोली — "मम्मी, clearly इनको attention की सीकर है... बड़ा आया छपरी

राहेल (तेज गुस्से से) — "अबे ओ इंस्टाग्राम की रीलों की औलादों! गलती तुम लोगों की है और भाषण मुझे सुना रही हो? गाड़ी चलानी नहीं आती तो Auto लो ना, Paris Fashion Week में घूमने थोड़़ी आयी हो

बरी बेटी (नाक सिकोड़कर नाम है ईरा) — "मम्मी, police बुलाते हैं। ये लड़का तो literally हमपे चिल्ला रहा है। बहुत toxic vibes हैं!"

"Toxic tere baap ka naam hai kya?" राहेल गुस्से में चीखा — "अबे माफ़ी माँग लो और निकलो यहां से वरना मैं ही बुला लूंगा पुलिस और तुम लोगों के नंबर प्लेट की वीडियो वायरल कर दूंगा, फिर देखना कौन toxic लगता है!"

औरत (नाटकीय तरीके से दोनों बेटियों को पीछे करती हुई) — "चलो बेटा, हम इनके जैसे सड़कछापों से बहस नहीं करते। और सुन लड़के, तुम्हें जो करना है कर ले


राहिल (जब वो चले गये तो पीछे से चिलाते हुवे) सालो दिख मत जाना दुबारा....






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वो सफ़ेद चमचमाती कार पुरानी दिल्ली के एक तंग मोड़ से गुज़री और आकर एक सुनसान गली के कोने पर रुक गई। बाहर से देखने पर ये गली एकदम मामूली सी लगती थी — पर यहां हर कोने में कोई राज छुपा था।

कार से पहले उतरी वही औरत — चेहरे पर अब कोई ड्रामा नहीं था, बल्कि एक सख्त कठोरता थी। उसके पीछे उतरीं उसकी दोनों बेटियाँ, अब उनके चेहरे से नकली मासूमियत और चुलबुलापन गायब था। उनकी आँखों में तेज़ी थी, चाल में एक अलग ही आत्मविश्वास।

"चलो अंदर," औरत ने गाड़ी की चाबी पर्स में डालते हुए कहा, "आज फिर देर हो गई है।

तीनों एक पुराने, बदरंग से बिल्डिंग में दाख़िल हुईं। बाहर बोर्ड पर कुछ नहीं लिखा था, लेकिन जगह-जगह लगे कपड़े, खिड़की से झांकती औरतों की आँखें, और बिल्डिंग से आती सुगंध सब कुछ कह रही थी। ये कोई आम जगह नहीं थी — ये था "वेश्यालय"।

भीतर दाख़िल होते ही, हॉल में लगभग 15-20 औरतें बैठी थीं। कोई पान चबा रही थी, कोई आईने में बाल सवार रही थी, कोई मोबाइल पर किसी ग्राहक से रेट तय कर रही थी। वो औरत — जो कार चला रही थी — यहां की मलक़ा थी। सब उसे "मालकिन" कहती थीं।



बड़ी बेटी ने झल्ला कर कहा — "अम्मी, वो कमीना हमें गालियाँ दे रहा था! हमने उसकी बाइक से हल्की सी टक्कर मारी थी बस... पर वो तो जैसे हमारी औकात बताने पर तुला था!"

"औक़ात?" नासिफा बगम ने ठंडी हँसी हँसी, "औक़ात हम बना भी सकते हैं, और मिटा भी सकते हैं... याद रखना, हमारे पास कौन आता है और किसके साथ क्या होता है — ये हम तय करते हैं। ये लड़के-लड़की हमें सिखाएँगे?"

छोटी बेटी — "अम्मी, अगर वो लड़का फिर सामने आया तो इस बार मैं ही उसका तमाशा बना दूंगी… हम सिर्फ जिस्म नहीं बेचते, दिमाग भी चलाना आता है!"

मलिका ने उनके सिर पर हल्की चपत लगाई — **"तुम दोनों मेरे नाम की इज़्ज़त हो, समझीं? तुम्हें किसी राहेल, साहिल या समीर से डरने की ज़रूरत नहीं।"

( नासिफा बगम ही मलिका है...)

और फिर वो तीनों भीतर चली गईं — उस गली के उस हिस्से में, जहां रात की रौशनी और जिस्मों की सौदागरी दोनों एक साथ दमकती हैं।


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बिल्डिंग के ऊपरी हिस्से में एक छोटा-सा कमरा था। कमरे में हल्की-हल्की रोशनी थी और एक कोने में बिछी गंदी-सी चादर पर एक औरत दर्द से कराह रही थी। उसका चेहरा पसीने से भीगा हुआ था, बाल बिखरे हुए थे। गोद में एक नवजात बच्चा था जो अभी-अभी इस दुनिया में आया था… और उसकी किलकारी एक कोने में टंगी दीवारों को हिला रही थी।

वो औरत — शबनम — काँपते हुए खड़ी हुई और जैसे ही नफ़ीसा बेगम कमरे में दाखिल हुईं, वो दौड़ कर उनके पैरों में गिर पड़ी।

शबन (गिड़गिड़ाती हुई, आँखों से आंसू बहाते हुए):
"बेगम जी… खुदा का वास्ता है, मेरे लाल को मत छीनिए मुझसे… मेरा बेटा है ये… मेरी जान है… इसे अनाथ आश्रम मत भेजिए… मैं इसे काम पर नहीं लगाऊंगी, मैं जो कहोगी करूँगी… लेकिन इसे मुझसे मत छीनो…"

नफ़ीसा बेगम (बिलकुल बर्फ की तरह ठंडी आँखों से उसे घूरते हुए):
"क्यों...? क्या तुझे लगता है तेरा ये बेटा कोई राजा का वारिस है...? औरत, जब मैं चार दिन के अपने बेटे को इस धंधे की खातिर अनाथालय में छोड़ आई थी... तब ना किसी खुदा ने मुझे रोका, ना किसी माई के लाल ने।"

शबन उनके पांव पकड़ कर ज़ोर से रोने लगती है।
"बेगम जी... आप माँ हो... खुद माँ हो कर भी... ऐसा कैसे कर सकती हो...?"

नफ़ीसा बेगम (चीखती है, पैर झटकती है):
"हाँ, माँ हूँ! और माँ ही हूँ, तभी जानती हूँ कि इस धंधे में मर्द सिर्फ लेने आते हैं, देने नहीं। मर्दों का काम सिर्फ हमारे जिस्म को नोचना है, पर इस धंधे में पैदा हुए मर्द किसी काम के नहीं होते। तेरा ये बच्चा मेरे धंधे की किताब में बस एक बोझ है!"

वो झुकती है और शबन के गोद से बच्चा छीन लेती है।
नफ़ीसा बेगम (गुस्से से):
"ये बेटा तुझे कभी नहीं मिलेगा। इसे वहीं भेजा जाएगा जहां और भी धंधे की औलादें पड़ी हैं – अनाथाश्रम। और अगर तुझे ज्यादा दर्द हो रहा है तो अपने जिस्म से ही पूछ, जिसने बिना शराफत के इसे पैदा किया है!"

शबन फूट-फूट कर रोती है। कमरे के बाहर से कुछ और औरतें ये मंज़र चुपचाप देख रही थीं, पर किसी की हिम्मत नहीं थी बोलने की।

एक बुढ़ी औरत (धीरे से बुदबुदाती है):
"नफ़ीसा बेगम... औरत कम... जल्लाद ज़्यादा है... दिल तो इसका कब का मर चुका है।"

कमरे का दरवाज़ा तेज़ आवाज़ के साथ बंद होता है। और शबन की चीखें उस वीरान कमरे की दीवारों में गूँजती रहती हैं…




---



राहिल का घर... रात का वक़्त था। कमरे की लाइटें बुझी हुई थीं बस एक कोने में रखा लैम्प जल रहा था। उसके पीली रौशनी में सिकंदर की आंखें चमक रही थीं — मगर वो चमक किसी उम्मीद की नहीं थी… वो थी एक ऐसे अतीत की जो उसे हर पल तोड़ता जा रहा था।

सिकंदर के हाथ में एक पुरानी सी डीवीडी थी — धूल जमी हुई, किनारे मुड़े हुए। उस पर जले हुए मार्कर से लिखा था:

"Sikander Birth Record."

राहिल (हैरानी से):
"भाई... ये क्या है...? जन्म की रिकॉर्डिंग...?"

सिकंदर ने बिना कुछ कहे डीवीडी को प्लेयर में डाला। टीवी पर पुरानी वीडियो चलने लगी — एक डिलीवरी रूम का दृश्य, डॉक्टर्स, नर्सें, और दर्द में तड़पती हुई एक औरत…

आवाज़ आई — अलीना की चीखों में लिपटी नफ़रत:

"निकालो इसे मेरे शरीर से बाहर...!! निकालो!!
मर क्यों नहीं गया ये…?
तू मर क्यों नहीं गया सिकंदर...?
अल्23लाह! इस बच्चे को उठा लो... सिकंदर को मौत दे दे..!!
इससे अच्छा तो मेरी कोख सूनी रह जाती...!!"

टीवी की स्क्रीन पर नर्सें बच्चे को संभालती हैं, पर अलीना का चेहरा... नफ़रत से भरा हुआ, जैसे उसने कोई शैतान देख लिया हो।

राहिल का मुँह खुला का खुला रह जाता है… उसकी आंखें हैरानी और दर्द से भर जाती हैं।

राहिल (धीरे से, टूटी आवाज़ में):
"ये... ये तेरी माँ थी...? ये औरत...?


सिकंदर खामोश था। उसकी आंखें पथरा चुकी थीं। होंठ सूखे हुए थे। उसने धीरे से अपनी आँखें बंद कीं और अपने माथे को पीछे दीवार से टिका लिया।

सिकंदर (धीमी मगर कांपती आवाज़ में):
उस बदचलन औरत ने मुझसे कभी प्यार ही नहीं किया वो बस मुझसे प्यार करने का दिखावा करती रही... और जब उसे मौका मिला तो उनसने अपने यार और उसके बेटे के सामने अपनी टांगे खोल दी.... रंडी है वो...





उसके लिए मैं बस एक गलती था… एक सज़ा…"

राहिल (आँखें भरकर):
"साला... मेरी माँ भी मुझे नहीं चाहती थी... लेकिन उसने मुझे मारने की बद्दुआ तो नहीं दी…
कम से कम उसने मुझे किसी दरगाह के बाहर छोड़ दिया... ताकि कोई पाल ले।
लेकिन... ये...? ये औरत... ये तो माँ के नाम पर धब्बा है।"

सिकंदर की आंखों से आँसू नहीं निकले... शायद अब निकलते भी नहीं थे। वो रो चुका था — हज़ारों बार — — हर उस दिन, जब उसे भूख लगी, जब वो बीमार पड़ा,

सिकंदर (आहिस्ता से):
"जिस दिन मैंने पहली बार ये वीडियो देखा था ना…
मैं रात भर बस एक ही सवाल करता रहा — ‘मैं क्यों जिंदा हूँ...?’
अगर अल्23लाह को मुझसे इतना ही नफ़रत थी… तो मुझे क्यों भेजा…?"

राहिल (उसका कंधा पकड़ता है):
"भाई... अब बस कर... तेरा वक़्त अब आया है।
अब वो दिन आएंगे जब दुनिया तुझसे पूछेगी —
'तू कौन है सिकंदर?'
और तू मुस्कुराकर कहेगा —
'वो जो मरना चाहता था,

टीवी की स्क्रीन अब ब्लैंक हो गई थी... मगर उस कमरे में सन्नाटा चीख रहा था।
एक बेटे का टूटा बचपन... एक माँ की झूठी ममता... और दो दोस्तों की बीच की वो खामोशी,
जो शब्दों से कहीं ज़्यादा गहरी थी।


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Bhaijaan aisi kya dushmani kya narazgi hai sikandar ki maa ko

Kahani har mod par twist leti hai
Bohot khoob 👍
 

Hamantstar666

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अगला अपडेट कल 2 बजे... आये गा...

Aap sub plzz story padhne ke baad apna revew dena met bhulna.. Bus kuch lines likhne hai.. Mera manobal badhega...

🙏🙏
 
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Hamantstar666

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तेज़ मूसलधार बारिश थी… बादलों की गड़गड़ाहट मानो आसमान को चीर रही थी।
अलीना अपनी काले रंग की कार में थी… ड्राइविंग करते हुए ऑफिस से घर जा रही थी उसके चेहरे पर वो रुतबा, वो ठंडापन बरकरार था—कम से कम बाहर से।

अचानक मोबाइल की स्क्रीन चमकी—
"शहबाज़ कॉलिंग..."

उसने कॉल उठाई।

शहबाज़ (फोन पर):
अम्मी.. मेरे कुछ दोस्त आए हैं आज... सोचा उनके साथ डिनर कर लें... आपको बुरा तो नहीं लगेगा?"

अलीना ने हल्की मुस्कान में जवाब दिया—
"नहीं... क्यों लगेगा?"
लेकिन उस आवाज़ में कहीं कुछ कांपता हुआ छुपा था… जैसे किसी पुराने ज़ख़्म पर बारिश की बूँदें गिर गईं हों।

जैसे ही कॉल कट हुई, उसके ज़हन में वो रात उभर आई—वो रात जो सालों से उसके अंदर पड़ी धूल को हिला कर रख देती थी।


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[फ़्लैशबैक — अतीत]

हवेली की रौनक बढ़ी हुई थी।
शहबाज़ अपने दोस्तों के साथ बैठा हँस रहा था। कुछ लड़कियाँ भी साथ थीं। हवेली के हर कोने में महमानों की हँसी गूंज रही थी।

लड़की:
"आंटी, ये जो ऊपर वाला कमरा है ना… वो बहुत प्यारा है… हम वहीं रुकेंगे।"

अलीना थोड़ा चौंकी, "वो कमरा तो..."
शहबाज़ (झुंझलाकर): "अम्मी प्लीज़! उन्हें अच्छा लगा है… एक ही रात की तो बात है..."

अलीना ने नज़रें झुका लीं…
उसने शहबाज़ के चहरे पर नाराज़गी देखी और खुद को हारते हुए महसूस किया।

"ठीक है… वो कमरा खुलवा दो..."

वो भूल गई थी कि वो कमरा सिकंदर का था… उसका बेटा… उसका मासूम…
पर शहबाज़ का चहरा उतरा हुआ देख उससे देखा नहीं गया।
क्योंकि दूसरों के बच्चों के लिए उसके पास मां जैसी ममता थी… लेकिन सिकंदर...?




वो खामोश बैठा था… दरवाज़े की चौखट के पास, अपने बिस्तर से बेदखल।

न कोई गुस्सा… न कोई सवाल… बस गहरी चुप्पी।
उसकी उम्र तो बस 16 - 17 की थी, पर आँखों में वो ठहराव था जो तज़ुर्बे वाले आदमी की आँखों में होता है।

वो रात… वो पहली रात थी जब सिकंदर ने खुद को बेघर महसूस किया था… अपने ही घर में।

उसने खामोशी से नीचे वाले हॉल में सोफा खींचा... और वहीं लेट गया।

ना रोटी मांगी… ना रज़ाई… बस आंखें बंद कर लीं।

क्योंकि अब उसकी आंखों में सपने नहीं… सन्नाटे थे।
क्योंकि अब उसे समझ आ गया था कि अम्मी की नज़रों में वो सिर्फ़ बोझ है।


फ़्लैशबैक ख़तम-

अलीना की सांसें तेज़ हो गईं।
उसने झटके से ब्रेक मारा और कार को सड़क के किनारे खड़ा किया।

उसका शरीर कांप रहा था… उसने हैंडल को कस के पकड़ा… और जैसे ही अंदर का सैलाब फूटा—

"माफ़ कर दे सिकंदर…!"
"तू तो उस रात एक शब्द भी नहीं बोला… तू चुपचाप नीचे सो गया... और मैं...? मैं कैसे माँ थी.... हाँ अलीना को अपनी गलती का अहसास था.. पर अब.. जब सब कुछ बिखर चूका था... उसका सिकंदर उसे छोड़ कर जा चूका था...

उसका सिर स्टीयरिंग पर झुक गया…
बारिश की बूंदें कार की छत पर पड़ रही थीं… और उसके अंदर की बारिश उसकी आँखों से फूट रही थी।

"मैंने तुझे हर बार किसी और के लिए दरकिनार किया…"
"तेरी मासूमियत को कुचल दिया… तेरी भूख, तेरी नींद, तेरी जगह… सब छीन ली..."

"पर क्या पाया मैंने...? एक खोखली शान? एक झूठा परिवार?"

उसका काजल बह गया था… होंठ कांप रहे थे… और आंखों से निकलता हर आँसू उसकी रूह को चीर रहा था।

"अब तुझसे कहाँ ढूंढ... सिकंदर... मेरे बच्चे... मैं तो तुझे कभी समझ ही नहीं पाई..." मेरी जान अम्मी के पास आजा..

वो बुरी तरह फूट पड़ी…
एक वक़्त की रानी… आज अपनी गलती के आगे रेंग रही थी…

पर जो टूट चुका है… क्या वो दोबारा जुड़ता है?







कार के शीशों पर बेमहर बारिश की बूंदें लगातार गिर रही थीं… लेकिन अलीना के दिल पर जो सैलाब टूटा था, उसका शोर किसी तूफान से कम नहीं था।

वो अब भी ड्राइविंग सीट पर बैठी थी… शरीर कांप रहा था… आँखें सुर्ख़… बाल बिखरे हुए… और चेहरा ऐसा मानो सदियों का पछतावा उस पर उतर आया हो।

अचानक उसने सीने पर हाथ मारकर चीख मारी—

"सिकंदर...!"

"सिकंदर... मेरे लाल... मेरे बच्चे...!"

वो अपने दोनों हाथों से बालों को पकड़कर झुक गई… आँसुओं से भीगी सांसें टूटती चली गईं…

"देख, तेरी अम्मी कैसे टूट रही है तेरे बिना... देख, मैं ज़िंदा लाश बन गई हूँ तेरे बिना.."

"तू तो बस एक बार कह देता ना, 'अम्मी... मत करो ऐसा...'
मैं तो तुझे अपनी जान दे देती रे..."अपना कलेजा निकाल कर तुझे दे देती...

मति मारी गई थी मेरी...जो तुझे देखना भूल गई…"तेरे दर्द को महसूस करना भूल गई...

"कैसे भूल गई मैं कि तेरा भी दिल है… तू भी मेरी कोख से जन्मा है…"

वो अब सीट से झटके से बाहर निकल आई… भीगती हुई कार के सामने घुटनों के बल बैठ गई… सड़क पर कीचड़, पानी, और आँसुओं का घोल था…

"सिकंदर...!"
"मुझे माफ़ कर दे... मेरे लाल... मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई...!"

"तेरे सामने कभी सिर झुका नहीं पाई… लेकिन आज इस मिट्टी में मिलकर तुझे पुकार रही हूँ..."मेरे लाल आजा अपनी अम्मी के पास...

वो ज़ोर से सड़क पर माथा पटक देती है… बार-बार… हर बार उसके शब्दों में एक टूटी हुई माँ की चीख होती है…

"मैं क्यों नहीं समझ पाई कि तू चुप रहकर कितना चीख रहा था..."
"तेरी वो खामोशी आज मेरे कान फाड़ रही है..."

मे भूल गई थी तेरा सबसे ज्यादा हक़ है मेरे प्यार पर..

"दूसरों के लिए मैंने तेरे दिल को कुचल दिया…
तेरे आँसू मेरी आँखों से नहीं गिरे… इसीलिए आज मेरी रूह रो रही है..."

"मैं माँ नहीं थी… मैं गुनहगार थी…!"

वो चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगती है, आसमान की गरज उसके दर्द से हार जाती है…

"सिकंदर... मेरे जिगर के टुकड़े… तू कहा है रे...?
एक बार बस आ जा… मुझे देख ले… मुझे सुना दे अपनी खामोशी..."





वो ज़मीन पर बैठ जाती है… दोनों हाथ आकाश की ओर फैलाए हुए…

"या अल्23लाह... अगर मेरी कोई भी दुआ अब तक बाकी है…
तो बस मुझे एक बार मेरे सिकंदर से मिला दे…"

"उसके पाँव पकड़ लूँगी… अपने गुनाह कुबूल कर लूँगी…
पर मुझे बस एक बार देख लेने दे…बच्चे को..

"मेरा बच्चा अब किस हाल में है… कौन उसे सुलाता है, कौन उसकी थाली सजाता है… किसके सीने से लगकर वो अपने दर्द छुपाता है...!"वो जिन्दा भी है या नहीं.. कहीं उसने खुद को ख़तम तो नहीं कर लिया..

अलीना अब थक चुकी है… आँखें सूज चुकी हैं…
लेकिन उसका दिल अब भी धड़क रहा है—सिर्फ़ सिकंदर के लिए.. या किसी और के लिए भी..

बारिश थम गई है… लेकिन उसके आँसू अब भी बह रहे हैं




भीगी हुई, कांपती हुई, बिखरी सांसों के साथ अलिना जैसे-तैसे अपने बंगले के गेट तक पहुंचती है। गेट खुलता है, नौकर दौड़ कर आता है—

"बेगम साहिबा...? ये क्या हाल बना रखा है आपने..?!"

अलिना कुछ नहीं कहती… उसकी आंखें लाल हैं, चेहरा सूजा हुआ, बाल भीगे हुए उसके चेहरे से चिपक रहे हैं… वो बिना किसी को देखे अंदर की ओर चल देती है।

ड्रॉइंग रूम में पहुंचते ही सामने हसन मिर्ज़ा बैठा होता है — सफेद कुर्ता, चेहरे पर गुरूर और आँखों में वो आग, जो सिर्फ़ तब जलती है जब इज़्ज़त नाम और रुतबे को अहम्येत दी जाए।

हसन मिर्ज़ा उठता हैं… और जैसे ही अलिना को उस हालत में देखता हैं… उसके चेहरे का रंग बदल जाता है।

"क्या हाल बना रखा है तुमने अपना अलिना?!"

अलिना थक चुकी होती है… उसका चेहरा नीचे झुका होता है… पर उसकी आंखों से फिर से पानी गिरने लगता है।

हसन की आवाज़ और ऊँची हो जाती है —
"कहीं किसी ने देख लिया होता इस हालत में…!? क्या सोचते लोग? क्या कहते मेरे बारे में!? कि मेरी बीवी सड़कों पर यूँ फिर रही है!?"अब तुम एक नवाब की बीवी हो...



"इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाती हमारी! हमारे नाम का तमाशा बन जाता!"

अलिना चौंक कर उसे देखती है… उसके चेहरे पर किसी फिक्र नहीं थी कि वो क्यों रोई, या उसके दिल पर क्या गुज़री… उसे बस अपनी 'इज़्ज़त' की चिंता थी…

"तो क्या कर लेती मैं हसन...?!"
"बोलो! किससे कहती कि मेरा दिल फट रहा है… किसे बताती कि मैंने अपने बेटे को खो दिया… और अब पछतावे के सिवा कुछ नहीं बचा!"

"तुम्हें मेरी तकलीफ से कोई फर्क नहीं पड़ता… तुम्हें फर्क पड़ता है कि लोग क्या कहेंगे!"

हसन उसकी बातों को अनसुना करता है… और झल्ला कर पास की मेज़ पर रखी चीज़ें गिरा देता है।

अलीना मेने तुम्हे बताया है... उस नाज़ायज़ के लिए कहीं तुम्हे तलाक ना देना परे मुझे...तुम्हारे आँसू मेरी कमजोरी नहीं बनेंगे, अलिना!"

अलीना धक् से रह जाती है.. तलाक.... ये शब्द उसे सबसे ज्यादा डरती है... क्योंकि वो जानती है — वो अपनी गलती की सज़ा अभी भी भुगत रही है…और वो दुसरी गलती कर के हसन और सहबाज को नहीं खो सकती...

कई बार सज़ा देने वाले खुद गुनहगार से ज़्यादा बेरहम होते हैं…

और हसन मिर्ज़ा की आँखों में मोहब्बत नहीं, सिर्फ रुतवा था एक नवाब का रुतवा




अलीना भीगी साड़ी में, कांपते होंठों और लाल आँखों के साथ बिस्तर के किनारे बैठी है। कमरे की रौशनी मद्धम है... बाहर अब भी बारिश की हल्की फुहार चल रही है। कमरे का माहौल चुप और भारी है।

दरवाज़ा धीरे से खुलता है... अम्मी और भाभी अंदर आती हैं। अम्मी सीधे जाकर उसके पास बैठ जाती हैं, उसकी भीगी हुई हथेलियाँ अपने हाथों में लेती हैं।

अम्मी (धीरे से):
"कितनी बार कहा है इतना मत सोचा कर जो होना था हो गया,
वो तो चला गया तुझे छोड़ कर पर अब जो तेरे पास है उसकी कदर कर... अब सहबाज ही तेरा बेटा है... उसी मे वो प्यार ढूंढ...

अलीना बस चुप है... उसकी आँखों से आंसू टपक रहे हैं, पर आवाज़ नहीं निकल रही।

भाभी (हौले से मुस्कुराते हुए, पर बात में कांटें):
"अरे अम्मी मिल तो रहा है बेटे का प्यार हमारी अलीना को.. देख नहीं रही कैसे सहबाज सिकंदर की जगह लेने की पूरी कोशिस कर रहा है..


अलीना - ये तुम क्या बोल रही हो भाभी...मेरे सिकंदर का जगह कोई नहीं ले सकता... मेरी सो जान कुर्बान मेरे लाल पर...

भाभी (आँखे घुमाते हुवे )
ये तो कहने की बातें है अलीना... मुझे जो दिखा मेने बोल दिया... भाभी की ये ताने अलीना के दिल के टुकड़े कर रहा था... पर उसके पास अपने बचाव के लिए शब्द नहीं थे... सायद भाभी सही बोल रही थी..

अम्मी घूर कर भाभी की तरफ़ देखती हैं।

अम्मी (कठोरता से):
"बस कर...जो होना था हो गया...

भाभी (थोड़ा झेंपते हुए, फिर भी धीमे स्वर में):
"मैं तो बस इतना कह रही थी… जो बीज बोया गया था, अब वही फल सामने है।"

अलीना एक गहरी सांस लेकर उठती है... आँखों में हज़ार सवाल, हज़ार पछतावे।



अम्मी (उसके सिर पर हाथ फेरते हुए):
"अभी कुछ नहीं गया है बेटी... मोहब्बत की दुआ देर से सही, पर कबूल हो सकती है।"


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तेज़ मूसलाधार बारिश हो रही है। एक बड़ी, चमचमाती SUV सड़क के किनारे बंद खड़ी है। बोनट खुला है, और उसमें झुकी हुई हैं — इरा और सुहाना। दोनों के बाल भीग चुके हैं और चेहरों पर चिढ़ साफ़ झलक रही है।

इरा (फोन हवा में हिलाते हुए, खीझ के साथ):
"उफ्फ़... नेटवर्क तक नहीं आ रहा! हम कोई जंगल में आ गए हैं क्या?"

सुहाना (हाथ देखती हुई, मुँह बनाकर):
"दीदी, इस गाड़ी ने तो मेरी नेलपॉलिश ही खराब कर दी। और ऊपर से स्टार्ट भी नहीं हो रही!"

इरा (झल्ला कर):
"तू ही तो कह रही थी 'दीदी ये वाला मॉडल लो, इंटीरियर इम्पोर्टेड है'... अब भुगतो इंपोर्टेड कार का attitude!"

(तभी दूर से एक बाइक स्लो होती है… उस पर बैठा है राहिल — बाल बिखरे हुए, हल्की सी मुस्कान, आंखों में शरारत और दिल में swag। बाइक साइड में लगाता है।)

राहिल (बाइक से उतरते हुए, हल्की मुस्कान के साथ): अरे ये दोनों तो वही ऐटिटूड की दुकान है ना.. आज लगता है इनकी BMW ऐटिटूड देखा रही है....सायद आज इनकी छमयां माँ नहीं है इनके साथ.... चल भाई राहिल मज़े लेते है...

राहिल (बोनट की तरफ बढ़ते हुए):
"क्या दिक्कत है मैडम लोगो? लगता है गाड़ी ने भी आप दोनों से रुठने का मन बना लिया है!"

इरा (नाक चढ़ाते हुए):
"तुम? पीछा कर रहें हो हमारा....

राहिल (शरारती हँसी के साथ):
"पीछा ओ मैडम मे इस इलाके का डॉन हूँ.... बहु-प्रतिभाशाली ग़रीब लड़का हूँ… गाड़ी भी ठीक कर देता हूँ, और दिल भी!"

सुहाना (अकड़ के):
"दीदी, हमें इस छापरी से हेल्प लेने की ज़रूरत नहीं है.. सकल से ही लफंगा लगता है....

राहिल (बोनट खोलते हुए, चुलबुले अंदाज़ में):
"मेरे मदद नहीं लोगी तो पूरी रात यही गुजारनी पड़ेगी....

(वो कुछ वायर छूता है, घूमा-फिरा कर गाड़ी स्टार्ट कर देता है।)

इरा (थोड़ा हैरान होकर):
"ह्म्म... ठीक है, थैंक यू। अब जाओ यहाँ से..

राहिल (हँसते हुए):
"पैसे-वैसे नहीं चाहिए मैडम, आप लोगों का attitude ही बहुत है…

सुहाना (शीशा नीचे करके):
"हमारे घर का पता लिख लो — साउथ एवेन्यू, हाउस नंबर 102… कल आ जाना पैसे ले जाना....

राहिल (हाथ जोड़ते हुए, नाटकीय अंदाज़ में):
"अरे वाह! मैडम की टिप भी VIP स्टाइल की!"

इरा (तेज आवाज़ में):
"कल दस बजे आना, नौकर को नाम बता देना — 'राहिल, रोडसाइड छापरी...

(दोनों हँसते हुए गाड़ी में बैठती हैं, और कार स्टार्ट कर निकल जाती है… लेकिन मोड़ पर जाते वक़्त सुहाना का ब्रांडेड बैग पीछे गिर जाता है…)

राहिल (चिल्लाते हुए):
"अरे मैडम! आपका बैग गिर गया!!"

(वो बैग उठाता है, उसकी ब्रांडेड चेन और perfume की खुशबू महसूस करता है…)

राहिल (मुस्कुराते हुए, खुद से):
"अब तो कल जाना ही पड़ेगा… पैसे लेने नहीं… ऐटिटूड देखने..






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राहिल, हाथ मे गिरा हुआ बैग लिए, हल्की मुस्कान के साथ आगे बढ़ता है। लेकिन उसके चेहरे पर अब seriousness भी है। वो सीधे सिकंदर के घर पहुंचता है, दरवाज़ा खटखटाता है।

सिकंदर दरवाज़ा खोलता है।

सिकंदर (थोड़ा हैरानी से):
"इतनी बारिश में? सब ठीक तो है?"

राहिल (भीतर आता है, कपड़े झाड़ते हुए):
"सब झकास है भाई… पर जो होने वाला है, वो सुनकर तेरा दिल धड़क जाएगा!"

सिकंदर (थोड़ा मुस्कुराते हुए):
"अबे सीधा बोल, दिल की धड़कन बाद में बढ़ाना… बात क्या है?"

तभी दरवाज़ा फिर से खुलता है और साद — एजेंट ( ये वही है जिसने सिकंदर को घर दिलाया था जिसने पहली अपडेट पढ़ी है उसे पाता होगा) अंदर आता है। उम्र करीब 30, चाल में तेज़ी और आँखों में चालाकी। ये वही एजेंट है जिनसे सिकंदर को घर दिलाया था..

राहिल (दोनों की तरफ देखते हुए, फुसफुसाते अंदाज़ में):
"भाई अगले हप्ते की जुम्मे की रात… मुंबई से दिल्ली एक ट्रक आ रहा है… ट्रक में क्या है पता है?"

सिकंदर:
"क्या?"

राहिल (धीरे से, आंखें चमकाते हुए):
"सोने की ईंटें… साढ़े तीन करोड़ का माल!"

साद (आगे बढ़ता है):
"इनसाइड इन्फॉर्मेशन पक्की है… ट्रक किसी प्राइवेट डीलर का है, लेकिन no protection। रास्ते में हम लोग उसे रोक सकते हैं… और फिर…"

राहिल (बात काटते हुए):
"…और फिर हम होंगे मालामाल! समझा? ज़िंदगी भर की struggle खत्म!"

सिकंदर (थोड़ा सोचते हुए, धीरे से):
"इतना बड़ा रिस्क?"

राहिल (सिकंदर के कंधे पर हाथ रखकर):
"भाई… ये कोई चुराया हुआ ख्वाब नहीं… ये मौका है… और तुझे याद है ना — जितना पैसा उतना ताकत… और ताकत होगी तो तेरा बाप, अब्दुल रहमान, चाहे सात समंदर पार भी हो… उसे खींच लाएंगे!"

साद:
"तू फैसला कर, हम ready हैं… कल रात से ही बायपास रोड पर रेखी सुरु कर देंगे...



सिकंदर (गहरी साँस लेते हुए):
"ठीक है… मैं तैयार हूँ!"उसको पैसो की जरुरत थी.. वो बाप को ढूंढ़ना था.. उससे सच जानना था.. अलीना ने जो उसे उसके बाप के बारे मे बताया था वो अब उन बातों पर यकीन नहीं करता था....और कहीं ना कहीं वो अपने बाप से अपना रिश्ता कायम करना चाहता था... वो जनता था की अलीना इस दुनयाँ मे सबसे ज्यादा नफरत अब्दुल रहमान के करती है...




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अब राहिल और साद जा चुके थे..
रात का दूसरा पहर था। बाहर मूसलधार बारिश, बिजली की कड़क और सड़कों पर छप-छप करती पानी की आवाजें माहौल को और भारी बना रही थीं।
सिकंदर अपने कमरे में गहरी नींद में था। पास ही रखे रेडियो से हल्की आवाज में एक पुराना गाना चल रहा था:

“हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफ़िर की तरह…”

कमरे के बाहर एक छोटी सी लालटेन जल रही थी, और हवाएं उसके लौ को कभी झुका देतीं, कभी बुझा देतीं।

बाहर का माहौल:
कुछ लोगों की तेज़ चिल्लाहटें और धमकियाँ सुनाई देने लगीं।

गुंडा #1 (ऊँची आवाज़ में):
“सुना है नहीं तुने? ये ज़मीन अब तेरी नहीं रही, समझा? एक हफ़्ते में खाली कर दो वरना सामान के साथ शरीर भी उठेगा!”

गुंडा #2:
“ये मुस्ताक़ साहब ( अलीना के कंपनी का CEO जिसने पहले के अपडेस पड़े होंगे उसे पता होगा ये क्या माजरा है)का हुक्म है… ये झुग्गी और तुम्हारी ये सोसाइटी अब रहमतनगर नहीं, प्रोजेक्ट साइट है!”

भीड़ में से कोई:
“क़ानून से डर नहीं लगता क्या तुम लोगों को?”

गुंडा #1 (हँसते हुए):
“क़ानून? वो तो हमारी जेब में है..

तभी हाशिम साहब,( जोया के अब्बू) गरिमा और इज़्ज़त वाले इंसान, छतरी लिए सामने आते हैं। उनकी चाल धीमी लेकिन आँखों में बिलकुल डर नहीं था...

हाशिम साहब (गंभीर आवाज़ में):
“बस करो! ये लोग मज़लूम हैं… यहाँ सालों से रह रहे हैं। तुम कौन होते हो हमें बेघर करने वाले?”

गुंडा #3 (उसे धक्का देता है):
मादरचोद... तुझे नेता बनने का ज्यादा सौख है....

हाशिम साहब लड़खड़ाते हैं लेकिन डटे रहते हैं:
“जब तक मे जिन्दा हूँ तब तक तुम मेरी ज़मीन नहीं ले सकते!”हमने अपने खून पसीने से इस घर को खीरीदा है..

गुंडा गुस्से में आकर उनके पेट में घूंसा मारता है, फिर एक के बाद एक लातें… हाशिम साहब ज़मीन पर गिर पड़ते हैं।

भीड़ चीखने लगती है।

रुक्सार, जो अभी तक घर के अंदर थी, चिल्लाते हुए बाहर दौड़ती है।

रुक्सार (कांपती हुई, गीली साड़ी में):
“हाशिम! या अल्23लाह… हाशिम!!”

अली, गुस्से में भीगता हुआ दौड़ता है पर दो गुंडे उसे पकड़ लेता हैं।

अली (चीखते हुए):
“छोड़ो मुझे हरामियों! सालों मेरे अब्बू को मारता है... मादरचोदो...

ज़ोया (आंसुओं से चेहरा भीगा हुआ), डरते हुए दौड़ती है, और ज़मीन पर गिर पड़े अब्बू को बाहों में भरती है।

ज़ोया (थरथराती आवाज़ में):
“अब्बू… अब्बू… कुछ बोलिए… कुछ तो बोलिए…”

गुंडा #2:
“कहा ना… निकलो यहाँ से! वरना सबके साथ यही होगा!”

भीड़ खामोश… डर और बेबसी का माहौल… कोई कुछ कह नहीं पा रहा…

और वहीं दूसरी ओर, सिकंदर के कमरे में सब शांत… सिर्फ वो पुराना गाना अब भी चल रहा है...

“दिल में कुछ खोए हुए लम्हों की कसक लेकर आए हैं…”

सिकंदर अभी तक नींद में है… लेकिन एक तूफ़ान उसके दरवाज़े तक आ पंहुचा था...
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हाशिम साहब अभी भी ज़मीन पर पड़े तड़प रहे थे, रुक्सार उनके सिर को गोद में रखे काँप रही थी, ज़ोया की आँखों से बहते आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।

तभी… ज़ोया की आँखों में बिजली सी चमकती है।

ज़ोया (काँपती हुई, दबी आवाज़ में):
“अली… अली! सिकंदर को बुला… भाग… जल्दी जा...

अली, जो अब तक डरा और टूटा हुआ था… एकदम खड़ा हो गया। जैसे किसी ने उसके अंदर दोबारा जान भर दी हो।

अली (जोश में चीखते हुए):
“हाँ… हाँ बाज़ी! मैं उन्हें लेकर आता हूँ!”

वो बिना रुके बारिश में भीगता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ने लगा… हर कदम के साथ उसका डर पिघलता गया, और हिम्मत उबलती गई।

अली (भागते हुए, चिल्लाता है):
“सिकंदर भाई!!! भाई जल्दी चलो… मेरे अब्बू को मार देंगे...

वो पूरी जान से सिकंदर के दरवाज़े पर हाथ मारने लगा अंदर धीमी रौशनी, रेडियो अब भी चल रहा था…

दरवाज़ा खुलता है…
सिकंदर, आधी नींद में, आँखें नीली आँखे... घूंग्राले बाल बिखरे हुए… सामने अली को देखता है जो फूट-फूटकर रो रहा है।

सिकंदर (धीमे पर भारी आवाज़ में):
“क्या हुआ?”

अली (हिचकते हुए):
“वो… कुछ डकैत … अब्बू… अब्बू को बहुत मारा… भाई जल्दी चलो वरना—”

अभी अली की बात पूरी भी नहीं होती कि सिकंदर दरवाज़े को जोर से बंद करता है, और बिना एक सेकेंड सोचे, तीसरी मंज़िल से छलांग लगा देता है…
ज़ोर की धमाकेदार आवाज़ आती है… पानी के छींटे चारों तरफ उड़ते हैं।

मोहल्ले वाले, ज़ोया, रुक्सार – सब सन्न…
ये आदमी कौन है?

गुंडे, जो अब तक हँसी उड़ाकर सबको धमका रहे थे, सिकंदर को देखते ही उनके चेहरे उतर जाते हैं।

गुंडा #1 (धीमे में):
“अबे... अबे ये कौन है बे? भूत है क्या? तीसरी मंज़िल से कूदा और कुछ नहीं हुआ…”

गुंडा #2:
“कोनो सनकी लागत है भैया....

सिकंदर धीरे-धीरे आगे बढ़ता है, आंखें लाल, चेहरा गुस्से से भरा… उसकी साँसे तेज़…

सिकंदर (गुंडों की तरफ बढ़ते हुए, भारी आवाज़ में हासिम साहब के तरफ इसरा करते हुवे)
“किसने हाथ लगाया रे मादरचोध...

गुंडा #3 (बोलने की कोशिश करता है):
“हमने लगाया रे हरामखोर...

सिकंदर (गर्दन टेढ़ी करके, आग उगलती नज़रों से):
“चुप… तेरी माँ की…चुत मादरचोदो... कसम खु*दा की कुत्ता बना दूंगा आज तुम सब को

गुंडा #1 (गुस्से में):
“देख क्या रहें हो भरवाओ मारो साले को...

(अभी वो बात पूरी करता, उससे पहले…)

सिकंदर का पहला पंच उसके जबड़े पर पड़ता है… सीधा पाँच फीट दूर जा गिरता है।

एक और गुंडा आता है, सिकंदर घुटना मारता है सीने में… खून की उल्टी वहीं ज़मीन पर गिरती है।

गुंडा #2 (पीछे हटते हुए):
“अबे भागो… भागो बे.... मुस्ताख साहब ने इसके पैसे नहीं दिए है...



भीड़ में सन्नाटा… पर हर चेहरा चौंकता है… डरता है… और फिर — चुपचाप देखने लगता है कि मोहल्ले का सबसे शांत रहने वाला लड़का आज आग बन चुका है...

गुंडे एक-एक कहैं। कुछ लंगड़ाते हुए, कुछ खून से लथपथ…

सिकंदर, खून से सना हुआ, सीधा हाशिम साहब के पास आता है। ज़ोया अब तक रो रही थी।

सिकंदर (धीरे से ज़ोया से):
“अस्पताल ले चलो इन्हे...


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बारिश अब थम चुकी थी…
माहौल में एक अजीब सी खामोशी थी…
गली की सड़कों पर पानी की बूंदें टपक रही थीं…
मगर अलीना इस वक़्त उस दुनिया में थी… जहाँ दर्द नहीं था… बस एक अधूरी मोहब्बत का साया था।

कमरे में हल्की सी रोशनी थी… खिड़की से आती ठंडी हवा उसके चेहरे को छू रही थी।
अलीना बिस्तर पर लेटी हुई थी… मगर उसकी आँखें बंद थीं… और माथे पर शिकन थी।

वो गहरी नींद में थी…
और तभी—
एक हल्की सी मासूम सी आवाज़ उसके कानों से टकराई।

“अम्मी…”

अलीना की साँस जैसे एक पल को थम गई हो…
उसने धीरे-धीरे पलकों को खोला… और खुद को एक अजीब सी जगह पर पाया।
सामने धुंध थी… और धुंध के बीच से एक छोटा बच्चा उसकी तरफ बढ़ रहा था।

उस बच्चे की आँखें नीली थीं… उसकी मुस्कान किसी फ़रिश्ते जैसी… घुंघराले बाल, सफ़ेद कुर्ता और मासूम चेहरा…

बच्चा (धीरे से):
“अम्मी… तुमने मुझे छोड़ दिया..?
“क्या मैं इतना बुरा हूँ अम्मी?

अलीना की आँखों में आंसू भर आए…मानो उसका कालेजा फट गया हो वो नीचे झुक कर उसका चेहरा थामती है… काँपते होठों से बोलती है…

अलीना (टूटती आवाज़ में):
“नहीं… नहीं मेरी जान… तू मेरी रूह का हिस्सा है … मेरा ख्वाब… मेरा सबसे हसीन सपना…है तू.. मैं तुझे कैसे छोड़ सकती हूँ…”
“मेरे नसीब ने तुझे मुझसे छीन लिया…”

बच्चा उसकी उंगली थाम लेता है… उसकी मासूम हथेली अलीना की काँपती उंगलियों में समा जाती है।

बच्चा (धीमी आवाज़ में, उदास लहजे में):
“तो फिर आपने क्यों मेरी तरफ देखा भी नहीं?
सिर्फ सज़ा दे दी… बिना मेरी गलती के…”

अलीना की चीख सी निकलती है—

अलीना:
“बस करो… मेरी जान बस करो…
मुझे मत अम्मी मर जाये गी...
मैं हर रोज़ मरती हूँ…
हर साँस तुझसे दूर होकर मेरे लिए ज़हर बन गई है…”

बच्चा उसकी गोद में बैठ जाता है… और एक आखिरी बार उसे देखता है।

बच्चा:
“आपने अपने सिकंदर को मार दिया अम्मी...


अलीना उसकी ओर बढ़ती है, उसे सीने से लगाना चाहती है… मगर तभी वो बच्चा धुंध में गायब होने लगता है।

अलीना (चिल्ला कर):
“रुको!! मत जाओ… मेरी जान… मेरी लाल … सिकंदर मेरी जान... वापस आ जा...

मगर अब वहां सिर्फ धुंध थी… और उसकी गोदी खाली…

अलीना की चीख से उसकी नींद टूटती है।
वो हड़बड़ा कर उठती है… उसका बदन पसीने से भीगा होता है… और आँखों से लगातार आंसू बह रहे होते हैं।

अलीना (दम घुटी सी आवाज़ में, खुद से):
“क्या मेरा बच्चा… सच मे मर गया है.. क्या मेने उसे मार दिया... मेरी वजह से सिकंदर मर चूका है...


अपना revew देना ना भूले.... मेरे लिए आपके राय.. और आपका प्यार सबसे अहम् है..... मेरी आप सब से बिनती है के स्टोरी से रिलेटेड दो लाइन जरूर लिखें...
 

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Maja aa gayaa...tum kamal ke writer ho mere bhai ....aab dekhan hai ye rahil aur teno maa bete ka kyaa sence hai ....
 
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