कमरा धूप से झुलसा हुआ था... दीवारों पर पुरानी सीलन के निशान थे, और छत से घूमता पंखा पुराने वक्त की तरह चर्र-चर्र की आवाज़ कर रहा था।
सिकंदर कमरे में दाख़िल हुआ। थकान उसके चेहरे पर नहीं, उसकी रूह में थी। वो चुपचाप आकर बिस्तर पर लेट गया। कमरा शांत था... सिवाय उस रेडियो के, जो कोने में पड़ा था और धुंधली आवाज़ में एक पुराना गीत बजा रहा था...
"सहारे छिनने वालों, ज़रा सोचो क्या किया तुमने...
किसी का वजूद मिटाया है, किसी की ज़िन्दगी छीनी..."
गाने की ये पंक्तियाँ कमरे में गूंज रही थीं, और सिकंदर की आँखें छत के पंखे पर टिकी थीं... लेकिन उसके ज़हन में कोई और चेहरा था — अलीना का चेहरा। उसकी माँ।
"कितना प्यार करता था तुझसे... माँ कहते ही दिल सुकून पा लेता था, और तूने उस सुकून को भी बेच दिया..." — वो मन ही मन बुदबुदाया।
गाने की अगली लाइनें जैसे उसकी तकलीफ का बयान बन गई थीं...
"जो प्यार माँगता था, उसे जख़्मी कर डाला..."
उसकी आँखों में अलीना की झलकें दौड़ने लगीं —
वो सुबह जब उसकी आँखे अलीना के बांहों मे खुलती थी
फिर
वो रातें, जब भूखा सो गया क्योंकि माँ ने दरवाज़ा नहीं खोला...
वो जन्मदिन, जब अलीना के पास वक्त नहीं था उसकी जन्मदिन को मानाने का.. क्यों की सहबाज का कॉलेज
का पहला दिन था और अलीना को उस दिन को यादगार बनाना था... इसी सब मे वो सिकंदर के जन्मदिन को भूल गयी थी...
और फिर वो दिन, जब उसने किसी और को ‘बेटा’ कहकर पुकारा... सहबाज।
उसके गले में कुछ अटक गया था, जैसे कोई भारी पत्थर हो जो बोलने नहीं दे रहा।
"तूने मेरी जगह किसी और को दे दी,
"कभी दिल से पूछा होता, मैं क्या चाहता हूँ...
बस एक बार देख लेती, मेरी आँखों में कितनी शिकायतें थी तुझसे..."
गाना अब आखिरी पंक्तियाँ कह रहा था...
"कभी चाहा नहीं जाना, कभी जाना तो ठुकराया..."
सिकंदर ने करवट ली, और अपने हाथ से मुँह ढक लिया।
आँखों से आंसू नहीं बह रहे थे, पर उसकी रूह बिलकुल भीगी हुई थी।
पंखा घूम रहा था... जैसे वक्त घूम रहा हो, मगर कुछ भी नहीं बदलता।
और रेडियो... अब भी गुनगुना रहा था...
‘किसी की ज़िन्दगी छीनी... किसी का दर्द छिना है
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कमरे में अब भी वही सन्नाटा पसरा था… रेडियो की आवाज़ कुछ देर पहले ही बंद हुई थी, लेकिन कमरे की हवा में अब भी वही उदासी तैर रही थी।
सिकंदर बिस्तर पर वैसे ही पड़ा था — जैसे कोई टूटी हुई चीज़ जिसे अब उठाने वाला कोई ना हो।
तभी दरवाज़ा हल्के से खुला।
ज़ोया अंदर आई।( ये वही लड़की है जिसने सिकंदर को भूत समझ लिया था... जिसने फर्स्ट अपडेट पढ़ी होगी उसे पाता होगा)
वो थम गई। उसकी नज़र सबसे पहले सिकंदर पर पड़ी।
वो चुप था… बिस्तर पर पड़ा, छत को एकटक घूरता हुआ।
ज़ोया के क़दम खुद-ब-खुद धीमे हो गए। वो कुछ कहना चाहती थी, पर जैसे आवाज़ उसके होंठों से बाहर ही न आ सकी।
(ज़ोया के दिल की आवाज़)
क्या हुवा है इसे....लग रहा है, ये तो अंदर से मर चूका है
... ऐसा क्यों मासूस कर रही हूँ मे इसे देखकर....
वो कुछ और पास आई।
"कितनी गहरी खामोशी है इसमें… पर इन आंखों में… कितना तूफान है… ऐसा लगता है जैसे इसके अंदर कोई ज़ोर-ज़ोर से चीख रहा हो, पर वो चीख बाहर तक नहीं पहुंच पा रही..."
किसने तोड़ा इसको? किसने छीन लिया इससे सबकुछ?" क्या ये प्यार मे धोका खाया हुवा कोई आशिक है
ज़ोया का कलेजा भीगने लगा। पर उसने अपने आंसू रोक लिए।
इसके अंदर कुछ और है… कुछ अधूरा, कुछ टूटा हुआ… जो दुनिया को दिखाना नहीं चाहता...
वही सिकंदर इस से अनजान था की एक प्यारी सी लड़की उसके इतने पास आकर खड़ी है और उसके दिल मे झाकने की कोशिस कर रही है..
लेकिन कुछ ही वक्त मे सिकंदर ने ये समझ लिया उसके कमरे मे कोई और भी है.... वो मुर कर देखता है... दोनों की नज़रे मीलते है...
सिकंदर - ओह्ह्ह तुम हो.... तुम्हे कुछ चाहिए...
ज़ोया उसके अचानक खुद के तरफ देखने से आवाक रह गई..
उसने खुद को थोड़ा संभाला…और नज़रे चुराते हुवे धीरे-धीरे बहुत नर्म आवाज़ में बोली:
नीचे खाना लगा है...अम्मी ने भेजा है तुम्हें बुलाने के लिए..."
सिकंदर ने उसकी ओर देखा, पर कुछ कहा नहीं… बस वैसे ही लेटा रहा।
ज़ोया ने एक आख़िरी नज़र डाली उसकी तरफ… और मन ही मन बुदबुदाई —
खड़ूस कही का.... इसी ऐटिटूड के कारण इसकी मासूका ने इसे छोरा होगा... बतमीज़... बगैरत... और कुछ नहीं तो कम से कम नाम ही पूछ लेता....
फिर वो चुपचाप पलटी… और बिना कुछ कहे, कमरे से बाहर जाने लगी....
सिकंदर - रुको.... तुम्हारा नाम क्या है...
ज़ोया के मानो पर निकल आये हो... वो बिना पलटती हुवी बोली - ज़ोया
सिकंदर - बहुत प्यारा नाम है... मुझे सिकंदर कहते है...
ज़ोया - जल्दी चलो खाना ठंडा हो जायेगा
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सिकंदर जब ज़ोया के घर पहुँचा, दरवाज़ा पहले से खुला हुआ था।
अंदर से हलकी सी बातों की आवाज़ें आ रही थीं — एक घरेलू गुनगुनाहट, जिसमें थोड़ी गर्मी थी, थोड़ी तल्ख़ी…
"तुम्हें ज़रा भी अकल नहीं है अली… दिन भर बाइक लेकर गली गली घूमता रहता है!"
ये आवाज़ थी ज़ोया के अब्बू की — हाशिम साहब।
"बस करिए आप भी! मेरा बेटा कोई गलत काम नहीं करता! सारे मोहल्ले में सबसे अच्छा बच्चा है अली!"
ये थी रुखसार बेगम — ज़ोया की अम्मी… जिनकी आवाज़ में बेटे के लिए एक माँ की ढाल थी।
सिकंदर ने जैसे ही घर में कदम रखा, ये मंजर उसके सामने था।
रुखसार अपने बेटे अली के सामने सीना ताने खड़ी थी… उसकी आँखों में सिर्फ एक बात थी — मेरा बेटा ग़लत नहीं हो सकता।
सिकंदर कुछ पल के लिए वहीं दरवाज़े पर खड़ा रह गया।
उसके अंदर कुछ हिला।
"क्या उसने ने कभी इस तरह मेरी तरफ देखा था…?"
"क्या कभी वो किसी के सामने मेरे लिए खड़ी हुई थी…?"
"नहीं… वो तो हमेशा किसी और की माँ बनती रही… मेरे लिए कभी नहीं…"
ज़ोया ने ये सब देखा… वो सब समझ रही थी।
वो सिकंदर की आँखों की नमी भी देख रही थी… और उसकी निगाहों में उफनते सैलाब को भी।
रुखसार अब सिकंदर की तरफ़ मुड़ी।
"अरे आओ बेटा, अंदर आओ… खाना तैयार है, बहुत देर से तुम्हारा इंतज़ार हो रहा है…"
हाशिम साहब ने मुस्कुरा कर कहा,
"हमने सोचा आज तुम्हारा पहला दिन है इस मोहल्ले में… और ऊपर से ये हमरी बेटी जोया के वजह से तुम्हे कल की सुबह ख़राब हो गई.... ( वही भूत वाला कांड).. बेचारी नादान है अभी... माफ़ कर दो इसे.....
उसके अब्बू का जोया को यु बच्ची कहना वो भी सिकंदर के सामने जोया को बिलकुल पसन्द नहीं आया..
जोया - अब्बू मे अब बच्ची नहीं हूँ... 23 साल उम्र है मेरी... ऐसा लग रहा था वो ये बात अपने अब्बू से नहीं सिकंदर से बोल रहे हो....
सिकंदर ने हल्की सी मुस्कान दी… बिलकुल फीकी, पर सच्ची।
अली अब भी चुप था, पर उसकी अम्मी ने उसकी थाली पहले लगा दी थी…
और सिकंदर देख रहा था — माँ का वो स्पर्श… जो थाली में रोटियाँ रखते हुए बेटे के माथे तक पहुंच जाता है।
"खाओ बेटा, घर जैसा ही समझो… और ज़ोया ने बताया तुम फौज मे हो सिकंदर मुस्कराते हुवे बोला - नहीं आंटी मे फौज मे था.... पर वहां से मुझे निकाल दिया गया.....
रुखसार की आवाज़ में अपनापन था, और सिकंदर के लिए… एक अनजानी सी बेचैनी।
सिकंदर ने खुद को रोकते हुए कहा —
"बहुत शुक्रिया… आप सब का…मुझे इंसान समझने के लिए
सब उसकी बातों पर हस परे...
अली - सिकंदर भाई इस ज़ोया की बच्ची ने तो आपको पूरा भूत डिक्लेअर कर दिया था वो तो सुकर है मेरजो मे समझ गया के आप इंसान है...
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(जिज्ञासु आँखों से):
"भाईजान, सुना है आप Markos में थे? वो तो बहुत ही खतरनाक फोर्स है ना?"
सिकंदर (आँखें झुकाए, गहरे स्वर में):
"अली वहाँ जिंदा रहने का मतलब है रोज़ कुछ ना कुछ मार देना — कभी अपनी नींद, कभी अपना ज़मीर।"
रुक्सार (हौले से):
"तुम बहुत कुछ झेल कर आए हो बेटा... अल्23लाह तुम्हें सुकून दे।"
सिकंदर (हल्की सी कड़वी हँसी):
"सुकून तो वहां कब्र में मिले गा आंटी... हम जैसे लोगों को बस साँसें मिलती हैं, ज़िंदगी नहीं।"
ज़ोया चुपचाप बैठी थी। वो कुछ बोल नहीं रही थी, लेकिन उसके अंदर की हलचल उसकी आँखों से साफ़ झलक रही थी। सायद इस लड़की को सिकंदर से प्यार हो गया था.... पहेली नज़र वाला प्यार...
ज़ोया (मन ही मन):
"क्या हो रहा है मुझे...? क्यों . , उसी की आँखों में डूब जाने को दिल कर रहा है..."
उसने धीरे से नजरें झुका लीं, पर उसका दिल उसकी आँखों से ज़्यादा तेज़ बोल रहा था।
ज़ोया (मन ही मन):
"पागल हो गई है ज़ोया...? किसी अजनबी के लिए ऐसा महसूस करना... ये मोहब्बत नहीं बस आकर्षण ... है ना...? या फिर... अल्23लाह... कहीं मुझे... नहीं!"
ज़ोया (खुद से लड़ती हुई, मन में):
"ख़ुदा का वास्ता ज़ोया, होश में आ! तुझे क्या लगने लगा है... वो तुझसे मोहब्बत करेगा? उसके सीने में मोहब्बत बची ही कहाँ है...? उसकी तो हर बात में दर्द है, और तू उस दर्द से मोहब्बत करने लगी है...?"
हासिम साहब(नज़रों में गहराई लेकर):
"तुम्हारी ख़ामोशी बहुत वजनदार है बेटे तुम जरूर कुछ उससे भी बड़ा करोगे बड़ा करो
सिकंदर हल्का सा मुस्कराया, पर वो मुस्कराहट भी जैसे किसी पुराने ज़ख़्म पर मरहम रखने जैसा था।
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सिकंदर चुपचाप ज़मीन पर बिछी दरी पर बैठ गया।
उसके सामने थाली सजाई गई थी — गरम गरम रोटियाँ, सब्ज़ी, चावल और कटोरी में दाल।
रुखसार ने खुद उसके सामने थाली रखी थी।
"खा लो बेटा… हाथ गरम हैं अभी।"
रुखसार मुस्कुरा दी —
"अब से जब तक यहां हो… बेटा ही रहोगे।"
ज़ोया चुपचाप रसोई के कोने में खड़ी होकर उसे देख रही थी।
सारे घरवाले अपने-अपने बातों में लगे थे… लेकिन ज़ोया की नज़र सिकंदर से हटी ही नहीं।
रुखसार ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा,
"और चाहिए कुछ…?"
सिकंदर ने बस एक मुस्कान दी…
"नहीं… बहुत है…"
"
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सिकंदर अब भी थाली में रखी रोटी को देख रहा है…
पर उसका मन वहां नहीं है —
उसका दिल कहीं और भटक गया है।
Flsahback
सीढ़ी पर सिकंदर दुबका बैठा है,
उसका मुंह सूखा हुआ है, होंठ फटे हुए…
आँखों के नीचे गड्ढे…
पर नज़रें ड्राइंग रूम की उस बड़ी टेबल पर टिकी हैं, जहाँ पूरा खानदान बैठकर खाना खा रहा है।
अलीना — रेशम की साड़ी, गहनों से लदी, चेहरे पर रौब...
सामने उसके पति हसन मिर्ज़ा, सहबाज, अलीना के अब्बू-अम्मी, भाई, भाभियाँ —
सब हँसते हुए खाना खा रहे थे।
सिर्फ एक चेहरा था जो रो नहीं रहा था… लेकिन हर कोई देख सकता था — वो बच्चा अंदर ही अंदर तड़प रहा था।
सिकंदर
उसने एक निवाला मुँह में नहीं गया सुबह से…
पेट में मरोड़ उठ रही थी…
पर दिल को सुकून इस बात का था कि अम्मी पास ही तो बैठी हैं… शायद अभी बुला लें…
अलीना की नज़र एक पल को सिकंदर पर पड़ी…
सिकंदर की आँखें चमक उठीं —
एक मासूम सी उम्मीद लिए…
जैसे उस नजर में छुपा हो रब…
पर…
अलीना ने ठंडी आवाज़ में कहा —
"तू यहीं बैठे रह, आज तुझे खाना नहीं मिलेगा।"
सिकंदर हक्का-बक्का।
"तू बहुत बिगड़ गया है सिकंदर… मेरी अंगूठी चुराई तूने।"
"चोरी भी सीख गया तू… यही सिखाया था मैंने तुझे?"
सिकंदर का चेहरा जैसे पत्थर हो गया।
वो कुछ नहीं बोला…
सहबाज जोर जोर से हसने लगा.... हसन के भी चेहरे पर मुस्कान थी... पर अलीना उसे तो लग रहा था वो ऐसा कर के सिकंदर को सुधार रही है.... उसे ये नहीं दिख रहा था की.. उसके बेटे पर सब हस रहें है.... वो खुद से ही अपने बच्चे को तोर रही है... उसके आत्माविस्वास को तोर रही है... वो उसे बागी बना रही है...
(वापस वर्तमान में)
सिकंदर की आँख से एक आँसू थाली में गिरा।
रुखसार ने देखा… लेकिन कुछ नहीं कहा।
उसने अपने आँचल से उसकी आँखों को पोंछा।
सिर्फ इतना बोली — "बोलो बेटा, नमक ज्यादा तो नहीं?"
सिकंदर मुस्कराया — वो मुस्कान जो सिर्फ दर्द के साथ आती है।
"नहीं आंटी बहुत सही है सब…
दूसरी तरफ ज़ोया, जो ये सब देख रही थी,
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धूप तेज थी, और पुरानी दिल्ली की गलियों में जैसे हमेशा की तरह भीड़-भाड़ थी। तभी एक सफेद रंग की चमचमाती कार, जिसे देखकर ही अंदाजा हो रहा था कि किसी अमीर घर की है, तेज़ी से मुड़ी… और धड़ाक!
"अबे ओ कमीनो!" – राहेल की बाइक ज़मीन पर गिर चुकी थी, और वो खुद अपने दोनों हाथों से सड़क रगड़ते हुए गालियाँ देता उठ रहा था – "दिखाई नहीं देता? क्या आंखों में मूंगफली डाल रखे हो बे
कार से पहले उतरी एक औरत – करीब 45 की उम्र, भारी साड़ी, भारी मेकअप और उससे भी भारी एटीट्यूड। उसके पीछे-पीछे उतरीं उसकी दो जवान बेटियां, जिनके कपड़ों और चेहरे के एक्सप्रेशन से ज़ाहिर था कि ड्रामा इनके डीएनए में है।
"Excuse me?" बड़ी बेटी ने चश्मा उतारते हुए कहा, "तमीज़ नहीं है बात करने की? इतनी ज़ोर से बोलोगे तो रैड कारपेट बिछा के माफ़ी मांग लेंगे क्या?"
राहेल ने खून खौलता हुआ उठाया — "अबे गाड़ी चलाते हो या बुलेट ट्रैन...
"हाय !" औरत ने मुंह पर हाथ रखा, "देखा आजकल के लड़कों को? हमसे टकराए भी, और ऊपर से बदतमीज़ी भी कर रहे हैं!"ये थी नफीसा बेगम पुरानी दिल्ली की रेड लाइट एरिया की मालकिन... पूरी की पूरी रेड लाइट एरिया की ज़मीन इसी की है..पहले ये भी वास्या थी पर अपने बाटियों के होने के बाद इसने धंधा छोड़ दिया पर अब दुसरी औरते धंधा करती है और ये उनकी मालकिन है
छोटी बेटी (छोटे बाल, कानों में बडी सी बाली, ऐटिटूड ऐसा जैसे पूरी सड़क इसकी माँ की हो " नाम है सुहाना) बोली — "मम्मी, clearly इनको attention की सीकर है... बड़ा आया छपरी
राहेल (तेज गुस्से से) — "अबे ओ इंस्टाग्राम की रीलों की औलादों! गलती तुम लोगों की है और भाषण मुझे सुना रही हो? गाड़ी चलानी नहीं आती तो Auto लो ना, Paris Fashion Week में घूमने थोड़़ी आयी हो
बरी बेटी (नाक सिकोड़कर नाम है ईरा) — "मम्मी, police बुलाते हैं। ये लड़का तो literally हमपे चिल्ला रहा है। बहुत toxic vibes हैं!"
"Toxic tere baap ka naam hai kya?" राहेल गुस्से में चीखा — "अबे माफ़ी माँग लो और निकलो यहां से वरना मैं ही बुला लूंगा पुलिस और तुम लोगों के नंबर प्लेट की वीडियो वायरल कर दूंगा, फिर देखना कौन toxic लगता है!"
औरत (नाटकीय तरीके से दोनों बेटियों को पीछे करती हुई) — "चलो बेटा, हम इनके जैसे सड़कछापों से बहस नहीं करते। और सुन लड़के, तुम्हें जो करना है कर ले
राहिल (जब वो चले गये तो पीछे से चिलाते हुवे) सालो दिख मत जाना दुबारा....
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वो सफ़ेद चमचमाती कार पुरानी दिल्ली के एक तंग मोड़ से गुज़री और आकर एक सुनसान गली के कोने पर रुक गई। बाहर से देखने पर ये गली एकदम मामूली सी लगती थी — पर यहां हर कोने में कोई राज छुपा था।
कार से पहले उतरी वही औरत — चेहरे पर अब कोई ड्रामा नहीं था, बल्कि एक सख्त कठोरता थी। उसके पीछे उतरीं उसकी दोनों बेटियाँ, अब उनके चेहरे से नकली मासूमियत और चुलबुलापन गायब था। उनकी आँखों में तेज़ी थी, चाल में एक अलग ही आत्मविश्वास।
"चलो अंदर," औरत ने गाड़ी की चाबी पर्स में डालते हुए कहा, "आज फिर देर हो गई है।
तीनों एक पुराने, बदरंग से बिल्डिंग में दाख़िल हुईं। बाहर बोर्ड पर कुछ नहीं लिखा था, लेकिन जगह-जगह लगे कपड़े, खिड़की से झांकती औरतों की आँखें, और बिल्डिंग से आती सुगंध सब कुछ कह रही थी। ये कोई आम जगह नहीं थी — ये था "वेश्यालय"।
भीतर दाख़िल होते ही, हॉल में लगभग 15-20 औरतें बैठी थीं। कोई पान चबा रही थी, कोई आईने में बाल सवार रही थी, कोई मोबाइल पर किसी ग्राहक से रेट तय कर रही थी। वो औरत — जो कार चला रही थी — यहां की मलक़ा थी। सब उसे "मालकिन" कहती थीं।
बड़ी बेटी ने झल्ला कर कहा — "अम्मी, वो कमीना हमें गालियाँ दे रहा था! हमने उसकी बाइक से हल्की सी टक्कर मारी थी बस... पर वो तो जैसे हमारी औकात बताने पर तुला था!"
"औक़ात?" नासिफा बगम ने ठंडी हँसी हँसी, "औक़ात हम बना भी सकते हैं, और मिटा भी सकते हैं... याद रखना, हमारे पास कौन आता है और किसके साथ क्या होता है — ये हम तय करते हैं। ये लड़के-लड़की हमें सिखाएँगे?"
छोटी बेटी — "अम्मी, अगर वो लड़का फिर सामने आया तो इस बार मैं ही उसका तमाशा बना दूंगी… हम सिर्फ जिस्म नहीं बेचते, दिमाग भी चलाना आता है!"
मलिका ने उनके सिर पर हल्की चपत लगाई — **"तुम दोनों मेरे नाम की इज़्ज़त हो, समझीं? तुम्हें किसी राहेल, साहिल या समीर से डरने की ज़रूरत नहीं।"
( नासिफा बगम ही मलिका है...)
और फिर वो तीनों भीतर चली गईं — उस गली के उस हिस्से में, जहां रात की रौशनी और जिस्मों की सौदागरी दोनों एक साथ दमकती हैं।
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बिल्डिंग के ऊपरी हिस्से में एक छोटा-सा कमरा था। कमरे में हल्की-हल्की रोशनी थी और एक कोने में बिछी गंदी-सी चादर पर एक औरत दर्द से कराह रही थी। उसका चेहरा पसीने से भीगा हुआ था, बाल बिखरे हुए थे। गोद में एक नवजात बच्चा था जो अभी-अभी इस दुनिया में आया था… और उसकी किलकारी एक कोने में टंगी दीवारों को हिला रही थी।
वो औरत — शबनम — काँपते हुए खड़ी हुई और जैसे ही नफ़ीसा बेगम कमरे में दाखिल हुईं, वो दौड़ कर उनके पैरों में गिर पड़ी।
शबन (गिड़गिड़ाती हुई, आँखों से आंसू बहाते हुए):
"बेगम जी… खुदा का वास्ता है, मेरे लाल को मत छीनिए मुझसे… मेरा बेटा है ये… मेरी जान है… इसे अनाथ आश्रम मत भेजिए… मैं इसे काम पर नहीं लगाऊंगी, मैं जो कहोगी करूँगी… लेकिन इसे मुझसे मत छीनो…"
नफ़ीसा बेगम (बिलकुल बर्फ की तरह ठंडी आँखों से उसे घूरते हुए):
"क्यों...? क्या तुझे लगता है तेरा ये बेटा कोई राजा का वारिस है...? औरत, जब मैं चार दिन के अपने बेटे को इस धंधे की खातिर अनाथालय में छोड़ आई थी... तब ना किसी खुदा ने मुझे रोका, ना किसी माई के लाल ने।"
शबन उनके पांव पकड़ कर ज़ोर से रोने लगती है।
"बेगम जी... आप माँ हो... खुद माँ हो कर भी... ऐसा कैसे कर सकती हो...?"
नफ़ीसा बेगम (चीखती है, पैर झटकती है):
"हाँ, माँ हूँ! और माँ ही हूँ, तभी जानती हूँ कि इस धंधे में मर्द सिर्फ लेने आते हैं, देने नहीं। मर्दों का काम सिर्फ हमारे जिस्म को नोचना है, पर इस धंधे में पैदा हुए मर्द किसी काम के नहीं होते। तेरा ये बच्चा मेरे धंधे की किताब में बस एक बोझ है!"
वो झुकती है और शबन के गोद से बच्चा छीन लेती है।
नफ़ीसा बेगम (गुस्से से):
"ये बेटा तुझे कभी नहीं मिलेगा। इसे वहीं भेजा जाएगा जहां और भी धंधे की औलादें पड़ी हैं – अनाथाश्रम। और अगर तुझे ज्यादा दर्द हो रहा है तो अपने जिस्म से ही पूछ, जिसने बिना शराफत के इसे पैदा किया है!"
शबन फूट-फूट कर रोती है। कमरे के बाहर से कुछ और औरतें ये मंज़र चुपचाप देख रही थीं, पर किसी की हिम्मत नहीं थी बोलने की।
एक बुढ़ी औरत (धीरे से बुदबुदाती है):
"नफ़ीसा बेगम... औरत कम... जल्लाद ज़्यादा है... दिल तो इसका कब का मर चुका है।"
कमरे का दरवाज़ा तेज़ आवाज़ के साथ बंद होता है। और शबन की चीखें उस वीरान कमरे की दीवारों में गूँजती रहती हैं…
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राहिल का घर... रात का वक़्त था। कमरे की लाइटें बुझी हुई थीं बस एक कोने में रखा लैम्प जल रहा था। उसके पीली रौशनी में सिकंदर की आंखें चमक रही थीं — मगर वो चमक किसी उम्मीद की नहीं थी… वो थी एक ऐसे अतीत की जो उसे हर पल तोड़ता जा रहा था।
सिकंदर के हाथ में एक पुरानी सी डीवीडी थी — धूल जमी हुई, किनारे मुड़े हुए। उस पर जले हुए मार्कर से लिखा था:
"Sikander Birth Record."
राहिल (हैरानी से):
"भाई... ये क्या है...? जन्म की रिकॉर्डिंग...?"
सिकंदर ने बिना कुछ कहे डीवीडी को प्लेयर में डाला। टीवी पर पुरानी वीडियो चलने लगी — एक डिलीवरी रूम का दृश्य, डॉक्टर्स, नर्सें, और दर्द में तड़पती हुई एक औरत…
आवाज़ आई — अलीना की चीखों में लिपटी नफ़रत:
"निकालो इसे मेरे शरीर से बाहर...!! निकालो!!
मर क्यों नहीं गया ये…?
तू मर क्यों नहीं गया सिकंदर...?
अल्23लाह! इस बच्चे को उठा लो... सिकंदर को मौत दे दे..!!
इससे अच्छा तो मेरी कोख सूनी रह जाती...!!"
टीवी की स्क्रीन पर नर्सें बच्चे को संभालती हैं, पर अलीना का चेहरा... नफ़रत से भरा हुआ, जैसे उसने कोई शैतान देख लिया हो।
राहिल का मुँह खुला का खुला रह जाता है… उसकी आंखें हैरानी और दर्द से भर जाती हैं।
राहिल (धीरे से, टूटी आवाज़ में):
"ये... ये तेरी माँ थी...? ये औरत...?
सिकंदर खामोश था। उसकी आंखें पथरा चुकी थीं। होंठ सूखे हुए थे। उसने धीरे से अपनी आँखें बंद कीं और अपने माथे को पीछे दीवार से टिका लिया।
सिकंदर (धीमी मगर कांपती आवाज़ में):
उस बदचलन औरत ने मुझसे कभी प्यार ही नहीं किया वो बस मुझसे प्यार करने का दिखावा करती रही... और जब उसे मौका मिला तो उनसने अपने यार और उसके बेटे के सामने अपनी टांगे खोल दी.... रंडी है वो...
उसके लिए मैं बस एक गलती था… एक सज़ा…"
राहिल (आँखें भरकर):
"साला... मेरी माँ भी मुझे नहीं चाहती थी... लेकिन उसने मुझे मारने की बद्दुआ तो नहीं दी…
कम से कम उसने मुझे किसी दरगाह के बाहर छोड़ दिया... ताकि कोई पाल ले।
लेकिन... ये...? ये औरत... ये तो माँ के नाम पर धब्बा है।"
सिकंदर की आंखों से आँसू नहीं निकले... शायद अब निकलते भी नहीं थे। वो रो चुका था — हज़ारों बार — — हर उस दिन, जब उसे भूख लगी, जब वो बीमार पड़ा,
सिकंदर (आहिस्ता से):
"जिस दिन मैंने पहली बार ये वीडियो देखा था ना…
मैं रात भर बस एक ही सवाल करता रहा — ‘मैं क्यों जिंदा हूँ...?’
अगर अल्23लाह को मुझसे इतना ही नफ़रत थी… तो मुझे क्यों भेजा…?"
राहिल (उसका कंधा पकड़ता है):
"भाई... अब बस कर... तेरा वक़्त अब आया है।
अब वो दिन आएंगे जब दुनिया तुझसे पूछेगी —
'तू कौन है सिकंदर?'
और तू मुस्कुराकर कहेगा —
'वो जो मरना चाहता था,
टीवी की स्क्रीन अब ब्लैंक हो गई थी... मगर उस कमरे में सन्नाटा चीख रहा था।
एक बेटे का टूटा बचपन... एक माँ की झूठी ममता... और दो दोस्तों की बीच की वो खामोशी,
जो शब्दों से कहीं ज़्यादा गहरी थी।
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